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परिसीमन की जनसंख्या-आधारित प्रक्रिया से जुड़ी समस्या

Lokesh Pal April 11, 2025 05:30 8 0

संदर्भ:

2026 की समय-सीमा से पहले भारत में परिसीमन आयोग की बहस ने एक अतिरिक्त दृष्टिकोण की ओर ध्यान आकर्षित किया है

संवैधानिक प्रावधान:

  • कानूनी आधार: परिसीमन संबंधी प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 82 और 170 में निहित है। इनमें यह प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभा में सीटों का आवंटन समायोजित किया जाएगा।   
  • स्थगन की प्रक्रिया: हालाँकि संविधान में मूल रूप से प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन का आह्वान किया गया था, लेकिन 42वें संवैधानिक संशोधन और बाद के संशोधनों ने इस प्रक्रिया को 2026 तक के लिए स्थगित कर दिया। इसलिए, अगली जनगणना भविष्य की परिसीमन प्रक्रियाओं का आधार होगी। 
  • बढ़ते तनाव: इस मुद्दे पर गंभीर बहस और असामान्य प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। जहां कुछ लोगों ने वैध संवैधानिक चिंताओं को उठाया है, वहीं अन्य लोगों ने अतिवादी सुझाव दिए हैं, जैसे कि संख्या से अधिक होने से बचने के लिए जनसंख्या में वृद्धि का आग्रह करना।

परिसीमन से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ:

  • राजनीतिक तर्क: विडंबना यह है कि जो समूह कभी सरकार पर संविधान का उल्लंघन करने का आरोप लगाते थे, वह अब उसके प्रावधानों को लागू करने में देरी करने का आग्रह कर रहे हैं।
  • दक्षिणी राज्यों की चिंताएँ: आगामी जनगणना के आधार पर परिसीमन के संभावित प्रभाव को लेकर दक्षिणी राज्यों में आशंकाएँ बनी हुई हैं। हालाँकि साक्ष्य बड़े बदलावों की आशंकाओं का समर्थन नहीं करते हैं, लेकिन चिंताएँ वैध हैं और उन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। 
  • परस्पर विरोधी सिद्धांत: केवल जनसंख्या के आधार पर परिसीमन के लिए गणितीय दृष्टिकोण, उच्च जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों के पक्ष में होगा, जिससे यह  एक मौलिक प्रश्न उठता है कि:
    • क्या एक संवैधानिक सिद्धांत (जनसंख्या आनुपातिकता) को दूसरे (संघीय संतुलन) को कमजोर करने की अनुमति दी जानी चाहिए?

ऐतिहासिक रुझान और सीट वितरण में परिवर्तन:

  • प्रारंभिक परिवर्तन: पहले आम चुनाव (1951-52) में, लोकसभा में 489 सीटें थीं, जो 1957 में बढ़कर 494 हो गईं। इसके पश्चात वर्ष 1961 की जनगणना के आधार पर 1967 में 520 हो गईं; इस चरण में 31 सीटें बढ़ीं और 5 सीटें कम हुईं।
  • राज्यवार समायोजन: समायोजन के दौरान, आंध्र प्रदेश में सीटों की संख्या 43 से घटकर 41 रह गई, मद्रास में 41 से घटकर 39 रह गई, तथा उत्तर प्रदेश में 86 से घटकर 85 रह गई।
  • महत्त्वपूर्ण सीटें हासिल करने वाले राज्य: असम, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, मैसूर, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश।
  • नवीनतम जोड़े गए राज्य: हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, नागालैंड, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ़, दादरा और नगर हवेली, गोवा, दमन और दीव, लक्षद्वीप, पांडिचेरी।
  • 1971 से लोकसभा संरचना: 1971 के चुनाव में हिमाचल प्रदेश में 2 सीटें कम हो गईं, जिससे कुल सीटें 518 हो गईं। 1977 के चुनाव में 24 नई सीटें जोड़ी गईं, जिससे कुल सीटें 542 हो गईं। 
    • अतः इन प्रावधानओं के तहत सीटें हासिल करने वाले राज्यों में आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, कर्नाटक (तत्कालीन मैसूर), उड़ीसा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और हरियाणा शामिल थे। 
    • सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम जैसी नई प्रविष्टियों को भी प्रतिनिधित्व मिला।
  • वर्तमान स्थिति: बाद में, दमन और दीव को एक अलग सीट आवंटित की गई, जिससे लोकसभा की संख्या 543 हो गई, यह संख्या 1971 की जनगणना के बाद से स्थिर बनी हुई है। 
  • प्रतिनिधित्व बनाम जनसंख्या में वृद्धि: यद्यपि 1951 और 2004 के बीच लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों की संख्या में वृद्धि देखी गई है, फिर भी कोई आदर्श जनसंख्या-प्रति-सीट अनुपात निर्धारित नहीं किया गया।
    • प्रति लोकसभा सीट की औसत जनसंख्या 1951 में 7.32 लाख से बढ़कर 1967 में 8.70 लाख1977 में 10.10 लाख और 2024 में 27 लाख तक पहुंच गयी
  • चुनावी असमानता: विधानसभा का प्रतिनिधित्व 1951-52 में 3,283 सीटों से बढ़कर 2024 में 4,123 सीटों तक हो गया, जो प्रति सीट औसत जनसंख्या से तीन गुना अधिक है। 
    • वर्ष 2024 तक, 98 करोड़ मतदाताओं के साथ, प्रत्येक सांसद औसतन 18 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करेगा, जो लक्षद्वीप में 57,760 से लेकर मलकाजगिरी में 29.5 लाख तक है।   

जनसंख्या-आधारित प्रतिनिधित्व की सीमाएँ:

  • सीट आवंटन को प्रभावित करने वाले कारक: यद्यपि जनसंख्या को प्रतिनिधित्व के लिए सबसे सरल और सबसे तटस्थ मानदंड के रूप में चुना गया था, लेकिन पहले धर्म और शिक्षा जैसी योग्यताओं के स्थान पर भौगोलिक निकटता और राजनीतिक सीमाओं जैसी अन्य चिंताओं ने भी सीट आवंटन को प्रभावित किया है
  • वित्त आयोग द्वारा संशोधन: जबकि जनसंख्या पारंपरिक रूप से प्रतिनिधित्व का मुख्य आधार रही है, वित्त आयोग बदलती वास्तविकताओंक्षेत्रीय आकांक्षाओं और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के आधार पर प्रत्येक पांच साल में अपने फार्मूले को संशोधित करता है।
    • इसलिए, परिसीमन में भी संघीय संतुलन बनाए रखने और क्षेत्रीय अन्याय से बचने के लिए लचीलापन अपनाया जा सकता है
  • निर्वाचन क्षेत्र का आकार और प्रतिनिधित्व: निर्वाचन क्षेत्र का आकार कानून बनानेप्रश्न उठाने या समितियों में भाग लेने में निर्वाचित प्रतिनिधि की भूमिका को नहीं बदलता है, और यह सुझाव देने के लिए कोई अनुभवजन्य साक्ष्य नहीं है कि छोटे निर्वाचन क्षेत्रों में बेहतर सेवा की जाती है।  
    • क्या हरियाणा के 10वें निर्वाचन क्षेत्र (1977 में निर्मित) या दमन और दीव के नागरिकों को प्रतिनिधित्व से अधिक लाभ मिला और क्या हरियाणा में 1.6 लाख मतदाताओं वाले नारनौल को 5.2 लाख मतदाताओं वाले बादशाहपुर की तुलना में बेहतर सेवा प्राप्त हुई, केवल इसके छोटे आकार के कारण? 

आगे की राह:

  • स्थानीय शासन को मजबूत करना: नागरिक रोजमर्रा के शासन के लिए सांसदों/विधायकों पर शायद ही कभी निर्भर होते हैं। तृतीय स्तर (स्थानीय निकायों) को सशक्त बनाने से लोकतांत्रिक वितरण में सुधार हो सकता है और यह लगातार नई सीटों की मांग करने का एक अधिक प्रभावी विकल्प हो सकता है।
  • जनसंख्या नियंत्रण: केंद्र सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण को राष्ट्रीय नीति के रूप में बढ़ावा दिया। सीट आवंटन के लिए एकमात्र आधार के रूप में जनसंख्या का उपयोग करके अब उन राज्यों को दंडित किया जाता है जो इस नीति को लागू करने में सफल रहे हैं।   
    • किसी भी अन्य सार्वजनिक नीति के सकारात्मक परिणामों का उपयोग निष्पादनकर्ता के नुकसान के लिए इसी प्रकार नहीं किया जाता है।
  • जनसंख्या अपस्फीतिकारक: प्रतिनिधित्व में असंतुलन को दूर करने के लिए, उच्च जनसंख्या से प्राप्त लाभ को कम करने के लिए एक अपस्फीतिकारक तंत्र शुरू किया जा सकता है, जैसे वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की गणना मुद्रास्फीति के लिए नाममात्र के एक सकल घरेलू उत्पाद को समायोजित करके की जाती है, इसी तरह सीट आवंटन को प्रासंगिक कारक का उपयोग करके जनसंख्या वृद्धि के लिए समायोजित किया जा सकता है।
  • कुल प्रजनन दर (TFR) का उपयोग: वर्ष 1977 के औसत 10.10 लाख प्रति सीट के आधार पर, 2024 की अनुमानित जनसंख्या लगभग 1,440 लोकसभा सीटों का सुझाव देगी। यदि इसे राष्ट्रीय कुल प्रजनन दर से विभाजित किया जाता है, तो यह संख्या लगभग 680 सीटों तक कम हो सकती है।
  • राज्य-स्तरीय अनुप्रयोग: चूंकि राज्य-वार कुल प्रजनन दर के आंकड़े उपलब्ध है, इसलिए यह समायोजन सूत्र राज्यों में व्यक्तिगत रूप से लागू किया जा सकता है। अधिक निष्पक्ष परिणामों के लिए विशेषज्ञों द्वारा अधिक परिष्कृत विधि विकसित की जा सकती है। 
  • संवैधानिक बहस: यदि संसद चुनावों में प्रबंधकीय दक्षता के लिए संवैधानिक परिवर्तनों पर बहस कर सकती है, तो वह जनसंख्या आधारित परिसीमन के कारण उत्पन्न संरचनात्मक असंतुलन पर भी विचार-विमर्श कर सकती है।

निष्कर्ष:

हालांकि यह सुनिश्चित करने के लिए एक विचारशील राष्ट्रीय चर्चा की आवश्यकता है जो कि गणितीय एकरूपता की खोज में संघीय संतुलन को कमज़ोर न कर सके। अतः लक्ष्य न्यायसंगत प्रतिनिधित्व होना चाहिए, न कि केवल संख्यात्मक समानता प र् आधारित हो

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: जनसंख्या नियंत्रण उपायों को सफलतापूर्वक लागू करने वाले राज्यों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर जनसंख्या-आधारित परिसीमन दृष्टिकोण के निहितार्थों पर चर्चा करें। क्या परिसीमन प्रक्रिया के अंतर्गत आर्थिक योगदान और सामाजिक विकास जैसे कारकों पर विचार किया जाना चाहिए?

(15 अंक, 250 शब्द) 

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