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वोट के लिए रिश्वत के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला

Lokesh Pal March 06, 2024 05:15 147 0

संदर्भ

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि विधायकों को संसद और विधान सभाओं में दिए गए अपने भाषण और वोटों के संबंध में रिश्वतखोरी के आरोपों के लिए आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट नहीं मिलती है। सुप्रीम कोर्ट ने 1998 के पीवी  राव के फैसले को पलट दिया।

प्रारंभिक परीक्षा की प्रासंगिकता: भारत में चुनाव प्रक्रिया, मौलिक अधिकार और संसदीय विशेषाधिकार के बारे में।

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: भारतीय संविधान-ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, महत्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुख्य बिंदु:

  • परीक्षण की आवश्यकता: सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में इस बात का जिक्र किया कि संसदीय विशेषाधिकारों के व्यक्तिगत अधिकारों को “परीक्षण” की आवश्यकता है।
  • अनिवार्यता: इसका मतलब है कि किसी सदस्य को विशेषाधिकार का प्रयोग करने के लिए विशेषाधिकार ऐसा होना चाहिए कि बिना विशेषाधिकार के “अपने कार्यों का निर्वहन नहीं कर सकें।”
  • कर्तव्यों के निर्वहन की आवश्यकता: दावा किया गया विशेषाधिकार विधायक के कर्तव्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक है।
    • स्वाभाविक रूप से, एक कानून निर्माता के रूप में अपने कार्यों का निर्वहन करने के लिए रिश्वत स्वीकार करना आवश्यक नहीं कहा जा सकता है। 
    • उदाहरण के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होना इसके विपरीत है।
  • भ्रष्टाचार-मतदान या अंतरात्मा के मत पर: रिश्वत स्वीकार करना एक अपराध है, और यह इस पर निर्भर नहीं करता है कि लोक सेवक ने अलग तरीके से कार्य किया है अथवा नहीं।
  • भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा 7: यह आवश्यक नहीं है कि जिस कार्य के लिए रिश्वत दी गई है वह वास्तव में किया जाए।
  • विधायी विशेषाधिकार संवैधानिक मापदंडों के अनुरूप होना चाहिए: भारत का संसदीय विशेषाधिकार न्यायिक समीक्षा के अधीन क़ानून और संवैधानिक विशेषाधिकारों से प्राप्त होता है।

सुप्रीम कौर्ट के फैसले का महत्व:

  • बुनियादी संरचना सिद्धांत को कायम रखना: यह निर्णय न्यायिक समीक्षा को कायम रखता है।
  • भ्रष्टाचार से मुकाबला: रिश्वतखोरी के आरोपों का सामना करने वाले विधायकों के लिए छूट को समाप्त करके।
  • जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ावा देना: यह स्पष्ट करके कि रिश्वतखोरी के अपराध अभियोजन से प्रतिरक्षित नहीं हैं, निर्णय जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा।
  • सदन की अखंडता को मजबूत करना: यह सदन की अखंडता को मजबूत करेगा, क्योंकि भाषण देने के लिए रिश्वत स्वीकार करने से यह कमजोर हो जाता है।
  • मौलिक अधिकारों का संरक्षण: रिश्वतखोरी के आरोपी विधायकों के लिए विशेष विशेषाधिकारों को समाप्त करके कानून के तहत समान व्यवहार सुनिश्चित करना। 
    • यह संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के अनुरूप है।

  • समानांतर क्षेत्राधिकार: न्यायपालिका और संसद दोनों समानांतर रूप से कानून निर्माताओं के कार्यों पर क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सदन द्वारा दंड देने का उद्देश्य आपराधिक मुकदमे के उद्देश्य से भिन्न होता है।
  • सदन का क्षेत्राधिकार: सदन द्वारा की जाने वाली कार्यवाही का उद्देश्य इसकी गरिमा को बहाल करना है। ऐसी कार्यवाही के परिणामस्वरूप सदन की सदस्यता से निष्कासन हो सकता है।
  • आपराधिक मुकदमा: यह सदन की अवमानना से अलग है क्योंकि यह पूरी तरह से प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों, साक्ष्य के नियमों और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से सुसज्जित है।
  • लोकतंत्र का क्षरण: विधायिका के सदस्यों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र की नींव को नष्ट कर देती है।
  • राज्यसभा चुनावों के लिए प्रयोज्यता: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि फैसले द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत राज्यसभा के चुनावों और भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की नियुक्ति के लिए समान रूप से लागू होंगे।
    • तदनुसार, इसने कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ (2006) मामले की टिप्पणियों को खारिज कर दिया। 
    • कुलदीप नैयर यूएस यूनियन ऑफ इंडिया (2006): यह माना गया कि राज्यसभा के चुनाव विधायिका की कार्यवाही नहीं हैं, बल्कि मताधिकार का मात्र प्रयोग हैं और इसलिए अनुच्छेद 194 के तहत संसदीय विशेषाधिकारों के दायरे से बाहर हैं।

चुनौतियाँ:

  • निर्णयों और कानूनों पर अनिश्चितता: स्थापित मिसाल को पलटना प्रमुख चिंताओं में से एक है जिसके लिए सममित निर्णयों और नियमों के लिए अधिक गहन अध्ययन की आवश्यकता होती है।
  • विधायिका की स्वतंत्रता पर प्रभाव: विधायकों पर आपराधिक मुकदमा चलाने से विधायकों की अपने कर्तव्यों को पूरा करने की स्वतंत्रता और प्रभावशीलता पर असर पड़ सकता है।
  • कार्यान्वयन में चुनौतियाँ: प्रभावी कार्यान्वयन कानून प्रवर्तन एजेंसियों और न्यायपालिका के लिए तार्किक और प्रक्रियात्मक चुनौतियाँ पैदा कर सकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 105:

  • संसद के सदनों और सदस्यों तथा समितियों की शक्तियों और विशेषाधिकारों आदि से संबंधित है।
  • संसद में बोलने की आजादी ।
  • संसद सदस्यों को अपने कर्तव्यों के दौरान दिए गए किसी भी बयान या किए गए कार्य के लिए किसी भी कानूनी कार्रवाई से छूट दी गई है।
  • यह छूट कुछ गैर-सदस्यों, जैसे- अटॉर्नी जनरल को भी प्राप्त है।
  • भारत के लिए एक मंत्री जो सदस्य नहीं हो लेकिन उसे सदन में बोलने का अधिकार है।
  • ऐसे मामलों में जहाँ कोई सदस्य स्वीकार्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा से आगे निकल जाता है तो ऐसे मामलों में अध्यक्ष या सदन स्वयं इस समस्या के समाधान का प्रयास करेगा।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारत की संसदीय प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेहिता सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह विधायी स्वतंत्रता को बनाए रखने और भ्रष्टाचार से निपटने के मध्य एक संतुलन बनाए रखने में मदद करेगा।

News Source: Indian Express

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