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सूचना का अधिकार अधिनियम : नागरिक अधिकारों पर प्रभाव

Lokesh Pal October 14, 2024 05:30 107 0

संदर्भ : 

वर्ष 2005 में अधिनियमित सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम हाल ही में अपने 20वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है, लेकिन इसकी प्रभावशीलता और हाल के संशोधनों के बारे में चिंताओं के कारण इसे अत्यधिक आलोचना का सामना करना पड़ रहा है । आलोचकों का तर्क है कि ये संशोधन पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने के इसके मूल उद्देश्य को कमजोर करते हैं।

आरटीआई अधिनियम, 2005 का सकारात्मक प्रभाव :

  • पारदर्शिता एवं जवाबदेही : वर्ष 2005 में लागू सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम ने शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देकर भारतीय नागरिकों को सशक्त बनाया है।
  • शासन पर प्रभाव : आरटीआई अधिनियम ने भ्रष्टाचार को उजागर करने में,  विशेष रूप से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसी आवश्यक सेवाओं में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त चुनावी बांड योजना जैसी अपारदर्शी प्रथाओं को भी पारदर्शी बनाने में अपना योगदान दिया है।
  • नागरिक जुड़ाव : लगभग 6 मिलियन वार्षिक आवेदनों के साथ, आरटीआई कानून ने सरकार और नागरिकों के बीच संबंधों को महत्वपूर्ण रूप से पारदर्शी बनाया है, जिससे लोकतांत्रिक ढांचे की गरिमा में, सत्ता का पुनर्वितरण संभव हुआ है।

सूचना का अधिकार अधिनियम संबंधी चुनौतियाँ

1. प्रतिगामी संशोधन

  • स्वायत्तता संबंधी चुनौतियाँ : वर्ष 2019 के संशोधन के तहत केंद्र सरकार को सूचना आयुक्तों का कार्यकाल, वेतन और लाभ निर्धारित करने की अनुमति दी गई, जिससे उनकी स्वायत्तता खतरे में पड़ गई और पक्षपातपूर्ण निर्णय लिए गए।
  • डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (डीपीडीपी) अधिनियम, 2023 : इस प्रावधान के माध्यम से सभी व्यक्तिगत सूचनाओं को प्रकटीकरण से छूट दी गई, और नागरिकों के सूचना के अधिकार को सांसदों और विधायकों के समान मानने वाले प्रावधानों को हटा दिया गया।

2. उपयोगकर्ताओं के विरुद्ध प्रतिक्रिया

  • विभिन्न आंकड़ों के अनुसार अब तक लगभग 100 आरटीआई कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं, और हज़ारों को संभावित हमले या धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। नियमों की कमी के कारण व्हिसलब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट (2014) अभी तक भी लागू नहीं हो पाया है।

व्हिसलब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम (2014)

  • व्हिसलब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट, 2014 को भ्रष्टाचार, सत्ता के जानबूझकर दुरुपयोग या लोक सेवकों द्वारा विवेकाधिकार के आरोपों के बारे में शिकायतें प्राप्त करने के लिए एक ढांचा बनाने के लिए अधिनियमित किया गया था।
  • उद्देश्य : इसका उद्देश्य व्हिसलब्लोअर्स के उत्पीड़न के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करते हुए ऐसे खुलासों की जांच के लिए एक तंत्र स्थापित करना है। यह अधिनियम कदाचार की रिपोर्ट करने वालों के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए संबंधित मामलों को भी रेखांकित करता है। 

3. विभागी रिक्तियाँ और बैकलॉग 

  • वर्ष 2023 के सर्वे के मुताबिक देश में सात राज्यों के सूचना आयोग निष्क्रिय थे, जिनमें झारखंड का आयोग चार वर्षों से भी अधिक समय से निष्क्रिय पाया गया था।
  • पूरे देश में 4 लाख से अधिक अपीलें और शिकायतें अब भी लंबित हैं, छत्तीसगढ़ और बिहार जैसे कुछ राज्यों में अपीलों के निपटारे में छह वर्ष से भी अधिक समय लग जाता है।

4. अपर्याप्त कार्यबल एवं नियुक्ति प्रणाली 

  • मई 2015 के बाद से, केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग में एक भी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की गई है, जिसके कारण नागरिकों को अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ा है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के बार-बार निर्देश के बावजूद, केंद्रीय सूचना आयोग में 11 में से आठ पद रिक्त हैं।

  • महाराष्ट्र के सूचना आयोग, में लगभग  1 लाख से भी अधिक अपील और शिकायतें  लंबित हैं , परंतु इसके बावजूद भी यह विभाग मुखिया विहीन है। जिसमें आयुक्तों के 11 में से 6 पद खाली हैं।

5. नियुक्ति संबंधी मुद्दे

  • नियुक्त किए गए अधिकांश सूचना आयुक्त सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी या राजनीतिक रूप से जुड़े व्यक्ति होते हैं, जो आयोगों की स्वतंत्रता और प्रभावशीलता को कमज़ोर करता है।
  • कई आयुक्त पारदर्शिता कानूनों के सरकारी उल्लंघनों के खिलाफ़ कार्रवाई करने में अनिच्छुक हैं, जिससे विभाग और उसकी कार्यप्रणाली के प्रति जनता का विश्वास और कम होता जा रहा है।

6. नियमों के उल्लंघन के लिए दंड का अभाव

  • लगभग 95% मामलों में जहां गैर-प्रकटीकरण के लिए दंड लगाया जा सकता था, आयोग ऐसा करने में विफल रहे। 
  • प्रवर्तन की यह कमी दंड से मुक्ति की संस्कृति को जन्म देती है, जिससे सूचना अधिकारियों को वैध आरटीआई अनुरोधों में अनावश्यक विलंब करने, मना करने या उन्हें अनदेखा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

लोकतंत्र के लिए निहितार्थ

  • पारदर्शिता का ह्रास : सूचना आयोगों के कमजोर होने के साथ ही नागरिकों की महत्वपूर्ण सूचनाओं तक पहुँच कम होती जा रही है, जिससे लोकतांत्रिक जवाबदेही के मूलभूत तत्वों का ह्रास हो रहा है।
  • नागरिक भागीदारी को कमज़ोर करना : आरटीआई अपीलों के समाधान की विलंबित प्रक्रिया और सूचना तक पहुँच को सीमित करके, सरकार सार्वजनिक संस्थानों की निगरानी में नागरिकों की भूमिका को कम करती है।
  • मुखबिरों को ख़तरा : मुखबिरों की सुरक्षा अधिनियम के कार्यान्वयन की कमी, आरटीआई कार्यकर्ताओं द्वारा सामना की जाने वाली हिंसा (जिसमें अब तक  लगभग 100 लोग मारे जा चुके हैं ) के साथ मिलकर, उन लोगों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता को दर्शाता है जो गलत कामों को उजागर करने के लिए कानून का उपयोग करते हैं। 
    • अतः ऐसी घटनाएं नागरिकों को प्रतिशोध के डर से आरटीआई का उपयोग करने से रोककर लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए जोखिम बढ़ाती हैं ।

निष्कर्ष :

यद्यपि सूचना का अधिकार अधिनियम शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने में एक ऐतिहासिक कानून रहा है परंतु इसके समक्ष आने वाली चुनौतियों ने इसकी प्रभावशीलता को कमज़ोर कर दिया है, जिससे यह प्रभावी रूप से एक मृत पत्र के समान बन गया है। अधिनियम की प्रभावशीलता में आई यह गिरावट सरकार में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने की इसकी क्षमता को कम करती है, जो लोकतंत्र और नागरिक सशक्तिकरण के लिए एक गंभीर खतरा है।

मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न :

प्रश्न: सूचना का अधिकार अधिनियम शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने में एक ऐतिहासिक कानून रहा है। हालाँकि, इसके कार्यान्वयन में कई चुनौतियाँ हैं। भारतीय प्रशासन पर आरटीआई के प्रभाव की आलोचनात्मक जाँच करें और इसकी प्रभावशीलता को मजबूत करने के उपाय सुझाएँ। 

                                                                                                                                        (15 अंक, 250 शब्द)

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