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विद्यार्थियों की बढ़ती आत्महत्या की घटनाएँ तथा संस्थागत हस्तक्षेप की आवश्यकता

Lokesh Pal October 04, 2025 05:15 31 0

संदर्भ:

हाल के वर्षों में भारत में विद्यार्थियों की आत्महत्याओं में चिंताजनक वृद्धि देखी गई है, जो प्रणालीगत और संस्थागत विफलताओं को दर्शाती है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

विद्यार्थी आत्महत्याओं की बढ़ती प्रवृत्ति

  • बढ़ती संख्या:राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़ों के अनुसार 2023 में 13,892 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की।
  • आँकड़ों की प्रवृत्ति:2019 (10,335) से 34.4% वृद्धि और 2013 (8,423) से 64.9% वृद्धि।
  • वार्षिक मृत्यु:18-30 वर्ष की आयु के लगभग 14,000 विद्यार्थी प्रति वर्ष आत्महत्या कर लेते हैं।
  • जनसांख्यिकीय प्रभाव: ये छात्र भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश का हिस्सा हैं और देश के भावी कार्यबल का प्रतिनिधित्व करते हैं
  • कुल मृत्यु: 2013 और 2023 के बीच भारत में कुल 1,17,849 विद्यार्थियों की आत्महत्या से मृत्यु हुई।
  • हिमशैल घटना: शोध बताते हैं, कि आत्महत्या से होने वाली हर मौत के पीछे कम-से-कम 20 प्रयास होते हैं। दर्ज की गई मौतें तो बस “हिमशैल का सिरा” हैं, जो चिंता, अवसाद और मानसिक तनाव के एक वृहद आधार को छुपाती हैं।

विद्यार्थी आत्महत्याओं में वृद्धि के प्रमुख कारण

  • अत्यधिक शैक्षणिक दबाव: यह सीमित सीटों (जैसे- UPSC, NEET, या JEE) के लिए प्रतिस्पर्धा द्वारा संचालित एक “चूहा दौड़” दबाव है।
    • माता-पिता की अपेक्षाएँ और सामाजिक दबाव एक छात्र की पहचान को केवल उसके रैंक तथा अंकों तक सीमित कर देते हैं।
    • परीक्षाओं में अनियमितताओं की हालिया रिपोर्टें तनाव को और बढ़ाती हैं तथा व्यवस्था के प्रति मोहभंग का कारण बनती हैं।
  • संस्थागत उदासीनता और भेदभाव: कई विद्यार्थियों को जाति-आधारित भेदभाव जैसे मुद्दों का सामना करना पड़ता है (रोहित वेमुला, डॉ. पायल तड़वी जैसे उदाहरण)।
    • जब विद्यार्थी संबंधित संस्थान से संपर्क करते हैं, तो वे अक्सर सहायता प्रदान करने में विफल रहते हैं, जो प्रणालीगत विफलता को दर्शाता है।
  • वित्तीय बाधाएँ: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा वित्तीय रूप से महंगी है, जिसके कारण कई छात्र शिक्षा संबंधी ऋण लेते हैं।
    • इससे ऋण चुकाने और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए तुरंत उच्च वेतन वाली नौकरी पाने का लगातार दबाव बना रहता है।
    • यदि अर्थव्यवस्था धीमी हो जाती है या नौकरियाँ कम हो जाती हैं, तो यह वित्तीय तनाव शीघ्र ही मानसिक तनाव में बदल जाता है।
  • मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा: भारतीय समाज में मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा करना अभी भी वर्जित माना जाता है।
    • जो विद्यार्थी अवसादग्रस्त होने की बात स्वीकार करते हैं, उन्हें अक्सर कमजोर मानकर खारिज कर दिया जाता है।
  • पेशेवरों की कमी: विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की भारी कमी है।
    • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) प्रति एक लाख की आबादी पर 3 मनोचिकित्सकों की सिफारिश करता है, लेकिन भारत में प्रति एक लाख पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक हैं, जो अत्यंत कम है।

नीतिगत और न्यायिक हस्तक्षेप

  • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (अमित कुमार एवं अन्य बनाम भारत संघ वाद): मार्च 2024 में, सर्वोच्च न्यायालय ने दो प्रमुख निर्देश जारी किए:
    • इसमें यह अनिवार्य किया गया, कि विद्यार्थी आत्महत्या के प्रत्येक संदिग्ध मामले में प्राथमिकी दर्ज की जाए तथा अंतर्निहित कारणों का पता लगाने के लिए पर्याप्त जाँच की जाए
    • इसने छात्र कल्याण और आत्महत्या रोकथाम के लिए एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स की स्थापना की।
  • राष्ट्रीय कार्य बल: इस निकाय का नेतृत्व न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) एस. रवि भट कर रहे हैं
    • इसका उद्देश्य समस्या को समझने और समाधान सुझाने के लिए सभी हितधारकों (शिक्षक, अभिभावक, विशेषज्ञ, विद्यार्थियों) से परामर्श करना है।
    • यह जमीनी स्तर के आँकड़े एकत्र करने के लिए सर्वेक्षणों तथा एक समर्पित वेबसाइट का उपयोग करता है।
  • मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017: इस अधिनियम की धारा 115 ने आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया।
    • इसमें कहा गया है, कि आत्महत्या का प्रयास करने वाला व्यक्ति एक पीड़ित है जिसे पुनर्वास और देखभाल की आवश्यकता है, वह अपराधी नहीं है।
  • राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम नीति (2021): इस नीति का लक्ष्य वर्ष 2030 तक आत्महत्या मृत्यु दर को 10% तक कम करना है और हितधारकों के मध्य बहु-क्षेत्रीय सहयोग पर बल देना है।

आगे की राह:

  • संस्थागत परिवर्तन:
    • अनिवार्य कल्याण केंद्र: प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान में प्रशिक्षित परामर्शदाताओं सहित एक कार्यात्मक कल्याण केंद्र होना चाहिए। उदाहरण: मित्र कार्यक्रम, आईआईटी मद्रास
    • संकाय संवेदीकरण:संकाय सदस्यों को संकट को पहचानने और विद्यार्थियों के साथ सहानुभूति पूर्ण वार्ता करने के लिए प्रशिक्षित किया गया।
    • भेदभाव विरोधी प्रकोष्ठ:क्रिया-उन्मुख होना चाहिए, केवल प्रतीकात्मक नहीं।
  • शैक्षणिक सुधार:
    • पाठ्यक्रम लचीलापन:पाठ्यक्रम विद्यार्थियों की आवश्यकताओं के अनुकूल होना चाहिए।
    • लक्ष्य परिवर्तन:रटने की विद्या से आलोचनात्मक चिंतन और कौशल विकास की ओर।
    • मूल्यांकन सुधार:एक ही परीक्षा को विद्यार्थी के जीवन पथ का निर्धारण करने से रोकें।
  • सामाजिक परिवर्तन:
    • कलंक दूर करें:मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े सामाजिक कलंक को दूर करें
    • माता-पिता का संचार: माता-पिता को शैक्षणिक अंकों की तुलना में भावनात्मक कल्याण तथा समग्र विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए।
    • सफलता को पुनर्परिभाषित करें: अंकों और वेतन से परे सफलता की परिभाषा को व्यापक बनाएँ।
  • युवाओं/साथियों की भूमिका:
    • सहकर्मी सहायता: गैर-निर्णयात्मक परिदृश्य निर्मित करें, सक्रिय रूप से सुनना और अकेलेपन या अवसाद से जूझ रहे मित्रों के लिए पेशेवर मदद को प्रोत्साहित करें

निष्कर्ष

खोया हुआ प्रत्येक विद्यार्थी एक टूटे हुए परिवार, एक अधूरी कहानी और एक टूटे हुए सपने का प्रतिनिधित्व करता है। इस संकट से निपटने के लिए सरकार, शैक्षणिक संस्थानों, समाज, परिवार तथा साथियों का सामूहिक प्रयास आवश्यक है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या के संदर्भ में, मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम (2017) और राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम नीति (2021) जैसे मौजूदा कानूनी और नीतिगत ढाँचों की प्रभावशीलता का विश्लेषण कीजिए। कौन-से सुधार या अतिरिक्त उपाय आवश्यक हैं?

(15 अंक, 250 शब्द)

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