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यूरेशिया में महाशक्तियों के मध्य प्रतिद्वंद्विता और भारत के लिए रणनीतिक अवसर

Lokesh Pal June 26, 2024 05:30 101 0

संदर्भ: 

पिछले सप्ताह रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की उत्तर कोरिया और ताइवान की यात्रा तथा इस सप्ताह अमेरिका में निवर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन और उनके प्रतिद्वंद्वी डोनाल्ड ट्रम्प के बीच हुई राष्ट्रपति पद की बहस, यूरोपीय और एशियाई सुरक्षा के बीच जटिल और गहन होते अंतर्संबंधों को उजागर करती है, जो भारत जैसी मध्यम शक्तियों के लिए नए रणनीतिक अवसर प्रदान करती है।

प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध, सम्मेलन कूटनीति, रूस और उत्तर कोरिया की पारस्परिक सुरक्षा सहायता आदि।

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: वैश्विक भूराजनीति में भारत के लिए नए अवसर आदि।

यूरेशिया में महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता और भारत के लिए अवसर:

  • नई “यूरेशियन” भू-राजनीति के चार आयाम हैं:
    • प्रथम यह है कि एशिया अब यूरोपीय रंगमंच का निष्क्रिय सहायक नहीं रह गया है; बल्कि यह यूरोप की भू-राजनीति में सक्रिय रूप से योगदान देता है:
      • औपनिवेशिक युग के दौरान, एशियाई संसाधन यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों के आर्थिक और भू-राजनीतिक भाग्य को आकार देने के लिए महत्त्वपूर्ण थे।
      • 19वीं शताब्दी के प्रारंभ से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक हिंद महासागर में ग्रेट ब्रिटेन की प्रधानता को सुदृढ़ करने में भारतीय सैन्य संसाधनों के योगदान को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है ।
      • इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय सशस्त्र बलों ने प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों में ब्रिटेन और उसके पश्चिमी सहयोगियों की सैन्य सफलता में प्रमुख योगदान दिया था।
      • प्रथम विश्व युद्ध में दस लाख भारतीय सैनिकों ने भाग लिया तथा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान तकरीबन दो लाख भारतीय सैनिकों ने भाग लिया।
      • साम्राज्यवादी युग के विपरीत, जब औपनिवेशिक संसाधनों के उपयोग के बारे में निर्णय यूरोपीय चांसलरियों में लिए जाते थे, अब एशियाई राज्य ऐसे विकल्प चुनने में सक्षम हैं जो यूरोप में शक्ति संतुलन को आकार देते हैं।
      • ध्यान देने वाली बात यह है कि किस प्रकार रूस और पश्चिमी यूरोप दोनों यूक्रेन में युद्ध के कथानक को आकार देने में एशिया को अपने पक्ष में कर रहे हैं।
      • पिछले माह यूक्रेन शांति सम्मेलन कीव और उसके पश्चिमी समर्थकों द्वारा रूसी कब्जे को पलटने के लिए गैर-पश्चिमी विश्व से राजनीतिक सहानुभूति और कूटनीतिक समर्थन हासिल करने का एक बड़ा प्रयास था।
      • बदले में, मास्को ने वैश्विक दक्षिण के प्रमुख देशों पर सम्मेलन में भाग लेने से बचने का दबाव डाला।
      • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में हुए पहले बड़े युद्ध में सम्मेलन कूटनीति और गैर-पश्चिमी जनमत को संगठित करना वास्तव में महत्त्वपूर्ण हो गया है।
      • इससे यह स्पष्ट है कि एशिया अब यूरोपीय संघर्ष में हथियारों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बनकर उभरा है।
      • इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि यूक्रेन में कोरियाई प्रायद्वीप की नई भूमिका पर विचार किया जाना चाहिए।
      • जबकि उत्तर कोरिया रूस को गोला-बारूद का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन गया है, दक्षिण कोरियाई हथियार यूक्रेन की ओर प्रवाहित हो रहे हैं।
      • हालाँकि ऐसा नहीं कहा जा रहा है कि चीन रूस को हथियार निर्यात कर रहा है, लेकिन वह अन्य तरीकों से मास्को के युद्ध प्रयासों का समर्थन कर रहा है।
      • वाशिंगटन टोक्यो पर मिसाइलों के संयुक्त उत्पादन को बढ़ाने तथा निर्यात नियंत्रण को उदार बनाने के लिए दबाव डाल रहा है, ताकि जापान में निर्मित हथियार यूक्रेन तथा अन्य विवादित क्षेत्रों की ओर भेजे जा सकें।
    • द्वितीय, वर्तमान संघर्ष में महाशक्तियों से निपटने में एशियाई एजेंसी की भूमिका बढ़ी है:
      • पुतिन की प्योंगयांग और हनोई यात्रा से बेहतर सबूत और कोई नहीं हो सकता।
      • शीत युद्ध की समाप्ति के बाद मास्को ने प्योंगयांग के साथ अपनी गहन साझेदारी से इनकार कर दिया था तथा सियोल के साथ संबंध सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया था।
      • हालिया यात्राओं से स्पष्ट है कि रूस अब उत्तर कोरिया के साथ संबंधों को पुनः स्थापित करने के लिए उत्सुक है।
      • पुतिन ने पिछले सप्ताह 24 वर्षों की अवधी में पहली बार उत्तर कोरिया की यात्रा की और किम जोंग-उन को बढ़ावा देने के लिए आपसी सुरक्षा सहायता पर एक संधि तथा कई अन्य समझौतों पर हस्ताक्षर भी किए।
        • पुतिन की 24 वर्षों की अवधी में पहली बार उत्तर कोरिया की यात्रा से यह स्पष्ट होता है कि पुतिन ने पश्चिम को चुनौती देने के लिए “उत्तर कोरिया कार्ड” खेला है।
        • इसके अतिरिक्त इस मामले में एक जो दूसरा तथ्य सामने आता है वह यह कि किम जोंग-उन ने चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका के बीच अपनी उपस्थिति को बढ़ाने के लिए “रूसी कार्ड” खेला है।
      • इसके परिणामस्वरूप, संभवतः दक्षिण कोरिया, अमेरिका और यूरोप के लिए और भी अधिक महत्त्वपूर्ण साझेदार बन जाएगा।
      • यदि रूस उत्तर कोरिया को उसके परमाणु शस्त्रागार को बढ़ाने में मदद करता है, तो परमाणु हथियार संपन्न दक्षिण कोरिया की कल्पना करने में अमेरिका का प्रतिरोध कम हो जाएगा।
      • पिछले कुछ वर्षों में, बाइडन प्रशासन ने दक्षिण कोरिया के साथ द्विपक्षीय गठबंधन को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित किया है और सियोल तथा टोक्यो के साथ एक नई त्रिपक्षीय व्यवस्था विकसित की है।
      • इस बीच, चीन ने जापान और दक्षिण कोरिया के साथ अपना त्रिपक्षीय सहयोग पुनर्जीवित कर दिया है।
      • वियतनाम एकमात्र ऐसा देश है जिसने पिछले नौ महीनों में जो बाइडन, शी जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन की द्विपक्षीय यात्राओं की मेजबानी की है।
      • वियतनाम पहले से ही उच्च स्तरीय रणनीतिक कार्य में लगा हुआ है क्योंकि वह समांतर रुप से चीन और अमेरिका के साथ अपने आर्थिक संबंधों का विस्तार कर रहा है तथा वाशिंगटन के साथ सुरक्षा सहयोग की संभावनाएँ तलाश रहा है।
      • हनोई को उम्मीद है कि रूस के साथ रणनीतिक संबंधों को नवीनीकृत करने से चीन और अमेरिका के मध्य वियतनाम का संतुलन बेहतर होगा।
    • तृतीय, जैसे-जैसे एशियाई गतिशीलता बढ़ रही है, पश्चिमी दुविधाएँ भी बढ़ती जा रही हैं:
      • विदेश नीति पर अमेरिकी बहस में एक बड़ी खामी यह है कि यूरोप और एशिया में प्रतिस्पर्धात्मक अनिवार्यताओं को संतुलित करना मुश्किल है। (इजराइल को अमेरिकी समर्थन के सवाल पर राजनीतिक मतभेद कम महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं)।
      • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यूरोपीय और एशियाई दोनों महाशक्तियों पर अमेरिका का प्रभुत्व स्थापित हो गया था।
      • फरवरी 2022 में पुतिन द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण करने से कुछ ही दिन पहले सामने आए रूस-चीन गठबंधन और यूरोप तथा एशिया में दो शक्तियों द्वारा प्रस्तुत चुनौती के पैमाने के कारण, अमेरिका पर अपनी प्राथमिक चुनौती के स्रोत को परिभाषित करने का कुछ दबाव है।
      • रिपब्लिकन विदेश नीति विशेषज्ञों का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग तर्क देता है कि अमेरिका को यूक्रेन युद्ध पर अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करनी चाहिए और अपनी सैन्य शक्ति को एशिया में केंद्रित करना चाहिए।
      • बाइडन प्रशासन इस बात से सहमत है कि चीन मुख्य चुनौती है, लेकिन वह यूक्रेन को समर्थन देने से खुद को अलग करने की स्थिति में नहीं है।
      • इस प्रश्न पर बहस इस सप्ताह ट्रम्प और बाइडन के मध्य होने वाली बहस में सुनी जा सकती है।
    • चतुर्थ, यूरोप अपनी सुरक्षा के लिए जिम्मेदारी सुनिश्चित करे – एक सिद्धांत जिस पर बाइडन और ट्रम्प दोनों सहमत हैं:
      • दूसरे शब्दों में, वाशिंगटन चाहता है कि यूरेशियाई देश रूस और चीन को संतुलित करने के लिए और अधिक प्रयास करें तथा अमेरिका का कुछ बोझ कम करें।
      • जबकि यूरोप अपनी रक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए संघर्ष कर रहा है, ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और दक्षिण कोरिया सहित कई एशियाई देश क्षेत्रीय सुरक्षा व्यवस्था के पुनर्निर्माण में और अधिक योगदान देने के इच्छुक हैं।
      • यूरोप रूस को लेकर बहुत चिंतित है, लेकिन चीन से निपटने के तरीके पर विभाजित है।
      • चीन की चुनौती के प्रति सर्वोत्तम रणनीतिक प्रतिक्रिया के मामले में यूरोप, अमेरिका से सहमत नहीं है।
      • यद्यपि यूरोप रूस के प्रति चीन के समर्थन को लेकर चिंतित है, तथापि उसे यह भी उम्मीद है कि बीजिंग को मास्को पर अंकुश लगाने के लिए राजी किया जा सकता है।
      • पिछले चार दशकों में यूरोप और यूरेशिया के पूर्वी छोर पर स्थित चीन के औद्योगिक क्षेत्र के बीच विकसित हुए गहरे आर्थिक अंतर्संबंधों के कारण यूरोप के नेता बीजिंग का सामना करने से बच रहे हैं।
      • फिर भी, यूरोप एशिया में चीन के बढ़ते दबदबे के खिलाफ मजबूती से खड़े होने और हिंद-प्रशांत सुरक्षा में योगदान देने के अमेरिकी आह्वान को नजरअंदाज नहीं कर सकता है।
      • वाशिंगटन अपनी ओर से अपने करीबी एशियाई सहयोगियों – ऑस्ट्रेलिया, जापान, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया – को यूरोपीय सुरक्षा में योगदान देने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है।
      • यूरोपीय और एशियाई महाशक्तियों की बढ़ती हुई अंतरनिर्भरता से उत्पन्न महान उथल-पुथल के साथ-साथ मध्य शक्तियों का उदय भी हो रहा है, जिनका प्रभाव पूरे यूरेशिया में बढ़ रहा है।
      • अमेरिका, चीन और रूस को संतुलित करने के लिए मध्यम शक्तियों के साथ मजबूत सुरक्षा साझेदारी बनाने का इच्छुक है।
      • “एकीकृत निवारण” पर अमेरिका का जोर भारत जैसी मध्यम शक्तियों को सैन्य क्षमताओं सहित अपनी व्यापक राष्ट्रीय शक्ति को बढ़ाने का अवसर देता है।
      • प्रश्न यह है कि क्या भारतीय नौकरशाही इतनी तेजी से आगे बढ़ सकती है कि वह भारत के रक्षा औद्योगिक आधार के आधुनिकीकरण और घरेलू स्तर पर हथियारों के उत्पादन के तीव्र विस्तार के लिए मौजूदा अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं का लाभ उठा सके।
      • आखिरकार, हथियारों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता ही बहुप्रचारित “रणनीतिक स्वायत्तता” का सार हो सकता है।

निष्कर्ष :

निष्कर्षतः यूरेशियाई शक्ति की प्रतिद्वंद्विता के बीच, भारत के लिए रणनीतिक अवसर बढ़ रहे हैं, जिससे रणनीतिक स्वायत्तता हासिल करने के लिए भारत को अपने रक्षा उद्योग के तेजी से आधुनिकीकरण की आवश्यकता पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न :

प्रश्न : यूरोपीय और एशियाई सुरक्षा गतिशीलता के मध्य अंतर्संबंध ने वैश्विक भू-राजनीति में भारत के लिए किस प्रकार नए अवसर पैदा किए हैं? चर्चा कीजिए।

 (10 अंक, 150 शब्द)

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