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निजता, गरिमा, स्वायत्तता और स्वतंत्रता का अधिकार: राज्य की शक्तियाँ और सीमाएँ

Lokesh Pal June 23, 2025 05:00 7 0

संदर्भ:

हालिया उदाहरणों में यह एक प्रमुख चुनौती बनी हुई है कि राज्य की शक्ति और व्यक्तिगत गोपनीयता के मध्य, खास तौर पर व्यक्तिगत मामलों के संबंध में, संतुलन कैसे स्थापित किया जाए। कुछ अध्ययनों से ज्ञात होता है कि राज्य नागरिकों के निजी जीवन में दखल दे रहा है और संवैधानिक स्वतंत्रता की सीमाओं को भी चुनौती दे रहा है।

 निजता के अधिकार के बारे में:

  • एक अवधारणा के रूप में गोपनीयता सामान्यतः किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत जानकारी, संबंधों और निर्णयों को बिना किसी अनुचित हस्तक्षेप के नियंत्रित करने के अधिकार को संदर्भित करती है
  • निजता का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) में निहित है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ (2017) जैसे ऐतिहासिक निर्णयों में इसकी पुष्टि की है।
  • सर्वोच्च न्यायालय की 9 न्यायाधीशों की पीठ ने निजता को गरिमा, स्वायत्तता और स्वतंत्रता का अभिन्न अंग माना, जिसमें प्रेम, भोजन, पोशाक और विचारों से संबंधित विकल्प शामिल हैं। इस फैसले के तहत निजता में शामिल हैं:
    • शारीरिक स्वायत्तता (अपने शारीरिक स्व पर नियंत्रण)।
    • सूचनात्मक गोपनीयता (व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा)।
    • निर्णयात्मक गोपनीयता (संबंधों सहित व्यक्तिगत विकल्पों में स्वतंत्रता)।
  • हालाँकि, राज्य अक्सर सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या कल्याण का हवाला देकर घुसपैठ को उचित ठहराता है, जिससे वैध विनियमन और सत्तावादी अतिक्रमण के बीच की रेखाएँ उल्लेखनीय रूप से धुंधली हो जाती हैं।

राज्य की भूमिका:

  • राज्य की वैधता: किसी राज्य की वैधता इस बात से निर्धारित नहीं होती कि वह नागरिकों के जीवन में कितनी गहराई से दखल दे सकता है। बल्कि वास्तविक वैधता राज्य की समझदारी में निहित है कि वह शासन और अतिक्रमण के बीच की रेखा खींचे।
  • राज्य के हस्तक्षेप को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत: व्यक्तिगत मामलों में सरकार द्वारा किसी भी हस्तक्षेप को निम्नलिखित तर्कों के माध्यम से पूरा करना होगा:
    • आवश्यकता: क्या हस्तक्षेप वास्तव में आवश्यक है?
    • आनुपातिकता: क्या प्रतिक्रिया संतुलित एवं उचित है?
    • संवैधानिकता: क्या यह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों और स्वतंत्रताओं के अनुरूप है?
  • उदाहरण: न्यूनतम कानूनी विवाह आयु (सुरक्षात्मक इरादा)।
  • हालांकि यह तब समस्यात्मक होता है, जब राज्य सार्वजनिक हित को ध्यान में रखे बिना हस्तक्षेप करते हैं।

केस स्टडी:

समान नागरिक संहिता (UCC) और लिव-इन रिलेशनशिप: उत्तराखंड

  • उत्तराखंड यूसीसी विधेयक के तहत यह प्रावधान किया गया है कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों को जिला प्राधिकारियों के पास अपने रिश्ते को पंजीकृत कराना होगा, अन्यथा उन्हें दंड का सामना करना पड़ सकता है।
  • सरकार का दावा है कि इस प्रावधान से शोषण (विशेषकर महिलाओं का) को रोका जा सकेगा, विवादों के मामले में कानूनी स्पष्टता प्रदान की जा सकेगी और ऐसे रिश्तों को औपचारिक ढांचे में एकीकृत किया जा सकेगा।

अनिवार्य लिव-इन-पंजीकरण के निहितार्थ:

  • गोपनीयता और स्वायत्तता का उल्लंघन: यद्यपि भारत में लिव-इन रिलेशनशिप वैध है, जैसा कि एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल (2010) और इंद्रा शर्मा बनाम वीकेवी शर्मा (2013) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखा गया था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत लिव-इन-रिलेशनशिप को मान्यता दी है। जोड़ों को अपने रिश्ते के बारे में राज्य को बताने के लिए मजबूर करना उनकी निर्णयात्मक गोपनीयता का उल्लंघन है। इसके साथ ही यह किसी के व्यक्तिगत चयन व निजता के अधिकार को सार्वजनिक रिकॉर्ड में बदल देता है।
  • नैतिक पुलिसिंग: भारत सामाजिक रूप से रूढ़िवादी बना हुआ है, और लिव-इन में रहने वाले जोड़ों को अक्सर बहिष्कार, पारिवारिक दबाव और यहां तक ​​कि हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।
    • अनिवार्य पंजीकरण के कारण उन्हें उत्पीड़न का सामना, विशेषकर अंतर-जातीय या अंतर-धार्मिक संबंधों के मामले में करना पड़ता है
    • विश्वास बनाम नियंत्रण: एक परिपक्व लोकतंत्र को अपने नागरिकों पर विश्वास की आवश्यकता होती है। निगरानी आधारित विनियमन स्वायत्तता और गरिमा को नष्ट कर देता है।
  • चयनात्मक प्रवर्तन का जोखिम: ऐसे कानूनों को परिवारों, निगरानी समूहों या प्राधिकारियों द्वारा दम्पतियों को निशाना बनाने, व्यक्तियों से जबरन वसूली करने या उन्हें डराने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • पितृसत्ता बनाम वास्तविक कल्याण: हालांकि समाज के कमजोर वर्गों के भागीदारों (विशेष रूप से महिलाओं) की सुरक्षा महत्वपूर्ण है परंतु अनिवार्य पंजीकरण कोई प्रभावी समाधान नहीं है। मौजूदा कानून (घरेलू हिंसा अधिनियम, आईपीसी प्रावधान) पहले से ही शोषण को संबोधित करते हैं अतः नौकरशाही बाधाओं को जोड़ने से महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने में मदद नहीं मिल सकती है।

केस स्टडी: बिहार का शराबबंदी कानून

  • सामाजिक सुधार के उद्देश्य से बिहार में लागू पूर्ण शराबबंदी के परिणामस्वरूप अप्रत्याशित परिणाम सामने आए हैं।
  • यद्यपि इस कानून के माध्यम से शराब के दुरुपयोग में कमी लाना सराहनीय है, तथापि पूर्ण प्रतिबन्ध के कारण निम्नलिखित परिणाम देखे गए हैं:
    • स्कूल माफिया और काला बाजारी का उदय।
    • अवैध शराब का व्यापार फल-फूल रहा है।
    • गरीबों को बड़े पैमाने पर जेल में डाला गया, जिनमें से अधिकांश लोग जमानत देने में असमर्थ हैं।
    • व्यापक पुलिस भ्रष्टाचार।
    • नशीली दवाओं के दुरुपयोग में वृद्धि भी इसका एक अनपेक्षित परिणाम है।
  • अतः संबंधित नीतियाँ इस बात पर प्रकाश डालती है कि व्यक्तिगत विकल्पों पर राज्य का अत्यधिक नियंत्रण किस तरह न्याय को कमजोर कर सकता है, अपराध को बढ़ावा दे सकता है और जनता के विश्वास को समाप्त कर सकता है। यही कारण है कि अच्छे इरादे और खराब क्रियान्वयन विफलता की ओर ले जाते हैं।

लोकतंत्र द्वारा संयम की मांग न कि नियंत्रण:

  • शक्तिशाली राज्य वे हैं जो संयम से प्रतिक्रिया करते हैं, न कि क्रूर नियंत्रण।
  • गोपनीयता राज्य और नागरिक के बीच विश्वास का एक समझौता है। जैसे-जैसे भारत विकसित हो रहा है, राज्य को अपने नागरिकों पर नियंत्रण करने की इच्छा का विरोध करना चाहिए और इसके बजाय उन पर विश्वास करना चाहिए। क्योंकि उस विश्वास में ही स्वतंत्रता का असली सार निहित है।
  • अतिक्रमण संवैधानिक लोकतंत्र को अस्थिर कर सकता है।

निष्कर्ष:

गोपनीयता एक अधिकार है न कि विशेषाधिकार। राज्य को व्यक्तिगत निर्णयों का मार्गदर्शन करना चाहिए न कि उन पर शासन करना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक कल्याणकारी इरादे वाला कानून जरूरी नहीं कि न्यायसंगत हो।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2017 में बरकरार रखे गए निजता के अधिकार को गरिमा, स्वायत्तता और स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है। हाल ही में समान नागरिक संहिता (U.C.C.) जैसे कानूनों और बढ़ती निगरानी उपायों के आलोक में इस पर चर्चा करें।

(15 अंक, 250 शब्द)

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