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संसद में लोकसभा उपाध्यक्ष का पद प्रतीकात्मक या वैकल्पिक नहीं

Lokesh Pal April 29, 2025 05:00 8 0

“केवल हृदय से ही व्यक्ति सही रूप से देख सकता है, जो आवश्यक है वह आँखों के लिए अदृश्य है |”– एंटोनी डी सेंट-एक्सुपेरी

संदर्भ: 

17वीं और 18वीं लोकसभा के दौरान उपाध्यक्ष का पद लंबे समय तक रिक्त रहना एक गंभीर संवैधानिक विसंगति को दर्शाता है।

संवैधानिक आधार

  • अनुच्छेद 93: लोकसभा यथाशीघ्र अपने दो सदस्यों को क्रमशः अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी। “यथाशीघ्र” शब्द से तात्कालिकता का बोध होता है, विवेक का नहीं। 
  • अधिदेश: लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद एक औपचारिक भूमिका नहीं, बल्कि एक संवैधानिक अनिवार्यता है।
  • उपाध्यक्ष की भूमिका: उपाध्यक्ष का पद महज औपचारिक पद नहीं है, यह एक संवैधानिक अनिवार्यता है, जिसे लोकसभा की निरंतरता, स्थिरता और प्रक्रियात्मक अखंडता सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है।

ऐतिहासिक विकास

  • औपनिवेशिक उत्पत्ति: यह पद ब्रिटिश काल से प्रारंभ है, केंद्रीय विधानसभा के अंतर्गत जहाँ इसे उप राष्ट्रपति कहा जाता था। 1921 में सच्चिदानंद सिन्हा इस पद पर बैठने वाले पहले व्यक्ति थे। 
  • प्रासंगिकता: 1950 में संविधान की स्वीकृति से पूर्व, संविधान सभा (विधान) ने इस पद को बनाए रखा, जिससे इसका महत्त्व रेखांकित हुआ। 
    • स्वतंत्र भारत के प्रथम निर्वाचित उपाध्यक्ष एम. ए. अयंगर थे। 
    • 1956 में स्पीकर जी. वी. मावलंकर की अचानक मृत्यु के बाद, अयंगर ने कार्यवाहक स्पीकर (अध्यक्ष) के रूप में कार्य किया, जिससे संकट की निरंतरता में उनकी भूमिका का महत्त्व और अधिक बढ़ गया। 

संसद में उपाध्यक्ष की प्रासंगिकता

  • प्रक्रियागत निरंतरता सुनिश्चित करना: जैसा कि संवैधानिक विशेषज्ञ एस.सी. कश्यप ने कहा है, अध्यक्ष लगातार सभी बैठकों की अध्यक्षता नहीं कर सकते। 
    • इसलिए, उपाध्यक्ष एक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक पदाधिकारी के रूप में कार्य करते हैं तथा संसदीय कार्यवाही के निर्बाध संचालन को सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाते हैं।
  • प्रक्रियागत उपलब्धता: उपाध्यक्ष की भूमिका केवल अध्यक्ष का स्थान लेने तक ही सीमित नहीं है, उन्हें महत्त्वपूर्ण सत्रों की अध्यक्षता, चुनिंदा संसदीय समितियों की अध्यक्षता करने तथा प्रक्रियागत तटस्थता की आवश्यकता वाले संवेदनशील वाद-विवादों की देखरेख करने का अधिकार है।
  • द्वि-दलीय मानदंडों का प्रतीक: एक सुस्थापित संसदीय परंपरा,  यद्यपि बाध्यकारी नहीं है, विपक्ष को उपाध्यक्ष का पद प्रदान करना है, जिससे संस्थागत संतुलन और अंतर-दलीय सहयोग मज़बूत होता है।
  • गैर-पक्षपातपूर्ण चरित्र की स्थापना: विपक्षी दल से उपाध्यक्ष की नियुक्ति की परंपरा अध्यक्ष के कार्यालय के गैर-पक्षपातपूर्ण चरित्र को सुदृढ़ करती है।
    • इससे सर्वसम्मति आधारित कार्यप्रणाली को बढ़ावा मिलता है तथा पीठासीन प्राधिकारी का तटस्थ चरित्र कायम रहता है।
  • विपक्षी दल से नियुक्ति: हालाँकि यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है, लेकिन विपक्ष से उपाध्यक्ष की नियुक्ति की लंबे समय से परंपरा रही है। 
    • यह द्वि-दलीयता को बढ़ावा देता है। 
    • विश्वास और सहयोग का निर्माण होता है। 
    • संसदीय कार्यप्रणाली के गैर-पक्षपातपूर्ण चरित्र को बनाए रखता है। 
  • गलत व्याख्या: हालाँकि अनुच्छेद 93 में कोई समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है, लेकिन “यथाशीघ्र” को “जब भी सुविधाजनक हो” के रूप में व्याख्या करना संवैधानिक प्रावधानों की गलत व्याख्या है।

पद रिक्तता के निहितार्थ:

  • संस्थागत व्यवधान: निरंतर पद रिक्तता संवैधानिक सुरक्षा उपायों को कमजोर करती है, अध्यक्ष और सत्तारूढ़ दल के भीतर शक्ति को केंद्रीकृत करती है। यह प्रक्रियात्मक अतिरेक को समाप्त करता है, जो आपात स्थितियों में आवश्यक है। 
    • अध्यक्ष के त्यागपत्र, पद से हटाए जाने या मृत्यु की स्थिति में उपाध्यक्ष का पद रिक्त होने  से सदन में नेतृत्व संबंधी अनिश्चितता पैदा हो सकती है।
  • संसदीय परंपराएँ: इस पद को न भरना  संसदीय मानदंडों के प्रति व्यापक उपेक्षा और “आम सहमति” की राजनीति के अभाव को दर्शाता है।
    • विपक्ष को सक्रिय रूप से हाशिए पर धकेला जा रहा है | यहाँ “कोई तात्कालिक आवश्यकता नहीं” का तर्क संवैधानिक लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है।

आगे की राह

  • समयबद्ध चुनाव: उपाध्यक्ष की नियुक्ति के लिए एक अनिवार्य समय-सीमा निर्धारित करें। उदाहरण के लिए, नई लोकसभा की पहली बैठक के 60 दिनों के भीतर एक विशिष्ट समय-सीमा देरी की इस समस्या को दूर कर बेहतर अनुपालन सुनिश्चित कर सकती है।
  • कार्यकारी कार्रवाई के लिए वैधानिक सशक्तीकरण: राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री या अध्यक्ष की सलाह पर निर्वाचन प्रक्रिया आरंभ करने में सक्षम बनाने के लिए कानून प्रस्तुत करना, तथा देरी के लिए संस्थागत जवाबदेही सुनिश्चित करना।
  • संवैधानिक अनुशासन को पुनः लागू करना: उपाध्यक्ष का पद एक संवैधानिक जनादेश है, जो विधायी निरंतरता और अखंडता के लिए आवश्यक है।

निष्कर्ष

अब समय आ गया है, कि संसद संवैधानिक मानदंडों और संस्थागत अखंडता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुनः पुष्टि करे। उपाध्यक्ष का पद महज औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह सदन की नियम-आधारित शासन प्रणाली की सुनिश्चितिता का प्रतीक है।  

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

लोकसभा के उपाध्यक्ष के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों की जाँच कीजिए। चर्चा कीजिए, कि इस पद के लंबे समय तक रिक्त रहने से संस्थागत संतुलन, संसदीय लोकतंत्र और भारत की शासन प्रणाली के संघीय ढाँचे पर क्या प्रभाव पड़ता है?

(15 अंक, 250 शब्द)

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