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भारत के वित्तीय क्षेत्र में सुधार

Lokesh Pal May 29, 2025 05:00 26 0

संदर्भ:

निरंतर सुधारों के बावजूद, भारत में बैंकिंग, वित्तीय सेवाएँ और बीमा (BFSI) क्षेत्र अभी भी संरचनात्मक अक्षमताओं और सामाजिक विश्वास के अभाव जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है।

  • कॉर्पोरेट बॉन्ड बाज़ार, सेवानिवृत्ति योजना साधन, बीएफएसआई (BFSI) में नामांकन प्रक्रियाओं और बढ़ती शैडो बैंकिंग की समस्या जैसे क्षेत्रों में व्यापक और गहन संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है।

बीएफएसआई (BFSI) क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ:

  • नामांकन संबंधी भ्रम: बीएफएसआई (BFSI) के विभिन्न क्षेत्रों (बैंक, म्यूचुअल फंड, बीमा) में नामांकन से संबंधित नियम असंगत हैं।
    •  नामांकित व्यक्ति के अधिकारों बनाम कानूनी उत्तराधिकारी के दावों को लेकर स्पष्टता के अभाव में, कोई समन्वित नामांकन संरचना मौजूद नहीं है
  • कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार संकट:
    •  कम गहराई, कम मात्रा और तरलता की कमी: सीमित भागीदारी से बाजार की गहराई और प्रभावी मूल्य निर्धारण बाधित होता है।
    •  अपारदर्शी ट्रेडिंग: पारदर्शिता की कमी निवेशकों को हतोत्साहित करती है और उनके प्रति विश्वास को कम करती है।
    •  उपेक्षित सेकेंडरी बाजार: RBI के सेकेंडरी बॉन्ड मार्केट को विकसित करने के निर्देश को नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) ने नजरअंदाज किया, क्योंकि इक्विटी ट्रेडिंग बॉन्ड की तुलना में वह अधिक मुनाफा देती है।
    •  पूंजी की उच्च लागत: बॉन्ड बाजार की अक्षमता से उधार लेने की लागत 2-3% अधिक बनी रहती है, जिससे उद्योग और रोजगार दोनों को ही नुकसान होता है।
  • स्वामित्व संबंधी पारदर्शिता और एफएटीएफ (FATF):
    •  यूबीओ (UBO) की कमियाँ: भारत, एक एफएटीएफ (FATF) सदस्य के रूप में, पूंजी प्रवाह में पारदर्शिता के लिए प्रतिबद्ध है, जिसमें अल्टिमेट बेनिफिशियल ओनर्स (UBOs) की पहचान भी शामिल है, लेकिन इसे लागू करने में विलंब होता है।
      • अल्टिमेट बेनिफिशियल ओनर्स (UBOs) से तात्पर्य उन प्राकृतिक व्यक्तियों से है जो अंततः किसी कानूनी इकाई के मालिक या नियंत्रक होते हैं (आमतौर पर 25% या उससे अधिक हिस्सेदारी), चाहे वह स्वामित्व मध्यस्थों की कई परतों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से ही क्यों न हो।
    •  पारदर्शी विदेशी निवेश: सेबी (SEBI) को विदेशी निवेशकों (जैसे, एलारा, वेस्पेरा) से शेयरधारक डेटा प्राप्त करने में कठिनाई होती है, जिससे निगरानी प्रभावित होती है और नियामक कार्रवाई में भी विलंब होता है।
    •  प्रकटीकरण सीमाओं में खामियाँ: भारत की वर्तमान यूबीओ (UBO) प्रकटीकरण सीमाएँ (कंपनियों के लिए 10% और साझेदारी के लिए 15% जबकि एफएटीएफ (FATF) की आवश्यकता 25% है) ऐसी खामियाँ उत्पन्न करती हैं जिनका उपयोग संस्थाएं अपने निवेश को इन सीमाओं के ठीक नीचे संरचित करने के लिए करती हैं, जिससे पहचान से बचा जा सके
  • सेवानिवृत्ति योजना की समस्याएँ:
    •  वार्षिकी का प्रभुत्व: अधिकांश भारतीय सेवानिवृत्ति योजनाएँ वार्षिकी पर निर्भर करती हैं, जिनमें बीमा कंपनियों से उच्च मध्यस्थता शुल्क (अक्सर ~ 2%) लिया जाता है
      • यहाँ तक कि बीएफएसआई (BFSI) क्षेत्र के युवा पेशेवरों के पास भी प्रभावी सेवानिवृत्ति उपकरणों तक पहुँच का अभाव है।
    •  जीरो-कूपन सरकारी बॉन्ड: वार्षिकी के लिए बेहतर विकल्प जीरो कूपन सरकारी बॉन्ड की सुविधा हैं। ये लंबी अवधि वाले, स्ट्रिप्ड सिक्योरिटीज़ कम लागत, अनुमानित रिटर्न प्रदान करते हैं और सेवानिवृत्ति लक्ष्यों के लिए आदर्श हैं।
      •  30 वर्षों में 2% शुल्क से बचना भारी बचत लाभ प्रदान करता है
    •  सरकार ने बड़े पैमाने पर सेवानिवृत्ति उत्पाद अभी तक लॉन्च नहीं किए हैं
  • शैडो बैंकिंग के जोखिम:
    •  विनियामक ब्लाइंड स्पॉट: गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ (NBFCs), मार्जिन ऋणदाता, रेपो ट्रेडर्स और ब्रोकर्स बैंक जैसी सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं, लेकिन उन पर पूर्ण नियामक निगरानी लागू नहीं होती है
    •  उच्च जोखिम से युक्त ऋण प्रथाएँ: ब्रोकर्स निवेशकों को 20% से अधिक की प्रभावी ब्याज दर पर मार्जिन फंडिंग प्रदान करते हैं, और अधिकांश मामलों में निवेशकों को इसकी जानकारी तक नहीं होती है।
    •  अस्पष्ट संपार्श्विक व्यवहार: ब्रोकर निवेशक की जमा की गई राशि को गिरवी रखकर, उसी राशि को दोबारा उन्हें उधार देते हैं और संपूर्ण राशि पर ब्याज वसूलते हैं। हालांकि यह शैडो बैंकिंग की एक पारंपरिक और भ्रामक रणनीति है।

सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण सुझाव

  • समन्वित नामांकन संरचना: बैंकों, म्यूचुअल फंडों और बीमा क्षेत्रों में एक समन्वित नामांकन संरचना विकसित की जानी चाहिए, जिसमें नामांकित व्यक्ति के अधिकारों और कानूनी वारिस के दावों के बीच स्पष्टता हो, ताकि कानूनी अस्पष्टता और लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों से बचा जा सके।
  • संरचनात्मक सुधार: पूंजी की लागत को कम करने और औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार के विकास हेतु गहन संरचनात्मक सुधार लागू किए जाने चाहिए।
  • अल्टिमेट बेनिफिशियल ओनर्स (UBO) प्रकटीकरण: प्रकटीकरण की सीमाओं को कम किया जाए और विस्तृत शेयरधारक जानकारी अनिवार्य की जाए, ताकि व्यवस्था में व्याप्त खामियों को दूर किया जा सके और स्वामित्व पारदर्शिता पर एफएटीएफ (FATF) के 2022 यूबीओ (UBO) के दिशानिर्देशों का पालन सुनिश्चित किया जा सके
  • सॉवरेन इंस्ट्रूमेंट्स: सेवानिवृत्ति योजना के एक विकल्प के रूप में लंबी अवधि की ज़ीरो-कूपन सरकारी प्रतिभूतियों को बढ़ावा दिया जाए, ताकि वार्षिकी आधारित उत्पादों के उच्च मध्यस्थता मार्जिन से बचा जा सके।
  • शैडो बैंकिंग का विनियमन: उन एनबीएफसी (NBFCs), मार्जिन ऋणदाताओं और ब्रोकर्स की गतिविधियों को चिन्हित करने के लिए एक समग्र डेटा-संग्रह पहल प्रारंभ की जानी चाहिए, जो बिना पूर्ण नियामकीय निगरानी के बैंक जैसी सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं।
  • सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाना: भारत को शैडो बैंकिंग गतिविधियों पर समग्र डेटा एकत्र करने के लिए कानून बनाकर यूरोपीय संघ (EU) की नीतियों का अनुसरण करना चाहिए।

निष्कर्ष:

भारत को पारदर्शिता, निवेशकों के विश्वास और दीर्घकालिक विकास सुनिश्चित करने के लिए संरचनात्मक वित्तीय सुधारों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

 मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

प्रश्न. भारत के कॉर्पोरेट बॉन्ड बाज़ार के सामने आने वाली चुनौतियों का विश्लेषण कीजिए। इसके साथ ही यह सुझाव दीजिए कि लक्षित वित्तीय क्षेत्र के सुधारों के माध्यम से इस बाज़ार को कैसे सुदृढ़ किया जा सकता है ताकि सतत आर्थिक विकास को समर्थन मिल सके।

(10 अंक, 150 शब्द)

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