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Nov 19 2024

गुरु नानक देव जी की 555वीं जयंती

हाल ही में गुरु नानक जयंती या गुरुपर्व संपूर्ण भारत एवं विश्व भर में धार्मिक उत्साह के साथ मनाया गया। 

संबंधित तथ्य 

  • इस वर्ष गुरु नानक देव जी की 555वीं जयंती है।

गुरु नानक जयंती के बारे में

  • गुरु नानक जयंती, जिसे गुरुपर्व के नाम से भी जाना जाता है, सिख समुदाय के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण त्योहार है।
  • यह पहले सिख गुरु, गुरु नानक देव जी की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता  है।
  • यह त्योहार कार्तिक पूर्णिमा, कार्तिक (हिंदू कैलेंडर) के पंद्रहवें चंद्र दिवस पर पड़ता है, सामान्य तौर पर ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार नवंबर माह में।

उत्सव एवं अनुष्ठान

  • उत्सव दो दिन पहले प्रारंभ होते हैं:
    • अखंड पाठ: गुरुद्वारों में गुरु ग्रंथ साहिब का 48 घंटे का निरंतर पाठ किया जाता है।
    • नगरकीर्तन: निशान साहिब (सिख ध्वज) लेकर पंज प्यारे (पाँच प्यारे) के नेतृत्व में एक जुलूस का आयोजन।
    • भजन गाए जाते हैं, मार्शल आर्ट का प्रदर्शन किया जाता है एवं सड़कों को झंडों तथा फूलों से सजाया जाता है।

गुरु नानक देव के बारे में

  • गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1469 को राय भोई की तलवंडी (आधुनिक ननकाना साहिब, पाकिस्तान) में हुआ था।
  • वह दस सिख गुरुओं में से पहले गुरु थे। 
  • शिष्यों के लिए उनका आदर्श वाक्य: “कीरत करो, नाम जपो एवं वंड छको”। 
  • अन्य नाम:  बाबा नानक।
  • उन्होंने 15वीं शताब्दी में सिख धर्म की स्थापना की एवं गुरु ग्रंथ साहिब में 974 भजन लिखे।
    • गुरु ग्रंथ साहिब सिख धर्म का पवित्र ग्रंथ है।
  • मृत्यु: उनकी मृत्यु 22 सितंबर, 1539 (उम्र 70 वर्ष), करतारपुर, पाकिस्तान में हुई। 
  • गुरु नानक की शिक्षाएँ 
    • सृष्टिकर्ता की एकता।
    • मानवता की निस्वार्थ सेवा।
    • सामाजिक न्याय और सबके लिए समानता।
    • एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक एवं समाज सुधारक के रूप में गुरु की भूमिका।
  • अवधारणाओं का परिचय दिया गया
    • उन्होंने ‘संगत’ (समुदाय) की अवधारणा पेश की।
      • यहाँ सभी लोग एक साथ आकर पूजा कर सकते हैं। 
    • ‘दसवंध’ या जरूरतमंद लोगों के बीच अपनी कमाई का दसवाँ हिस्सा दान करना।

करतारपुर  गलियारे के बारे में

  • यह एक धार्मिक गलियारा है।
  • यह भारत के पंजाब प्रांत में गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक को पाकिस्तान के नारोवाल जिले में गुरुद्वारा दरबार साहिब करतारपुर से जोड़ता है।
  • यह श्रद्धालुओं को बिना वीजा के भारत-पाकिस्तान सीमा से पाकिस्तान की ओर जाने की अनुमति देता है।

ऑपरेशन द्रोणागिरी

13 नवंबर, 2024 को विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology- DST) के सचिव ने फाउंडेशन फॉर इनोवेशन एंड टेक्नोलॉजी ट्रांसफर (Foundation for Innovation and Technology Transfer- FITT), IIT दिल्ली में ऑपरेशन द्रोणागिरी का शुभारंभ किया।

ऑपरेशन द्रोणागिरी के बारे में 

  • यह भारत की राष्ट्रीय भू-स्थानिक नीति 2022 के तहत एक पहल है। 
  • उद्देश्य: यह प्रदर्शित करना कि कैसे भू-स्थानिक प्रौद्योगिकियाँ एवं नवाचार नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं तथा व्यापार करने में आसानी बढ़ा सकते हैं।
  • ऑपरेशन द्रोणागिरी की मुख्य विशेषताएँ
    • भू-स्थानिक डेटा एवं प्रौद्योगिकियों के संभावित अनुप्रयोगों का प्रदर्शन करना।
    • कृषि, आजीविका, रसद एवं परिवहन क्षेत्रों में सुधार करना।
    • भू-स्थानिक प्रौद्योगिकियों के राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन के लिए एक मजबूत आधार स्थापित करना।
    • एकीकृत भू-स्थानिक डेटा शेयरिंग इंटरफेस (Geospatial Data Sharing Interface- GDI)
      • ऑपरेशन द्रोणागिरी का एक महत्त्वपूर्ण घटक GDI है, जो निर्बाध डेटा साझाकरण, पहुँच  एवं विश्लेषण की सुविधा प्रदान करता है। 
        • यह मंच संगठनों को डेटा-संचालित निर्णय लेने एवं विभिन्न क्षेत्रों में नवाचार को बढ़ावा देने का अधिकार देता है।

कार्यान्वयन

  • चरण 1 पायलट परियोजनाएँ: प्रारंभिक चरण पाँच राज्यों पर केंद्रित होगा: उत्तर प्रदेश, हरियाणा, असम, आंध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र।
  • क्षेत्रीय फोकस: पायलट परियोजनाएँ कृषि, आजीविका, रसद एवं परिवहन पर ध्यान केंद्रित करेंगी।
  • सार्वजनिक-निजी भागीदारी: सरकारी विभाग, उद्योग, निगम एवं स्टार्टअप परियोजना को लागू करने के लिए सहयोग करेंगे।
    • यह मॉडल UPI परिनियोजन के समान है।

PM मोदी को नाइजीरिया के दूसरे सबसे बड़े राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्टेट हाउस में राष्ट्रपति बोला अहमद टीनुबू से नाइजीरिया का दूसरा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कार, ग्रैंड कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ नाइजर प्राप्त किया।

 ग्रैंड कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ नाइजर

  • ऐतिहासिक महत्त्व: वर्ष 1969 में महारानी एलिजाबेथ के बाद यह सम्मान पाने वाले PM  नरेंद्र मोदी दूसरे विदेशी नेता हैं।
    • यह पुरस्कार वैश्विक नेतृत्व के लिए प्रधानमंत्री मोदी का 17वाँ अंतरराष्ट्रीय सम्मान है।

पुरस्कार का महत्त्व

  • वैश्विक नेतृत्व: प्रधानमंत्री मोदी के अंतरराष्ट्रीय कद और वैश्विक कूटनीति में भारत की बढ़ती भूमिका को दर्शाता है। विश्व मंच पर शांति, एकता एवं विकास में भारत के योगदान पर प्रकाश डालता है।
  • द्विपक्षीय संबंध: भारत-नाइजीरिया रणनीतिक साझेदारी की वृद्धि को दर्शाता है।
    • विश्व स्तर पर एकता, शांति एवं समृद्धि को बढ़ावा देने में उनके प्रयासों को मान्यता देता है।

नाइजीरिया के बारे में

  • यह अफ्रीका के पश्चिमी तट पर सबसे अधिक आबादी वाला देश है।
  • यह निम्नलिखित देशो के साथ सीमाएँ साझा करता है:
    • उत्तर: नाइजर
    • पूर्व: चाड एवं कैमरून
    • पश्चिम: बेनिन
    • दक्षिण: गिनी की खाड़ी (अटलांटिक महासागर) के साथ समुद्री सीमा।
  • प्राकृतिक संसाधन: पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस से समृद्ध, इसकी अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
  • प्रमुख नदियाँ
    • नाइजर नदी: देश की प्रमुख नदी।
    • बेन्यू नदी: नाइजर नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी।

माओरी हाका नृत्य

हाल ही में न्यूजीलैंड की सबसे युवा सांसद हाना-राव्हिटी मापी-क्लार्क ने वेटांगी संधि को पुनः परिभाषित करने के उद्देश्य से एक विवादास्पद विधेयक के खिलाफ संसद में हाका विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया।

हाका के बारे में

  • हाका पारंपरिक रूप से विरोधियों को डराने के लिए माओरी जनजाति के योद्धाओं द्वारा किया जाने वाला एक युद्ध नृत्य था।
    • यह कहानी कहने, उत्सव मनाने एवं पूर्वजों का सम्मान करने के माध्यम के रूप में भी कार्य करता है।
  • यह समकालिक आंदोलनों, मंत्रों एवं चौड़ी आंखों तथा जीभ के उभार जैसी प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों के माध्यम से ताकत, अवज्ञा एवं एकता का प्रतिनिधित्व करता है।
  • प्रत्येक हाका विरासत, लचीलेपन एवं सांप्रदायिक मूल्यों से जुड़ा एक अनूठा संदेश देता है।

माओरी जनजाति के बारे में

  • माओरी न्यूजीलैंड (एओटेरोआ) के मूल पोलिनेशियन लोग हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि वे 1300 ई.पू. के आसपास पूर्वी पोलिनेशिया से आए थे।
  • संस्कृति एवं विरासत: अपनी समृद्ध मौखिक परंपराओं, जटिल लकड़ी की नक्काशी और भूमि से गहरे आध्यात्मिक संबंध के लिए जाना जाता है।
    • माओरी पहचान के केंद्र में वाकापापा (वंशावली) एवं मतौरंगा (ज्ञान) हैं।
  • भाषा: ते रेओ माओरी, माओरी भाषा, न्यूजीलैंड की आधिकारिक भाषाओं में से एक है, जो सांस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रतीक है।
  • समसामयिक भूमिका: माओरी न्यूजीलैंड की राजनीति, कला एवं शिक्षा, वैश्विक स्तर पर स्वदेशी परंपराओं को संरक्षित करने तथा बढ़ावा देने में प्रभावशाली हैं।

वतांगी की संधि

  • वर्ष 1840 में माओरी प्रमुखों एवं ब्रिटिश क्राउन के बीच हस्ताक्षर किए गए, जो न्यूजीलैंड के द्विसांस्कृतिक ढाँचे का आधार बना।
    • इस संधि ने न्यूजीलैंड में ब्रिटिश शासन की स्थापना की एवं साथ ही माओरी को उनकी भूमि, जंगलों तथा संसाधनों पर अधिकार की गारंटी दी।
  • विवाद: संधि अंग्रेजी एवं ते रेओ माओरी में लिखी गई है, अलग-अलग व्याख्याओं के कारण संधि सिद्धांतों की व्याख्या तथा कार्यान्वयन पर विवाद ऊत्पन्न हो गया है।
    • वेतांगी ट्रिब्यूनल (1975 में स्थापित) जैसी संस्थाएँ ऐतिहासिक एवं समकालीन संधि उल्लंघनों का समाधान करती हैं।
  • माओरी शिकायतों में, भूमि जब्ती एवं क्रमिक सरकारों द्वारा संधि दायित्वों का उल्लंघन शामिल है।

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संदर्भ 

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 39 श्रेणी के उद्योगों को अपने उद्योग चलाने की अनुमति के लिए राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State pollution control Boards) से संपर्क करने की अनिवार्य आवश्यकता से छूट दे दी है।

  • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा वर्ष 2016 में किए गए वर्गीकरण के अनुसार, ये सभी क्षेत्र उद्योगों की ‘श्वेत श्रेणी’ में हैं, जिसका अर्थ है कि ये प्रकृति में सबसे कम प्रदूषण करते हैं।
  • प्रभावित उद्योग निम्नलिखित हैं:
    • सौर सेल और मॉड्यूल निर्माण
    • पवन और जल विद्युत इकाइयाँ
    • फ्लाई ऐश ईंट/ब्लॉक निर्माण
    • चमड़े की कटाई और सिलाई
    • एयर कूलर/कंडीशनर की असेंबली और मरम्मत सेवाएँ।

उद्योग श्रेणियाँ वर्गीकरण

  • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board- CPCB) द्वारा वर्गीकरण
    • लाल श्रेणी: विषैले अपशिष्टों के कारण सबसे अधिक जाँच।
    • नारंगी श्रेणी: मध्यम प्रदूषण क्षमता।
    • हरी श्रेणी: कम प्रदूषण क्षमता।
    • सफेद श्रेणी: सबसे कम प्रदूषणकारी; न्यूनतम पर्यावरणीय प्रभाव।
  • छूट का औचित्य
    • उद्योगों के लिए ‘अनुपालन बोझ’ को कम करता है।
    • दोहरे अनुपालन (पर्यावरण मंजूरी (EC) और स्थापना के लिए सहमति (CTE)) की आवश्यकता को समाप्त करता है।
    • श्वेत श्रेणी के उद्योगों को अब CTE या संचालन के लिए सहमति (CTO) की आवश्यकता नहीं है।

नए उद्योगों की स्थापना के लिए पर्यावरण मंजूरी (EC) और स्थापना सहमति (CTE) का दोहरा अनुपालन

  • ‘स्थापना की सहमति’ (Consent To Establish- CTE) और ‘संचालन की सहमति’ (Consent To Operate- CTO) के नाम से जानी जाने वाली अनुमतियाँ उन उद्योगों को विनियमित करने के लिए दी जाती हैं, जो पर्यावरण में अपशिष्ट छोड़ते हैं या प्रदूषक उत्सर्जित करते हैं।

दोहरी पारिस्थितिकी मंजूरी/अनुमोदन क्या है?

  • दोहरी पारिस्थितिकी मंजूरी या दोहरा अनुपालन, भारत में कुछ उद्योगों के लिए परिचालन शुरू करने से पहले पर्यावरण मंजूरी (Environmental Clearance- EC) तथा स्थापना की सहमति (Consent to Establish- CTE) दोनों प्राप्त करने की आवश्यकता है।
  • यह सुनिश्चित करता है कि उद्योग पर्यावरण नियमों का अनुपालन करते हैं।

  • CTE: राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा स्वीकृत, प्रदूषण मानदंडों के अनुपालन के लिए मानक या विशिष्ट शर्तों का पालन करना है।
  • जल अधिनियम, 1974 तथा वायु अधिनियम, 1981 के अनुसार, निर्माण गतिविधियों के आरंभ से पहले CTE या NOC की आवश्यकता होती है तथा व्यक्तिगत प्रतिष्ठानों जैसी इकाइयों का संचालन आरंभ करने से पहले संबंधित राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से CTO की आवश्यकता होती है।
  • अब, गैर-प्रदूषणकारी श्वेत श्रेणी के उद्योगों को CTE या संचालन की सहमति (Consent to Operate- CTO) लेने की आवश्यकता नहीं होगी।
    • जिन उद्योगों ने EC ले लिया है, उन्हें CTE लेने की आवश्यकता नहीं होगी।

छूट के निहितार्थ

  • व्यापार करने में आसानी
    • नौकरशाही संबंधी बाधाओं और अनुमोदनों के दोहराव को कम करता है।
    • व्यापार करने में आसानी बढ़ाने के सरकार के उद्देश्य का समर्थन करता है।
  • उद्योग प्रतिक्रिया
    • प्रक्रियाओं को सरल बनाने की उद्योग जगत की लंबे समय से चली आ रही माँग को संबोधित करता है।
  • पर्यावरण निरीक्षण
    • इस औपचारिक अधिसूचना से पहले ही श्वेत श्रेणी के उद्योगों को आसान अनुमति मिल गई थी।

प्रदूषण सूचकांक के आधार पर औद्योगिक क्षेत्रों का वर्गीकरण

  • केंद्रीय पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) औद्योगिक क्षेत्रों को उनके प्रदूषण सूचकांक (PI) के आधार पर वर्गीकृत करता है।
    • यह सूचकांक उत्सर्जन, बहिःस्राव, खतरनाक अपशिष्ट तथा संसाधन उपयोग से उत्पन्न प्रदूषण के स्तर को मापता है।
  • प्रदूषण सूचकांक (Pollution Index- PI): 0 से 100 तक, उच्चतर मान अधिक प्रदूषण का संकेत देते हैं।
    • प्रदूषण सूचकांक स्कोर तथा श्रेणियाँ
      • लाल: PI 60+ (उच्च प्रदूषण)
      • नारंगी: PI 41-59 (मध्यम प्रदूषण)
      • हरा: PI 21-40 (कम प्रदूषण)
      • श्वेत: PI 20 या उससे कम (न्यूनतम प्रदूषण)

श्वेत श्रेणी क्षेत्रों के बारे में

  • श्वेत श्रेणी के उद्योग, उद्योगों की वह श्रेणी है, जो प्रदूषण रहित उद्योग हैं।
  • इन उद्योगों का प्रदूषण सूचकांक (PI) स्कोर आमतौर पर 20 या उससे कम होता है, जो प्रदूषण की कम डिग्री को दर्शाता है।
    • छूट 
      • राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
      • वायु अधिनियम, 1981 के तहत अनुमति से छूट।
      • जल अधिनियम, 1974 के तहत अनुमति से छूट।
    • उदाहरण
      • पवन ऊर्जा परियोजनाएँ
      • सौर ऊर्जा परियोजनाएँ
      • एयर कूलर की असेंबली
      • साइकिल असेंबली
  • श्वेत श्रेणी उद्योगों का पर्यावरणीय प्रभाव
    • कम प्रदूषण स्तर: श्वेत श्रेणी के उद्योग न्यूनतम उत्सर्जन, अपशिष्ट और खतरनाक अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं।
      • उच्च प्रदूषण श्रेणियों वाले उद्योगों की तुलना में उनके संचालन का वायु, जल और मिट्टी की गुणवत्ता पर कम प्रभाव पड़ता है।
    • संसाधन उपभोग: ये उद्योग संसाधनों का उपयोग करने में अधिक कुशल हैं।
      • यह दक्षता उनके समग्र पर्यावरणीय प्रभाव को तथा कम करने में सहायक होती है।
    • छूट की पर्याप्तता: यद्यपि उनका प्रदूषण स्तर कम है, फिर भी उनके परमिट छूट के औचित्य की नियमित समीक्षा की आवश्यकता है।
      • यह सुनिश्चित करने के लिए कि इन उद्योगों का पर्यावरण पर न्यूनतम प्रभाव पड़ता रहे तथा ये दीर्घकालिक पर्यावरणीय क्षति में योगदान न दें, सतत् निगरानी आवश्यक है।

संदर्भ

‘ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट’ (Global Carbon Project) की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, जीवाश्म ईंधन के जलने से भारत में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन वर्ष 2024 में 4.6% बढ़ने की उम्मीद है, जो प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है।

रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष

  • उच्चतम उत्सर्जन: जीवाश्म ईंधन से भारत के CO2 उत्सर्जन में वर्ष 2024 में 4.6% की वृद्धि होने की उम्मीद है, जो प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है।
  • वैश्विक उत्सर्जन: वैश्विक CO2 उत्सर्जन वर्ष 2024 में रिकॉर्ड 37.4 बिलियन टन तक पहुँचने वाला है, जो वर्ष 2023 से 0.8% की वृद्धि थी।
  • वर्ष 2023 में वैश्विक जीवाश्म CO2 उत्सर्जन में सबसे बड़ा योगदान: चीन (31%), संयुक्त राज्य अमेरिका (13%), भारत (8%), और यूरोपीय संघ (7%)।
    • ये चार क्षेत्र वैश्विक जीवाश्म CO2 उत्सर्जन का 59% हिस्सा हैं, जबकि शेष विश्व का योगदान 41% है।
  • ग्लोबल वार्मिंग संबंधी चेतावनी: इस दर पर, 50% संभावना है कि ग्लोबल वार्मिंग लगभग छह वर्षों में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो सकती है।
    • स्थल और महासागर CO2 सिंक ने संयुक्त रूप से कुल CO2 उत्सर्जन का लगभग आधा हिस्सा कवर किया है।

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट (Global Carbon Project- GCP) के बारे में

  • ‘ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट’ (Global Carbon Project- GCP) एक गैर-सरकारी संगठन है, जो कार्बन चक्र और अन्य जैव-रासायनिक चक्रों का अध्ययन करता है।
  • GCP की स्थापना वर्ष 2001 में ‘अर्थ सिस्टम साइंस पार्टनरशिप’ (Earth System Science Partnership- ESSP) द्वारा की गई थी।
  • यह ‘फ्यूचर अर्थ’ की एक मुख्य परियोजना है और विश्व जलवायु अनुसंधान कार्यक्रम का एक अनुसंधान भागीदार है।
    • GCP  का कार्य सैकड़ों स्वयंसेवी वैज्ञानिकों द्वारा समर्थित है।
  • GCP  के लक्ष्यों में शामिल हैं:
    • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की मात्रा निर्धारित करना: GCP वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारणों और मात्राओं का अध्ययन करता है।
    • कार्बन चक्र को समझना: GCP कार्बन चक्र और अन्य जैव-रासायनिक चक्रों का अध्ययन करता है, जिसमें मनुष्यों और जैव-भौतिक प्रणाली के बीच की अंतःक्रियाएँ शामिल हैं।
    • नीति और कार्रवाई का समर्थन करना: GCP का शोध ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए नीतिगत बहस और कार्रवाई का समर्थन करता है।
  • GCP की परियोजनाओं में शामिल हैं:
    • वैश्विक कार्बन बजट: कार्बन बजट और रुझानों पर वार्षिक अपडेट देना। 
    • मीथेन बजट: वैश्विक मेथेन बजट और रुझानों पर नियमित अपडेट देना।
    • वैश्विक कार्बन एटलस: कार्बन प्रवाह पर डेटा का पता लगाने और उसकी निगरानी के लिए एक मंच प्रदान करना।

ग्लोबल वार्मिंग

  • ग्लोबल वार्मिंग एक गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा है, जिसका पृथ्वी की जलवायु प्रणाली पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है।

  • यह वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के संचय के कारण औसत तापमान में दीर्घकालिक वृद्धि को संदर्भित करता है।
  • तापमान में इस वृद्धि के वैश्विक जलवायु पैटर्न पर कई प्रभाव पड़ते हैं, जिनमें चरम मौसम की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि, ग्लेशियरों और ध्रुवीय बर्फ की चोटियों का पिघलना, समुद्र के स्तर में वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान शामिल हैं।

ग्लोबल वार्मिंग में CO2 की भूमिका

  • प्राथमिक चालक: CO2 वैश्विक तापमान वृद्धि के लगभग 70% के लिए जिम्मेदार है।
  • रेडिएटिव फोर्सिंग (Radiative Forcing- RF): IPCC 2013 की रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु चालकों में CO2 का RF सबसे अधिक सकारात्मक है।
  • औद्योगिक क्रांति के बाद से तापमान में वृद्धि
    • वर्ष 1750 के बाद से CO2 का स्तर 50% बढ़ गया है।
    • अब, वायुमंडलीय CO2 पूर्व-औद्योगिक स्तरों (NASA डेटा) का 150% है।

CO2 के प्रमुख प्रभाव के कारण

  • प्रचुरता: CO2, CH4 और HFC की तुलना में वायुमंडल में अधिक प्रचुर मात्रा में है।
  • दीर्घ समय पर स्थायित्त्व: CO2 वायुमंडल में अधिक समय तक रहती है:
    • CH4: लगभग एक दशक में वायुमंडल से बाहर निकल जाती है। (CO2 में परिवर्तित हो जाती है)
    • CO2: 40% 100 वर्षों तक, 20% 1000 वर्षों तक और 10% 10,000 वर्षों वायुमंडल में बनी रहती है।
    • N2O: लगभग एक शताब्दी तक वायुमंडल में बनी रहती है।
  • क्षमता बनाम प्रभाव
    • CH4, CO2 से 80 गुना अधिक शक्तिशाली है, और HFCs हजारों गुना अधिक शक्तिशाली हैं, लेकिन CO2 की विशाल मात्रा इसे सबसे अधिक प्रभावशाली बनाती है।

ग्रीनहाउस गैसों के बारे में

  • ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडलीय गैसों का एक प्रकार है, जो सौर विकिरण को अवशोषित करके सतह के तापमान को बढ़ाने की क्षमता रखती हैं।
  • प्रकार: कार्बन डाइऑक्साइड, मेथेन, ओजोन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन और जलवाष्प।

  • प्रभाव: ग्रीनहाउस प्रभाव, जो ग्रीनहाउस गैसों के कारण होता है, एक प्राकृतिक घटना है, जो पृथ्वी पर जीवन के पनपने के लिए आवश्यक है।
    • हालाँकि, यदि ग्रीनहाउस प्रभाव आवश्यकता से अधिक बढ़ जाता है, तो इससे ग्लोबल वार्मिंग नामक घटना उत्पन्न होती है।
  • स्रोत: औद्योगिक और वाहन उत्सर्जन, धान की खेती, जीवाश्म ईंधन निष्कर्षण आदि जैसी मानवजनित गतिविधियों के कारण कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य विकिरण अवशोषित करने वाली गैसों की मात्रा में वृद्धि हुई है।
    • इन ग्रीनहाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से पृथ्वी की उन्हें प्राकृतिक रूप से अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग होती है।

ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव

  • पृथ्वी का गर्म होना: ग्रीनहाउस गैसों के कारण, सूर्य के प्रकाश से उत्पन्न ऊष्मा पृथ्वी के वायुमंडल में फँस जाती है। यह प्रक्रिया पृथ्वी को बहुत गर्म बनाती है।

  • ध्रुवीय बर्फ का पिघलना: वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण, ध्रुवीय बर्फ पिघल जाती है। इससे पृथ्वी की जलवायु पर भारी असर पड़ सकता है।
  • प्रवाल का क्षय होना: समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि से कोरल के अस्तित्व को नुकसान पहुँच सकता है, जो गर्म तापमान के प्रति संवेदनशील होते हैं।
  • समुद्र के स्तर में वृद्धि: ध्रुवीय बर्फ के पिघलने से समुद्र का स्तर बढ़ सकता है, जिससे निचले तटीय क्षेत्र जलमग्न हो सकते हैं।
  • जलवायु अनिश्चितताएँ: जलवायु परिवर्तन, जो ग्रीनहाउस प्रभाव का परिणाम है, जलवायु में अनिश्चितताएँ उत्पन्न करेगा। इससे चक्रवात, बाढ़, भूस्खलन आदि जैसी आपदाएँ हो सकती हैं।

ग्रीनहाउस गैस नियंत्रण रणनीतियाँ

  • इलेक्ट्रिक वाहन: इससे कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा।
  • अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देना: कोयले पर निर्भरता कम करने के लिए सौर, पवन, जैव ईंधन, ज्वार आदि जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  • वनीकरण: पेड़ लगाने से कार्बन का संचयन होगा।
    • इससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता पर नियंत्रण रहेगा।
  • जलवायु अनुकूल कृषि: मेथेन उत्सर्जित करने वाली फसलों से बचना चाहिए। यदि यह संभव नहीं है, तो मेथेन फुटप्रिंट को कम करना चाहिए।
  • जियोइंजीनियरिंग (Geoengineering): कार्बन कैप्चर जैसी विधि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड सांद्रता को कृत्रिम रूप से कम करने की अनुमति देती है।

संदर्भ

भारत ने ओडिशा के तट से दूर डॉ एपीजे अब्दुल कलाम द्वीप से लंबी दूरी की हाइपरसोनिक मिसाइल का सफलतापूर्वक उड़ान परीक्षण करके एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है। 

  • इस हाइपरसोनिक मिसाइल को सशस्त्र बलों के लिए 1,500 किलोमीटर से अधिक दूरी तक विभिन्न पेलोड ले जाने के लिए डिजाइन किया गया है।

हाइपरसोनिक मिसाइलों के बारे में

  • गति: हाइपरसोनिक मिसाइल एक हथियार प्रणाली है, जो कम से कम मैक-5 की गति यानी ध्वनि की गति से पाँच गुना अधिक रफ्तार से गति करती है। 
  • गतिशीलता: बैलिस्टिक मिसाइलों के विपरीत, हाइपरसोनिक मिसाइलें बैलिस्टिक प्रक्षेपवक्र का अनुसरण नहीं करती हैं एवं इन्हें इच्छित लक्ष्य तक ले जाया जा सकता है।
  • प्रकार: हाइपरसोनिक ग्लाइड वाहन और हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइलें। 
    • HGV को इच्छित लक्ष्य पर जाने से पूर्व रॉकेट से लॉन्च किया जाता है। 
    • हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइल को लक्ष्य पर पहुँचने के बाद उच्च गति वाले इंजन या ‘स्क्रैमजेट’ द्वारा संचालित किया जाता है।

  • लाभ: हाइपरसोनिक हथियार दूरस्थ, सुरक्षित या समय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण खतरों (जैसे सड़क मोबाइल मिसाइल) के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक, लंबी दूरी के हमले के विकल्प को सक्षम कर सकते हैं।
  • पहचान क्षमता
    • ये मिसाइलें अपनी गति, गतिशीलता एवं उड़ान की कम ऊँचाई के कारण पहचान तथा रक्षा को चुनौती दे सकती हैं। 

    • जमीन आधारित या स्थलीय रडार, हथियार की उड़ान के अंतिम चरण तक हाइपरसोनिक मिसाइलों का पता नहीं लगा सकते।
    • देरी से पता लगाने से मिसाइल हमले का जवाब देने वालों के लिए अपने विकल्पों का आकलन करना एवं मिसाइलों को रोकने का प्रयास करना मुश्किल हो जाता है। 
  • देश: अमेरिका, रूस एवं चीन हाइपरसोनिक मिसाइल कार्यक्रम के उन्नत चरण में हैं, भारत, फ्राँस, जर्मनी, जापान तथा ऑस्ट्रेलिया भी हाइपरसोनिक हथियार विकसित कर रहे हैं।

मैक संख्या के बारे में

  • द्रव यांत्रिकी में मैक संख्या, किसी तरल पदार्थ के वेग एवं उस तरल पदार्थ में ध्वनि के वेग का अनुपात, जिसका नाम ऑस्ट्रियाई भौतिक विज्ञानी तथा दार्शनिक अर्न्स्ट मैक (1838-1916) के नाम पर रखा गया है।
  • किसी तरल पदार्थ के माध्यम से घूमने वाली किसी वस्तु के मामले में, जैसे कि उड़ान में एक विमान, मैक संख्या उस तरल पदार्थ में ध्वनि के वेग से विभाजित तरल पदार्थ के सापेक्ष वस्तु के वेग के बराबर होती है।
  • एक से कम मैक संख्या, M<1 के लिए सबसोनिक स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।
  • एक, M = 1 के बराबर मैक संख्याओं के लिए ध्वनि संबंधी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।
  • सुपरसोनिक स्थितियाँ एक, M >1 से अधिक मैक संख्याओं के लिए होती हैं।
  • ध्वनि की गति, M> 5 की स्थिति को हाइपरसोनिक कहा जाता है।

मिसाइलों का वर्गीकरण

मिसाइलों के प्रकार: प्रक्षेपवक्र के आधार पर

बैलिस्टिक मिसाइल

क्रूज मिसाइल

  • किसी निर्दिष्ट लक्ष्य तक एक या अधिक हथियार पहुँचाने के लिए बैलिस्टिक प्रक्षेपवक्र की आवश्यकता होती है।
  • यह एक निर्देशित मिसाइल है, जो वायुमंडल में रहती है एवं अपने अधिकांश उड़ान पथ के दौरान स्थिर गति से यात्रा करती है।
  • लक्ष्य पहले ही तय हो चुका है।
  • बड़े लक्ष्यों के लिए उपयुक्त।
  • लक्ष्य परिवर्तित हो सकता है।
  • केवल उड़ान की संक्षिप्त अवधि के लिए निर्देशित, इसका शेष प्रक्षेप पथ अप्रभावित है और गुरुत्वाकर्षण द्वारा संचालित है।
  • यह  स्वयं-नेविगेटिंग कर सकते हैं।
  • उच्च ऊँचाई के कारण इसका अनुसरण करना सरल है।
यह बहुत कम ऊँचाई पर उड़ान भरने में सक्षम है, जिससे इसका पता लगाना कठिन हो जाता है।
  • उदाहरण: अग्नि-V भारत की पहली अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (Intercontinental Ballistic Missile- ICBM) है, जिसकी मारक क्षमता लगभग 5000-8000 किमी. है।
  • उदाहरण: ब्रह्मोस दुनिया की सबसे तेज सुपरसोनिक मिसाइल है।
    • हाइपरसोनिक क्रूज मिसाइल ब्रह्मोस II फिलहाल विकास के चरण में है।

संदर्भ

सरकारी दूरसंचार प्रदाता BSNL ने भारत की पहली डायरेक्ट-टू-डिवाइस सैटेलाइट इंटरनेट सेवा (Direct-to-Device Satellite Internet Service) शुरू की है, जिसका उद्देश्य दूरदराज के क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी प्रदान करना है।

  • यह सेवा अमेरिका स्थित संचार कंपनी वायसैट (Viasat) के सहयोग से शुरू की गई है।
  • इंडिया मोबाइल कांग्रेस (Indian Mobile Congress- IMC) ने वर्ष 2024 में इसकी घोषणा की और दूरसंचार विभाग (Department of Telecommunications- DoT) द्वारा इसकी जानकारी दी गई।

इंडिया मोबाइल कांग्रेस (India Mobile Congress- IMC) 2024

  • इंडिया मोबाइल कांग्रेस (IMC), 2024 वैश्विक और भारतीय दूरसंचार क्षेत्रों के लिए एक महत्त्वपूर्ण आयोजन है, जो 15-19 अक्टूबर, 2024 को नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित किया गया था।
  • थीम: IMC 2024 की थीम है:- ‘द फ्यूचर इज नाउ’ (The Future is Now)
  • चर्चा के विषय: इस कार्यक्रम में 6G, 5G, AI, सैटेलाइट संचार, सेमीकंडक्टर और EV जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों पर चर्चा होगी।
  • संगठन: दूरसंचार विभाग और सेलुलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (Cellular Operators Association of India- COAI) इस कार्यक्रम का आयोजन कर रहे हैं।

डायरेक्ट-टू-डिवाइस सैटेलाइट प्रौद्योगिकी के बारे में

  • डायरेक्ट-टू-डिवाइस सैटेलाइट तकनीक एक कनेक्टिविटी समाधान है, जो पारंपरिक ग्राउंड-आधारित सेलुलर टॉवरों को दरकिनार करते हुए डिवाइस को कक्षा में उपग्रहों के साथ सीधे संचार करने की अनुमति देता है।
  • यह तकनीक उन क्षेत्रों में नेटवर्क कवरेज प्रदान करती है, जहाँ सेलुलर या Wi-Fi  नेटवर्क उपलब्ध नहीं हैं, जिससे दूरदराज या कम सेवा वाले क्षेत्रों में कनेक्टिविटी सुनिश्चित होती है।

यह किस प्रकार कार्य करता है:

  • सैटेलाइट सिग्नल ट्रांसमिशन (Satellite Signal Transmission): जमीन पर मौजूद डिवाइस सीधे कक्षा में स्थित सैटेलाइट से सिग्नल प्राप्त करते हैं, आमतौर पर जियोस्टेशनरी या लो अर्थ ऑर्बिट (Low Earth Orbit- LEO) सैटेलाइट।
  • गैर-स्थलीय नेटवर्क (Non-Terrestrial Network- NTN): डिवाइस एवं सैटेलाइट के बीच निर्बाध दो-तरफा संचार के लिए NTN तकनीक का उपयोग करता है।
  • भूस्थिर सैटेलाइट: 36,000 किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित ये सैटेलाइट व्यापक कवरेज और विश्वसनीय कनेक्शन प्रदान करते हैं।

D2D  सैटेलाइट प्रौद्योगिकी की मुख्य विशेषताएँ

  • विस्तृत क्षेत्र कवरेज: D2D सैटेलाइट तकनीक विशाल भौगोलिक क्षेत्रों को कवर कर सकती है, जिसमें सीमित या बिना स्थलीय नेटवर्क इन्फ्रास्ट्रक्चर वाले दूरदराज के क्षेत्र भी शामिल हैं। यह इसे विविध भू-भागों या बड़ी ग्रामीण आबादी वाले देशों के लिए आदर्श बनाता है।
  • हाई-स्पीड इंटरनेट एक्सेस (High-Speed Internet Access): यह तकनीक हाई-स्पीड इंटरनेट एक्सेस प्रदान करती है, जिससे निर्बाध ब्राउजिंग, स्ट्रीमिंग और ऑनलाइन गतिविधियाँ संभव होती हैं। यह डिजिटल डिवाइड को समाप्त कर सकता है और दूरदराज के क्षेत्रों में आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकता है।
  • विश्वसनीय कनेक्टिविटी: D2D सैटेलाइट तकनीक प्राकृतिक आपदाओं या बुनियादी ढाँचे की विफलताओं के कारण होने वाले व्यवधानों के प्रति कम संवेदनशील है, जो चुनौतीपूर्ण मौसम की स्थिति में भी विश्वसनीय कनेक्टिविटी सुनिश्चित करती है। 
  • आपातकालीन संचार: इसका उपयोग आपदाग्रस्त क्षेत्रों या सीमित नेटवर्क कवरेज वाले क्षेत्रों में आपातकालीन संचार के लिए किया जा सकता है, जिससे संकट के दौरान महत्त्वपूर्ण संचार संभव हो पाता है। 
  • ‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ (IoT) समर्थन: D2D सैटेलाइट तकनीक IoT उपकरणों का समर्थन कर सकती है, जिससे विभिन्न प्रणालियों की दूरस्थ निगरानी और नियंत्रण की सुविधा मिलती है। इससे स्मार्ट सिटी पहल और डिजिटल परिवर्तन को बढ़ावा मिल सकता है।

डायरेक्ट-टू-डिवाइस सैटेलाइट प्रौद्योगिकी के वैश्विक उदाहरण

  • स्पेसएक्स का स्टारलिंक: डायरेक्ट-टू-सेल क्षमताओं सहित वैश्विक उपग्रह इंटरनेट कवरेज प्रदान करने का लक्ष्य रखता है।
  • एएसटी स्पेसमोबाइल (AST SpaceMobile): मानक मोबाइल फोन से सीधे कनेक्शन के लिए उपग्रह आधारित सेलुलर नेटवर्क विकसित करना।
  • लिंक ग्लोबल (Lynk Global): आपातकालीन और दूरदराज के क्षेत्रों के लिए डायरेक्ट-टू-फोन उपग्रह संचार पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • कॉन्स्टेलेशन नेटवर्क (Constellation Network): IoT डिवाइस कनेक्टिविटी के लिए उपग्रह-आधारित नेटवर्क का निर्माण करना।

भारत के लिए संभावित लाभ

  • सुदूर क्षेत्रों के लिए कनेक्टिविटी: ग्रामीण और कम आबादी वाले क्षेत्रों के लिए आदर्श जहाँ पारंपरिक बुनियादी ढाँचे को बनाए रखना कठिन है।
  • नियमित उपयोगकर्ताओं के लिए पहली सेवा: आपातकालीन केंद्रित उपग्रह संचार के विपरीत, यह सेवा नियमित सार्वजनिक उपयोग के लिए उपलब्ध है।
  • आर्थिक सशक्तीकरण: यह UPI भुगतान और डिजिटल लेनदेन का समर्थन कर सकता है, जो कम सेवा वाले क्षेत्रों में वित्तीय समावेशन के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • डिजिटल डिवाइड को पाटना: डिजिटल समावेशन को बढ़ावा देते हुए दूरस्थ और कम सेवा वाले क्षेत्रों को जोड़ता है।
  • आपदा प्रबंधन: यह आपात स्थिति के दौरान संचार और समन्वय की सुविधा प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा: यह रक्षा और रणनीतिक उद्देश्यों के लिए संचार क्षमताओं को बढ़ाता है।
  • यात्रा और सुरक्षा: यह यात्रियों और साहसी लोगों के लिए लाभकारी है, जिन्हें विश्वसनीय संचार चैनलों की आवश्यकता होती है।
  • BSNL द्वारा पुनरुद्धार और नवाचार: अपनी सेवाओं को नया रूप देने और दूरसंचार क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धी बने रहने के लिए BSNL के बड़े प्रयास का हिस्सा।

चुनौतियाँ

  • उच्च प्रारंभिक लागत: उपग्रह अवसंरचना की तैनाती एवं रखरखाव महंगा हो सकता है।
  • विलंबता: वीडियो कॉल जैसे वास्तविक समय के अनुप्रयोगों में विलंबता बढ़ने की संभावना है।
  • विनियामक ढाँचा: निर्बाध संचालन के लिए स्पष्ट विनियमन और स्पेक्ट्रम आवंटन की आवश्यकता है।
  • डिवाइस संगतता: विभिन्न उपकरणों और ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ संगतता सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण है।
  • प्रसार चुनौतियाँ: विविध वातावरण में सिग्नल के ह्रास होने पर नियंत्रण पाना।

निष्कर्ष

D2D सैटेलाइट तकनीक में कनेक्टिविटी में क्रांति लाने की अपार संभावनाएँ हैं, विशेषकर भारत जैसे देशों में। यह डिजिटल डिवाइड को पाट सकता है, दूरदराज के समुदायों को सशक्त बना सकता है और सामाजिक-आर्थिक विकास में योगदान दे सकता है। हालाँकि, लागत, विलंबता और विनियामक ढाँचे से संबंधित चुनौतियों का समाधान इसके सफल कार्यान्वयन के लिए महत्त्वपूर्ण है।

संदर्भ

NCR एवं आसपास के क्षेत्रों में ‘वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग’ ने दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 400 से ऊपर जाने पर ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान (Graded Response Action Plan- GRAP) चरण IV पर  प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया है।

ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान (GRAP) के बारे में

  • ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान (GRAP) एक आपातकालीन प्रतिक्रिया योजना है, जिसका उद्देश्य दिल्ली-NCR  क्षेत्र में वायु प्रदूषण को कम करना है। 
    • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2016 में एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ मामले में GRAP को मंजूरी दी थी। MoEFCC ने वर्ष 2017 में GRAP को अधिसूचित किया। 
  • कार्यान्वयन: NCR एवं आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (Commission for Air Quality Management- CAQM), GRAP को लागू करने के लिए जिम्मेदार है। 
    • CAQM अपने निर्णयों को सूचित करने के लिए भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) एवं भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (IITM) के पूर्वानुमानों का उपयोग करता है।

GRAP की मुख्य विशेषताएँ

  • GRAP उपायों का एक समूह है, जो तब लागू किया जाता है जब दिल्ली-NCR  क्षेत्र में वायु गुणवत्ता सूचकांक (Air Quality Index- AQI) एक निश्चित स्तर तक पहुँच जाता है। 
  • वृद्धिशील प्रकृति: GRAP को वृद्धिशील प्रकृति के रूप में डिजाइन किया गया है, जिसका अर्थ है कि जैसे ही वायु की गुणवत्ता बिगड़ती है, क्रमिक चरणों से उपाय प्रारंभ किए जाते हैं।
    • चरण 1 (खराब AQI – 201 से 300)
    • चरण 2 (बहुत खराब AQI – 301 से 400)
    • चरण 3 (गंभीर AQI – 401 से 450)
    • चरण 4 (गंभीर + AQI – 450 से अधिक)

वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) के बारे में

  • भारत में वायु गुणवत्ता की व्यवस्थित निगरानी एवं रिपोर्ट करने के लिए वर्ष 2014 में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) पेश किया गया था।
  • श्रेणियाँ: AQI छह श्रेणियों पर आधारित है: 
    • अच्छा, संतोषजनक, मध्यम प्रदूषित, खराब, बहुत खराब एवं गंभीर।

  • प्रदूषकों पर विचार
    • AQI की गणना आठ प्रमुख प्रदूषकों की औसत सांद्रता का उपयोग करके की जाती है:
      • PM10 (पार्टिकुलेट मैटर ≤ 10 माइक्रोमीटर)
      • PM2.5 (पार्टिकुलेट मैटर ≤ 2.5 माइक्रोमीटर)
      • नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO₂)
      • सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂)
      • कार्बन मोनोऑक्साइड CO)
      • सतही ओजोन (O₃)
      • अमोनिया (NH₃)
      • लेड (Pb)
  • मापन के लिए समय अंतराल
    • AQI PM10, PM2.5, NO₂, SO₂, NH₃ एवं Pb के लिए 24-घंटे के औसत मान का उपयोग करता है।
    • CO एवं O₃ के लिए, 8-घंटे के औसत मान का उपयोग किया जाता है।

गणना मानदंड

  • AQI की गणना के लिए तीन प्रदूषकों के न्यूनतम डेटा की आवश्यकता होती है।
  • इनमें से कम-से-कम एक प्रदूषक या तो PM10 या PM2.5 होना चाहिए।
  • AQI रेंज एवं स्केल: विभिन्न राज्यों एवं शहरों में वायु गुणवत्ता के स्तर को निर्धारित करने के लिए AQI को 0 से 500 तक के पैमाने पर वर्गीकृत किया गया है।
  • विकास: AQI को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board- CPCB) द्वारा वायु गुणवत्ता विशेषज्ञों के सहयोग से विकसित किया गया था।

वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (CAQM) 

  • CAQM राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) एवं आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग अधिनियम, 2021 के तहत स्थापित एक वैधानिक निकाय है।
  • अधिदेश: CAQM का प्राथमिक अधिदेश बेहतर समन्वय सुनिश्चित करना, अनुसंधान करना, मुद्दों की पहचान करना एवं संबंधित मामलों या किसी भी संबंधित चिंताओं के प्रबंधन के साथ-साथ क्षेत्र में वायु गुणवत्ता से संबंधित समाधान ढूँढना है।
  • CAQM की संरचना
    • अध्यक्ष: सचिव या मुख्य सचिव स्तर का एक सरकारी अधिकारी
    • कार्यकाल: तीन वर्ष या 70 वर्ष की आयु।
    • पदेन सदस्य: पाँच सदस्य, जो दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के पर्यावरण विभागों के मुख्य सचिव या सचिव हैं।
    • पूर्णकालिक सदस्य: तीन तकनीकी विशेषज्ञ।
    • NGO प्रतिनिधित्व: गैर-सरकारी संगठनों से तीन सदस्य।
    • तकनीकी विशेषज्ञ: CPCB, ISRO एवं NITI आयोग के सदस्य।
  • क्षेत्राधिकार: CAQM का अधिकार क्षेत्र राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) तक विस्तृत है, जिसमें दिल्ली एवं हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ हिस्से शामिल हैं।
    • अधिकार क्षेत्र में केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित अन्य निकटवर्ती क्षेत्र भी शामिल हो सकते हैं।
  • शक्तियाँ: CAQM अपने अधिकार क्षेत्र में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCBs) जैसे अन्य नियामक निकायों पर अधिभावी अधिकार रखता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि इसका वायु गुणवत्ता प्रबंधन पर व्यापक नियंत्रण है।

संदर्भ 

हाल ही में केरल के कासरगोड (Kasaragod) में गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered)रेड हेडेड वल्चर’ या लाल सिर वाला गिद्ध (Red-Headed Vulture) देखा गया है, जो इस क्षेत्र की पक्षी जैव विविधता (Avian Biodiversity) में एक महत्त्वपूर्ण वृद्धि को दर्शाता है।

रेड हेडेड वल्चर’ या लाल सिर वाला गिद्ध (Red-Headed Vulture) के बारे में

  • इन्हें ‘एशियन किंग वल्चर’ (Asian King Vulture) या ‘पांडिचेरी वल्चर’ (Pondicherry Vulture) के नाम से भी जाना जाता है।
  • यह भारत में पाई जाने वाली 9 गिद्ध प्रजातियों में से एक है।
  • उपस्थिति
    • गहरे रंग का, मध्यम आकार का गिद्ध जिसका सिर एवं गर्दन लाल रंग की होती है।
    • वजन लगभग 5 किलोग्राम, औसत लंबाई 80 सेमी. से अधिक होती है।
    • मुख्य रूप से एकाकी; अकेले या अपने किसी अन्य साथी प्रजाति के साथ देखा जाता है।
    • काले पंख और पेट पर एक विशिष्ट सफेद धब्बा, जो उड़ान के दौरान दिखाई देता है।
  • वितरण: वे मध्य भारत, नेपाल, म्याँमार, थाईलैंड, वियतनाम और केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में पाए जाते हैं।
  • प्रजनन: यह प्रजाति नवंबर और जनवरी के बीच प्रजनन करती है।
  • संरक्षण स्थिति
    • IUCN की रेड लिस्ट में: गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered)।
    • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972: अनुसूची 1 के अंतर्गत सूचीबद्ध।
    • CITES स्थिति: परिशिष्ट II (Appendix II)।

भारत में गिद्धों के बारे में

  • भारतीय गिद्धों की 9 प्रजातियाँ पाई जाती है, जिन्हें स्थानीय या प्रवासी के रूप में वर्गीकृत किया गया है:
    • निवासी प्रजातियाँ (Resident species): सफेद-पूँछ वाला गिद्ध (White-Rumped Vulture), भारतीय गिद्ध (Indian Vulture), पतली-चोंच वाला गिद्ध (Slender-Billed Vulture), लाल सिर वाला गिद्ध (Red-Headed Vulture), बियर्डेड वल्चर (Bearded Vulture) और इजिप्टियन वल्चर (Egyptian Vulture)।
    • प्रवासी प्रजातियाँ (Migratory species): सिनेरियस गिद्ध (Cinereous Vulture), ग्रिफॉन गिद्ध (Griffon Vulture) और हिमालयी गिद्ध (Himalayan Vulture)।
  • इन प्रजातियों की संरक्षण स्थिति अलग-अलग है, जिनमें से कुछ गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं और अन्य लगभग संकटग्रस्त हैं:
    • गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered): सफेद-पूँछ वाला गिद्ध, पतली-चोंच वाला गिद्ध, लंबी-चोंच वाला गिद्ध और लाल-सिर वाला गिद्ध।
    • संकटग्रस्त (Endangered): इजिप्टियन वल्चर (Egyptian Vulture)।
    • निकट संकटग्रस्त (Near Threatened): हिमालयन ग्रिफ़ॉन (Himalayan Griffon), सिनेरियस वल्चर (Cinereous Vulture) और बियर्डेड वल्चर (Bearded Vulture)।
  • आबादी में गिरावट: दक्षिण एशिया में गिद्धों की आबादी में भारी गिरावट देखी गई है, विशेषकर भारत, पाकिस्तान और नेपाल में।
    • 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में हुई इस गिरावट का मुख्य कारण पशु चिकित्सा दवा डाइक्लोफेनाक (Diclofenac) का व्यापक उपयोग था, जो गिद्धों के लिए जहरीली है।

भारत में गिद्धों के समक्ष खतरा

  • विषाक्तता
    • पशु चिकित्सा दवाओं का उपयोग: 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में डाइक्लोफेनाक (Diclofenac), कीटोप्रोफेन (Ketoprofen) और एसेक्लोफेनाक (Aceclofenac) जैसी पशु चिकित्सा दवाओं के व्यापक उपयोग ने गिद्धों की आबादी को बुरी तरह प्रभावित किया है।
    • विषाक्त प्रभाव (Toxic Effects): पशुओं के दर्द और सूजन के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ये दवाएँ, उपचारित पशुओं के शवों को खाने वाले गिद्धों के लिए घातक हैं।
    • डाइक्लोफेनाक का प्रभाव (Diclofenac Impact): डाइक्लोफेनाक विशेष रूप से गिद्धों में घातक गुर्दे की विफलता का कारण बनता है; कीटोप्रोफेन और एसेक्लोफेनाक के साथ भी इसी तरह के प्रभाव देखे गए हैं।
    • कीटनाशक संदूषण (Pesticide Contamination): गिद्ध अक्सर कीटनाशकों या अन्य विषाक्त पदार्थों से दूषित शवों का उपभोग करते हैं।
    • सीसा विषाक्तता (Lead Poisoning): सीसा बारूद से मारे गए जानवरों को खाने वाले गिद्ध घातक सीसा विषाक्तता से पीड़ित हो सकते हैं, जिससे आबादी में और गिरावट आती है।
  • आवास का ह्रास
    • शहरीकरण और वनों की कटाई: शहरी क्षेत्रों के विस्तार, वनों की कटाई और कृषि विकास के कारण आवासों का अत्यधिक नुकसान हुआ है।
    • घोंसले के शिकार स्थलों पर प्रभाव: घोंसले एवं बसेरा स्थलों के साथ-साथ खाद्य के स्रोतों का विनाश गिद्धों के अस्तित्व के लिए चुनौती बन गया है।
  • बुनियादी ढाँचे के साथ टकराव 
    • भेद्यता: गिद्धों को विद्युत की लाइनों, पवन टर्बाइनों और अन्य मानव निर्मित संरचनाओं से टकराने का खतरा रहता है।
    • जिसके परिणामस्वरूप चोट एवं मृत्यु होती है: ऐसी घटनाओं से चोट या मृत्यु होती है, जिससे उनकी संख्या और कम हो जाती है।
  • अवैध शिकार एवं शिकार (Poaching and Hunting)
    • सांस्कृतिक मान्यताएँ एवं वन्यजीव व्यापार (Cultural Beliefs and Wildlife Trade): कुछ क्षेत्रों में सांस्कृतिक प्रथाओं या अवैध वन्यजीव व्यापार के कारण गिद्धों का शिकार किया जाता है, जिससे उनकी संख्या में कमी आ रही है।
  • रोग
    • एवियन डिजीज (Avian Diseases): एवियन पॉक्स और एवियन फ्लू जैसी बीमारियों के प्रकोप से गिद्धों की आबादी पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है, जिससे उनकी संख्या में कमी आ सकती है।

भारत में गिद्ध संरक्षण के प्रयास 

  • नशीली दवाओं के खतरों से निपटना
    • डिक्लोफेनाक प्रतिबंध (Diclofenac Ban): भारत ने दूषित शवों के कारण गुर्दे की विफलता से गिद्धों की मृत्यु को रोकने के लिए वर्ष 2006 में डिक्लोफेनाक के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था।
    • गिद्ध कार्य योजना 2020-25 (Vulture Action Plan 2020-25): डिक्लोफेनाक के उपयोग को कम करने और गिद्धों के भोजन स्रोतों के संदूषण को रोकने के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा शुरू की गई।
    • विस्तारित प्रतिबंध: अगस्त 2023 में, गिद्धों की सुरक्षा के लिए पशु चिकित्सा उद्देश्यों के लिए कीटोप्रोफेन (Ketoprofen) और एसिक्लोफेनाक (Aceclofenac) के उपयोग पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।

  • बंदी प्रजनन और पुनःप्रवेश (Captive Breeding and Reintroduction)
    • गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र (Vulture Conservation Breeding Centres- VCBC): भारत ने प्रजनन केंद्रों का एक नेटवर्क स्थापित किया, जिनमें से पहला वर्ष 2001 में हरियाणा के पिंजौर (Pinjore) में स्थापित किया गया था।
    • सेंटर नेटवर्क (Centre Network): वर्तमान में, 9 गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र (VCBC) हैं, जिनमें से तीन बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (Bombay Natural History Society- BNHS) द्वारा प्रबंधित हैं, जो जंगल में छोड़ने के लिए गिद्धों की आबादी बढ़ाने पर केंद्रित हैं।
    • जटायु संरक्षण और प्रजनन केंद्र (Jatayu Conservation and Breeding Centre): जटायु संरक्षण और प्रजनन केंद्र का उद्घाटन सितंबर 2024 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर वन प्रभाग के भारीवैसी (Bharivaisi) में किया गया था।
  • अभयारण्य 
    • भारत का एकमात्र गिद्ध अभयारण्य कर्नाटक के रामनगर में स्थित है और इसे रामदेवरा बेट्टा गिद्ध अभयारण्य (Ramadevara Betta Vulture Sanctuary) कहा जाता है।
  • ‘वल्चर रेस्टोरेंट’ पहल (Vulture Restaurant Initiative)
    • सुरक्षित आहार स्थल (Safe Feeding Sites): झारखंड के कोडरमा जिले में एक ‘वल्चर रेस्टोरेंट’ की स्थापना की गई, ताकि दूषित खाद्य स्रोत उपलब्ध कराए जा सकें और जहरीली पशुधन दवाओं के प्रभाव को कम किया जा सके।
  • अन्य संरक्षण उपाय
    • वन्यजीव आवासों का एकीकृत विकास (Integrated Development of Wildlife Habitats- IDWH): IDWH के तहत ‘प्रजाति पुनर्प्राप्ति कार्यक्रम’ (Species Recovery Programme) में गिद्ध संरक्षण प्रयास शामिल हैं।
    • गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र (Vulture Safe Zones): ये कार्यक्रम पूरे भारत में आठ स्थानों पर सक्रिय हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश में दो स्थल शामिल हैं।
    • कानूनी संरक्षण: बियर्डेड वल्चर (Bearded Vulture), लंबी चोंच वाले, पतली चोंच वाले और ओरिएंटल सफेद पीठ वाले गिद्ध जैसी प्रजातियों को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची I के तहत संरक्षित किया गया है, जबकि अन्य अनुसूची IV के अंतर्गत आते हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग 
    • एशिया के गिद्धों को विलुप्त होने से बचाना (Saving Asia’s Vultures from Extinction- SAVE): क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों का एक संघ जो दक्षिण एशिया में गिद्धों के पुनरुद्धार के लिए संरक्षण, जागरूकता अभियान और धन उगाही के लिए समर्पित है।

गिद्ध संरक्षण के लिए आगे की राह

  • हानिकारक दवाओं का विनियमन: हानिकारक पशु चिकित्सा दवाओं के विनियमन को मजबूत करना और सुरक्षित विकल्पों के उपयोग को बढ़ावा देना। निमेसुलाइड (Nimesulide) जैसी दवाओं पर व्यापक प्रतिबंध लगाने पर विचार करना।
  • शिक्षा और सुरक्षित शव निपटान: सुरक्षित शव निपटान के बारे में जागरूकता बढ़ाना और सुरक्षित भोजन के साथ गिद्धों के लिए भोजन केंद्र स्थापित करना।
  • घोंसले के शिकार स्थल की सुरक्षा: गिद्धों के घोंसलों और बसेरा क्षेत्रों की पहचान करना और उनकी सुरक्षा करना तथा भोजन एवं घोंसलों के शिकार स्थलों को जोड़ने वाले गलियारे बनाना।
  • निरंतर निगरानी: पशु चिकित्सा पद्धतियों में डाइक्लोफेनाक के उपयोग को समाप्त करने के लिए सख्त निगरानी सुनिश्चित करना।
  • व्यापक रणनीति: प्रभावी गिद्ध संरक्षण के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है और भारत के चल रहे प्रयास समान चुनौतियों का सामना कर रहे अन्य देशों के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य कर सकते हैं।

निष्कर्ष

गिद्धों के प्रभावी संरक्षण के लिए निरंतर प्रयास, सहयोग और हानिकारक प्रथाओं के सख्त विनियमन की आवश्यकता है। भारत की बहुआयामी पहल, इन महत्त्वपूर्ण अपमार्जक पक्षियों की संख्या में कमी को रोकने और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए उनकी सुरक्षा हेतु एक आशाजनक फ्रेमवर्क प्रस्तुत करती है।

संदर्भ

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन-अंतर-सरकारी समुद्र विज्ञान आयोग (Intergovernmental Oceanographic Commission of the United Nations Educational, Scientific and Cultural Organisation: IOC-UNESCO) ने इंडोनेशिया में दूसरे वैश्विक सुनामी संगोष्ठी (Global Tsunami Symposium) के दौरान ओडिशा के 24 तटीय गाँवों को ‘सुनामी रेडी’ (Tsunami Ready) के रूप में मान्यता दी है।

पृष्ठभूमि

  • सुनामी के बारे में: यह भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट आदि के मद्देनजर एक बड़ी जल राशि  के विस्थापन के कारण जल निकाय में तरंगों की एक शृंखला है। उदाहरण के रूप में 26 दिसंबर, 2004 में हिंद महासागर क्षेत्र में सुनामी की घटना, जिसे आचे सुनामी (Aceh Tsunami) के नाम से भी जाना जाता है।
    • प्रभाव: इस सुनामी की घटना के कारण 2,28,000 लोगों की जान चली गई, 1.6 मिलियन से अधिक लोग विस्थापित हुए और 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ।
  • चुनौतियाँ
    • हिंद महासागरीय क्षेत्र के लिए कोई सुनामी चेतावनी प्रणाली नहीं है।
    • सुनामी जोखिमों के बारे में जागरूकता अत्यंत सीमित है।
  • परिणाम: संवेदनशील महासागर घाटियों में क्षेत्रीय सुनामी चेतावनी प्रणालियों की स्थापना की गई।
  • विश्व सुनामी जागरूकता दिवस (World Tsunami Awareness Day): यह 5 नवंबर को मनाया जाने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य सुनामी जोखिमों के बारे में जागरूकता बढ़ाना तथा तैयारी एवं पूर्व चेतावनी प्रणालियों पर जोर देना है।

‘सुनामी रेडी विलेज’ (Tsunami Ready Villages)  के बारे में

  • सुनामी रेडी विलेज (Tsunami Ready Villages) तटीय समुदाय/गाँव हैं, जिन्हें सुनामी के खतरों से प्रभावी ढंग से निपटने हेतु उनकी तैयारियों के लिए संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन-अंतर-सरकारी समुद्र विज्ञान आयोग (UNESCO-IOC) के सुनामी रेडी रिकग्नीशन कार्यक्रम (Tsunami Ready Recognition Programme- TRRP) के तहत मान्यता दी गई है। 
  • इन ‘सुनामी रेडी विलेज’ में आयोजित की जाने वाली गतिविधियाँ हैं:
    • हितधारकों का प्रशिक्षण।
    • सामुदायिक जागरूकता कार्यक्रम।
    • सुनामी प्रबंधन योजनाओं का विकास।
    • निकासी मार्गों की पहचान।
    • तैयारी के लिए मॉक ड्रिल।
  • हाल ही में मान्यता प्राप्त गाँव: ये गाँव बालासोर, भद्रक, केंद्रपाड़ा, जगतसिंहपुर, पुरी और गंजम के छह तटीय जिलों में अवस्थित हैं।
  • सुनामी रेडी मान्यता प्रमाणपत्रों का नवीनीकरण (Renewal Of Tsunami Ready Recognition Certificates): दो गाँवों, नोलियासाही (जगतसिंहपुर) और वेंकटरायपुर (गंजम) के प्रमाण-पत्रों का नवीनीकरण किया गया, जिन्हें शुरू में वर्ष 2020 में मान्यता दी गई थी।
  • सत्यापन प्रक्रिया निरीक्षण
    • ‘नेशनल सुनामी रेडी रिकग्नीशन बोर्ड’ (National Tsunami Ready Recognition Board- NTRB) द्वारा संचालित।
      • ‘नेशनल सुनामी रेडी रिकग्नीशन बोर्ड’ (NTRB) में भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (Indian National Centre for Ocean Information Services- INCOIS) के वैज्ञानिक और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) के अधिकारी शामिल हैं।
      • NTRB ‘सुनामी रेडी’ आवेदन की समीक्षा और अनुमोदन के लिए जिम्मेदार है।
    • मानदंड: 12 विशिष्ट संकेतकों पर आधारित मूल्यांकन किया जाता है।
  • अनुशंसा: सत्यापन के बाद, NTRB ने ओडिशा के इन 26 तटीय गाँवों के समुदायों को ‘सुनामी रेडी’ समुदायों के रूप में मान्यता देने के लिए संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन-अंतर-सरकारी समुद्र विज्ञान आयोग (IOC-UNESCO) को अनुशंसा प्रस्तुत की।
  • भविष्य की योजनाएँ
    • सुनामी-प्रवण गाँव
      • सुनामी-प्रवण गाँवों के रूप में ओडिशा सरकार ने 381 गाँवों को संवेदनशील के रूप में चिह्नित किया है।
      • ओडिशा राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (Odisha State Disaster Management Authority- OSDMA) का लक्ष्य इन सभी समुदायों को ‘सुनामी रेडी’ के तौर पर तैयार करना है।

IOC-UNESCO और ‘सुनामी रेडी रिकग्नीशन प्रोग्राम’ (Tsunami Ready Recognition Programme- TRRP) के बारे में

  • यूनेस्को का अंतर-सरकारी महासागरीय आयोग (IOC/UNESCO) महासागर, तटों और समुद्री संसाधनों के प्रबंधन में सुधार के लिए समुद्री विज्ञान में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है।
  • IOC सतत् विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र महासागर विज्ञान दशक 2021-2030, ‘महासागर दशक’ (Ocean Decade) के समन्वय का प्रभारी है।
  • UNESCO-IOC सुनामी रेडी रिकग्नीशन प्रोग्राम (TRRP): TRRP शिक्षा, प्रशिक्षण और प्रतिक्रिया योजना के माध्यम से सुनामी के लिए सामुदायिक तैयारी को बढ़ाता है।
    • IOC/UNESCO द्वारा 12 विशिष्ट संकेतकों पर समुदायों का मूल्यांकन किया जाता है।

भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (Indian National Center for Ocean Information Services- INCOIS)

  • भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (INCOIS) पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संगठन है, जो हैदराबाद में अवस्थित है।
  • भारत के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाला राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) भारत में आपदा प्रबंधन के लिए सर्वोच्च निकाय है।

द्वितीय UNESCO-IOC वैश्विक सुनामी संगोष्ठी (UNESCO-IOC Global Tsunami Symposium) के बारे में

  • थीम: ‘वर्ष 2004 हिंद महासागर सुनामी के दो दशक बाद: चिंतन और आगे की राह।’ (Two Decades After 2004 Indian Ocean Tsunami: Reflection and the Way Forward)
  • तिथियाँ: 11-14 नवंबर, 2024 तक आयोजित।
  • स्थान: बांदा आचे, इंडोनेशिया।
  • आयोजक: BMKG (मौसम विज्ञान, जलवायु विज्ञान और भू-भौतिकी एजेंसी) के माध्यम से इंडोनेशिया सरकार द्वारा आयोजित किया जा रहा है।
    • UNESCO-IOC  सुनामी रिजिलियंस सेक्शन (UNESCO-IOC Tsunami Resilience Section) और IUGG संयुक्त सुनामी आयोग (IUGG Joint Tsunami Commission) के साथ सहयोग।
  • संगोष्ठी के लक्ष्य
    • क्षेत्रीय योगदान की समीक्षा करना: संयुक्त राष्ट्र महासागर दशक सुनामी कार्यक्रम (Ocean Decade Tsunami Programme- ODTP) में योगदान की समीक्षा करना।
      •  ODTP प्रतिक्रिया समय को कम करके और सामुदायिक तत्परता को बढ़ाकर वैश्विक सुनामी चेतावनी प्रणाली को मजबूत करने का एक प्रयास है।
    • संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्यों के साथ संरेखण: वर्ष 2030 तक सतत् विकास के लिए महासागर विज्ञान के संयुक्त राष्ट्र दशक के ‘सुरक्षित महासागर’ (Safe Ocean) परिणाम के अंतर्गत संयुक्त राष्ट्र महासागर दशक सुनामी कार्यक्रम (UN Ocean Decade Tsunami Programme- ODTP) के उद्देश्यों का समर्थन करना।
      • अधिक सटीक और समय पर सुनामी चेतावनियाँ जारी करना।
      • 100% जोखिमग्रस्त समुदाय सुनामी के खतरे के लिए तैयार एवं लचीलेपन को बढ़ावा देना।

संदर्भ

भारतीय कृषक उर्वरक सहकारी संस्था (Indian Farmers Fertilizer Cooperative- IFFCO) भारत के 18 अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (International Cooperative Alliance- ICA) सदस्य संगठनों के सहयोग से ICA वैश्विक सहकारी सम्मेलन का आयोजन करने जा रही है। 

ICA वैश्विक सहकारी सम्मेलन की मुख्य विशेषताएँ

  • उद्देश्य: इस सम्मेलन का उद्देश्य सहकारी नवाचार में भारत के नेतृत्व को प्रदर्शित करना तथा सहकारी संगठनों के बीच वैश्विक सहयोग को मजबूत करना है।
  • अपेक्षित परिणाम: इस सम्मेलन से दुनिया भर में सहकारी समितियों के बीच ज्ञान साझा करने, नेटवर्किंग और सहयोग को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है, जिससे वैश्विक चुनौतियों के लिए अभिनव समाधान सामने आएँगे।

अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (International Cooperative Alliance- ICA) के बारे में

  • स्थापना: वर्ष 1895 में लंदन, यू. के. में स्थापित।
  • उद्देश्य: सहकारी विचार को बढ़ावा देना और दुनिया भर में सहकारी समितियों के विकास का समर्थन करना।
  • सदस्यता: इसमें राष्ट्रीय सहकारी संगठन, अंतरराष्ट्रीय सहकारी संगठन और व्यक्तिगत सहकारी समितियाँ शामिल हैं।
    • ICA के कुछ उल्लेखनीय सदस्य हैं- इफको (भारतीय कृषक उर्वरक सहकारी लिमिटेड), कृभको (कृषक भारती सहकारी लिमिटेड), अमूल डेयरी कोऑपरेटिव, द कोऑपरेटिव ग्रुप (यूके), ग्रुप क्रेडिट म्यूचुअल (फ्राँस), कॉप इटालिया (Coop Italia), WOCCU (विश्व क्रेडिट यूनियन परिषद), आदि।

  • मुख्यालय: ब्रुसेल्स, बेल्जियम।
  • ICA की भूमिका 
    • सहकारी सिद्धांतों और मूल्यों की वकालत करता है।
    • सहकारी समितियों को तकनीकी सहायता और क्षमता निर्माण प्रदान करता है।
    • अनुसंधान और नीति विश्लेषण करता है।
    • अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम एवं सम्मेलन आयोजित करता है।
    • वैश्विक स्तर पर सहकारी समितियों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है।

भारत में सहकारी समितियों के लिए संवैधानिक प्रावधान

  • 97वाँ संविधान संशोधन: संविधान में भाग IXB (सहकारी समितियाँ) जोड़ा गया।
    • सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को अनुच्छेद-19 (1) के तहत स्वतंत्रता के अधिकार के रूप में शामिल किया गया।
    • सहकारी समितियों के संवर्द्धन से संबंधित अनुच्छेद-43-B को भी राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में से एक के रूप में शामिल किया गया।
  • बहु-राज्य सहकारी समितियाँ (संशोधन) अधिनियम, 2023: शासन को मजबूत करने, पारदर्शिता बढ़ाने, जवाबदेही बढ़ाने, चुनावी प्रक्रिया में सुधार करने और बहु-राज्य सहकारी समितियों में 97वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को शामिल करने के लिए MSCS अधिनियम, 2002 में संशोधन लाया गया है।

सहकारी समितियों (Cooperative Societies) के बारे में

  • सहकारी समितियाँ व्यक्तियों के स्वैच्छिक संघ हैं, जो अपनी सामान्य आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक साथ जुड़ते हैं।
  • वे आपसी मदद और स्व-सहायता के सिद्धांत पर कार्य करते हैं, लाभ अधिकतमकरण पर अपने सदस्यों के कल्याण को प्राथमिकता देते हैं।
  • भारत में सहकारी समितियों की स्थिति
    • वर्तमान में आवास, डेयरी, कृषि, वित्त आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में 8 लाख से अधिक सहकारी समितियाँ पंजीकृत हैं।
    • भारत सरकार द्वारा वर्ष 2021 में ‘सहकार से समृद्धि’ के विजन को साकार करने के लिए सहकारिता मंत्रालय बनाया गया था।
  • अधिकार क्षेत्र: संविधान के तहत सहकारिता एक राज्य विषय है।
    • संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत राज्य सूची की प्रविष्टि 32 में ‘सहकारी समितियाँ’ विषय का उल्लेख किया गया है।

भारत में सहकारी समितियों के प्रकार

  • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ: इन समितियों का उद्देश्य अपने सदस्यों को किफायती मूल्य पर गुणवत्तापूर्ण वस्तुएँ और सेवाएँ प्रदान करना है। उदाहरणों में केंद्रीय भंडार और अपना बाज़ार शामिल हैं।
  • उत्पादक सहकारी समितियाँ: ये समितियाँ छोटे उत्पादकों को संसाधन, प्रौद्योगिकी और बाजार तक पहुँच प्रदान करके उनका समर्थन करती हैं। उदाहरणों में अमूल डेयरी सहकारी समिति और कर्नाटक हथकरघा बुनकर सहकारी समिति शामिल हैं।
  • विपणन सहकारी समितियाँ: ये समितियाँ अपने सदस्यों के लिए बेहतर मूल्य सुनिश्चित करते हुए कृषि और अन्य उत्पादों के सामूहिक विपणन की सुविधा प्रदान करती हैं।
  • ऋण सहकारी समितियाँ: ये समितियाँ अपने सदस्यों, विशेष रूप से ग्रामीण और हाशिए के समुदायों के लोगों को ऋण एवं बचत जैसी वित्तीय सेवाएँ प्रदान करती हैं। उदाहरणों में शहरी सहकारी बैंक और ग्रामीण सहकारी बैंक शामिल हैं।
  • आवास सहकारी समितियाँ: ये समितियाँ संसाधनों को एकत्रित करके और सामूहिक रूप से आवास परियोजनाएँ विकसित करके अपने सदस्यों को किफायती आवास समाधान प्रदान करती हैं।

भारत में सहकारी आंदोलन का विकास

भारत में सहकारी आंदोलन पिछले कुछ वर्षों में काफी विकसित हुआ है, जो सरकारी नीतियों, सामाजिक सुधारों और आर्थिक स्थितियों सहित विभिन्न कारकों से प्रभावित है।

  • स्वतंत्रता-पूर्व युग
    • अनौपचारिक उत्पत्ति: चिट फंड, निधि और ग्राम-स्तरीय पारस्परिक सहायता समितियों जैसे सहकारी समितियों के प्रारंभिक रूप मौजूद थे।
    • औपचारिकीकरण: वर्ष 1904 के सहकारी ऋण समिति अधिनियम और वर्ष 1912 के सहकारी समिति अधिनियम ने औपचारिक सहकारी आंदोलन की नींव रखी।
      • कर्नाटक के गडग जिले के कनागिनहाल गाँव की कृषि ऋण सहकारी समिति, सहकारी ऋण समिति अधिनियम, 1904 के तहत गठित पहली सहकारी समिति थी।
    • गांधीवादी प्रभाव: महात्मा गांधी ने सहकारी सिद्धांतों को बढ़ावा दिया और ग्रामीण समुदायों को सशक्त बनाने और आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करने के साधन के रूप में उन्हें अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
  • स्वतंत्रता के बाद का युग
    • सरकारी सहायता: सरकार ने ग्रामीण विकास और आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने में सहकारी समितियों की क्षमता को पहचाना।
    • राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (National Cooperative Development Corporation- NCDC): वर्ष 1963 में स्थापित, NCDC सहकारी समितियों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करता है।
    • राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड): वर्ष 1982 में स्थापित, नाबार्ड ग्रामीण विकास को बढ़ावा देता है और सहकारी समितियों को ऋण एवं अन्य वित्तीय सेवाएँ प्रदान करता है।
    • विधायी सुधार: बहु-राज्य सहकारी समितियों के बेहतर विनियमन के लिए बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 और 2023 संशोधन तथा 97वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2011 ने सहकारी आंदोलन को और मजबूत किया।

भारत में बहु-राज्य बनाम एकल-राज्य सहकारी समितियाँ

विशेषता

बहु-राज्य सहकारी समिति

एकल-राज्य सहकारी समिति

अधिकार क्षेत्र बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 के तहत पंजीकृत संबंधित राज्य सहकारी समिति अधिनियम के तहत पंजीकृत
परिचालन क्षेत्र कई राज्यों में कार्य कर सकती हैं। एक ही राज्य के भीतर संचालित होता है।
नियामक प्राधिकरण केंद्रीय सहकारी समितियाँ रजिस्ट्रार सहकारी समितियों के राज्य रजिस्ट्रार
गठन में आसानी केंद्रीय पंजीकरण और अनुपालन आवश्यकताओं के कारण अधिक जटिल यह अपेक्षाकृत आसान है क्योंकि इसमें राज्य-स्तरीय पंजीकरण शामिल है।
शासन बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 और उसके नियमों द्वारा शासित संबंधित राज्य सहकारी समिति अधिनियम और नियमों द्वारा शासित
वित्तीय विनियमन केंद्रीय वित्तीय विनियमों और दिशा-निर्देशों के अधीन राज्य स्तरीय वित्तीय विनियमों और दिशा-निर्देशों के अधीन
कर निहितार्थ विभिन्न राज्यों में अलग-अलग कर प्रभाव हो सकते हैं। कर निहितार्थ सामान्यतः राज्य के कर कानूनों द्वारा नियंत्रित होते हैं।
सदस्य आधार इसमें कई राज्यों के सदस्य हो सकते हैं। सदस्य आमतौर पर एक ही राज्य से होते हैं।
परिचालन का पैमाना वे बड़े पैमाने पर परिचालन के लिए अधिक लचीलापन और क्षमता प्रदान करते हैं, साथ ही उन्हें अधिक कठोर अनुपालन तथा नियामक निगरानी की भी आवश्यकता होती है। उनका फोकस अधिक स्थानीय है और वे छोटे पैमाने के परिचालन के लिए अधिक उपयुक्त हो सकते हैं।
उदाहरण इफको (IFFCO), अमूल (Amul), एनसीडीएफआई (NCDFI)  राज्य स्तरीय सहकारी बैंक, प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ, आवास समितियाँ।

भारत में सहकारिता की भूमिका

भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में सहकारी समितियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। उन्होंने लाखों लोगों को सशक्त बनाया है, आजीविका में सुधार किया है और राष्ट्रीय विकास में योगदान दिया है। यहाँ उनकी प्रमुख भूमिकाओं पर चर्चा की गई है:

  • ग्रामीण विकास
    • ऋण और वित्तीय सेवाएँ: सहकारी बैंक और ऋण समितियाँ किसानों एवं ग्रामीण उद्यमियों को किफायती ऋण उपलब्ध कराती हैं, जिससे वे अपने व्यवसायों में निवेश कर सकते हैं और उत्पादकता में सुधार कर सकते हैं।
      • सहकारी समितियाँ देश में कुल कृषि ऋण का 20% प्रदान करती हैं, जिससे किसानों को वित्त तक पहुँच सुनिश्चित होती है।
    • इनपुट आपूर्ति: सहकारी समितियाँ उचित मूल्य पर बीज, उर्वरक और कीटनाशक जैसे गुणवत्तापूर्ण कृषि इनपुट खरीदती हैं और वितरित करती हैं, जिससे किसानों को समय पर उनकी पहुँच सुनिश्चित होती है।
      • सहकारी समितियाँ भारत में कुल उर्वरकों का 35% वितरित करती हैं और 25% उर्वरकों का उत्पादन करती हैं।
    • बाजार तक पहुँच: सहकारिताएँ किसानों की उपज को एकत्रित करके, बेहतर कीमतों पर बातचीत करके और उन्हें घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय बाजारों से जोड़कर बाजार तक पहुँच की सुविधा प्रदान करती हैं।
    • बुनियादी ढाँचे का विकास: सहकारिताएँ अक्सर ग्रामीण बुनियादी ढाँचे, जैसे सिंचाई प्रणाली, सड़क और भंडारण सुविधाओं में निवेश करती हैं, जिससे पूरे समुदाय को लाभ होता है।
  • गरीबी को कम करना
    • आय सृजन: सहकारिताएँ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी संख्या में लोगों को, खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में, रोजगार के अवसर प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए, अमूल डेयरी सहकारी समिति ने गुजरात में लाखों डेयरी किसानों को आजीविका प्रदान की है।
    • कौशल विकास: सहकारिताएँ अक्सर अपने सदस्यों के कौशल को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करती हैं, जिससे उन्हें अपनी उत्पादकता और आय में सुधार करने में मदद मिलती है।
    • सामाजिक सुरक्षा जाल: सहकारिताएँ सामाजिक सुरक्षा जाल के रूप में कार्य कर सकती हैं, जो आर्थिक कठिनाई या प्राकृतिक आपदाओं के समय अपने सदस्यों को सहायता प्रदान करती हैं।
  • सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण
    • महिला सशक्तीकरण: महिला स्वयं सहायता समूह, जो अक्सर सहकारिता आधारित होते हैं, महिलाओं को वित्तीय संसाधन, प्रशिक्षण और अपनी चिंताओं को व्यक्त करने के लिए एक मंच प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाते हैं।
    • हाशिये पर पड़े समूह: सहकारिताएँ आदिवासी समुदायों और छोटे किसानों जैसे हाशिये पर पड़े समूहों को संसाधनों और बाजारों तक पहुँच प्रदान करके उन्हें सशक्त बना सकती हैं।
    • सामुदायिक विकास: सहकारिताएँ शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और अन्य सामाजिक कल्याण गतिविधियों में निवेश करके सामुदायिक विकास में योगदान देती हैं।
  • खाद्य सुरक्षा
    • कृषि उत्पादकता में वृद्धि: सहकारिताएँ आधुनिक कृषि पद्धतियों को अपनाने को बढ़ावा देती हैं, जिससे अधिक पैदावार एवं बेहतर गुणवत्ता प्राप्त होती है।
      • सहकारी समितियाँ देश में कुल चीनी उत्पादन में 31% और भारत में उत्पादित कुल दूध में 10% से अधिक का योगदान देती हैं।
      • वे मछुआरों के व्यवसाय में 21% से अधिक का योगदान करते हैं, मछली पकड़ने के उद्योग और तटीय समुदायों का समर्थन करते हैं।
    • कुशल खाद्य वितरण: सहकारिताएँ खाद्यान्न और अन्य कृषि उत्पादों का कुशल वितरण सुनिश्चित करती हैं, बर्बादी को कम करती हैं और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती हैं।
    • मूल्य स्थिरीकरण: सहकारी समितियाँ कृषि उत्पादों के खरीदार और विक्रेता दोनों के रूप में कार्य करके कीमतों को स्थिर करने में मदद कर सकती हैं।
      • सहकारी समितियाँ देश में उत्पादित गेहूँ का 13% और धान का 20% से अधिक खरीद करती हैं, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिलता है।

      • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर आवश्यक वस्तुएँ और सेवाएँ प्रदान करती हैं।

सहकारिता को मजबूत करने के लिए सरकारी पहल

  • सहकारिता मंत्रालय: वर्ष 2021 में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना ने सहकारी क्षेत्र की आवश्यकताओं और चुनौतियों से निपटने के लिए एक समर्पित मंच प्रदान किया है।
  • वित्तीय सहायता: सरकार विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से सहकारी समितियों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

        पहल 

उद्देश्य

PACS के लिए आदर्श उपनियम PACS में प्रशासन, पारदर्शिता और समावेशिता में सुधार लाना।
PACS का कंप्यूटरीकरण PACS का आधुनिकीकरण और उनकी दक्षता में सुधार।
नई बहुउद्देशीय PACS/डेयरी/मत्स्य सहकारी समितियाँ सहकारी नेटवर्क को अछूते क्षेत्रों तक विस्तारित करना।
विकेंद्रीकृत अनाज भंडारण योजना फसल-उपरांत होने वाले नुकसान को कम करना तथा किसानों की आय में सुधार करना।
सामान्य सेवा केंद्र (CSCs) के रूप में PACS ग्रामीण नागरिकों को विभिन्न ई-सेवाएँ प्रदान करना।
कृषक उत्पादक संगठनों (FPOs) का गठन किसानों को सशक्त बनाना और उनकी बाजार पहुँच में सुधार करना।
खुदरा पेट्रोल/डीजल आउटलेट PACS के आय स्रोतों में विविधता लाना।
PACS के लिए एलपीजी डिस्ट्रीब्यूटरशिप PACS के आय स्रोतों में विविधता लाना।
पीएम भारतीय जन औषधि केंद्र ग्रामीण क्षेत्रों में किफायती दवाओं तक पहुँच में सुधार।
प्रधानमंत्री किसान समृद्धि केंद्र (PMKSK) किसानों को उर्वरकों और संबंधित सेवाओं तक आसान पहुँच प्रदान करना।
पीएम-कुसुम अभिसरण किसानों के बीच सौर ऊर्जा अपनाने को बढ़ावा देना।
ग्रामीण जल आपूर्ति का संचालन एवं रखरखाव ग्रामीण क्षेत्रों में PACS की पहुँच का उपयोग करना।
सहकारी समितियों के लिए माइक्रो-एटीएम ग्रामीण नागरिकों को उनके घर तक वित्तीय सेवाएँ उपलब्ध कराना।
डेयरी सहकारी समितियों के लिए रुपे किसान क्रेडिट कार्ड डेयरी किसानों को ऋण एवं अन्य वित्तीय सेवाएँ प्रदान करना।
मत्स्य कृषक उत्पादक संगठनों (FFPOs) का गठन मत्स्यपालकों को सशक्त बनाना तथा उनकी बाजार पहुँच में सुधार करना।

भारत में सहकारी समितियों के लिए प्रमुख चुनौतियाँ

  • शासन संबंधी मुद्दे
    • पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव: कई सहकारी समितियाँ वित्तीय लेन-देन और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में पारदर्शिता की कमी से पीड़ित हैं। इससे भ्रष्टाचार और धन का दुरुपयोग हो सकता है।
    • सीमित सदस्य भागीदारी: निर्णय लेने में सदस्यों की कम भागीदारी सहकारी समितियों को कमजोर कर सकती है और उन्हें बाहरी प्रभावों के प्रति दुर्बल बना सकती है।
    • अप्रभावी शासन संरचनाएँ: निदेशक मंडल और प्रबंधन समितियों सहित कमजोर शासन संरचनाएँ सहकारी समितियों के प्रभावी कामकाज में बाधा डाल सकती हैं।
      • कमजोर कॉरपोरेट प्रशासन के कारण कई सहकारी बैंक विफल हो गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2004-05 से गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों (UCB) के 145 विलय हुए हैं, जिनमें वर्ष 2021-22 में 9 विलय शामिल हैं।
  • वित्तीय बाधाएँ
    • वित्त तक सीमित पहुँच: सहकारी समितियों, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित सहकारी समितियों को अक्सर बैंकों और वित्तीय संस्थानों जैसे पारंपरिक स्रोतों से वित्त प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
    • उच्च ब्याज दरें: यहाँ तक कि जब वे ऋण प्राप्त करने में सफल हो जाती हैं, तो सहकारी समितियों को अक्सर अन्य व्यवसायों की तुलना में अधिक ब्याज दरों का भुगतान करना पड़ता है।
    • गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ (NPAs): सहकारी बैंकों की एक बड़ी संख्या उच्च NPA से ग्रसित है, जो उनकी वित्तीय स्थिति को खराब कर सकती है।
      • खराब वित्तीय स्थितियों के कारण, वर्ष 2023 में 17 सहकारी बैंकों को बंद कर दिया गया, जिसमें भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा सबसे अधिक वार्षिक लाइसेंस रद्द किए गए।
  • क्षमता निर्माण 
    • कुशल कर्मियों की कमी: कई सहकारी समितियों में अपने संचालन को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए आवश्यक कौशल और विशेषज्ञता का अभाव है।
    • खराब वित्तीय प्रबंधन: कमजोर वित्तीय प्रबंधन प्रथाओं से वित्तीय नुकसान और अस्थिरता हो सकती है।
    • सीमित तकनीकी अपनाना: प्रौद्योगिकी को धीमी गति से अपनाने से सहकारी समितियों की वृद्धि और दक्षता में बाधा आ सकती है।
  • प्रतिस्पर्द्धा
    • निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्द्धा: सहकारी समितियों को अक्सर निजी क्षेत्र की संस्थाओं से कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है, जिनके पास बेहतर संसाधनों और प्रौद्योगिकी तक पहुँच हो सकती है।
    • बाजार पर प्रभुत्व: बड़ी कंपनियाँ बाजारों पर हावी हो सकती हैं, जिससे सहकारी समितियों के लिए प्रतिस्पर्द्धा करना जटिल हो जाता है।
    • कीमतों में उतार-चढ़ाव: इनपुट और आउटपुट कीमतों में उतार-चढ़ाव सहकारी समितियों की लाभप्रदता को प्रभावित कर सकता है।
  • जनता के विश्वास की कमी
    • ऐतिहासिक मुद्दे: कुछ सहकारी समितियाँ वित्तीय कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार से जुड़ी रही हैं, जिसके कारण उनके बारे में नकारात्मक धारणा बनी है।
    • पारदर्शिता का अभाव: कार्यों और वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता का अभाव जनता के विश्वास को कम कर सकता है।
    • अप्रभावी शासन: भाई-भतीजावाद तथा पक्षपात सहित खराब शासन पद्धतियाँ जनता के विश्वास को और कम कर सकती हैं।
      • उदाहरण के लिए, पंजाब और महाराष्ट्र सहकारी बैंक (पीएमसी बैंक) को धोखाधड़ी की प्रथाओं और कुप्रबंधन के कारण एक बड़े संकट का सामना करना पड़ा, जिसके कारण गंभीर नकदी संकट उत्पन्न हो गया तथा इसके जमाकर्ताओं को असुविधा हुई।

आगे की राह

  • शासन को मजबूत करना: पारदर्शिता, जवाबदेही और सदस्य भागीदारी को बढ़ावा देना।
  • वित्तीय प्रबंधन में सुधार: अच्छी वित्तीय प्रथाओं को लागू करना और वित्त के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करना।
  • क्षमता निर्माण: सहकारी सदस्यों और कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण तथा विकास कार्यक्रमों में निवेश करना।
  • नीति समर्थन: सहकारी समितियों के विकास और वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए एक सहायक नीति वातावरण बनाना।
  • सहयोग और नेटवर्किंग: ज्ञान और संसाधनों को साझा करने के लिए सहकारी समितियों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना।
  • सार्वजनिक विश्वास की कमी को संबोधित करना: नियमित वित्तीय ऑडिट, वित्तीय विवरणों का सार्वजनिक प्रकटीकरण और पारदर्शी निर्णय लेने की प्रक्रिया जैसे मजबूत पारदर्शिता उपायों को लागू करना।

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