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Lokesh Pal September 02, 2024 05:00 80 0
“न्याय की अदालतों से भी ऊपर एक अदालत है और वह है अंतरात्मा की अदालत। यह अन्य सभी अदालतों से ऊपर है। (There is a higher court than courts of justice and that is the court of conscience. It supersedes all other courts.)” — महात्मा गांधी
उपर्युक्त उद्धरण न्यायिक विधानों पर नैतिक मूल्यों की सर्वोच्चता पर बल देता है। अहिंसा और सत्याग्रह के समर्थक गांधीजी के लिए अंतरात्मा की अदालत (अंतर-मन) अंतिम न्यायाधीश है, जो सभी न्यायिक प्रणालियों से परे है। उनका मानना था कि नैतिक सिद्धांत विधि या कानून से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, खासकर तब जब वे विधियाँ अन्यायपूर्ण हों।
गांधीजी का दृष्टिकोण न्यायिक प्रणालियों और अंतरात्मा के मध्य एक बुनियादी संघर्ष को जन्म देता है। विधियाँ कठोर और पुरानी हो सकती हैं, उदाहरणस्वरूप IPC की धारा 377 जो ब्रिटिशकालीन भारत से लागू थी, किंतु 2018 में इसे समाप्त कर दिया गया क्योंकि यह सामाजिक मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करती थी। इसके विपरीत अंतरात्मा परिवर्तित होते नैतिक परिदृश्यों के लिए अधिक लचीलापन अपनाती है और एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है।
हालाँकि, कानून और अंतरात्मा के बीच संतुलन बनाना चुनौतियों को प्रस्तुत करता है। अलग-अलग लोगों की अंतरात्मा भिन्न होती है और यदि प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक मानदंडों की चिंता किए बिना अपने व्यक्तिगत नैतिक कम्पास का पालन करता है, तो इससे अराजकता पैदा हो सकती है। इसलिए संतुलन महत्त्वपूर्ण है। कानून आवश्यक संरचना और व्यवस्था प्रदान करते हैं, जबकि अंतरात्मा व्यक्तिगत नैतिकता का मार्गदर्शन करती है। अंततः दोनों तत्त्व आवश्यक हैं | कानून सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करता है तथा अंतरात्मा व्यक्तिगत नैतिक व्यवहार को बढ़ावा देती है। इन दोनों के बीच सही संतुलन बनाने से न्यायपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण हो सकता है।
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