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ट्रम्प की ब्रिक्स को डॉलर छोड़ने की धमकी

Lokesh Pal December 03, 2024 05:15 27 0

संदर्भ: 

हाल ही में अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) देशों को चुनौती दी कि यदि वे अपनी स्वयं की मुद्रा बनाएंगे या विश्व की आरक्षित मुद्रा के रूप में अमेरिकी डॉलर के स्थान पर किसी मौजूदा मुद्रा का समर्थन करेंगे तो उन पर 100% आयात शुल्क लगाया जाएगा।

वैश्विक आरक्षित मुद्रा के रूप में अमेरिकी डॉलर की स्थिति:

  • वैश्विक स्वीकृति: डॉलर को व्यापार, निवेश और भंडार के लिए दुनिया भर में व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है, जिससे यह अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन के लिए पसंदीदा मुद्रा बन जाती है।
  • वैश्विक व्यापार प्रभुत्व:  हालांकि, वैश्विक बाजारों में डॉलर का भारी उपयोग होता है, विशेष रूप से तेल, सोना और अन्य प्रमुख संसाधनों जैसी वस्तुओं के लिए, जिससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में इसकी निरंतर मांग बनी रहती है।
  • वित्तीय बाज़ार की तरलता : अमेरिका में सबसे बड़े और सबसे ज़्यादा तरल वित्तीय बाज़ार हैं, जिससे डॉलर अंतरराष्ट्रीय निवेश और केंद्रीय बैंक के भंडार के लिए सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली मुद्रा बन गया है। यह तरलता वैश्विक वित्त में इसके प्रभुत्व को सुनिश्चित करती है।       
  • स्थिरता: अमेरिकी अर्थव्यवस्था की स्थिरता, प्रभावी मुद्रास्फीति नियंत्रण और मजबूत वित्तीय संस्थाएं डॉलर में विश्वास पैदा करती हैं, जिससे पसंदीदा वैश्विक मुद्रा के रूप में इसकी स्थिति मजबूत हो जाती है।  

  नई ब्रिक्स मुद्रा की मांग के प्रमुख कारण:

  • प्रतिबंध से बचावरूस और ईरान जैसे देशों को अमेरिका की ओर से प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा है, जिससे डॉलर में व्यापार करने की उनकी क्षमता सीमित हो गई है। 
    • इसने उन्हें एकल मुद्रा पर निर्भरता से जुड़े जोखिमों से बचने के लिए अमेरिकी डॉलर के विकल्प तलाशने के लिए प्रेरित किया है।
  • राजनीतिक और आर्थिक स्वायत्तता: वर्तमान समय में विश्व के लगभग सभी देश वैश्विक वित्तीय प्रणालियों, जैसे स्विफ्ट और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) पर अमेरिकी प्रभाव को कम करना चाहते हैं, जिनका उपयोग अक्सर प्रतिबंध लगाने और संप्रभु राज्यों पर दबाव डालने के लिए किया जाता है।
  • सांद्रता जोखिम को कम करना: विभिन्न राष्ट्र अपने विदेशी भंडार को अमेरिकी डॉलर से परे विविधतापूर्ण बनाना चाहते हैं, ताकि उनके भंडार का एक बड़ा हिस्सा एक ही मुद्रा में रखने से जुड़े जोखिम को कम किया जा सके।
  • आर्थिक सहयोग को मजबूत करना: अपनी बढ़ती आर्थिक शक्ति के साथ ब्रिक्स देशों ने स्थानीय मुद्राओं का उपयोग करके अंतर-समूह व्यापार को बढ़ाने की मांग की है। इसके लिए उन्हें  स्थानीय मुद्राओं या नई ब्रिक्स मुद्रा का उपयोग करके, अमेरिकी डॉलर को दरकिनार करके और लेनदेन लागत को कम करके प्रयासों को मजबूती देनी होगी। 
  • वित्तीय एकीकरण को बढ़ाना: ब्रिक्स के भीतर एक साझा मुद्रा या भुगतान प्रणाली से व्यापार और निवेश प्रवाह में सुगमता आ सकती है, तथा आर्थिक सहयोग में वृद्धि हो सकती है।
  • वैश्विक दृष्टिकोण में बदलाव: जैसे-जैसे वैश्विक आर्थिक गुरुत्व केंद्र तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ओर स्थानांतरित हो रहा है, भारत जैसे गैर-पश्चिमी और विकासशील देशों में एकध्रुवीय विश्व से बहुध्रुवीय विश्व में संक्रमण की आकांक्षा बढ़ रही है। 

मुद्रा और व्यापार पर भारत की स्थिति

  • रुपए का अंतर्राष्ट्रीयकरण: प्रतिबंधों और व्यापार चुनौतियों के जवाब में, भारत ने भारतीय रुपये का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए कदम उठाए हैं, जिससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए रुपये में भुगतान की अनुमति मिल सके। 
    • ब्रिक्स देशों के बीच स्थानीय मुद्रा में व्यापार एकीकरण के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। 
  • रूस के साथ व्यापारिक संबंध: रूस के साथ भारत का व्यापार स्थानीय मुद्रा निपटान की ओर स्थानांतरित हो गया है, हालांकि इसके अंतर्गत अभी कुछ मुद्दे शेष हैं। संभावित अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण व्यापार असंतुलन और बैंकिंग अनिच्छा जैसे मुद्दे अभी भी बने हुए हैं। 
    • इसके विपरीत, रूस-चीन व्यापार अधिक संतुलित है, जिसमें रूबल और युआन का उपयोग महत्त्वपूर्ण तरीके से होता है।    
  • डॉलर के उपयोग पर भारत का स्पष्टीकरण: भारत के विदेश मंत्री ने स्पष्ट किया कि यद्यपि भारत अमेरिकी नीतियों के कारण कुछ देशों के साथ व्यापार में “समाधान” ढूंढना चाहता है, लेकिन उसने कभी भी अमेरिकी डॉलर को लक्ष्य नहीं बनाया है या इसे प्रतिस्थापित करने की कोशिश नहीं की है। 
    • भारत का मुख्य दृष्टिकोण उन लेन-देनों के लिए वैकल्पिक समाधान खोजने पर है जहां डॉलर की पहुंच सीमित है।

आरक्षित मुद्राओं के संदर्भ में वैश्विक रुझान:

  • डॉलर की हिस्सेदारी में गिरावट : आईएमएफ के अनुसार, वैश्विक विदेशी मुद्रा भंडार में अमेरिकी डॉलर की हिस्सेदारी घटी है। इतना ही नहीं यह पिछले दो दशकों से धीरे-धीरे घट रही है। 
    • हालाँकि, यूरो, येन या पाउंड के शेयरों में वृद्धि से यह गिरावट पूरी तरह से संतुलित नहीं हो पाई है।
  • गैर-परंपरागत आरक्षित मुद्राओं में वृद्धि : आईएमएफ ने चीनी रेनमिनबी, ऑस्ट्रेलियाई डॉलर और दक्षिण कोरियाई वॉन जैसी गैर-परंपरागत आरक्षित मुद्राओं की हिस्सेदारी में वृद्धि देखी गई है, जिसमें चीनी रेनमिनबी को सबसे अधिक लाभ हुआ है, जो डॉलर की हिस्सेदारी में गिरावट के एक चौथाई के बराबर है।

आगे की राह:

  • ब्रिक्स समूह के वित्तीय सुधारों की सावधानीपूर्वक निगरानी
    • भारत को ब्रिक्स के भीतर वित्तीय सुधारों की सावधानीपूर्वक निगरानी करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि चीन इस समूह की आर्थिक दिशा पर हावी न हो जाए।
    • संप्रभुता और प्रभाव को बनाए रखते हुए ब्रिक्स के भीतर हितों को संतुलित करना आर्थिक शक्ति में विषमता से बचने की कुंजी है।
  • राजनयिक संतुलन व संबद्धता 
    • भारत को कूटनीतिक रूप से अमेरिका के साथ संवाद स्थापित करके यह स्पष्ट करना होगा कि व्यापार तंत्र में विविधता लाने और स्थानीय मुद्राओं को बढ़ावा देने का उद्देश्य अमेरिकी डॉलर को कमजोर करना नहीं है, बल्कि वैश्विक वित्तीय बहुध्रुवीयता और स्थिरता को बढ़ावा देना है।
    • भारत को इस बात पर जोर देना चाहिए कि व्यापार सुधारों के प्रति उसका दृष्टिकोण सहयोगात्मक हो, विरोधात्मक नहीं, तथा उसका लक्ष्य अमेरिकी दृष्टिकोण के विरोध के बजाय समावेशिता पर आधारित हो ।
  • भावी वित्तीय सुधार
    • यूपीआई तकनीकी का अंतर्राष्ट्रीयकरण: भारत को एक विश्वसनीय और सुलभ भुगतान तंत्र प्रदान करने के लिए अपने एकीकृत भुगतान इंटरफेस (यूपीआई) की वैश्विक पहुंच का विस्तार करना चाहिए।
    • केंद्रीय बैंक डिजिटल मुद्रा (सीबीडीसी): डिजिटल रुपये के विकास और कार्यान्वयन में तेजी लाने से वैश्विक व्यापार में भारत की वित्तीय लचीलापन और अनुकूलनशीलता बढ़ेगी।
  • रणनीतिक संतुलन को मजबूत करना
    • ब्रिक्स देशों के बीच स्थानीय मुद्रा व्यापार को बढ़ावा देते हुए अमेरिका के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने से भारत को बहुध्रुवीय विश्व में अपनी रणनीतिक और आर्थिक प्राथमिकताओं को सुरक्षित रखने में मदद मिलेगी।

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