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त्रिभाषा सूत्र और भाषा के प्रश्न का पुनः परिभाषीकरण

Lokesh Pal July 21, 2025 05:15 35 0

संदर्भ:

भारत में भाषा का प्रश्न, जिस पर प्रायः त्रिभाषा सूत्र और राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (NEP-2020) के संदर्भ में चर्चा होती है, एक महत्त्वपूर्ण पुनर्मूल्यांकन की माँग करता है।

मुख्य बिंदु

  • कौन सी भाषा प्रयोग की जाए, इस पर केंद्रित होने से विवाद उत्पन्न होता है और वास्तविक सशक्तीकरण में बाधा आती है। चर्चा को इस ओर मोड़ना आवश्यक है, कि भाषा वास्तव में विद्यार्थियों को किस प्रकार सशक्त बना सकती है।

संबंधित समस्याएँ

  • अनुकूलन में संस्थागत विफलता: तीव्र सामाजिक परिवर्तन, विशेष रूप से आधुनिकता के लिए प्रयासरत भारत जैसे- उत्तर-औपनिवेशिक राष्ट्रों में, इन बदलावों का प्रबंधन करने के लिए परिपक्व संस्थानों की आवश्यकता होती है।
    • यदि संस्थाएँ त्वरित हो रहे परिवर्तन को संभालने के लिए पर्याप्त परिपक्व नहीं हैं, तो परिणाम विकास नहीं, बल्कि अव्यवस्था होगी
    • NEP-2020 एक साहसिक प्रयास है, लेकिन इसका कार्यान्वयन असंगत है, जिससे एकता और प्रगति को बढ़ावा देने की बजाय अव्यवस्था और विवादों में वृद्धि हो रही है
  • उद्देश्य संबंधी समस्या: वर्तमान चर्चा का केंद्र बिंदु यह है, कि कौन सी भाषा लागू की जानी चाहिए। यह दृष्टिकोण हमेशा राजनीतिक विवादों को जन्म देता है।
  • भ्रामक विकल्प और संसाधन अंतराल: NEP2020 भाषा चयन के संबंध में विकल्प प्रदान करने का दावा करता है, लेकिन यह विकल्प प्रायः सतही होता है।
    • राज्यों में प्रायः आवश्यक संसाधनों का अभाव होता है, जैसे- विशिष्ट भाषाओं के लिए योग्य शिक्षक (जैसे- गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी या संस्कृत) या पर्याप्त धन की कमी, जिससे ‘विकल्प’ अर्थहीन हो जाता है
    • प्रायः सेवानिवृत्त या अप्रशिक्षित शिक्षकों को लाया जाता है, जिससे शैक्षिक गुणवत्ता से समझौता होता है।
  • अधिगम परिणामों पर नकारात्मक प्रभाव: विद्यार्थियों के लिए, विशेष रूप से आदिवासी समुदायों के विद्यार्थियों के लिए, उनकी क्षेत्रीय भाषा से अलग भाषा में पढ़ाया जाना (उदाहरण के लिए, संथाली भाषियों को हिंदी, बांग्ला या उड़िया में पढ़ाया जाना)  महत्त्वपूर्ण समस्या का कारण बन सकता है
    • वे चिंता, आत्मविश्वास की कमी, खराब समझ और अधिगम परिणामों में समस्या का अनुभव कर सकते हैं, जिससे अंततः स्कूल छोड़ने की दर बढ़ जाती है।
    • उन्हें यह भी महसूस हो सकता है, कि उनकी अपनी भाषा और पहचान मिटती जा रही है।
  • अत्यधिक भाषाई बोझ: कुछ परिदृश्यों में, विद्यार्थियों को चार भाषाएँ सीखने के लिए बाध्य किया जाता है, जिससे गहन शिक्षण को सुविधाजनक बनाने की बजाय अत्यधिक भार उत्पन्न होता है।
  • दूसरों से सबक: इंडोनेशिया ने पहले ‘बहासा इंडोनेशिया’ को राष्ट्रीय भाषा के रूप में लागू किया था, जबकि यह वहाँ की केवल 10% आबादी की मातृभाषा है
    • इसके परिणामस्वरूप शिक्षण परिणाम खराब हुए और व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, जिसके कारण इंडोनेशिया को अधिक लचीला दृष्टिकोण अपनाना पड़ा।

आगे की राह

  • समझ के माध्यम से सशक्तीकरण: विद्यार्थी तब हिंदी या अंग्रेजी जैसी नई भाषाएँ सीखना पसंद करेंगे, जब उन्हें प्रत्यक्ष लाभ और सशक्तीकरण का आभास होगा, न कि उन्हें लगेगा कि उनकी पहचान दबाई जा रही है।
  • लचीलापन और मातृभाषा पर ध्यान: मातृभाषा या स्थानीय भाषा पर बल देने वाला लचीला दृष्टिकोण, अधिगम परिणामों में सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण है।
  • भाषा समितियाँ स्थापित करना: जिला और राज्य दोनों स्तरों पर भाषा समितियाँ गठित करें।
    • ये समितियाँ समावेशी होनी चाहिए, जिनमें शिक्षक, अभिभावक, भाषाविद् और स्थानीय नेता शामिल हों
    • उनका अधिदेश क्षेत्रीय संदर्भ और विशिष्ट आवश्यकताओं के आधार पर त्रिभाषा फार्मूले में शामिल की जाने वाली भाषाओं के बारे में सूचित निर्णय लेना होगा।
  • बहुभाषी शिक्षा (MLE) कार्यक्रमों को लागू करना: ओडिशा में सफलतापूर्वक कार्यान्वित बहुभाषी शिक्षा (MLE) मॉडल जैसे कार्यक्रमों को प्राथमिकता देना।
    • यह मॉडल प्रारंभिक शिक्षा बच्चे के घर या स्थानीय भाषा (जैसे- संथाली, कुई) से शुरू करता है और धीरे-धीरे अन्य भाषाओं में परिवर्तित होता है
    • इस दृष्टिकोण से स्कूल में उपस्थिति में उल्लेखनीय सुधार होता है, आत्मविश्वास, अभिभावकों की सहभागिता तथा समग्र शिक्षण परिणाम में वृद्धि होती है।
    • राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने इस मॉडल की सफलता को मान्यता दी है।
  • बहुभाषी शिक्षकों का विकास: ऐसे शिक्षकों की भर्ती और प्रशिक्षण में निवेश करें, जो कई भाषाओं में कुशल हों।
    • बहुभाषी शिक्षा की सफलता योग्य शिक्षकों की उपलब्धता पर निर्भर करती है, जो विभिन्न भाषाई संदर्भों में शिक्षण कार्य कर सकें।
  • मात्रा की अपेक्षा गुणवत्ता को प्राथमिकता देना: त्रिभाषा फार्मूला को लागू करने वाले स्कूलों की संख्या या तीन भाषाएँ सीखने वाले विद्यार्थियों की संख्या पर वर्तमान ध्यान गलत है।
    • अब शिक्षा की गुणवत्ता पर बल होना चाहिए
    • कुछ विद्यार्थियों को कई भाषाओं में प्रवीण होना अधिक लाभदायक है, बजाय इसके कि अनेक विद्यार्थियों का केवल सतही ज्ञान हो
    • सतही शिक्षा से बचने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, कि भाषाएँ इतनी अच्छी तरह सीखी जाएँ कि वे वास्तव में उपयोगी बन सकें।

निष्कर्ष

इन रणनीतियों को अपनाकर, भारत भाषा थोपने की विभाजनकारी राजनीति से दूर होकर एक ऐसी प्रणाली की ओर बढ़ सकता है, जहाँ भाषा एक शक्तिशाली प्रवर्तक के रूप में कार्य करती है तथा सभी विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक शक्ति, आत्मविश्वास और वास्तविक सशक्तीकरण को बढ़ावा देती है। यह प्रणालीगत परिवर्तन भावी पीढ़ियों के लिए एक व्यापक और लचीली संरचना बनाने में सहायता कर सकता है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अंतर्गत त्रि-भाषा सूत्र को विभिन्न क्षेत्रों में भाषा थोपने के कारण आलोचना का सामना करना पड़ा है। इसके कार्यान्वयन में आने वाली प्रमुख चुनौतियों का परीक्षण कीजिए और इसे भाषा सशक्तीकरण के साधन में बदलने हेतु रणनीतियाँ सुझाइए।

(10 अंक, 150 शब्द)

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