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भारत की विरासत का सम्मान करें तथा लोकतंत्र की रक्षा करें

Lokesh Pal August 15, 2025 05:15 4 0

संदर्भ:

स्वतंत्रता दिवस केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद से राजनीतिक मुक्ति का स्मरणोत्सव नहीं है; यह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं के उस दृष्टिकोण की पुनः पुष्टि है, जिसके तहत प्रत्येक नागरिक के लिए समानता, न्याय और सम्मान पर आधारित राष्ट्र का निर्माण किया जाना है।

  • यह दिन 1947 में झंडों के औपचारिक परिवर्तन से कहीं अधिक का प्रतिनिधित्व करता है।
  • स्वतंत्रता दिवस मनाने का अर्थ है इस बात का आत्मनिरीक्षण करना कि एक राष्ट्र के रूप में हम पिछले कुछ वर्षों में कैसे विकसित हुए हैं, तथा इस संवैधानिक गणराज्य के आवश्यक आदर्शों का किस प्रकार पालन किया गया है।

राष्ट्रवाद का सार:

  • राष्ट्रवाद की सच्ची भावना: राष्ट्रवाद को समाज के सबसे हाशिए पर पड़ेवर्गों के उत्थान के लिए एक सतत प्रयास के रूप में होना चाहिए।
    • सामाजिक और आर्थिक समावेशन राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • समावेशी राष्ट्रवाद का गांधीवादी दृष्टिकोण: महात्मा गांधी ने मानव कल्याण को राष्ट्रवाद का मूल अंग कहा था।
    • अंत्योदय के उनके विचार में समाज के अंतिम और सबसे कमजोर व्यक्ति के उत्थान को प्राथमिकता देने का आह्वान किया गया था।

अधूरा सपना और आर्थिक असमानताएँ:

  • ऑक्सफैम कीरिपोर्ट के अनुसार, भारत के सबसे अमीर 1% लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 40% हिस्सा है।
    • यह एक ऐसी प्रणाली को दर्शाता है जहां “सबसे योग्य” के बजाय “सबसे अमीर” जीवित रहते हैं।
    • आम जनता को आसमान छूती मुद्रास्फीति, व्यापक बेरोजगारी और कुपोषण सहित गंभीर अभाव का सामना करना पड़ता है।
    • इन संकटपूर्ण स्थितियों के लिए अक्सर नवउदारवादी नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, जैसे कि 1990-91 का LPG ( उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण ) सुधार।
    • मुक्त बाजार को प्राथमिकता देकर ये नीतियां आवश्यक कौशल की कमी वाले लोगों को हाशिए पर धकेलती हैं, जिससे गरीबी को बढ़ावा मिलता है।
  • किसान,जिन्हें महात्मा गांधी ने ‘ राष्ट्र की आत्मा‘ कहा था, कर्ज में फंसे हुए हैं और कृषि एक असंवहनीय प्रक्रिया बन गई है, जिसके कारण वे आत्महत्याएं कर रहे हैं।
  • वर्तमान आर्थिक विकास स्पष्ट रूप से बेरोजगारी और असमानता को दर्शाता है, जो समाज के सभी वर्गों को लाभ पहुंचाने में विफल रहा है।

असहमति का क्षरण और विभाजनकारी राजनीति का उदय:

एक अत्यंत चिंताजनक प्रवृत्ति लोकतांत्रिक संवाद को व्यवस्थित रूप से कमजोर करना है:

  • प्रतिगामी शक्ति राष्ट्रवाद की धारणाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करती हैं और असहमति व्यक्त करने वालों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार देती हैं, जिससे राष्ट्र खतरे में पड़ जाता है।
  • यह विभाजनकारी विचारधारा सामाजिक ध्रुवीकरण कोबढ़ावा देती है, जिससे अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा किए जाने वाले विरोध की प्रवृति को बढ़ावा मिलता है। ऐसी राजनीति भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन की समावेशी विरासत के सीधे विपरीत है।
  • जीवनशैली, खान-पान की आदतों या पहचान के आधार पर व्यक्तियों के विरुद्ध क्रूरता के मामले, अल्पसंख्यकों को आतंकवादी करार देना, तथा धमकी या क्रूर बल के माध्यम से असहमति की आवाज को दबाना चिंताजनक है।
  • राजनीति में नायक-पूजा सभी दलों मेंव्याप्त है । डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने स्पष्ट रूप से चेतावनी दी थीकि धर्म में भक्ति हानिरहित है, लेकिन राजनीति में नायक-पूजा अनिवार्य रूप से तानाशाही और लोकतंत्र के विनाश की ओर ले जाती है।

भारत के संघीय ढांचे के लिए चुनौतियाँ:

  • एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रस्ताव:यदि इस पहल को क्रियान्वित किया गया तो इससे राज्य की स्वायत्तता कम होने का खतरा पैदा हो जाएगा, क्योंकि इससे लोकसभा चुनावों के साथ तालमेल बिठाने के लिए राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती की जा सकती है।
    • आलोचकों का तर्क है कि यह राज्य निर्वाचन क्षेत्रों के अधिकारों में कटौती करता है और राज्यों को केंद्रीय कार्यपालिका के प्रशासनिक विस्तार मात्र तक सीमित कर देता है।
  • केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग: CBI और प्रवर्तन निदेशालयजैसी केंद्रीय जांच संस्थाओं का उपयोग विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में राजनीति को प्रभावित करने के लिए हथियार के रूप में किया जा रहा है।
  • संस्थागत स्वतंत्रता को खतरा: भारत के चुनाव आयोग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं की स्वतंत्रता गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है,जिससे उनकी निष्पक्ष रूप से कार्य करने की क्षमता में बाधा आ रही है।
  • राज्यपाल की शक्तियों में बदलाव:राज्यपाल का पद, जो संवैधानिक रूप से निर्वाचित राज्य सरकारों (अनुच्छेद 163) की सलाहपर कार्य करने और संघ और राज्य के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करने के लिए है, राजनीतिक अवरोध का एक उपकरण बन गया है।
    • राज्यपालों को अब अक्सर केंद्र के राजनीतिक एजेंट के रूप में देखा जाता है, जो विपक्ष शासित राज्यों के नीति निर्माण में देरी करते हैं या उसे अवरुद्ध करते हैं।
    • केरल, तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों के राज्यपालों ने राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को महीनों तक अनावश्यक रूप से मंजूरी नहीं दी, जिससे लोगों की लोकतांत्रिक इच्छा प्रभावी रूप से निष्प्रभावी हो गई।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रथा की कड़ी आलोचना की है तथा इस बात पर बल दिया है कि राज्यपाल निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं।
    • हस्तक्षेप उच्च शिक्षा क्षेत्र तक फैला हुआ है, जहां राज्यपालों ने राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में, कुलपतियों की महत्वपूर्ण नियुक्तियों और भर्ती प्रक्रियाओं को रोक दिया है या रद्द कर दिया है, जिससे शैक्षणिक संस्थान पंगु हो गए हैं और शिक्षा के क्षेत्र में भी शक्ति का केंद्रीकरण हो गया है।
      • इससे राज्यपाल का कार्यालय संवैधानिक सुरक्षा के बजाय एक राजनीतिक वीटो प्रतीत होता है।
  • यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि संघवाद संविधान की मूल संरचना का एक अभिन्न अंग है, जैसा कि 1994 के एसआर बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था

निष्कर्ष:

भारत के स्वतंत्रता संग्राम का उद्देश्य संवैधानिक आदर्शों से बंधे स्वतंत्र व्यक्तियों के एक संघ का निर्माण करना था।

  • यह विरासत राज्य की स्वायत्तता के लिए खतरों, संवैधानिक कार्यालयों के दुरुपयोग और धर्मनिरपेक्षता के क्षरण से सुरक्षा की मांग करती है,ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक जीवंत गणराज्य सुनिश्चित हो सके।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: सत्ता का बढ़ता केंद्रीकरण, संवैधानिक पदों पर राजनीतिक प्रभाव के उदाहरण और सहकारी संघवाद पर दबाव, भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के कामकाज के लिए उल्लेखनीय चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं। हाल के घटनाक्रमों के आलोक में, राज्य की स्वायत्तता पर इन प्रवृत्तियों के प्रभावों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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