प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: कानून की उचित प्रक्रिया, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया,पोटा अधिनियम, प्रेस की स्वतंत्रता एवं संवैधानिक प्रावधान, अनुच्छेद 22(1) आदि।
मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: संविधान मेंमूल संरचना सिद्धांत का विकास, गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम 1967 (UAPA) और अन्य कानूनों में अंतर, मानवाधिकार आयोग, निष्पक्ष पत्रकारिता और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का महत्व एवं चुनौतियां आदि।
संदर्भ:
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में न्यूजक्लिक के संस्थापक संपादक (प्रबीर पुरकायस्थ) के एक निर्णय में “विधि की उचित प्रक्रिया” के महत्व पर प्रकाश डाला।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम 1967 (UAPA) के तहत यह गिरफ़्तारी कानून की नजर में अमान्य है अतः यह कानून प्रवर्तन एजेंसियों को कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करने और गिरफ़्तारी के लिखित आधार सुनिश्चित करने पर बल देता है।
विधि की उचित प्रक्रिया क्या है?
स्रोत: “विधि की उचित प्रक्रिया” का विचार भारतीय संविधान में अमेरिकी संविधान से ग्रहण किया गया है।
अर्थ : विधि की उचित प्रक्रिया का अर्थ है कि सरकार निष्पक्ष एवं उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना किसी व्यक्ति का जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति नहीं छीन सकती।
इस अवधारणा के दो भाग हैं: मूलभूत उचित प्रक्रिया (वास्तविक रूप से लागू कानून) और प्रक्रियात्मक उचित प्रक्रिया (कानूनों को लागू करने के लिए प्रयुक्त प्रक्रियाएं)।
नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों के लिए सुरक्षा उपाय: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अंततः नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों के लिए दो सुरक्षा उपाय प्रस्तुत किए: उचित प्रक्रिया सिद्धांत और मूल संरचना सिद्धांत।
हालाँकि, ये सिद्धांत संविधान के लिखित पाठ से अनुपस्थित हैं।
कानून की उचित प्रक्रिया पर चर्चा-परिचर्चा :
गोविंद बल्लभ पंत: ये उचित प्रक्रिया खंड के प्रमुख विरोधी थे क्योंकि उनका मानना था कि यह खंड जमींदारी प्रथा के उन्मूलन जैसे सामाजिक सुधार कानूनों के कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करेगा।
सी. राजगोपालाचारी: उन्होंने सम्पत्ति को सम्पत्ति से अलग करते हुए, किन्तु जीवन और स्वतंत्रता के लिए सम्यक प्रक्रिया संरक्षण को बरकरार रखते हुए, उचित प्रक्रिया खण्ड पर एक समझौता संशोधन पेश किया।
तदनुसार, 30 अप्रैल 1947 को विधानसभा द्वारा उचित प्रक्रिया खंड पारित किया गया, जिसमें कहा गया था: “कानून की उचित प्रक्रिया के बिना किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।”
बी.एन. राव: संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार को सभा के पूर्व निर्णयों और विचार-विमर्शों को प्रतिबिंबित करते हुए संविधान का मसौदा तैयार करने का कार्य सौंपा गया था।
उन्होंने आयरिश संविधान के उदाहरण का अनुसरण करते हुए ‘स्वतंत्रता’ के पहले ‘व्यक्तिगत’ शब्द जोड़कर ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ के संबंध में उचित प्रक्रिया के खंड को संशोधित किया।
इस दावे के बावजूद कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश फेलिक्स फ्रैंकफर्टर ने राउ को उचित प्रक्रिया संबंधी खंड को पूरी तरह से हटाने की सलाह दी थी परंतु राउ ने इस सलाह का पालन नहीं किया।
विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के साथ उचित प्रक्रिया खंड को प्रतिस्थापित करना: प्रारूप समिति ने मसौदे से उचित प्रक्रिया खंड को हटा दिया था। भारतीय संविधान में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को 1946 के जापान के संविधान से ग्रहण किया गया है।
इसे ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार को छोड़कर’ से प्रतिस्थापित किया गया।
उचित प्रक्रिया खंड की अस्वीकृति: संविधान सभा में उचित प्रक्रिया खंड पर चर्चा-परिचर्चा आयोजित की गयी। जिसमें से सबसे चर्चित परिचर्चा के.एम. मुंशी-अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर थी।
अंततः विधानसभा ने उचित प्रक्रिया खंड के विरुद्ध मतदान किया।
बुनियादी संरचना का सिद्धांत:
केशवानंद भारती मामला: 1973 के केशवानंद भारती मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित मूल संरचना सिद्धांत को नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के रूप में जाना जाता है।
इस मामले में मौलिक अधिकारों में संशोधन का मुद्दा प्रमुख विवाद था।
इसके तहत यह माना गया कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है बशर्ते कि वह संविधान की मूल संरचना और विशेषताओं को परिवर्तित न करता हो।
मौलिक अधिकार मूल ढाँचे का हिस्सा: नानी पालखीवाला ने तर्क दिया कि मौलिक अधिकार संविधान के मूल ढांचे में शामिल हैं, और इसलिए उन्हें संशोधित नहीं किया जा सकता। इस प्रस्ताव को 6 जजों की बेंच ने स्वीकार किया गया था।
इसके द्वारा यह माना गया कि संविधान का 29वाँ संशोधन अधिनियम (1972), जो संपत्ति के मौलिक अधिकार को सीमित करता है, पूर्णतः वैध है अतः इसकी वैधता को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): इस मामले में, न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती ने कहा कि अनुच्छेद 21 की भाषा स्पष्ट है, जिसमें उचित प्रक्रिया की गारंटी शामिल है।
मेनका गांधी मामला (1978) में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए कहा कि “कानून की उचित प्रक्रिया” “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” का एक अभिन्न अंग है।
भारतीय संविधान का ‘अनुच्छेद 21’ आदेश देता है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
विवाह का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक घटक है।
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