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न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधितत्व: एक कठिन चुनौती

Lokesh Pal May 22, 2025 05:15 10 0

संदर्भ:

न्यायमूर्ति लीला सेठ की नियुक्ति जैसे महत्वपूर्ण उदाहरणों के बावजूद, भारतीय न्यायपालिका अभी भी, खासकर के शीर्ष स्तरों पर, पुरुष प्रधान बनी हुई है। लगातार जारी रहने वाला लैंगिक अंतर, समावेशन की कमी, और पितृसत्तात्मक निर्णय यह दर्शाते हैं कि प्रणालीगत सुधारों और बेहतर प्रतिनिधित्व की अत्यंत आवश्यकता है।

अग्रणी क्षण और स्थायी जिज्ञासा

  • प्रथम ऐतिहासिक घटना: 1978 में, न्यायमूर्ति लीला सेठ एक राज्य उच्च न्यायालय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनीं, और आगंतुकों के लिए यह एक आश्चर्यजनक घटना थी।
  • स्थायी दुर्लभता: उनके अनुभव ने इस बात पर प्रकाश डाला कि न्यायपालिका में महिला अधिकारिता कितनी दुर्लभ थी, और आज भी है

न्यायपालिका में लैंगिक अंतराल से संबंधित मुद्दे

  • सर्वोच्च न्यायालय में प्रतिनिधित्व: 1950 से लेकर अब तक सर्वोच्च न्यायालय में केवल 11 महिला न्यायाधीश रही हैं।
  • पहली महिला न्यायाधीश: न्यायमूर्ति एम. फातिमा बीवी को 1989 में नियुक्त किया गया था।
  • वर्तमान संख्या: वर्तमान समय में, 33 सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से केवल 2 महिलाएँ हैं। हालांकि आगामी जून 2025 में न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी के सेवानिवृत्ति होने के बाद यह संख्या घटकर 1 हो जाएगी।
  • उच्च न्यायालयों में लैंगिक अंतराल की प्रतिशतता: उच्च न्यायालयों में वर्तमान समय में, केवल 11.7% न्यायाधीश महिलाएं हैं।
  • निचली अदालतों में महिलाओं का समावेश: निचली अदालतों में 35% महिला न्यायाधीश हैं।
  • राज्य-स्तरीय अंतराल: मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, पटना और उत्तराखंड जैसे राज्यों में एक भी महिला न्यायाधीश नहीं हैं।

अंतर्विभागीय असमानताएँ और प्रतिनिधित्व

  • हाशिए पर पड़े समुदायों का अभाव: पिछले 75 वर्षों के इतिहास में से अब तक कोई भी दलित या आदिवासी महिला सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश नहीं बनी है।
  • धार्मिक अल्पसंख्यकों की अनदेखी: न्यायमूर्ति एम. फातिमा बीवी अब तक सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त एकमात्र मुस्लिम महिला न्यायाधीश रही हैं।

कॉलेजियम प्रणाली में महिलाओं का प्रतिनिधितत्व

  • कॉलेजियम से बहिष्करण: वर्तमान में कॉलेजियम प्रणाली में कोई भी महिला सदस्य नहीं है; अब तक केवल न्यायमूर्ति रूमा पाल और न्यायमूर्ति आर. भानुमति ही इसका हिस्सा रही हैं।
  • अल्प कार्यकाल: 2025 की सीएलपीआर (CLPR) रिपोर्ट के अनुसार, महिला न्यायाधीशों का कार्यकाल पुरुषों के अपेक्षाकृत छोटा होता है, जिससे कॉलेजियम में शामिल होने की संभावना कम हो जाती है।
  • उदाहरण के लिए: न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बन सकती हैं, लेकिन उनका कार्यकाल मात्र 36 दिनों का होगा।

न्यायपालिका में लैंगिक विविधता क्यों महत्वपूर्ण है?

  • पक्षपात का खतरा: न्यायपालिका में महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पक्षपाती या पितृसत्तात्मक निर्णयों का कारण बन सकता है।
  • हाल ही के कुछ समस्याग्रस्त निर्णय:
    • इलाहाबाद उच्च न्यायालय (मार्च 2025): इस निर्णय में बलात्कार पीड़िता को दोषी ठहराया; हमले को बलात्कार का प्रयास न मानकर खारिज कर दिया।
    • कोझीकोड के न्यायाधीश (2022): पीड़िता की “उत्तेजक पोशाक” का हवाला देकर दोषी को जमानत दी गई।
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय (2022): बलात्कार को “आकर्षण” करार दिया; बाद में यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पलट दिया गया।

न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी को सामान्य बनाना

  • प्रतीकात्मकता बनाम वास्तविकता: महिलाओं को केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधि या “महिला संबंधित मामलों” तक सीमित नहीं, बल्कि पूर्ण न्यायाधीश के रूप में देखा जाना चाहिए।
  • प्रणालीगत सुधार की आवश्यकता: न्यायपालिका के भीतर लैंगिक संवेदनशीलता और जवाबदेही सुनिश्चित करना अति आवश्यक है।

सुधार और समावेशिता की दिशा में कदम

  • राज्य-स्तरीय आरक्षण: कुछ राज्य (झारखंड, कर्नाटक, राजस्थान, तेलंगाना, बिहार) न्यायिक पदों पर महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान करते हैं, इससे सभी राज्यों को सीख लेकर आगे बढ़ना चाहिए।
  • आरक्षण कोटे से परे के उदाहरण: सकारात्मक कार्रवाई में निम्नलिखित शामिल होना चाहिए:
    • बेहतर बुनियादी ढाँचा संरचना (जैसे, निचली अदालतों में स्वच्छता)
    • नियमित अंतःविभागीय सर्वेक्षण
    • नेतृत्व और कार्यस्थल में समानता की नीतियाँ

निष्कर्ष

एक न्यायसंगत, समावेशी और प्रतिनिधित्वपूर्ण न्यायपालिका बनाने के लिए भारत को कानून में महिलाओं के नेतृत्व को सामान्य बनाना होगा। वास्तविक लैंगिक समानता प्रतीकात्मकता से नहीं, बल्कि प्रणालीगत परिवर्तनों, संरचनात्मक सुधारों और समाज में महिलाओं को सत्ता में स्वीकार्यता प्रदान करने से सुनिश्चित की जा सकती है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

प्रश्न. “सहानुभूति से नहीं, कानून के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाएं।” इस कथन के आलोक में, भारत की न्यायपालिका में महिलाओं के लगातार कम प्रतिनिधित्व के प्रभावों का विश्लेषण करें।

(15 अंक, 250 शब्द)

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