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विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की आत्महत्याएँ प्रायः संस्थागत हिंसा का परिणाम

Lokesh Pal July 22, 2025 05:15 16 0

संदर्भ:

विश्वविद्यालयों का उद्देश्य ऐसे स्थान होना चाहिए, जहाँ नए विचारों का जन्म हो, करियर निर्माण और विद्यार्थी जीवन के एक नए चरण की शुरुआत करें। हालाँकि, जब कोई विश्वविद्यालय अपने विद्यार्थियों के लिए आघात का केंद्र बन जाता है, तो यह एक गंभीर व्यवस्थागत विफलता का प्रतीक है। शैक्षणिक संस्थानों में विद्यार्थियों की आत्महत्याओं में खतरनाक वृद्धि केवल व्यक्तिगत त्रासदियों का संग्रह नहीं है, यह गहन संस्थागत हिंसा का प्रत्यक्ष परिणाम है।

संस्थागत हिंसा के बारे में

  • संस्थागत हिंसा से तात्पर्य किसी व्यवस्था के भीतर होने वाले मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या प्रशासनिक उत्पीड़न से है। यह हमेशा आक्रामकता का प्रत्यक्ष कृत्य नहीं होता, बल्कि एक “धीमे ज़हर” के रूप में प्रकट हो सकता है, जो व्यवस्थित रूप से एक विद्यार्थी की गरिमा को नष्ट कर देता है। हिंसा के इस रूप की विशेषता कई गंभीर विफलताएँ हैं:
    • शिकायतों की अनदेखी: विद्यार्थियों की शिकायतों को नहीं सुना जाता।
    • प्रतिनिधित्व का अभाव: विद्यार्थियों को अपनी बात कहने के लिए कोई उचित माध्यम प्राप्त नहीं होता है।
    • उत्पीड़न को सामान्य बनाना: छात्रों द्वारा अनुभव किए जाने वाले उत्पीड़न को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है या इसे सामान्य घटना मान लिया जाता है।
    • अप्रत्यक्ष सहभागिता: संस्था अपनी निष्क्रियता या प्रणालीगत खामियों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा में योगदान देती है।
  • यह वातावरण छात्रों को सहयोग की बजाय, प्रायः उन्हें अलग-थलग कर देता है, जिससे आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प बन जाता है।

मौजूदा शिक्षण तंत्र की विफलताएँ

छात्रों की सुरक्षा के लिए तंत्र मौजूद होने के बावजूद, वे नियमित रूप से असफल रहते हैं:

  • आंतरिक शिकायत समितियाँ (ICC): यौन उत्पीड़न के मामलों में शिकायत निवारण के लिए गठित ये समितियाँ व्यापक सीमा तक प्रतीकात्मक हैं। 
    • प्राथमिक ध्यान अक्सर शिकायतकर्ता की चिंताओं को दूर करने की बजाय संस्था की प्रतिष्ठा की रक्षा पर होता है। 
    • वे पीड़ितों के हित की अपेक्षा संस्था के “सम्मान” को प्राथमिकता देते हैं।
  • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ: जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए स्थापित ये प्रकोष्ठ स्वायत्तता, संसाधनों और गंभीरता की गंभीर कमी से प्रभावित हैं। 
    • वे महज नौकरशाही औपचारिकताएँ बनकर रह गए हैं और जातिवादी उत्पीड़न से निपटने में अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं।
    • इन व्यवस्थागत कमजोरियों का अर्थ यह है, कि जब छात्र यौन उत्पीड़न, लैंगिक उत्पीड़न या जातिवादी उत्पीड़न जैसे मुद्दों का सामना करते हैं, तो संस्थागत प्रतिक्रिया अपर्याप्त या नगण्य होती है।

हालिया समय में प्रणालीगत विफलता के उदाहरण

  • ओडिशा छात्र आत्महत्या (2025): एक प्रोफेसर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगने के बाद 19 वर्षीय छात्रा ने आत्महत्या कर ली।
  • रोहित वेमुला (2016): एक दलित छात्र की आत्महत्या, जिसने विश्वविद्यालयों में जातिगत भेदभाव के गंभीर प्रभाव को उजागर किया।
  • डॉ. पायल तड़वी (2019): मुंबई में एक दलित स्नातकोत्तर मेडिकल छात्रा ने जातिवादी उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली।
  • आर.जी. मेडिकल कॉलेज मामला: एक छात्रा के साथ बलात्कार और हत्या का मामला सामने आया, फिर भी संस्थान उचित कार्रवाई करने में विफल रहा।

आवश्यक सुधार और समाधान

  • ‘रोहित एक्ट’ की माँग: रोहित वेमुला की मृत्यु के बाद ‘रोहित एक्ट’ की माँग हुई। यह प्रस्तावित कानून:
    • कानूनी जवाबदेही तय करें: विश्वविद्यालयों में जाति आधारित भेदभाव को रोकने के लिए स्पष्ट कानूनी जवाबदेही स्थापित करें।
    • स्वतंत्र शिकायत समितियाँ: कॉलेज या विश्वविद्यालय प्रशासन के प्रभाव से मुक्त, स्वतंत्र शिकायत समितियों के गठन का आदेश।
    • समयबद्ध जाँच: सुनिश्चित करें कि शिकायतों की जाँच एक कठोर समय-सीमा के भीतर की जाए।
    • शिकायतकर्ताओं के लिए कानूनी सुरक्षा: उत्पीड़न या भेदभाव की रिपोर्ट करने वाले व्यक्तियों के लिए कानूनी सुरक्षा प्रदान करें।
  • JNU का GSCASH मॉडल: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) की यौन उत्पीड़न विरोधी लैंगिक संवेदनशीलता समिति (GSCASH) एक मूल्यवान खाका प्रस्तुत करती है। इस मॉडल में निम्नलिखित पर बल दिया गया है:
    • स्वायत्तता: समिति को स्वतंत्र रूप से कार्य करना होगा।
    • सहभागी एवं लोकतांत्रिक संरचना: इसमें विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों का प्रतिनिधित्व शामिल होना चाहिए।
    • पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण: ध्यान पीड़ित की आवश्यकताओं और कल्याण पर होना चाहिए, न कि प्रशासन की सुरक्षा पर।
  • एक ‘भावनात्मक संस्कृति’ का विकास: हालाँकि कानून महत्त्वपूर्ण हैं, विश्वविद्यालयों में एक सहानुभूतिपूर्ण भावनात्मक संस्कृति का विकास करना सर्वोपरि है। इसमें शामिल हैं:
    • विद्यार्थी सशक्तीकरण: छात्रों को बिना किसी भय के अपने दुःख, आघात और समस्याओं को खुलकर साझा करने के लिए सशक्त बनाना।
    • सुरक्षित भावनात्मक स्थान: विश्वविद्यालयों को सुरक्षित भावनात्मक वातावरण में परिवर्तित करना, जहाँ भाईचारा और एकजुटता को बढ़ावा दिया जाता है तथा अलगाव को रोका जाता है।
    • साझा करने की स्वतंत्रता: यह सुनिश्चित करना, कि विद्यार्थी बिना किसी भय के अपनी समस्याओं और दुर्व्यवहार के अनुभवों को साझा कर सकें।

निष्कर्ष

विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की आत्महत्याएँ संस्थागत हिंसा का परिणाम हैं। यह उन व्यवस्थाओं पर एक अभियोग है, जो अपने अतिसंवेदनशील सदस्यों की रक्षा, उनकी बात सुनने और उन्हें सहारा देने में विफल रहती हैं। मजबूत कानूनी ढाँचे को लागू करना और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण, एक सहानुभूतिपूर्ण और सहायक संस्थागत संस्कृति को बढ़ावा देना, ऐसे वातावरण का निर्माण करने के लिए अनिवार्य है, जहाँ विद्यार्थी प्रणालीगत दबावों के आगे झुकने की बजाय, अपना विकास कर सकें।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

भारतीय विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की आत्महत्याएँ और जाति-लिंग आधारित उत्पीड़न संस्थागत उदासीनता तथा संरचनात्मक भेदभाव को उजागर करते हैं। विनियामक तंत्रों की कमियों पर चर्चा कीजिए और विद्यार्थियों के लिए समावेशी एवं सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने हेतु उपाय सुझाइए।

(10 अंक, 150 शब्द)

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