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भारतीय कैलेंडर और समय-चक्र के पीछे का विज्ञान

Lokesh Pal April 21, 2025 05:15 63 0

संदर्भ:

एनईपी 2020 के तहत भारतीय ज्ञान प्रणालियों के चल रहे पुनरुद्धार ने खगोल विज्ञान और कैलेंडर जैसे पारंपरिक विज्ञानों में रुचि को फिर से जगा दिया है।

भारतीय कैलेंडर की आवश्यकता:

  • उपेक्षा: अधिकांश शिक्षित भारतीय हिंदू कैलेंडर से अनभिज्ञ हैं । ग्रेगोरियन कैलेंडर पारंपरिक भारतीय कैलेंडर को पीछे छोड़ते हुए प्रमुख प्रणाली बन गया है।   
  • भारतीय कैलेंडर को समझना: भारतीय कैलेंडर चंद्रमा और सूर्य चक्र दोनों पर आधारित है , जिसमें चंद्र और सौर गति को एकीकृत किया गया है। यह विज्ञान , संस्कृति और खगोल विज्ञान का मिश्रण है , जो प्राचीन ज्ञान प्रणालियों को दर्शाता है। 
  • ऐतिहासिक महत्व: भारत में समय-गणना की परंपरा ईसा युग से भी पहले से चली आ रही है , जो भारतीय खगोलीय प्रथाओं की प्राचीन परिष्कृतता को उजागर करती है।
    • कैलेंडर प्रणाली न केवल समय के चक्र के व्यतीत होने को दर्शाती है बल्कि सांस्कृतिक अनुष्ठानों, त्योहारों और ऋतुओं को प्राकृतिक घटनाओं से भी जोड़ती है।

पंचांग

  • पंचांग के बारे में: पंचांग पारंपरिक भारतीय चंद्र-सौर कैलेंडर है। यह चंद्रमा और सूर्य दोनों की चाल को देखकर समय का पता लगाता है ।
  • मुख्य विशेषताएँ: एक चंद्र वर्ष 354 दिनों का होता है , जो 365 दिनों के सौर वर्ष से छोटा होता है । चंद्र और सौर चक्रों के बीच के अंतर को समेटने के लिए, प्रत्येक 32-33 महीने में एक अधिक मास (अतिरिक्त महीना) जोड़ा जाता है
  • भौगोलिक प्रासंगिकता और उपयोग: पंचांग प्रणाली का उपयोग भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में व्यापक रूप से किया जाता है , जो न केवल समय के लिए बल्कि विभिन्न संस्कृतियों में त्योहारों और अनुष्ठानों के निर्धारण के लिए भी उपयोगी है।

भारतीय कैलेंडर

  • शालिवाहन शक: शालिवाहन शक की उत्पत्ति दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सातवाहन राजवंश के दौरान हुई थी । यह भारत में महत्त्वपूर्ण चंद्र-आधारित कैलेंडर में से एक है।
  • विक्रम संवत: विक्रम संवत की शुरुआत राजा विक्रमादित्य ने 57 ईसा पूर्व में की थी । शालिवाहन शक की तरह, यह भी चंद्र मास के अनुसार चलता है
  • कैलेंडर का महत्व: शक संवत को भारत के राष्ट्रीय नागरिक कैलेंडर के रूप में मान्यता प्राप्त है । शालिवाहन शक और विक्रम संवत दोनों में चंद्र महीनों पर विशेष जोर दिया गया है ।
  • वैश्विक चंद्र प्रणालियाँ: दुनिया की अन्य उल्लेखनीय चंद्र प्रणालियों में शामिल हैं: चीनी कैलेंडर, हिब्रू कैलेंडर और बेबीलोनियन कैलेंडर। 

वैदिक और प्राचीन भारतीय खगोलीय परिशुद्धता का अवलोकन 

  • खगोलीय ट्रैकिंग: वैदिक ऋषियों ने सूक्ष्म परिशुद्धता के साथ खगोलीय गतिविधियों पर नज़र रखी है। समय इकाई ‘त्रुति’ लगभग 29.63 माइक्रोसेकंड के बराबर है , जो प्राचीन भारतीय समय-निर्धारण की उच्च सटीकता को दर्शाता है। 
  • गुप्त काल का योगदान: गुप्त काल में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और वराहमिहिर जैसे विद्वानों ने भारतीय खगोल विज्ञान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
  • सूर्य सिद्धांत: सूर्य सिद्धांत खगोल विज्ञान पर सबसे विस्तृत प्राचीन ग्रंथों में से एक है , जो आकाशीय पिंडों और उनकी गति को समझने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। 
  • भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा परिशोधन: भास्कराचार्य द्वितीय (12वीं शताब्दी ई.) ने पहले के विद्वानों द्वारा निर्धारित खगोलीय मॉडलों को परिष्कृत किया , जिससे भारतीय खगोल विज्ञान के क्षेत्र में और प्रगति सुनिश्चित हुई
  • वर्ष का प्रारंभ: भारतीय चंद्र वर्ष चैत्र (मार्च-अप्रैल) से शुरू होता है , जो हिंदू कैलेंडर में नए साल की शुरुआत का प्रतीक है ।
  • चंद्र वर्ष में महीने: चंद्र वर्ष में चैत्र से फागुन तक 12 महीने होते हैं
  • सांस्कृतिक महत्व: चंद्र कैलेंडर अनुष्ठानों, खेती और त्योहारों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है
  • मौसम के साथ जुड़ाव : चंद्र कैलेंडर मौसमी पूर्वानुमानों को चंद्रमा की गति के साथ जुड़ा हुआ होता है , जो प्राकृतिक चक्रों के समन्वय को दर्शाता है।
  • ब्रह्मांडीय समन्वयन: चंद्र कैलेंडर समय और जीवन की घटनाओं को व्यापक ब्रह्मांडीय लय के साथ जोड़ता है , तथा मानवीय गतिविधियों को आकाशीय हलचलों से जोड़ता है।

भारतीय कैलेंडर के अनुसार त्यौहार:

  • आकाशीय : तुलसीदास ने भगवान राम के जन्म का वर्णन आकाशीय के साथ जुड़ाव के साथ किया है ।
    जन्म चैत्र के नौवें दिन ( चैत्र महीने के दौरान ) होता है। यह अभिजीत नक्षत्र में होता है , जो एक अनुकूल और शुभ नक्षत्र है।
  • आदर्श परिस्थितियाँ: माना जाता है कि राम का जन्म दोपहर के समय हुआ था, जब तापमान आदर्श होता है और वातावरण शांत और निर्मल होता है।
  • ब्रह्मांडीय विज्ञान को आध्यात्मिकता के साथ मिश्रित करना: यह कथा ब्रह्मांडीय विज्ञान को आध्यात्मिक कहानी के साथ मिश्रित करती है , जो प्रकृति और दिव्यता के बीच सामंजस्य को दर्शाती है।
  • साहित्य में खगोल विज्ञान: तुलसीदास का वृत्तांत इस बात का उदाहरण है कि कैसे खगोल विज्ञान को साहित्य में जटिल रूप से पिरोया गया है , तथा विज्ञान को आध्यात्मिकता के साथ मिला दिया गया है।
  • नववर्ष समारोह: चैत्र माह में कई भारतीय क्षेत्रों में नववर्ष मनाया जाता है , तथा वर्ष के आरंभ के उपलक्ष्य में विभिन्न त्योहार मनाए जाते हैं।
    • उगादि (कर्नाटक)
    • गुड़ी पड़वा (महाराष्ट्र)
    • विशु (केरल)
    • पुथांडु (तमिलनाडु)
    • पोहिला बैशाख (बंगाल)
    • बिहू (असम)
  • खगोलीय आधार: लगभग सभी त्यौहार अपने समय के लिए खगोलीय घटनाओं का अनुसरण करते हैं, जो चंद्र या सौर चक्रों के साथ संरेखित होते हैं
  • विविधता में एकता: रीति-रिवाजों और नामों में विविधता के बावजूद, ये त्यौहार खगोल विज्ञान में निहित साझा समय-पालन परंपराओं के माध्यम से विविधता में एकता प्रदर्शित करते हैं
  • महत्त्वपूर्ण चंद्र दिवस: एकादशी (11वां चंद्र दिवस) व्रत-उपवास के लिए जाना जाता है। पूर्णिमा (पूर्ण चंद्रमा) और अमावस्या (चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच ) महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान दिवस हैं।
  • कैलेंडर का प्रभाव: भोजन, प्रार्थना और त्योहारों को नियंत्रित करने में कैलेंडर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
  • फसलों के साथ संबंध: फसलों को चंद्र कैलेंडर के साथ समन्वयित किया जाता है , जिससे यह सुनिश्चित होता है कि कृषि चक्र खगोलीय घटनाओं के साथ संरेखित हो।
  • सांस्कृतिक महत्व: सांस्कृतिक जीवन समय चक्र के इर्द-गिर्द घूमता है , जिसमें परंपराएं चंद्रमा और सूर्य की गति से गहराई से जुड़ी हुई हैं।

आगे की राह :

  • जागरूकता की कमी: ज़्यादातर स्कूलों में भारतीय कैलेंडर नहीं पढ़ाया जाता है। छात्र इसके पीछे छिपे सांस्कृतिक विज्ञान से अनभिज्ञ रहते हैं।
  • ग्रेगोरियन कैलेंडर पर जोर: शैक्षिक प्रणालियों में केवल ग्रेगोरियन कैलेंडर पर ही जोर दिया जाता है।
  • सांस्कृतिक वियोग: सांस्कृतिक जड़ों की अनदेखी करना आधुनिकता नहीं है बल्कि यह विरासत से वियोग की ओर ले जाता है।
  • वैज्ञानिक विरासत को पुनः प्राप्त करना: अतः भारतीय कैलेंडर प्रणाली में अंतर्निहित वैज्ञानिक विरासत को पुनः प्राप्त करने और संरक्षित करने की आवश्यकता है ।

निष्कर्ष:

भारतीय कैलेंडर सिर्फ़ समय-निर्धारण की प्रणाली नहीं है – यह खगोल विज्ञान, कृषि, अनुष्ठान और दर्शन का एक गहन मिश्रण है। शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में इसे पुनः प्राप्त करने और बढ़ावा देने से विज्ञान और संस्कृति के बीच की खाई को समाप्त करने में मदद मिल सकती है , यह सुनिश्चित करते हुए कि आधुनिकता सांस्कृतिक विस्मृति की कीमत पर स्थापित नहीं की जा सकती है। 

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

प्रश्न: समकालीन भारत में पारंपरिक भारतीय कैलेंडर प्रणालियों की प्रासंगिकता का मूल्यांकन करें।

क्या ये प्रणालियाँ आधुनिक समय-निर्धारण विधियों के साथ सह-अस्तित्व में हैं बताइए। इसके साथ ही  सांस्कृतिक विरासत और पहचान को संरक्षित करने में उनकी क्या भूमिका है? समझाइए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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