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खाद्यान्न सुरक्षा मानकों की आवश्यकता और भारत की प्रगति

Lokesh Pal June 07, 2025 05:00 76 0

संदर्भ:

विश्व खाद्यान्न सुरक्षा दिवस 2025 प्रतिवर्ष 7 जून को मनाया जाता है, इस वर्ष का विषय खाद्यान्न सुरक्षा: विज्ञान कार्य मेंहै, जो भारत में वैज्ञानिक, जोखिम-आधारित दृष्टिकोण की ओर परिवर्तन को दर्शाता है।

खाद्यान्न सुरक्षा के प्रति भारत का दृष्टिकोण

  • पहला खाद्यान्न सुरक्षा कानून: वर्ष 1954 में भारत ने खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1954 लागू किया, जो खाद्यान्न सुरक्षा पर पहला प्रमुख कानून था।
  • द्विआधारी वर्गीकरण: अधिनियम में द्विआधारी दृष्टिकोण अपनाया गया, खाद्य पदार्थ या तो सुरक्षितया मिलावटी/अपमिश्रितहोते थे, तथा उनके लिए कोई वैज्ञानिक जोखिम मूल्यांकन नहीं किया गया था।
  • कोई अंतर नहीं: इसमें जानबूझकर मिलावट (जैसे- दूध में चाक पाउडर), प्राकृतिक विषाक्त पदार्थ (जैसे- एफ्लाटॉक्सिन), कीटनाशक अवशेष और खाद्य योज्य की अधिक मात्रा के बीच कोई अंतर लागू नहीं किया गया।
  • मात्रा या अनावरण: एक प्रमुख समस्या यह थी, कि खाए गए भोजन की मात्रा को नजरअंदाज कर दिया गया।
  • जोखिम-आधारित मूल्यांकन का अभाव: कोई जोखिम मूल्यांकन पद्धति नहीं थी। निर्णय द्विआधारी थे, वैज्ञानिक मूल्यांकन या वास्तविक स्वास्थ्य जोखिम पर आधारित नहीं थे।

FSSA अधिनियम में परिवर्तन

  • खाद्य विनियमन में बदलाव: खाद्यान्न सुरक्षा और मानक अधिनियम (FSSA), 2006 ने मिलावट-केंद्रित दृष्टिकोण से विज्ञान-आधारित विनियामक ढाँचे की ओर व्यापक परिवर्तन किया।
  • FSSA का निर्माण: इस अधिनियम ने भारतीय खाद्यान्न सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) को सर्वोच्च खाद्यान्न सुरक्षा विनियामक तंत्र के रूप में स्थापित किया।
  • स्थानीय अनुप्रयोग: कोडेक्स एलीमेंटेरियस आयोग (डब्ल्यूएचओ और एफएओ की एक संयुक्त पहल) से प्रेरणा लेते हुए, FSSAI ने भारत की खाद्यान्न सुरक्षा प्रणाली में अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं को एकीकृत किया।
  • वैज्ञानिक रूपरेखा: FSSAI ने कीटनाशकों के लिए MRL (अधिकतम अवशेष सीमा), खाद्य योजकों के लिए सुरक्षित सीमा और प्राकृतिक एवं रासायनिक संदूषकों के लिए मानकों के माध्यम से एक आधुनिक, जोखिम-आधारित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
  • रोकथाम: यह एक प्रमुख संस्थागत सुधार था, जो प्रतिक्रियात्मक मिलावट नियंत्रण से सक्रिय, विज्ञान-संचालित विनियमन की ओर अग्रसर था।

वैज्ञानिक कार्यान्वयन

  • सुरक्षा सीमाओं का आधार: कीटनाशक विनियमन विकसित हुआ- यदि 0.01 मिलीग्राम/किग्रा. तक के अवशेष स्तर हानिरहित सिद्ध हुए, तो उन्हें वैज्ञानिक सुरक्षा सीमा के रूप में निर्धारित किया गया।
  • पशु चिकित्सा दवा अवशेषों के लिए अनुमेय सीमाएँ जोखिम मूल्यांकन और विषाक्तता संबंधी डेटा का उपयोग करके परिभाषित की गई थी।
  • वैश्विक मानकों के साथ तालमेल: भारत ने वैश्विक वैज्ञानिक सहमति और व्यापार आवश्यकताओं के साथ तालमेल बिठाकर खाद्य विनियमन में अंतर्राष्ट्रीय समानता प्राप्त करना शुरू कर दिया है।
  • जोखिम-आधारित सीमाएँ: पूर्व शून्य सहनशीलतामॉडल को जोखिम मूल्यांकन पद्धतियों के आधार पर वैज्ञानिक रूप से उचित सीमाओं द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
  • रक्षा योग्य मानक: इस परिवर्तन ने भारत को वैज्ञानिक रूप से रक्षा योग्य मानकों के साथ वैश्विक खाद्य व्यापार में सार्थक रूप से भाग लेने में सक्षम बनाया, जिससे विनियामक विश्वसनीयता बढ़ी।

भारत की वैश्विक स्थिति

  • वैश्विक बेंचमार्क: 2020 तक, FSSAI ने अधिकांश श्रेणियों में खाद्यान्न सुरक्षा मानक स्थापित कर लिए थे, जो विकसित देशों के बराबर थे।
  • अंतर्राष्ट्रीय मानदंड: भारत ने कोडेक्स एलीमेंटेरियस दिशा-निर्देशों और वैश्विक वैज्ञानिक मानकों के साथ विनियमन को सुसंगत बनाने में मज़बूत प्रगति की है।
  • विद्यमान चिंताएँ: यह परिवर्तन सतह पर तेजी से कुशल संरचना के निर्माण जैसा था, लेकिन आधारभूत अंतराल के साथ जो समय के साथ दिखाई देने लगे।
  • क्षमता से अधिक गति: विनियामक सुधार की गति कभी -कभी सहायक बुनियादी ढाँचे, संस्थागत क्षमता और वैज्ञानिक विशेषज्ञता के विकास से अधिक हो जाती है।
  • अंतराल: यद्यपि मानक वैश्विक स्तर के अनुरूप थे, फिर भी प्रवर्तन की क्षमता और वैज्ञानिक सहायता प्रणाली को अभी भी सुदृढ़ता की आवश्यकता थी।

भारत से सबंधित चुनौतियाँ

  • विष विज्ञान संबंधी (Toxicological studies) अध्ययनों का अभाव: अधिकतम अवशेष सीमा (MRL) और स्वीकार्य दैनिक सेवन (ADI) निर्धारित करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप विष विज्ञान संबंधी अध्ययन और जोखिम आकलन की आवश्यकता होती है।
    • भारत को अपने स्वयं के विष विज्ञान संबंधी अध्ययनों में अभाव का सामना करना पड़ रहा है। अधिकांश सुरक्षा मानक विभिन्न स्वास्थ्य आधारित रेखाओं वाली विदेशी आबादी से आयातित डेटा पर निर्भर करते हैं।
  • जोखिम अनुमान: उदाहरण के लिए, यूरोप में गेहूँ का सेवन औसतन 200 ग्राम/दिन है, जबकि भारत में यह लगभग 400 ग्राम/दिन है – भारतीय संदर्भ में किसी भी कीटनाशक अवशेष के संपर्क में आने की दर दुगुनी है।
  • संपूर्ण आहार अध्ययन (टीडीएस) का अभाव: भारत ने अभी तक संपूर्ण आहार अध्ययन (टीडीएस) नहीं किया है, जो संपूर्ण दैनिक आहार के माध्यम से रासायनिक जोखिम का एक व्यापक विश्लेषण है।
  • WHO की चेतावनी:WHO (2020) के अनुसार टीडीएस के बिना देश अक्सर संचयी जोखिमों का गलत आकलन करते हैं।यह भारत की जोखिम मूल्यांकन क्षमता में एक गंभीर अंतराल को उजागर करता है।
  • सार्वजनिक भ्रम: MRL (अधिकतम अवशेष सीमा) या ADI (स्वीकार्य दैनिक सेवन) जैसे वैज्ञानिक सुरक्षा मूल्य पीपीएम (प्रति मिलियन भाग) या पीपीबी (प्रति बिलियन भाग) में व्यक्त किए जाते हैं – जो जन-मानस के लिए प्रायः भ्रमित करने वाली इकाइयाँ होती हैं।
  • संचार अंतराल: संचार में यह अंतराल सार्वजनिक चिंता और अविश्वास को जन्म दे सकता है, जैसा कि 2019 में देखा गया था जब FSSAI ने कीटनाशक MRL को संशोधित किया था, जिसके कारण वैज्ञानिक वैधता के बावजूद खतरनाक खाद्य पदार्थजैसी चिंताजनक सुर्खियाँ निर्मित हुई।

 कुल आहार अध्ययन (TDS)

  • टीडीएस के बारे में: टीडीएस एक समग्र सर्वेक्षण पद्धति है, जो किसी व्यक्ति के संपूर्ण दैनिक आहार के माध्यम से संचयी रासायनिक सेवन का आकलन करती है, न कि केवल व्यक्तिगत खाद्य पदार्थों के माध्यम से।
  • जोखिम: टीडीएस जोखिम का पूरा चित्र प्रस्तुत करता है, जबकि मानक परीक्षण केवल व्यक्तिगत खाद्य श्रेणियों से खंडित डेटा प्रदान करता है, जिससे वास्तविक जोखिम परिदृश्य समाप्त हो जाता है।
  • उपभोग प्रतिरूप: लोग वास्तव में भोजन का उपभोग कैसे करते हैं, इसे प्रदर्शित कर टीडीएस विभिन्न खाद्य स्रोतों से प्राप्त कई रसायनों के संयुक्त प्रभाव को प्रकट करता है।
  • अनुपस्थिति: टीडीएस के बिना, भारत का जोखिम आकलन कमजोर रहेगा तथा सुरक्षा सीमाएँ अनुपयुक्त हो सकती हैं, जो वास्तविक उपभोक्ता जोखिम को प्रतिबिंबित करने में विफल हो सकती हैं।
  • नीतिगत निहितार्थ: टीडीएस सटीक MRL, ADI और साक्ष्य-आधारित खाद्यान्न सुरक्षा मानकों को निर्धारित करने के लिए आवश्यक है, जो भारतीय आहार प्रतिरूप के तहत सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा करते हैं।

मोनोसोडियम ग्लूटामेट (MSG) का मुद्दा

  • विनियामक विलंब: मोनोसोडियम ग्लूटामेट (MSG) यह दर्शाता है, कि किस प्रकार परम्परागत खाद्य विनियम, स्थापित विज्ञान का खंडन कर सकते हैं और उपभोक्ताओं को गुमराह कर सकते हैं।
  • एमएसजी पर निर्णय: खाद्य योजकों पर संयुक्त एफएओ/डब्ल्यूएचओ विशेषज्ञ समिति (जेईसीएफए ):
    • 1971: एमएसजी को सुरक्षित घोषित किया गया।
    • 1987: एडीआई निर्दिष्ट नहीं” – उपभोग के किसी भी स्तर पर कोई स्वास्थ्य संबंधी चिंता नहीं प्रदर्शित करता है।
  • वैश्विक स्वीकृति: चीन, अमेरिका और जापान एमएसजी की सुरक्षा को पूरी तरह से स्वीकार करते हैं तथा दशकों के वैज्ञानिक सत्यापन के आधार पर खाद्य पदार्थों में इसके अप्रतिबंधित उपयोग की अनुमति देते हैं।
  • विनियामक असंगतता: भारत में एमएसजी का उपयोग शुरू में मांस उत्पादों तक ही सीमित था, धीरे-धीरे इसका विस्तार हुआ, लेकिन अभी भी इस पर बिना किसी वैज्ञानिक आधार के शिशुओं के लिए अनुशंसित नहींकी चेतावनी दी जाती है।
  • घटना: ग्लूटामेट, MSG का सक्रिय घटक, प्राकृतिक रूप से मशरूम, टमाटर, पनीर, लहसुन और माँ के दूध में पाया जाता है। MSG रासायनिक रूप से इन प्राकृतिक स्रोतों के समान है।
  • सार्वजनिक कीमोफोबिया: जब विनियमन एमएसजी को असुरक्षित बताते हैं, तो इससे कीमोफोबियाको बढ़ावा मिलता है, जो भोजन में सुरक्षित रासायनिक योजकों के प्रति एक अतार्किक भय है।
  • विनियामक अवधारणा: यह वैज्ञानिक वास्तविकता का खंडन करता है: एमएसजी रासायनिक रूप से टमाटर, पनीर और माँ के दूध में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले ग्लूटामेट के समान है। ऐसी चेतावनियाँ अनावश्यक उपभोक्ता भ्रम और बाजार विकृति का कारण बनती हैं।
  • विश्वास में कमी: लगातार अवैज्ञानिक लेबलिंग से उपभोक्ता का विश्वास कमजोर होता है और भारत की विज्ञान-आधारित खाद्यान्न विनियामक प्रणाली की विश्वसनीयता को नुकसान होता है।
  • आर्थिक लागत: एमएसजी पर पुराने प्रतिबंध घरेलू खाद्यान्न उद्योग को नुकसान पहुँचाते हैं, वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक हानि उत्पन्न करते हैं तथा विज्ञान आधारित व्यापार मानदंडों का उल्लंघन करते हैं।
  • केस स्टडी: एमएसजी विवाद भारत द्वारा पुराने नियमों में कम संशोधन का उदाहरण है, जो वर्तमान वैज्ञानिक आम सहमति से टकराता है।
  • अप्रचलित नियम: संस्थागत जड़ता, राजनीतिक अनिच्छा और सार्वजनिक प्रतिक्रिया के भय के कारण कई वैज्ञानिक रूप से अप्रचलित नियम सक्रिय रहते हैं।
  • क्षमता अंतराल: एक प्रमुख चुनौती विनियामकों के बीच अद्यतन जोखिम मूल्यांकन प्रशिक्षण का अभाव है, जो मानकों को आधुनिक बनाने की उनकी क्षमता को सीमित करता है।

आगे की राह

  • द्विस्तरीय विनियामक प्रणाली: इसके परिणामस्वरूप द्विस्तरीय प्रणाली बनती है, जहाँ कुछ विनियमन विज्ञान-सम्मत होते हैं, लेकिन कई अन्य पुराने प्रतिमानों में फँसे रहते हैं।
  • अनुसंधान निवेश: भारत को विदेशी वैज्ञानिक आँकड़ों पर निर्भरता कम करने के लिए घरेलू विषविज्ञान प्रयोगशालाओं में भारी निवेश करना चाहिए।
  • आहार जोखिम अध्ययन: भारत में रासायनिक जोखिमों को सटीक रूप से समझने के लिए भारतीय आहार प्रतिरूप के आधार पर जोखिम आकलन करना महत्त्वपूर्ण है।
  • संपूर्ण आहार अध्ययन (टीडीएस) का कार्यान्वयन: संपूर्ण दैनिक आहार से संचयी रासायनिक जोखिम को कम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक टीडीएस शुरू किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

दीर्घकालिक विष विज्ञान (toxicology) अनुसंधान में निरंतर निवेश साक्ष्य-आधारित, भारत-विशिष्ट खाद्यान्न सुरक्षा मानकों के लिए वैज्ञानिक आधार निर्मित करेगा। स्वदेशी अनुसंधान क्षमताओं को मजबूत करने से संदर्भ-उपयुक्त सुरक्षा सीमाएँ तैयार करने में मदद मिलेगी एवं आयातित अध्ययनों पर विनियामक निर्भरता कम होगी।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

भारत के खाद्यान्न सुरक्षा मानकों में उल्लेखनीय विकास हुआ है, फिर भी जोखिम मूल्यांकन और संचार में अंतराल बना हुआ है। विज्ञान-आधारित खाद्यान्न सुरक्षा विनियमों को लागू करने में चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। भारत उपभोक्ता संरक्षण और विनियामक प्रभावशीलता सुनिश्चित करते हुए वैज्ञानिक साक्ष्य एवं सार्वजनिक धारणा के बीच संतुलन कैसे बना सकता है?       (15 अंक, 250 शब्द)

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