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न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में सुधार

Lokesh Pal September 02, 2024 05:15 202 0

संदर्भ :

हाल ही में विभिन्न उच्च न्यायालयों में 60 लाख से अधिक मामले लंबित होने एवं 30% न्यायिक पद रिक्त होने के कारण न्यायिक नियुक्तियों का मुद्दा पुनः चर्चा में आया है। तकनीकी रूप से लंबित मामलों की उच्च मात्रा के साथ, अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक ठोस प्रयास आवश्यक है। हालाँकि इस दबावयुक्त गहन आवश्यकताओं के बावजूद, न्यायिक रिक्तियाँ बनी हुई हैं, जिससे समस्या और बढ़ रही है।

भारत में न्यायिक नियुक्ति प्रणाली (कॉलेजियम प्रणाली) का विकास 

  • प्रथम न्यायाधीश मामला (फर्स्ट जजेज केस) : एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ मामले (1981) में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायिक नियुक्तियों में ‘परामर्श’ शब्द का तात्पर्य केवल ‘विचारों के परामर्श’ से है, न कि ‘विचारों की सहमति’ से। इस प्रकार राष्ट्रपति न्यायपालिका की सिफारिशों से बाध्य नहीं है और स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकता है। इस निर्णय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में ‘कार्यकारी सर्वोच्चता’ स्थापित की, जिससे केंद्र सरकार को इन नियुक्तियों में प्राथमिक अधिकार प्राप्त हुआ।
  • द्वितीय न्यायाधीश मामला (सेकेंड जजेज केस) : द्वितीय न्यायाधीश मामले ने 1993 में कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की। इसने निर्णय दिया कि मुख्य न्यायाधीश को न्यायिक नियुक्तियों पर सर्वोच्च न्यायालय में अपने दो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों के कॉलेजियम से परामर्श करना होगा। न्यायालय ने कहा कि कॉलेजियम की ऐसी ‘सामूहिक राय’ सरकार पर प्राथमिकता होगी।
  • तीसरा न्यायाधीश मामला (थर्ड जजेज केस) : तीसरा न्यायाधीश मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि कॉलेजियम प्रणाली के लिए कई न्यायाधीशों से परामर्श की आवश्यकता होती है। यह निर्धारित किया गया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के कॉलेजियम से परामर्श करना चाहिए। तब से, नियुक्तियों के लिए कॉलेजियम प्रणाली लागू है।

कॉलेजियम प्रणाली :  यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है, जो संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधानों के माध्यम से नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के आधार पर विकसित हुई है।

कॉलेजियम प्रणाली की चुनौतियाँ

  • पारदर्शिता का अभाव : कॉलेजियम के केवल पाँच सदस्य ही न्यायिक नियुक्तियों पर निर्णय लेते हैं, उनके निर्णयों के लिए कोई स्पष्ट आधार नहीं दिया जाता है, जिसमें अन्य उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के कारण भी शामिल हैं।
  • जवाबदेही का अभाव : कभी-कभी नियुक्त न्यायाधीश अस्पष्ट बयान और निर्णय देते हैं, जिससे कॉलेजियम प्रणाली की जवाबदेही संबंधी चिंताएँ जन्म लेती हैं।
  • भाई-भतीजावाद : भाई-भतीजावाद का एक उच्च स्तर है, जिसमें केवल कुछ ही परिवार बार-बार न्यायाधीश बनते हैं। निम्न पृष्ठभूमि के व्यक्ति शायद ही कभी शीर्ष न्यायालयों में पहुँच पाते हैं। उदाहरणस्वरूप भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, एक प्रतिष्ठित कानूनी पृष्ठभूमि वाले परिवार से आते हैं। उनके पिता न्यायमूर्ति वाई. वी. चंद्रचूड़ ने भी भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC)

  • NJAC की स्थापना : 2014 में न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार के लिए 99वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2014 द्वारा NJAC की स्थापना की गई थी। एनजेएसी का उद्देश्य उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन हेतु कॉलेजियम प्रणाली को बदलकर सुव्यवस्थित नियुक्ति प्रक्रिया को स्थापित करना था।
  • एनजेएसी की संरचना : एनजेएसी को न्यायिक और कार्यकारी दोनों सदस्यों को शामिल करने हेतु निर्धारित किया गया था – 
    • भारत के मुख्य न्यायाधीश
    • उच्चतम न्यायालय के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश
    • केंद्रीय कानून मंत्री
    • प्रधानमंत्री, भारत के मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता वाली समिति द्वारा नामित दो प्रतिष्ठित व्यक्ति
  • एनजेएसी पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय : उच्चतम न्यायालय ने एनजेएसी अधिनियम को असंवैधानिक और निरर्थक करार दिया। न्यायालय ने घोषित किया कि एनजेएसी अधिनियम ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और शक्तियों के पृथक्करण को बाधित करके संविधान की मूल विशेषताओं को बदल दिया है। यह तर्क दिया गया कि एनजेएसी ने विभिन्न अधिकारियों को अत्यधिक शक्तियाँ प्रदान कीं, जिससे कार्यपालिका को पक्षपात के आधार पर व्यक्तियों का पक्ष लेने की अनुमति देकर न्यायिक स्वतंत्रता को खतरा हो सकता है। परिणामस्वरूप, एनजेएसी को निरस्त करते हुए कॉलेजियम प्रणाली को बहाल कर दिया गया।

 

केशवानंद भारती वाद (1973) : केशवानंद भारती मामले में न्यायालय ने माना कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा है। चूँकि एनजेएसी इस स्वतंत्रता को खतरे में डालता है, इसलिए इसे असंवैधानिक माना गया।

वैश्विक परिदृश्य 

  • यूनाइटेड किंगडम : यूके के 2005 के संवैधानिक सुधार अधिनियम ने न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC) की स्थापना की, जो इंग्लैंड और वेल्स की अदालतों में न्यायाधीशों के नामांकन की देख-रेख के लिए बनाया गया 15 सदस्यीय निकाय है। JAC की सदस्यता में शामिल हैं :
    • अध्यक्ष :  एक आम सदस्य
    • न्यायिक सदस्य : छह, जिनमें दो न्यायाधिकरण न्यायाधीश शामिल हैं
    • पेशेवर सदस्य : दो, जो बैरिस्टर, सॉलिसिटर या चार्टर्ड इंस्टीट्यूट ऑफ लीगल एग्जीक्यूटिव्स के फेलो होने चाहिए, जिनके पास समान योग्यता रखने की सीमा है|
    • आम सदस्य : पाँच
    • गैर-कानूनी रूप से योग्य न्यायिक सदस्य : एक
      • यह संरचना कानूनी पेशेवरों और आम लोगों सहित विभिन्न हितधारकों को शामिल करके न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देती है।
  • दक्षिण अफ्रीका : दक्षिण अफ्रीका के न्यायिक सेवा आयोग (JSC) में न्यायपालिका, कानूनी पेशेवर और सरकार जैसे विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधि शामिल हैं। JSC न्यायिक नियुक्तियों पर राष्ट्रपति को सलाह देता है, जिससे संतुलित और परामर्शी दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलता है।
  • फ्रांस : फ्रांस में न्यायपालिका की उच्च परिषद (कॉन्सिल सुपीरियर डे ला मैजिस्ट्रेचर) न्यायिक नियुक्तियों पर सलाह देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह प्रणाली नियुक्ति प्रक्रिया को प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभाव से बचाने में मदद करती है, जबकि जाँच और संतुलन सुनिश्चित करती है।

नोट :

  • बैरिस्टर : अदालत में मामलों पर बहस करने और उच्च न्यायालयों में प्रैक्टिस करने हेतु अधिकृत।
  • सॉलिसिटर : विधिक सलाह देने हेतु।
  • लीगल प्रोफेशनल : विधि या कानून के किसी विशिष्ट क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वाले वकील।

एनजेएसी का पुनर्गठन 

अस्वीकृति के बाद भी, सभी हितधारकों की चिंताओं को बेहतर ढंग से संबोधित करने हेतु NJAC में पुनः सुधार किया जा सकता है |

  • दक्षता और स्वतंत्रता के बीच संतुलन : संशोधित एनजेएसी में न्यायपालिका, कार्यपालिका और नागरिक समाज के विचार शामिल किए जाने चाहिए, ताकि दक्षता और स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाया जा सके। न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए संशोधित आयोग को कार्यकारी प्रभुत्व संबंधी संदेह को समाप्त करने के लिए संरचित किया जाना चाहिए, जबकि यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नियुक्तियाँ कुशलता और योग्यता आधारित हों। यह दृष्टिकोण ‘न्याय में देरी’ को कम करने एवं न्यायपालिका में जनता के विश्वास को बढ़ाने में सहायता कर सकता है।
  • मौजूदा चुनौतियों का समाधान : भाई-भतीजावाद, पारदर्शिता की कमी और कार्यपालिका-न्यायपालिका के बीच टकराव जैसे मुद्दे अत्यंत गंभीर हैं, साथ ही राष्ट्रपति की अंतिम सहमति भी अक्सर देरी का कारण बनती है और रिक्तियों को बढ़ाती है। एक संतुलित और पारदर्शी एनजेएसी इन चुनौतियों को कम कर सकता है, जिससे न्यायपालिका कुशलतापूर्वक और स्वतंत्र रूप से काम कर सके।

निष्कर्ष

भारत में न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार न्यायपालिका की कार्यकुशलता में सुधार लाने और जनता का विश्वास बहाल करने हेतु महत्त्वपूर्ण है। जहाँ तक कॉलेजियम प्रणाली सवाल है, इसने भी न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा की है, जिसकी पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी को दूर करने की आवश्यकता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं का लाभ उठाकर, भारत के पास एक अधिक संतुलित और प्रभावी प्रणाली तैयार करने का अवसर है, जो न्याय में देरी और रिक्तियों के दबाव संबंधी मुद्दों को संबोधित करते हुए न्यायिक अखंडता को बनाए रखने में सहायक होगी ।

मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न 

भारत में कॉलेजियम प्रणाली के विषय में बताते हुए, ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ की आवश्यकता की समीक्षा कीजिए | यह न्याय में देरी तथा रिक्त पदों को भरने संबंधी मुद्दों के निपटान में किस प्रकार सहायक होगा?

(15 अंक, 250 शब्द) 

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