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Nov 28 2024

Title Subject Paper
राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे जैव विविधता समझौता Environment, GS Paper 3,
सदनों का स्थगन Polity and governance ​, GS Paper 2,
स्जोग्रेन रोग Science and Technology, GS Paper 3,
भारत में रोजगार परिदृश्य economy, GS Paper 3,
अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन Polity and governance ​, GS Paper 2,
संक्षेप में समाचार
चक्रवात फेंगल Geography, GS Paper 1,
वन नेशन वन सब्सक्रिप्शन (ONOS) Polity and governance ​, GS Paper 2,
वर्ष 2023-24 में दुग्ध, मांस और अंडे के उत्पादन में वृद्धि: केंद्र economy, GS Paper 3,
संभल मस्जिद को लेकर विवाद Polity and governance ​, GS Paper 2,
कोटा लाभ के लिए धर्मांतरण Polity, GS Paper 2,
सर्वोच्च न्यायालय का सरकार को CIC, SICs में रिक्त पदों को भरने का निर्देश Polity, GS Paper 2,
भारतीय संविधान: भारत को आगे ले जाने वाला एक जीवंत दस्तावेज Polity and governance ​, GS Paper 2,

संदर्भ

भारत द्वारा हाल ही में राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे जैव विविधता (Biodiversity Beyond National Jurisdiction- BBNJ) समझौते पर हस्ताक्षर  किए गए हैं।

संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून सम्मेलन (UNCLOS)

  • संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून सम्मेलन (UNCLOS) वर्ष 1982 में अपनाई गई एक अंतरराष्ट्रीय संधि है और वर्ष 1994 में लागू हुई।
  • हस्ताक्षरकर्ता: 168 से अधिक देशों ने UNCLOS की पुष्टि की है।
  • उद्देश्य: नौवहन, मछली पालन, खनिज संसाधनों और पर्यावरण संरक्षण सहित सभी समुद्री गतिविधियों के लिए एक व्यापक कानूनी ढाँचा स्थापित करना।

उद्देश्य

  • महासागरों और उनके संसाधनों के उपयोग और संरक्षण के लिए एक कानूनी ढाँचा स्थापित करना
  • समुद्रों और महासागरों के शांतिपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देना
  • समुद्री पर्यावरण की रक्षा करना।

प्रमुख पहल

  • समुद्री क्षेत्र प्रभाग
    • प्रादेशिक समुद्री सीमा (Territorial Sea): आधार रेखा से समुद्र में 12 समुद्री मील तक प्रादेशिक समुद्री सीमा है।
    • अविच्छिन्न मंडल या संलग्न क्षेत्र (Contiguous Zone):  आधार रेखा से समुद्र में 24 समुद्री मील तक अविच्छिन्न मंडल सीमा है। जो राज्यों को सीमा शुल्क, राजकोषीय, आव्रजन और स्वच्छता संबंधी कानूनों को लागू करने का अधिकार देता है।
    • अनन्य आर्थिक क्षेत्र (EEZ): आधार रेखा से 200 समुद्री मील तक फैला हुआ है, जो राज्यों को मछली, तेल और गैस सहित संसाधनों पर संप्रभु अधिकार देता है।
    • महाद्वीपीय शेल्फ (Continental Shelf): प्रादेशिक समुद्र से परे समुद्र तल और उप-भूमि को शामिल करता है, जो भू-वैज्ञानिक कारकों के आधार पर 200 समुद्री मील या उससे आगे तक फैला हुआ है।
    • उच्च सागर (हाई सी): महासागर के वे क्षेत्र, जो किसी भी राज्य के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते, तथा जो नौवहन, मछली पकड़ने और वैज्ञानिक अनुसंधान की स्वतंत्रता के सिद्धांतों द्वारा शासित होते हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय समुद्र तल प्राधिकरण (International Seabed Authority): अंतरराष्ट्रीय समुद्र तल क्षेत्र में खनन गतिविधियों को विनियमित करने के लिए जिम्मेदार एक अंतरराष्ट्रीय संगठन।
  • समुद्री संस्तर में खनन (Seabed Mining): अंतरराष्ट्रीय समुद्र तल क्षेत्र में खनिज संसाधनों की खोज और दोहन को नियंत्रित करता है।
  • समुद्री प्रदूषण (Marine Pollution): समुद्री प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण के लिए मानक निर्धारित करता है।
  • समुद्री वैज्ञानिक अनुसंधान (Marine Scientific Research): समुद्री वैज्ञानिक अनुसंधान और ज्ञान के आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है।

UNCLOS में भारत की स्थिति

  • भारत संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून सम्मेलन (UNCLOS) का एक हस्ताक्षरकर्ता और पक्षकार देश है।
  • भारत ने संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून सम्मेलन (UNCLOS) के विकास और कार्यान्वयन में सक्रिय रूप से भाग लिया है।
  • भारत को संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून सम्मेलन (UNCLOS) से लाभ हुआ है, विशेष रूप से अपनी समुद्री सीमाओं और हिंद महासागर में संसाधन दावों के संदर्भ में।

राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे जैव विविधता (BBNJ) समझौते के बारे में

  • राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे जैव विविधता (BBNJ) संधि संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून सम्मेलन (UNCLOS) के तहत तीसरा कार्यान्वयन समझौता है।
    • अन्य दो समझौते वर्ष 1994 भाग XI कार्यान्वयन समझौता (अंतरराष्ट्रीय समुद्री क्षेत्रों में खनन को विनियमित करना) और वर्ष 1995 संयुक्त राष्ट्र मछली स्टॉक समझौता (मछली स्टॉक का संरक्षण और प्रबंधन) हैं।
  • यह तीन मुख्य उद्देश्यों पर केंद्रित है:
    • समुद्री जैव विविधता का संरक्षण: पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा के लिए समुद्री संरक्षित क्षेत्र (Marine Protected Areas-MPA) जैसे तंत्रों की स्थापना करना।

    • समुद्री आनुवंशिक संसाधनों का न्यायसंगत बँटवारा: यह सुनिश्चित करना कि इन संसाधनों से होने वाले लाभ से वैश्विक कोष के माध्यम से सभी देशों को लाभ मिले।
    • पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA): समुद्री पर्यावरण पर संभावित हानिकारक प्रभाव वाली गतिविधियों के लिए मूल्यांकन को अनिवार्य बनाना।

राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे जैव विविधता (BBNJ) समझौते के कार्यान्वयन में चुनौतियाँ

  • अनुसमर्थन और आम सहमति: 104 हस्ताक्षरकर्ताओं में से केवल 14 ने ही समझौते की पुष्टि की है, इसलिए यह लागू होने के लिए आवश्यक 60 अनुसमर्थनों की सीमा से बहुत दूर है।
    • दक्षिण चीन सागर जैसे समुद्री क्षेत्रीय विवाद, समुद्री संरक्षित क्षेत्र (MPA) बनाने पर आम सहमति को जटिल बनाते हैं। कई देशों को डर है कि ऐसे उपाय उनके आर्थिक अवसरों या क्षेत्रीय दावों का उल्लंघन कर सकते हैं।
    • क्षेत्रीय आशंकाएँ, विशेष रूप से बंगाल की खाड़ी जैसे क्षेत्रों में, इस बात की चिंता को उजागर करती हैं कि समुद्री संरक्षित क्षेत्र (MPA) आजीविका और समुद्री संसाधनों तक पहुँच को कैसे प्रभावित कर सकते हैं।
  • समुद्री आनुवंशिक संसाधन (Marine Genetic Resources): संधि समुद्री आनुवंशिक संसाधन दोहन से लाभ-साझाकरण को अनिवार्य बनाती है।
    • कमजोर जवाबदेही तंत्र के कारण गतिविधियों की कम रिपोर्टिंग करके धनी राष्ट्र संभावित रूप से इस प्रावधान को कमजोर कर सकते हैं।
    • जैविक विविधता पर कन्वेंशन जैसी अन्य व्यवस्थाओं के साथ ओवरलैप, छोटे देशों के लिए नुकसान का जोखिम उत्पन्न करते है।
  • क्षमता निर्माण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: यद्यपि संधि महासागर विज्ञान में समान साझेदारी पर जोर देती है, लेकिन इसमें क्षमता निर्माण सुनिश्चित करने के लिए प्रवर्तनीय तंत्र का अभाव है।
    • इस विषमता के कारण निम्न और मध्यम आय वाले देशों को दरकिनार कर दिए जाने का खतरा है तथा अनुसंधान और प्रशासन में असमानताएँ बनी रहेंगी।
  • उच्च-समुद्र और अनन्य आर्थिक क्षेत्र (EEZ) अंतरसंबंध: उच्च-समुद्र शासन पर संधि का ध्यान समुद्री पारिस्थितिकी प्रणालियों की परस्पर जुड़ी प्रकृति को नजरअंदाज करता है।
    • अनन्य आर्थिक क्षेत्र (EEZ) में प्रदूषण, अत्यधिक मछली पालन और आवास विनाश अक्सर अंतरराष्ट्रीय जल में फैल जाते हैं।
    • तटीय राज्यों द्वारा अपने जल के भीतर गतिविधियों को संबोधित करने की अनिच्छा संधि के प्रवर्तन ढाँचे को और कमजोर करती है।
  • पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA): संधि में अंतरराष्ट्रीय जल में नियोजित गतिविधियों के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) की आवश्यकता होती है, लेकिन तेल और गैस अन्वेषण जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों को शामिल नहीं किया जाता है, जो कई राज्यों के लिए महत्त्वपूर्ण आर्थिक हित बने हुए हैं।
    • पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) की अंतरराष्ट्रीय समीक्षा का विरोध किया जाता है, विशेष रूप से सीमित संस्थागत क्षमता और परस्पर विरोधी कानूनी मानकों वाले क्षेत्रों में।

आगे की राह 

  • तटीय और उच्च-समुद्री शासन का एकीकरण: एक सुसंगत ढाँचा स्थापित करना, जो तटीय गतिविधियों के साथ उच्च-समुद्री विनियमों को संरेखित करता है।
  • तटीय राज्यों के लिए प्रोत्साहन: वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करके वैश्विक दक्षिण देशों को घरेलू कानूनों को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के साथ संरेखित करने के लिए प्रोत्साहित करना।
  • धनी राष्ट्रों की प्रतिबद्धता: क्षमता निर्माण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए निरंतर समर्थन के माध्यम से संधि लाभों का न्यायसंगत बँटवारा सुनिश्चित करना।
  • स्पष्ट कार्यान्वयन रोडमैप: संधि की संरचनात्मक सीमाओं को संबोधित करने के लिए लागू करने योग्य तंत्रों को परिभाषित करना और राजनीतिक आम सहमति को बढ़ावा देना।

संदर्भ

निचले सदन की कार्यवाही शुरू होने के मात्र 14 मिनट बाद ही विपक्षी सदस्यों के विरोध के कारण शीतकालीन सत्र के दूसरे दिन सदन की कार्यवाही दिनभर के लिए स्थगित कर दी गई।

विपक्ष द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दे

27 नवंबर को संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही दिनभर के लिए स्थगित कर दी गई, क्योंकि विपक्षी सदस्य अडानी समूह से जुड़े रिश्वतखोरी के आरोपों और उत्तर प्रदेश के संभल जिले में हुई हिंसा सहित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा पर जोर दे रहे थे।

भारत में संसद सत्र

नियमित सत्र

  • बजट सत्र: फरवरी से मई तक आयोजित होने वाला यह सबसे लंबा सत्र है, जिसमें वार्षिक बजट और अन्य महत्त्वपूर्ण विधायी कार्य पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
  • मानसून सत्र: जुलाई से अगस्त तक आयोजित होने वाला यह छोटा सत्र है, जिसमें वर्तमान मुद्दों और कानून पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
  • शीतकालीन सत्र: नवंबर से दिसंबर तक आयोजित होने वाला यह वर्ष का अंतिम सत्र है, जिसमें लंबित कानून की समीक्षा और अंतिम रूप देने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

विशेष सत्र

  • संयुक्त अधिवेशन: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-108 में संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का प्रावधान है।
    • जब किसी साधारण विधेयक पर लोकसभा और राज्यसभा के बीच गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, तो राष्ट्रपति द्वारा संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है।

संसदीय स्थगन में प्रमुख भूमिकाएँ

  • राष्ट्रपति: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-85 राष्ट्रपति को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान करता है:
    • संसद को सत्र बुलाने के लिए: राष्ट्रपति संसद को सत्र के लिए बुला सकता है।
    • संसद को स्थगित करना: राष्ट्रपति संसद के सत्र को स्थगित (समाप्त) कर सकता है।
    • लोकसभा को भंग करना: राष्ट्रपति लोकसभा को भंग कर सकते हैं, जिससे आम चुनाव हो सकते हैं।
  • पीठासीन अधिकारी: लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति अपने-अपने सदनों की अध्यक्षता करते हैं और स्थगन पर निर्णय लेने में उनकी भूमिका होती है।

स्थगन प्रस्ताव के बारे में

  • स्थगन प्रस्ताव एक संसदीय प्रक्रिया है, जिसे सदन के सामान्य कामकाज को बाधित करके तत्काल सार्वजनिक महत्त्व के मामले पर चर्चा करने के लिए तैयार किया गया है।
    • यह विशेष रूप से लोकसभा के लिए आरक्षित है और इसे राज्यसभा में पेश नहीं किया जा सकता है।

स्थगन प्रस्ताव के लिए विशिष्ट आवश्यकताएँ

  • विषय वस्तु: प्रस्ताव सार्वजनिक चिंता के किसी विशिष्ट, अत्यावश्यक, तथ्यात्मक और महत्त्वपूर्ण मुद्दे से संबंधित होना चाहिए।
  • उच्च समर्थन सीमा: स्थगन प्रस्ताव पेश करने के लिए, कम-से-कम 50 सदस्यों का समर्थन होना चाहिए।
  • एकवचनात्मकता: प्रस्ताव को एक ही मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और कई विषयों को शामिल करने से बचना चाहिए।
  • तात्कालिकता: मुद्दा हाल ही में घटित होना चाहिए, जिससे इसकी तात्कालिकता उजागर हो।
  • बहिष्करण: प्रस्ताव का उपयोग विशेषाधिकार के प्रश्न उठाने, उसी सत्र में पहले से चर्चा किए गए मामलों पर फिर से विचार करने या न्यायिक विचाराधीन मुद्दों को संबोधित करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
  • वैकल्पिक राह: यदि मामले पर अन्य संसदीय प्रक्रियाओं, जैसे कि एक अलग प्रस्ताव के माध्यम से चर्चा की जा सकती है, तो स्थगन प्रस्ताव उचित नहीं है।
  • न्यूनतम चर्चा समय: स्थगन प्रस्ताव स्वीकार किए जाने के बाद, सदन को इसकी चर्चा के लिए कम-से-कम ढाई घंटे आवंटित करने चाहिए।

संदर्भ

भारत में स्जोग्रेन रोग के मरीज निदान और लक्षणों के प्रबंधन की चुनौतियों से जूझ रहे हैं।

स्जोग्रेन रोग (Sjögren’s Disease)

  • स्जोग्रेन रोग एक दीर्घकालिक स्वप्रतिरक्षी विकार है, जिसमें प्रतिरक्षा प्रणाली गलती से शरीर की नमी पैदा करने वाली ग्रंथियों पर हमला करता है।
  • आमतौर पर यह आँखों और मुंह में सूखापन उत्पन्न करता है, लेकिन जोड़ों, त्वचा, फेफड़ों, गुर्दे और तंत्रिका तंत्र को भी प्रभावित कर करता है।
  • यह मुख्य रूप से महिलाओं को प्रभावित करता है (पुरुषों की तुलना में 10 गुना अधिक संभावना) और आमतौर पर 30 या 40 के दशक में प्रकट होता है, हालाँकि यह किसी भी आयु में हो सकता है।
  • रोग का कारण: शोधकर्ताओं को यह नहीं पता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर पर किस कारण से सक्रिय होती है, लेकिन उनका मानना ​​है कि इसमें आनुवंशिक और पर्यावरणीय दोनों कारक शामिल हैं।
    • अध्ययनों ने स्जोग्रेन रोग को कई जीनों में भिन्नताओं (परिवर्तनों) से जोड़ा है, जिनमें से कई प्रतिरक्षा से जुड़े हैं।

निदान में चुनौतियाँ

  • इसके जटिल और अतिव्यापी लक्षणों के कारण अक्सर वर्षों तक इसका निदान नहीं हो पाता।
  • स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों में जागरूकता की कमी के कारण निदान में देरी होती है।

व्यापकता और जोखिम कारक

  • वैश्विक अनुमानों के अनुसार, यह 1,000 लोगों में से 1 को प्रभावित करता है, हालाँकि भारत-विशिष्ट डेटा सीमित है।
  • आनुवांशिक और पर्यावरणीय कारकों से दृढ़ता से जुड़ा हुआ है; महिलाओं और वृद्ध व्यक्तियों में इसका जोखिम अधिक है।

रोगी का समर्थन

  • ‘सोजग्रेन इंडिया’: मरीजों के लिए जागरूकता बढ़ाना और संसाधन उपलब्ध कराना।
  • मरीजों और डॉक्टरों के बीच साझेदारी: मरीजों और डॉक्टरों के बीच साझेदारी को बढ़ावा देकर उन्हें सशक्त बनाना।

संदर्भ

देश में रोजगार परिदृश्य राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न श्रम बल संकेतकों के आधार पर सकारात्मक संकेत दे रहा है।

रोजगार संकेतक 

  • आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS): यह सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) द्वारा वर्ष 2017-18 से आयोजित रोजगार/बेरोजगारी का आधिकारिक डेटा स्रोत है।
    • सर्वेक्षण की अवधि अगले वर्ष जुलाई से जून तक है।
    • वित्तीय वर्ष 2034-24: 15-29 वर्ष की आयु के युवाओं के लिए सामान्य स्थिति पर अनुमानित बेरोजगारी दर (UR) 10.2% है।
  • श्रमिक जनसंख्या अनुपात (WPR): इसे नियोजित जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया गया है एवं इसकी गणना कार्यरत लोगों की संख्या को कामकाजी आयु की जनसंख्या से विभाजित करके तथा फिर 100 से गुणा करके की जाती है।  
    • युवाओं के लिए इसमें वृद्धि हुई है, जो दर्शाता है कि रोजगार वर्ष 2017-18 में 31.4% से बढ़कर वर्ष 2023-24 में 41.7% हो गया है।
  • कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) पेरोल डेटा: यह औपचारिक क्षेत्र के लिए रोजगार डेटा देता है।
    • वित्त वर्ष 2034-24: वर्ष 2023-24 के दौरान 1.3 करोड़ से अधिक निवल ग्राहक EPFO में शामिल हुए।
    • वर्ष 2017 से 2024: पिछले 8 वर्षों में कुल मिलाकर 7.03 करोड़ से अधिक शुद्ध ग्राहक EPFO में शामिल हुए हैं, जो रोजगार की औपचारिकता में वृद्धि का संकेत देता है। 
  • श्रम बल भागीदारी दर (LFPR): यह आबादी का वह प्रतिशत है, जो या तो कार्य कर रहा है अथवा सक्रिय रूप से कार्य की तलाश में है।
    • गणना: दर की गणना श्रम बल को नागरिक गैर-संस्थागत आबादी से विभाजित करके एवं 100 से गुणा करके की जाती है।
      • श्रम बल नियोजित लोगों की संख्या एवं बेरोजगार लोगों की संख्या का योग है।
    • वित्तीय वर्ष 2023-2024 
      • ग्रामीण क्षेत्र: वर्ष 2017-18 में यह 50.7% से बढ़कर 63.7% हो गया। 
      • शहरी क्षेत्र: यह 47.6% से बढ़कर 52.0% हो गया।
      • महिला श्रम बल भागीदारी: यह सात वर्ष के उच्चतम स्तर 41.7% पर पहुँच गई।
      • पुरुष श्रम भागीदारी: यह सात वर्ष के उच्चतम 78.8% पर पहुँच गई। 
  • वैश्विक औसत से नीचे: ILO की ग्लोबल रिपोर्ट ट्रेंड्स फॉर यूथ, 2022 के अनुसार, वर्ष 2021 में दुनिया भर में युवा बेरोजगारी दर 15.6 प्रतिशत थी।
    • ILO द्वारा विश्व रोजगार एवं सामाजिक आउटलुक रुझान, 2024: वैश्विक स्तर पर वर्ष 2023 में, युवा बेरोजगारी दर 13.3 प्रतिशत थी।

रोजगार एवं सामाजिक समता

  • सामाजिक समता को जनता की सेवा करने वाले संस्थानों के निष्पक्ष एवं उचित प्रबंधन और सार्वजनिक सेवाओं तथा नीति के समान वितरण के रूप में जाना जाता है एवं यह परिणामों के बजाय पहुँच, संसाधनों तथा अवसरों से संबंधित है। 
    • समता बनाम समानता: समता, समानता से भिन्न है क्योंकि इसका मानना है कि सभी व्यक्ति एक ही स्थान से शुरुआत नहीं करते हैं एवं वंचित वर्गों को समान अवसर प्रदान करने के लिए सकारात्मक कार्यों की आवश्यकता है।
  • रोजगार एवं सामाजिक समता के बीच संबंध
    • रोजगार समता: रोजगार के अवसरों में समानता नीति निर्माताओं के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए ताकि बहिष्कृत एवं हाशिए पर रहने वाले लोगों को सम्मान, निष्पक्षता तथा समुदायों में शामिल किया जा सके।
    • शिक्षा: किसी व्यक्ति की पृष्ठभूमि, जैसे नस्ल, लिंग, पारिवारिक आय, या भौगोलिक स्थिति, उनकी शैक्षिक संभावनाओं को आकार दे सकती है, जो उनके रोजगार के अवसरों को प्रभावित कर सकती है।
    • सामाजिक अशांति: बेरोजगारी विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जुड़ी हो सकती है, जिनमें उच्च तलाक दर, उच्च आत्महत्या दर एवं शराब सेवन की उच्च घटनाएँ शामिल हैं। 
    • सामाजिक न्याय: सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए श्रमिकों को जीविकोपार्जन योग्य वेतन एवं ऐसे वातावरण की आवश्यकता होती है, जिसमें अधिकारों की रक्षा तथा कार्यान्वयन किया जा सके।

रोजगार सृजन के लिए योजनाएँ

  • प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम (PMEGP): यह एक केंद्रीय क्षेत्र की नई क्रेडिट लिंक्ड सब्सिडी योजना है जिसे खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।
  • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS): यह एक सामाजिक कल्याण उपाय है, जिसका उद्देश्य प्रत्येक भारतीय ग्रामीण परिवार के कम-से-कम एक सदस्य के लिए न्यूनतम 100 दिनों का सुनिश्चित एवं गारंटीकृत मजदूरी रोजगार प्रदान करके ‘कार्य करने का अधिकार’ की गारंटी देना है।
  • पं. दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना (DDU-GKY): यह भारत में ग्रामीण विकास मंत्रालय (MoRD) का एक कौशल प्रशिक्षण एवं प्लेसमेंट कार्यक्रम है, जो खुदरा, आतिथ्य, स्वास्थ्य, निर्माण, मोटर वाहन, चमड़ा, विद्युत, प्लंबरिंग, रत्न तथा आभूषण जैसे 250 से अधिक व्यापार क्षेत्रों को कवर करता है। 
    • यह राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) का हिस्सा है। 
  • ग्रामीण स्वरोजगार एवं प्रशिक्षण संस्थान (RSETIs): इन्हें राज्य सरकार के सक्रिय सहयोग से बैंकों द्वारा प्रबंधित किया जाता है एवं बेरोजगारी की समस्या को कम करने के लिए ग्रामीण BPL युवाओं के आवश्यक कौशल प्रशिक्षण तथा कौशल उन्नयन को सुनिश्चित करने के लिए डिजाइन किया गया है।
  • दीन दयाल अंतोदय योजना-राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (DAY-NULM): शहरी गरीब परिवारों को लाभकारी स्वरोजगार एवं कुशल मजदूरी रोजगार के अवसरों तक पहुँचने में सक्षम बनाकर उनकी गरीबी तथा भेद्यता को कम करना।
  • प्रधानमंत्री मुद्रा योजना (PMMY): यह सूक्ष्म एवं लघु उद्यमों को किफायती ऋण देने के लिए भारत सरकार की एक प्रमुख योजना है। इसे उद्यमों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली में लाने के लिए डिजाइन किया गया है।

संदर्भ

अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (ICA) का वैश्विक सम्मेलन 25 से 30 नवंबर, 2024 तक नई दिल्ली, भारत में आयोजित किया जाएगा।

संबंधित तथ्य

  • सम्मेलन में भूटान के प्रधानमंत्री ने गेलेफू माइंडफुलनेस सिटी को भूटान की सबसे बड़ी ‘सहकारी परियोजना’ के रूप में भारत के समर्थन के लिए अपना आभार व्यक्त किया।
  • थीम: ‘सहकारिता सभी के लिए समृद्धि का निर्माण करती है’ (Cooperatives Build Prosperity for All)

दिल्ली में आयोजित ICA वैश्विक सम्मेलन की मुख्य विशेषताएँ

  • भारत सरकार का लक्ष्य अगले तीन वर्षों में 2 लाख नई प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ (PACS) स्थापित करना है।
  • इस पहल का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत की प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक सहकारी समिति हो, जिससे ग्रामीण विकास को बढ़ावा मिले।
  • सहकारिता का अंतरराष्ट्रीय वर्ष 2025 भी “सहकारिता सभी के लिए समृद्धि का निर्माण करती है” (Cooperatives Build Prosperity for All) थीम के साथ प्रारंभ किया जाएगा।

गेलेफू माइंडफुलनेस सिटी प्रोजेक्ट 

  • स्थान: गेलेफू माइंडफुलनेस सिटी असम की सीमा से लगे दक्षिणी भूटान में स्थित है और 2,500 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है।
  • विजन: शहर का लक्ष्य एक ‘शून्य कार्बन’ स्मार्ट शहर बनना है, जिसमें माइंडफुलनेस, स्थिरता और सद्भाव पर जोर दिया जाएगा।
  • मुख्य विशेषताएँ: शहर को ज्ञान, प्रौद्योगिकी और वित्त के केंद्र के रूप में देखा जाता है, जिसमें प्रत्येक भूटानी नागरिक शेयरधारक और हितधारक दोनों के रूप में भाग लेता है।

परियोजना में भारत की भूमिका 

  • निवेश के लिए प्रमुख क्षेत्र
    • भारत के समर्थन में होटल, आतिथ्य, IT, शैक्षणिक संस्थान और वेलनेस सेंटर जैसे क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे के विकास में निवेश शामिल है।
    • सौर और जलविद्युत सहित नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के बारे में चर्चा चल रही है, जिसमें अडानी समूह जैसी भारतीय कंपनियाँ शामिल हैं।

अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (ICA)

  • अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (ICA) एक वैश्विक संगठन है, जो विश्व भर में सहकारी समितियों को एकजुट करता है, उनका प्रतिनिधित्व करता है और उनकी सेवा करता है।
  • ICA की स्थापना वर्ष 1895 में लंदन, इंग्लैंड में पहली सहकारी कांग्रेस के दौरान की गई थी।
    • यह विश्व भर में सबसे पुराने और सबसे बड़े गैर-सरकारी संगठनों में से एक है।
  • ICA विश्व भर में 1 बिलियन से अधिक सहकारी सदस्यों और लगभग 3 मिलियन सहकारी समितियों का प्रतिनिधित्व करता है।
  • उद्देश्य: सहकारी विचार को बढ़ावा देना और विश्व भर में सहकारी समितियों के विकास का समर्थन करना।
  • सदस्यता: इसमें राष्ट्रीय सहकारी संगठन, अंतरराष्ट्रीय सहकारी संगठन और व्यक्तिगत सहकारी समितियाँ शामिल हैं।
    • ICA में 105 देशों के 306 से अधिक सदस्य संगठन हैं, जो कृषि, बैंकिंग, उपभोक्ता वस्तुओं, स्वास्थ्य, आवास, मत्स्यपालन, बीमा और उद्योग सहित विविध आर्थिक क्षेत्रों में फैले हुए हैं।
    • ICA के कुछ उल्लेखनीय सदस्य हैं इफको-IFFCO (इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोऑपरेटिव लिमिटेड), कृभको-KRIBHCO (कृषक भारती कोऑपरेटिव लिमिटेड), अमूल डेयरी कोऑपरेटिव, द कोऑपरेटिव ग्रुप (UK), ग्रुप क्रेडिट म्यूचुअल (फ्राँस), कॉप इटालिया, WOCCU (वर्ल्ड काउंसिल ऑफ क्रेडिट यूनियन्स), आदि।
  • मुख्यालय: ब्रुसेल्स, बेल्जियम।

अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन एशिया-प्रशांत (ICA-AP) और भारत की भूमिका

  • वर्ष 1960 में भारत के नई दिल्ली में क्षेत्रीय कार्यालय और शिक्षा केंद्र (ROEC) की स्थापना के साथ ICA ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में विस्तार किया।
  • वर्ष 1957 में, स्वीडिश सहकारी विशेषज्ञ डॉ. जी. केलर ने सहकारी विकास की संभावनाओं का मूल्यांकन करने के लिए भारत सहित पूरे एशिया में एक खोजपूर्ण दौरा किया।
    • अपने निष्कर्षों के आधार पर, ICA ने नई दिल्ली में अपना क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित करने का निर्णय लिया। इस निर्णय को वर्ष 1958 में कुआलालंपुर सम्मेलन में अंतिम रूप दिया गया।
  • कार्यालय का आधिकारिक उद्घाटन 14 नवंबर, 1960 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया था, जिन्होंने ग्रामीण विकास, आत्मनिर्भरता और सामाजिक समानता प्राप्त करने में सहकारी समितियों की भूमिका पर जोर दिया था।

ICA-AP का विकास

  • प्रारंभ में, कार्यालय दो अलग-अलग संस्थाओं के रूप में कार्य करता था: क्षेत्रीय कार्यालय और शिक्षा केंद्र।
    • वर्ष 1963 में, इन संस्थाओं का विलय करके एक संस्था बनाई गई।
  • वर्ष 1990 तक, संगठन का नाम बदलकर अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन एशिया-प्रशांत (ICA-AP) कर दिया गया, ताकि इसके विस्तारित दायरे को दर्शाया जा सके, जिसमें पूरे एशिया और प्रशांत क्षेत्र शामिल हैं।
  • नई दिल्ली में ICA-AP कार्यालय क्षेत्र में सहकारी गतिविधियों के लिए एक केंद्रीय केंद्र बना हुआ है, जो क्षमता निर्माण, तकनीकी सहायता और नीति सिफारिश पर ध्यान केंद्रित करता है।

ICA-AP और सहकारी आंदोलन में भारत का योगदान

  • भारत सरकार सहकारिता मॉडल का सक्रिय रूप से समर्थन करती है।
    • वर्ष 2021 में, इस क्षेत्र को और मजबूत करने के लिए सहकारिता मंत्रालय की स्थापना की गई।
  • भारत में सहकारिताएँ कृषि, बैंकिंग, आवास और ग्रामीण विकास जैसे विभिन्न क्षेत्रों में योगदान देती हैं।

नरसापुर क्रोशिया लेस (Narsapur Crochet Lace) के लिए GI टैग

नरसापुर क्रोशिया लेस (Narsapur Crochet Lace) शिल्प के लिए GI रजिस्ट्री टैग प्रमाण-पत्र पश्चिमी गोदावरी जिला कलेक्टर द्वारा ‘जीआई एंड बियॉन्ड 2024’ शिखर सम्मेलन के समापन समारोह के दौरान दिया गया।

  • मंत्रालय: केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के तहत उद्योग तथा आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग (DPIIT) ने इस शिल्प को भौगोलिक संकेतक रजिस्ट्री (GIR) में पंजीकृत किया।

नरसापुर क्रोशिया लेस क्राफ्ट के बारे में 

  • उत्पत्ति: लेस शिल्प की शुरुआत वर्ष 1844 में स्कॉटलैंड के एक जोड़े द्वारा डुम्मुगुडेम (वर्तमान में तेलंगाना में) में एक ईसाई मिशनरी के सहयोग से की गई थी। 
  • स्थान: यह शिल्प आंध्र प्रदेश के गोदावरी क्षेत्र के पश्चिम गोदावरी और डॉ. बी. आर. अंबेडकर कोनसीमा जिलों के 19 मंडलों में प्रचलित है।
    • नरसापुर और पलाकोले पश्चिमी गोदावरी जिले में फीता उत्पादों के प्रमुख व्यापार केंद्र हैं।
  • शिल्प: फीते (लेस) का कार्य महीन सूती धागों का उपयोग करके किया जाता है एवं इन्हें फिर से अलग-अलग आकार की पतली क्रोकेट सुइयों से बुना जाता है।
  • महिलाओं के नेतृत्व में शिल्प: लेस से बने उत्पादों की 3 श्रेणियाँ अर्थात् वस्त्र, घरेलू सामान और सहायक उपकरण, जिनमें लगभग 15,000 महिलाएँ सीधे तौर पर शामिल हैं।
    • एक अनुमान के अनुसार इस शिल्प में शामिल कारीगरों में 60% महिलाएँ हैं।

GI एंड बियॉन्ड 2024 शिखर सम्मेलन के बारे में

  • GI एंड बियॉन्ड-2024 शिखर सम्मेलन पूरे भारत में GI हथकरघा और हस्तशिल्प उत्पादों को प्रदर्शित करने वाला एक दिवसीय कार्यक्रम है।
  • आयोजक: कपड़ा मंत्रालय, हथकरघा निर्यात संवर्द्धन परिषद (HEPC) के समन्वय से।
  • उद्देश्य: इस आयोजन का उद्देश्य विदेशी खरीदारों, निर्यातकों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों आदि सहित हितधारकों के व्यापक स्पेक्ट्रम के बीच GI हथकरघा और हस्तशिल्प उत्पादों का ब्रांड प्रचार करना है।

रियांग जनजाति

रियांग (Reang) समुदाय द्वारा उनकी मौखिक भाषा, काउबरू (Kaubru) को मान्यता देने के अनुरोध के बाद, त्रिपुरा सरकार ने सभी भाषाओं के विकास एवं उनके विलुप्त होने को रोकने के लिए अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की।

रियांग समुदाय की माँगें

  • काउबरू भाषा की मान्यता: 75 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (PVTGs) में से एक, रियांग समुदाय ने अपनी भाषा, काउबरू के लिए आधिकारिक मान्यता का अनुरोध किया।
  • होजागिरी दिवस पर छुट्टी: समुदाय ने होजागिरी दिवस पर छुट्टी की भी माँग की, जो उनके पारंपरिक होजागिरी नृत्य का जश्न मनाता है, जिसका उद्देश्य वैश्विक मंच पर त्रिपुरा की सांस्कृतिक पहचान को बढ़ावा देना है।

सरकारी कार्रवाइयाँ

  • त्रिपुरा सरकार ने मार्च 2022 में डॉ. अतुल देबबर्मा की अध्यक्षता में काउबरू भाषा के लिए एक विशेषज्ञ समिति की स्थापना की।
  • एक अलग अल्पसंख्यक भाषा के रूप में काउबरू की मान्यता का आकलन करने के लिए सितंबर 2023 में विधायक प्रमोद रियांग के नेतृत्व में एक नई समिति का गठन किया गया था। 

रियांग जनजाति के बारे में

  • रियांग जनजाति, जिसे “ब्रू” के नाम से भी जाना जाता है, पुराने त्रिपुरी कबीले के बाद त्रिपुरा में दूसरा सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है। 
  • उन्हें त्रिपुरा में विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। 
  • त्रिपुरा के अलावा रियांग जनजाति के सदस्य पड़ोसी राज्य मिजोरम, असम में भी पाए जाते हैं।
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
    • रियांग जनजाति की उत्पत्ति म्याँमार (पूर्व में बर्मा) के शान राज्य में हुई है। 
    • वे अलग-अलग तरंगों में चटगाँव पहाड़ी इलाकों और उसके बाद दक्षिणी त्रिपुरा की ओर चले गए। 
  • नृजातीयता और भाषा
    • वे इंडो-मंगोलॉयड नस्लीय समूह से संबंधित हैं। 
    • वे काउबरू नामक भाषा बोलते हैं, जो कोक-बोरोक बोली का हिस्सा है और तिब्बती-बर्मी भाषायी परिवार से संबंधित है। 
  • सामाजिक संरचना: रियांग समुदाय दो प्रमुख कुलों में विभाजित है, जिन्हें मेस्का और मोलसोई के नाम से जाना जाता है। 
  • आर्थिक प्रथाएँ: वे परंपरागत रूप से एक कृषि जनजाति थे, जो हुक या झूम खेती करते थे, जो स्थानांतरित कृषि का एक रूप है। 
  • धार्मिक मान्यताएँ
    • त्रिपुरा में अधिकांश रियांग हिंदू धर्म का पालन करते हैं। 
    • वे विभिन्न प्रकार के देवताओं की पूजा करते हैं, जिनमें बुराहा, बोनिराव, सोंग्रग्मा, जम्पिरा और लैम्प्रा शामिल हैं। 
  • सांस्कृतिक योगदान
    • होजागिरी लोक नृत्य रियांग जनजाति की एक प्रमुख सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। 
      • इस नृत्य ने वैश्विक पहचान हासिल की है और यह उनकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत तथा कलात्मक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करता है।

संदर्भ:

भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) ने मौजूदा उच्च दाब के चक्रवात में बदलने की संभावना और तूफान के तमिलनाडु तट से टकराने की संभावना की घोषणा की है।

चक्रवात फेंगल की वर्तमान स्थिति

  • पूर्वी भूमध्यरेखीय हिंद महासागर और दक्षिण-पूर्वी बंगाल की खाड़ी के ऊपर एक निम्न दाब का क्षेत्र 26 नवंबर, 2024 तक एक गहन अवदाब के कारण विकसित हो गया है।

उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की विश्वव्यापी शब्दावली

  • टाइफून (Typhoons): चीन सागर और प्रशांत महासागर में होते हैं।
    • यह आमतौर पर जापान, चीन, फिलीपींस सहित पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को प्रभावित करता है।
  • तूफान (Hurricanes): कैरेबियन सागर और अटलांटिक महासागर के पश्चिमी भारतीय द्वीपों में पाए जाते हैं।
    • संयुक्त राज्य अमेरिका, मैक्सिको और कैरिबियन देशों जैसे क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं।
  • टोरनेडो (Tornadoes): पश्चिमी अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के पास उत्पन्न होते हैं।
  • विली-विलीज (Willy-willies): उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के लिए उत्तर-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द।
    • इस क्षेत्र में भारी वर्षा और तेज हवाएँ चलाने के लिए जाना जाता है।

  • भारतीय मौसम विभाग (IMD) का अनुमान है, कि 27 नवंबर, 2024 तक यह चक्रवाती तूफान में परिवर्तित हो सकता है।
  • इस चक्रवात के कारण 26 से 30 नवंबर तक बंगाल की खाड़ी के आसपास के क्षेत्रों, खासकर तटीय तमिलनाडु में तेज हवाएँ, भारी बारिश और संभावित तटीय बाढ़ आने की आशंका है।

चक्रवात फेंगल का नामकरण

  • नाम की उत्पत्ति
    • प्रस्तावित: सऊदी अरब।
    • अरबी में निहित, क्षेत्रीय भाषायी और सांस्कृतिक पहचान को दर्शाता है।
    • चक्रवातों के नाम छोटे, विशिष्ट और सार्वभौमिक रूप से गैर-आक्रामक होने के लिए चुने जाते हैं।

चक्रवात नामकरण प्रणाली

  • पैनल सदस्य: उत्तरी हिंद महासागर में चक्रवातों का नामकरण विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और एशिया एवं प्रशांत के लिए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक आयोग (UNESCAP) के तहत 13 देशों के एक पैनल द्वारा किया जाता है।
    • सदस्य देशों में बांग्लादेश, भारत, ईरान, मालदीव, म्याँमार, ओमान, पाकिस्तान, कतर, सऊदी अरब, श्रीलंका, थाईलैंड, संयुक्त अरब अमीरात और यमन शामिल हैं।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO)

  • उत्पत्ति: वर्ष 1950 
  • मुख्यालय: जिनेवा, स्विट्जरलैंड।
  • उद्देश्य: WMO मौसम, जलवायु, जल विज्ञान और संबंधित भू-भौतिकीय विज्ञान पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग की सुविधा प्रदान करता है। यह सदस्य देशों के बीच डेटा, सूचना और अनुसंधान के आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है।

  • प्रक्रिया: प्रत्येक सदस्य 13 नामों की एक सूची प्रस्तुत करता है, जिससे चक्रीय क्रम में एक नामकरण प्रणाली बनती है। चक्रवातों के बनने के साथ ही नाम क्रमिक रूप से रखे जाते हैं। एक बार उपयोग हो जाने के बाद, नाम हटा दिया जाता है और उसका पुनः उपयोग नहीं किया जाता। 
  • वर्तमान सूची: फेंगल (Fengal) के बाद, अगले चक्रवात का नाम शाक्ती (Shakhti)  (श्रीलंका द्वारा दिया गया) रखा जाएगा, तथा मोन्था (Montha) (थाईलैंड से) एक अन्य आगामी नाम होगा।

अरब सागर बनाम बंगाल की खाड़ी में चक्रवात

  • अरब सागर में चक्रवात बंगाल की खाड़ी की तुलना में कम आते हैं, क्योंकि समुद्र की सतह के तापमान, हवा के पैटर्न और भौगोलिक कारकों में अंतर होता है। 
  • बंगाल की खाड़ी में चक्रवात बनने के लिए अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं, जिनमें गर्म जल और ऊर्ध्वाधर कम वायु कर्तन शामिल है।

तैयारी और निगरानी

  • क्षेत्रीय मौसम विज्ञान केंद्र चक्रवात फेंगल के विकास और संभावित प्रभाव पर सूक्ष्मता से निगरानी कर रहा  हैं। 
  • प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों को आधिकारिक स्रोतों के माध्यम से अपडेट रहने और संभावित जोखिमों को कम करने के लिए एहतियाती उपाय करने की सलाह दी जाती है।

संदर्भ 

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वन नेशन वन सब्सक्रिप्शन (ONOS) योजना को मंजूरी दे दी है।

संबंधित तथ्य

  • बजट आवंटन
    • कुल बजट: तीन वर्षों (2025-2027) के लिए ₹6,000 करोड़।
    • केंद्रीय क्षेत्र योजना के रूप में वर्गीकृत।

वन नेशन वन सब्सक्रिप्शन (ONOS) योजना के बारे में          

  • यह पत्रिकाओं तक पहुँचने के लिए एक एकीकृत पोर्टल है। 
  • सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों (HEIs) एवं केंद्रीय अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशालाओं पर लागू होता है।
  • इस योजना की देखरेख उच्च शिक्षा विभाग के माध्यम से शिक्षा मंत्रालय द्वारा की जाती है।
    • यह सूचना एवं पुस्तकालय नेटवर्क (INFLIBNET) द्वारा समन्वित है, जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के तहत एक स्वायत्त अंतर-विश्वविद्यालय केंद्र है।
  • लक्षित लाभार्थी
    • इसमें 6,300 से अधिक संस्थान शामिल हैं, जिनमें शामिल हैं:
      • केंद्र एवं राज्य सरकार के HEIs
      • केंद्रीय अनुसंधान एवं विकास संस्थान
    • विभिन्न विषयों के 1.8 करोड़ छात्रों, शिक्षकों एवं शोधकर्ताओं को लाभ होगा।
  • उद्देश्य एवं लाभ
    • अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देता है: अनुसंधान नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (ANRF) पहल का पूरक है।
      • इसका उद्देश्य विद्वानों के शोध लेखों एवं पत्रिकाओं तक राष्ट्रव्यापी पहुँच प्रदान करना है।
  • ONOS कार्य की प्रक्रिया
    • राष्ट्रीय सदस्यता के माध्यम से पत्रिकाओं तक पहुँच प्रदान की जाएगी।
      • यह सूचना एवं पुस्तकालय नेटवर्क (INFLIBNET) जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) का एक स्वायत्त अंतर-विश्वविद्यालय केंद्र है, द्वारा समन्वित है।
  • ONOS की आवश्यकता
    • ONOS भारत के अनुसंधान एवं उच्च शिक्षा की कई महत्त्वपूर्ण ,        आवश्यकताओं को पूरा करता है। 
      • संसाधन दोहराव का उन्मूलन: कई पुस्तकालयों एवं संस्थानों में जर्नल सदस्यता को ओवरलैप होने से रोकता है। 
        • सदस्यता पर अनावश्यक खर्च कम करता है। 
      • वार्ता शक्ति को बढ़ाना: एक केंद्रीकृत सदस्यता प्रणाली प्रकाशकों के साथ वार्ता की शक्ति को मजबूत करती है। 
      • संसाधनों तक पहुँच: लगभग 1.8 करोड़ छात्रों, शिक्षकों एवं शोधकर्ताओं के लिए उच्च गुणवत्ता वाली विद्वान पत्रिकाओं तक पहुँच का विस्तार करता है।

संदर्भ

पशुपालन एवं डेयरी विभाग द्वारा तैयार ‘बेसिक एनिमल हसबेंडरी स्टैटिस्टिक्स 2024’ के अनुसार, देश में दुग्ध उत्पादन में वर्ष 2022-23 के अनुमान की तुलना में वर्ष 2023-24 के दौरान वृद्धि देखी गई।

बेसिक एनिमल हसबेंडरी स्टैटिस्टिक्स 2024

  • बेसिक एनिमल हसबेंडरी स्टेटिस्टिक्स 2024, रिपोर्ट एकीकृत नमूना सर्वेक्षण (2023-24) के परिणामों पर आधारित है।
  • यह दुग्ध , अंडे, मांस और ऊन सहित प्रमुख पशुधन उत्पादों (MLP) के उत्पादन अनुमानों में आवश्यक जानकारी प्रदान करता है।
  • यह डेटा पशुधन क्षेत्र के लिए नीतियों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

रिपोर्ट के मुख्य तथ्य

  • डेटा कवरेज: प्रकाशन में MLP के उत्पादन और प्रति व्यक्ति उपलब्धता के राज्यवार अनुमान शामिल हैं।
    • यह पशुधन क्षेत्र में नीति निर्माण के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करता है।
  • दुग्ध  उत्पादन: वर्ष 2023-24 के लिए भारत में कुल दुग्ध उत्पादन 239.30 मिलियन टन होने का अनुमान है।
    • भारत विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध  उत्पादक है।
    • भारत के शीर्ष पाँच दुग्ध उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश (16.21%), राजस्थान (14.51%), मध्य प्रदेश (8.91%), गुजरात (7.65%) और महाराष्ट्र (6.71%) हैं।
    • वार्षिक वृद्धि दर (AGR): पश्चिम बंगाल ने दुग्ध  उत्पादन में सबसे अधिक 9.76% AGR दर्ज किया।
  • अंडा उत्पादन: अंडा उत्पादन 3.17% बढ़कर 142.77 बिलियन अंडे हो गया, जिसमें प्रति व्यक्ति वार्षिक 103 अंडे की उपलब्धता है।
    • अंडा उत्पादन में भारत विश्व स्तर पर दूसरे स्थान पर है।
    • अंडा उत्पादन करने वाले शीर्ष राज्य आंध्र प्रदेश (17.85%), तमिलनाडु (15.64%), तेलंगाना (12.88%) और पश्चिम बंगाल (11.37%) हैं।
    • अंडा उत्पादन के लिए AGR : लद्दाख ने 75.88% की उच्चतम वृद्धि दर हासिल की, उसके बाद मणिपुर ने 33.84% की वृद्धि दर हासिल की।
  • मांस उत्पादन: मांस उत्पादन में 4.95% की वृद्धि हुई, जो वर्ष 2023-24 में 10.25 मिलियन टन तक पहुँच गया।
    • शीर्ष मांस उत्पादक राज्य पश्चिम बंगाल (12.62%), उत्तर प्रदेश (12.29%), महाराष्ट्र (11.28%) और तेलंगाना (10.85%) हैं।
  • ऊन उत्पादन: ऊन उत्पादन 33.69 मिलियन किलोग्राम दर्ज किया गया।
    • ऊन उत्पादन में अग्रणी योगदानकर्ता राज्य राजस्थान (47.53%), जम्मू और कश्मीर (23.06%), गुजरात (6.18%), महाराष्ट्र (4.75%) और हिमाचल प्रदेश (4.22%) हैं।
  • सरकारी पहल
    • पशुओं के लिए खुरपका-मुँहपका रोग और ब्रुसेलोसिस के विरुद्ध मुफ्त टीके, जिसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक निर्यात को बढ़ावा देना है।
    • प्रति पशु औसत दुग्ध उत्पादन में सुधार और बेहतर पशुधन स्वास्थ्य प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करना।

निर्यात प्रोत्साहन और चुनौतियाँ 

  • डेयरी निर्यात को बढ़ावा देना: भारत की उत्पादन क्षमता का लाभ उठाने के लिए डेयरी उत्पाद निर्यात को और बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • धीमी वृद्धि की चिंताएँ: मानसून जैसे कारकों से प्रभावित हालिया उतार-चढ़ाव के बावजूद, 10-वर्षीय औसत वृद्धि दर 6% वैश्विक औसत से अधिक है।
  • सुधार की संभावना: पशुपालन सचिव ने दोहराया कि भारत वैश्विक स्तर पर अग्रणी है, लेकिन डेयरी क्षेत्र में अभी भी काफी संभावनाएँ हैं।

पशुपालन और डेयरी विभाग के अंतर्गत योजनाएँ

योजना का नाम

लॉन्च 

प्रमुख प्रावधान

लक्ष्य/उद्देश्य

राष्ट्रीय गोकुल मिशन (RGM) 2014
  • स्वदेशी नस्लों का विकास।
  • गोकुल ग्राम की स्थापना।
  • कृत्रिम प्रजनन और लिंग-सॉर्टेड वीर्य को बढ़ावा देना।
  • दुग्ध  उत्पादकता में वृद्धि।
  • देशी गोजातीय नस्लों का संरक्षण और विकास करना।
राष्ट्रीय पशुधन मिशन (NLM) 2014
  • सतत् पशुधन विकास।
  • चारा, चारा और मुर्गीपालन के लिए बुनियादी ढाँचा।
  • पशुधन उत्पादकता में सुधार करना।
  • पशुधन पालन के माध्यम से ग्रामीण आजीविका का समर्थन करना।
पशुधन स्वास्थ्य एवं रोग नियंत्रण (LH&DC) 2010
  • FMD और ब्रुसेलोसिस के लिए टीकाकरण।
  • रोग निगरानी और निदान।
  • पशु चिकित्सा सेवाओं को मजबूत बनाना।
  • प्रमुख पशुधन रोगों को नियंत्रित और उन्मूलन करना।
  • पशु स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे में सुधार करना।
राष्ट्रीय डेयरी विकास कार्यक्रम (NPDD) 2014
  • दुग्ध  की खरीद, प्रसंस्करण और विपणन के लिए बुनियादी ढाँचे को मजबूत करना।
  • दुग्ध की गुणवत्ता परीक्षण सुविधाओं को बढ़ाना।
  • दुग्ध  उत्पादकता में वृद्धि। 
  • संगठित डेयरी क्षेत्र के संचालन को बढ़ावा देना।
पशुधन गणना और एकीकृत नमूना सर्वेक्षण (LC&ISS) 1919 (गणना)

2007 (सर्वे)

  • प्रत्येक पाँच वर्ष में गणना आयोजित करना।
  • पशुधन उत्पादन पर डेटा तैयार करना।
  • क्षेत्रवार आँकड़े उपलब्ध कराना।
  • नीति नियोजन एवं निर्माण।
  • पशुधन जनसंख्या और प्रवृत्तियों का आकलन करना।
राष्ट्रीय पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम (NADCP) 2019
  • FMD और ब्रुसेलोसिस के लिए 100% टीकाकरण।
  • रोगों की निगरानी और निगरानी।
  • वर्ष 2030 तक FMD का उन्मूलन करना।
  • पशुधन उत्पादों के लिए व्यापार के अवसरों में सुधार करना।
डेयरी अवसंरचना विकास निधि (DIDF) 2017
  • डेयरी अवसंरचना के लिए ऋण उपलब्ध कराना।
  • दुग्ध  प्रसंस्करण और शीतलन सुविधाओं का आधुनिकीकरण करना।
  • डेयरी मूल्य शृंखला को मजबूत करना।
  • दुग्ध  की बर्बादी कम करना।
  • किसानों की आय बढ़ाना।
पशुपालन अवसंरचना विकास निधि (AHIDF) 2020
  • बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए वित्तीय सहायता।
  • पशुपालन में निजी निवेश को समर्थन देना।
  • पशुपालन में उद्यमशीलता को बढ़ावा देना।
  • पशुधन और डेयरी बुनियादी ढाँचे का विकास करना।
डेयरी सहकारी समितियों और किसान उत्पादक संगठनों (SDCFPO) को समर्थन देना  2020
  • सहकारी डेयरी संस्थाओं को मजबूत करने के लिए सहायता।
  • कार्यशील पूँजी और बुनियादी ढाँचा निधि उपलब्ध कराना।
  • किसानों के लिए बेहतर मूल्य प्राप्ति सुनिश्चित करना।
  • डेयरी सहकारी दक्षता में वृद्धि करना।

राष्ट्रीय दुग्ध दिवस (National Milk Day)

  • प्रारंभ: भारत में श्वेत क्रांति के जनक डॉ. वर्गीस कुरियन की जयंती के उपलक्ष्य में 26 नवंबर को प्रतिवर्ष मनाया जाता है।
  • उद्देश्य: भारत की अर्थव्यवस्था में डेयरी उद्योग के महत्त्व और ग्रामीण आजीविका में इसके योगदान को पहचानना।
  • वर्ष 2024 के आयोजन में मुख्य अवलोकन
    • दुग्ध  उत्पादन और प्रसंस्करण को बढ़ाने के लिए नवाचार तथा प्रौद्योगिकी पर जोर।
    • दक्ष दुग्ध संग्रह और परिवहन के लिए बुनियादी ढाँचे के विकास का महत्त्व।
    • गुणवत्ता और सुरक्षा मानकों को सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत नियामक ढाँचे की आवश्यकता।
    • प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण के माध्यम से डेयरी किसानों को सशक्त बनाने पर ध्यान केंद्रित करना।

संदर्भ 

संभल मस्जिद को लेकर विवाद तब शुरू हुआ, जब एक याचिका में दावा किया गया कि संभल में 16वीं सदी की जामा मस्जिद एक प्राचीन हरि हर मंदिर पर बनाई गई थी, जिसके कारण न्यायालय के आदेश पर सर्वेक्षण, विरोध एवं हिंसक झड़पें हुईं।

  • यह दावा वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद एवं उत्तर प्रदेश में मथुरा की ईदगाह मस्जिद तथा मध्य प्रदेश के धार में कमाल-मौला मस्जिद के मामले में किए गए दावे के समान था।

शाही जामा मस्जिद, संभल के बारे में

  • संरक्षित स्मारक की स्थिति: जामा मस्जिद ‘एक संरक्षित स्मारक है’, जिसे 22 दिसंबर, 1920 को प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1904 की धारा 3, उप-धारा (3) के तहत अधिसूचित किया गया था।
  • राष्ट्रीय महत्त्व: इसे ‘राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक’ घोषित किया गया है एवं भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ASI) की वेबसाइट पर इसे केंद्रीय संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल किया गया है।
  • ऐतिहासिक महत्त्व: यह मुगल सम्राट बाबर के शासनकाल के दौरान पानीपत एवं अयोध्या में बनी तीन प्रमुख मस्जिदों में से एक है।

पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर किया गया मामला: आठ याचिकाकर्ताओं ने संभल न्यायालय में मामला दायर किया है, जिसमें दावा किया गया है कि 1527-28 ईसवी में, बाबर के सेनापति, हिंदू बेग ने श्री हरि हर मंदिर को आंशिक रूप से ध्वस्त कर दिया एवं इसे मस्जिद में बदल दिया। 
    • आरोप है कि वर्तमान मस्जिद का निर्माण मंदिर की जगह पर किया गया है।
  • संरक्षित स्मारक तक पहुँच का अधिकार: याचिकाकर्ताओं का कहना है कि स्मारक प्राचीन स्मारक और पुरातत्त्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत संरक्षित है और अधिनियम की धारा 18 के तहत जनता को ‘संरक्षित स्मारकों तक पहुँच का अधिकार’ है।
  • मस्जिद सर्वेक्षण के लिए न्यायालय के आदेश: 19 नवंबर को, संभल न्यायालय ने एक मस्जिद सर्वेक्षण का आदेश दिया, जो जिला अधिकारियों की देखरेख में किया गया था। 
    • विरोध के बावजूद, 24 नवंबर को दूसरा सर्वेक्षण हुआ, जिससे हिंसा भड़क उठी क्योंकि भीड़ को विध्वंस की आशंका थी।

पूजा स्थल अधिनियम, 1991

  • उद्देश्य: अधिनियम में यह अनिवार्य किया गया है कि सभी पूजा स्थलों का धार्मिक चरित्र वैसा ही बना रहना चाहिए जैसा वह 15 अगस्त, 1947 को था तथा यह अधिनियम किसी भी पूजा स्थल को एक धार्मिक संप्रदाय से दूसरे धार्मिक संप्रदाय में, पूर्णतः या आंशिक रूप से, परिवर्तित करने पर रोक लगाता है।
  • अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
    • धर्मांतरण निषेध (धारा 3): यह किसी पूजा स्थल को, चाहे वह पूर्ण रूप से हो या आंशिक रूप से, एक धार्मिक संप्रदाय से दूसरे में अथवा उसी संप्रदाय के भीतर परिवर्तित होने से रोकता है।
    • धार्मिक चरित्र का रखरखाव [धारा 4(1)]: यह सुनिश्चित करता है कि पूजा स्थल की धार्मिक पहचान वैसी ही बनी रहे जैसी 15 अगस्त, 1947 को थी।
    • अधिनियम के अपवाद (धारा 5)
      • प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्मारक: यह अधिनियम प्राचीन स्मारक और पुरातत्त्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के अंतर्गत संरक्षित स्मारकों, पुरातात्त्विक स्थलों और अवशेषों पर लागू नहीं होता है।
      • सुलझे हुए या हल किए गए विवाद: अधिनियम में पहले से ही सुलझाए जा चुके मामले, आपसी सहमति से सुलझाए गए विवाद या अधिनियम के लागू होने से पहले हुए धर्मांतरण शामिल नहीं हैं।
      • राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद: अधिनियम में अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्थल और उससे संबंधित किसी भी चल रही कानूनी कार्यवाही को विशेष रूप से शामिल नहीं किया गया है।
  • दंड (धारा 6): अधिनियम का उल्लंघन करने के लिए दंड निर्दिष्ट करता है, जिसमें अधिकतम तीन वर्ष की कारावास की अवधि और जुर्माना शामिल है।
  • न्यायिक समीक्षा पर रोक: अधिनियम की मुख्य आलोचना यह है कि यह न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है, जो संविधान की एक मूलभूत विशेषता है।

पूजा स्थल अधिनियम संबंधी चुनौतियाँ

  • संभल याचिका और चरित्र परिवर्तन: संभल में दायर याचिका में पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को बदलने की माँग की गई है, जो वर्ष 1991 के अधिनियम के प्रावधानों का खंडन करता है।
  • न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ की मौखिक टिप्पणी: याचिकाकर्ता न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ की वर्ष 2022 की टिप्पणी का हवाला देते हैं कि प्रक्रियात्मक जाँच के हिस्से के रूप में किसी स्थान के धार्मिक चरित्र का निर्धारण करना, जरूरी नहीं कि अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता हो।
    • इसका अनिवार्य रूप से मतलब है कि 15 अगस्त, 1947 को पूजा स्थल की प्रकृति क्या थी, इसकी जांच की अनुमति दी जा सकती है, भले ही उस प्रकृति को बाद में बदला न जा सके।
  • न्यायालयों ने याचिकाएँ स्वीकार की हैं: न्यायालयों ने वाराणसी, मथुरा, धार और अब संभल में पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को बदलने की माँग करने वाली याचिकाओं को स्वीकार कर लिया है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय को अभी तक पूजा स्थल अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला करना है।

संदर्भ

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय के उस निर्णय को बरकरार रखा है, जिसमें एक ईसाई परिवार में जन्मी लेकिन नौकरी में आरक्षण का लाभ लेने के लिए हिंदू होने का दावा करने वाली महिला को अनुसूचित जाति (SC) का प्रमाण-पत्र देने से इनकार कर दिया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ

  • बिना विश्वास के धर्म परिवर्तन धोखाधड़ी है: न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि केवल धर्म में वास्तविक विश्वास के बिना अनुसूचित जाति के लाभों का दावा करने के लिए धर्म परिवर्तन करना “संविधान के साथ धोखाधड़ी” है। 
  • संवैधानिक सिद्धांत और धर्मनिरपेक्षता: न्यायालय ने भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकाचार पर जोर दिया, जहाँ नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत अपने चुने हुए धर्म का पालन करने और उसे मानने की स्वतंत्रता है।
    • धर्मांतरण वास्तविक प्रेरणा और विश्वास से उत्पन्न होना चाहिए, न कि आरक्षण का लाभ प्राप्त करने जैसे गोपनीय उद्देश्यों से।
  • अपीलकर्ता का दावा: सी. सेल्वरानी ने हिंदू धर्म को मानने का दावा किया और कहा कि वह वल्लुवन जाति से हैं, जो संविधान (पांडिचेरी) अनुसूचित जाति आदेश, 1964 के अनुसार अनुसूचित जाति श्रेणी में आती है।
    • उन्होंने हिंदू प्रथाओं, मंदिर यात्राओं और SC समुदाय में पारिवारिक वंशावली के प्रति अपने लगाव का तर्क दिया।
  • पुनः धर्मांतरण का कोई सुबूत नहीं: अपीलकर्ता के हिंदू पहचान के दावे में सहायक साक्ष्यों का अभाव था, क्योंकि न तो उसका बपतिस्मा पंजीकरण रद्द किया गया था और न ही कोई घोषणात्मक मुकदमा दायर किया गया था।
  • परिवार की ईसाई पहचान: क्षेत्र सत्यापन ने पुष्टि की कि अपीलकर्ता के परिवार ने पुनः धर्मांतरण के किसी भी प्रयास के बिना ईसाई धर्म का पालन करना जारी रखा।
  • धोखाधड़ी के दावे खारिज: न्यायालय ने माना कि सेल्वरानी के दावे वास्तविक धर्मांतरण या विश्वास के बिना आरक्षण प्रणाली का शोषण करने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास था।

कानूनी और सामाजिक निहितार्थ

  • आरक्षण नीतियों पर प्रभाव: निर्णय में विशिष्ट समुदायों के लिए आरक्षित लाभों का दावा करने में प्रामाणिकता की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है।
    • आरक्षण लाभों का दुरुपयोग सामाजिक न्याय के इच्छित लक्ष्यों को नष्ट कर देता है तथा वास्तविक लाभार्थियों को इससे वंचित कर देता है।
  • लंबित संवैधानिक प्रश्न: ईसाई और इस्लाम में धर्मांतरित दलितों को अनुसूचित जाति के लाभ प्रदान करने का व्यापक मुद्दा अभी भी अनसुलझा है।
    • वर्ष 1950 के राष्ट्रपति आदेश के अनुसार, वर्तमान में अनुसूचित जाति का दर्जा हिंदुओं, सिखों और बौद्धों तक सीमित है, लेकिन इसे चुनौती देने वाली याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं।
  • धर्मांतरण प्रक्रियाएँ: न्यायालय ने धार्मिक रूपांतरण को दर्शाने के लिए स्पष्ट और सकारात्मक कृत्यों की आवश्यकता को रेखांकित किया, जैसे कि आर्य समाज समारोहों या सार्वजनिक घोषणाओं के माध्यम से।

आरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद-15(4): यह प्रावधान राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नागरिकों या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है। 
  • अनुच्छेद-16(4): यह अनुच्छेद राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सार्वजनिक रोजगार के मामलों में आरक्षण करने की अनुमति देता है।

कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) विवरणिका, 1993 के अंतर्गत दिशा-निर्देश

  • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति का दर्जा: किसी व्यक्ति को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य माना जाता है, यदि वह आधिकारिक तौर पर इस रूप में मान्यता प्राप्त जाति या जनजाति से संबंधित हो।
    • जो व्यक्ति हिंदू या सिख धर्म से भिन्न धर्म को मानता है उसे अनुसूचित जाति नहीं माना जाता।
  • धर्मांतरण और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति का दर्जा: जो व्यक्ति हिंदू या सिख धर्म अपनाता है, उसे अनुसूचित जाति के रूप में मान्यता दी जा सकती है, यदि उसे उसकी मूल जाति या जनजाति में वापस स्वीकार कर लिया जाता है।
    • अन्य धर्मों में धर्म परिवर्तन करने से आमतौर पर अनुसूचित जाति का दर्जा समाप्त हो जाता है।
  • अंतरजातीय विवाह और बच्चों की जाति
    • सामान्य तौर पर, बच्चे की जाति पिता की जाति से निर्धारित होती है। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि सामाजिक और सांस्कृतिक कारक बच्चे के पालन-पोषण और पहचान को प्रभावित कर सकते हैं। कुछ मामलों में, न्यायालय बच्चे की जाति निर्धारित करने के लिए उसके पालन-पोषण और पर्यावरण पर विचार कर सकती हैं।
  • एसटी धर्मांतरण और आरक्षण: SC के विपरीत, किसी व्यक्ति की ST स्थिति उसके धार्मिक जुड़ाव से बंधी नहीं होती है। अनुसूचित जनजाति से संबंधित व्यक्ति अपनी धार्मिक मान्यताओं की परवाह किए बिना ST का दर्जा बरकरार रखता है।

आगे की राह

  • वास्तविक सकारात्मक कार्रवाई का आह्वान: यह निर्णय वास्तविक सामाजिक समानता प्राप्त करने के लिए आरक्षण नीतियों की अखंडता को बनाए रखने के महत्त्व को रेखांकित करता है।
  • नीति समीक्षा की आवश्यकता: दलित ईसाइयों और मुसलमानों के लिए अनुसूचित जाति के लाभों पर लंबित विचार-विमर्श आरक्षण नीति की रूपरेखा को फिर से परिभाषित कर सकता है।
    • दलित धर्मांतरित लोगों को अनुसूचित जाति के लाभ प्रदान करने के लिए वर्ष 2007 की रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशें एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ के रूप में काम कर सकती हैं।
  • प्रवर्तन और सतर्कता: अधिकारियों को धोखाधड़ी के दावों को रोकने के लिए सख्त जाँच और प्रवर्तन तंत्र सुनिश्चित करना चाहिए।

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में इस बात पर गंभीरता से विचार किया कि सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत शीर्ष अपीलीय निकाय, केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) में कुल ग्यारह स्वीकृत पदों में से आठ रिक्त हैं।

  • न्यायालय का हस्तक्षेप सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 के प्रभावी कार्यान्वयन में CIC और राज्य सूचना आयोगों (SICs) की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है।

सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005

  • अधिनियमन और कार्यान्वयन: RTI अधिनियम जून 2005 में अधिनियमित किया गया था और अक्टूबर 2005 में लागू हुआ।
  • उद्देश्य: नागरिकों को सार्वजनिक प्राधिकरणों (PAs) के नियंत्रण में सूचना तक पहुँचने का अधिकार प्रदान करना।
  • नोडल एजेंसी: कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय (MoPPG&P)।

पृष्ठभूमि

  • मानव अधिकार: सूचना के अधिकार को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वाचा और आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वाचा जैसे अंतरराष्ट्रीय साधनों में मानव अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। 
  • राज नारायण बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामला, 1975: सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19 के तहत सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में बरकरार रखा। 
  • एल.के. कूलवाल बनाम राजस्थान राज्य और अन्य, 1986: राजस्थान उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि सूचना का अधिकार संविधान के अनुच्छेद-19 द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में निहित है। 
  • वर्ष 1990: पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने सबसे पहले RTI का विचार पेश किया। 
  • वर्ष 1994: मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) ने RTI के लिए पहला जमीनी स्तर का अभियान शुरू किया। 
  • वर्ष 1996: RTI के लिए राष्ट्रीय अभियान का गठन किया गया और RTI कानून के पहले संस्करण का मसौदा तैयार किया गया। 
  • वर्ष 1997: तमिलनाडु RTI कानून पारित करने वाला पहला राज्य बना। 
  • सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम, 2002: भारत ने पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिए सबसे पहले सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम, 2002 पेश किया। 
    • बाद में इन सिद्धांतों को मजबूत करने के लिए इसे RTI अधिनियम, 2005 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।

केंद्रीय सूचना आयोग (CIC)

  • स्थापना: CIC की स्थापना वर्ष 2005 में केंद्र सरकार द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के तहत की गई थी।
  • प्रकृति: यह एक संवैधानिक निकाय नहीं बल्कि एक वैधानिक प्राधिकरण है।
  • संरचना: CIC में शामिल हैं:
    • एक मुख्य सूचना आयुक्त। 
    • अधिकतम दस सूचना आयुक्त।
  • नियुक्ति प्रक्रिया
    • मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। 
    • यह सिफारिश एक समिति द्वारा की जाती है, जिसमें निम्नलिखित शामिल होते हैं:
      • प्रधानमंत्री अध्यक्ष के रूप में।
      • लोकसभा में विपक्ष का नेता।
      • प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री।
  • कार्यकाल और सेवा की शर्तें
    • मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का कार्यकाल केंद्र सरकार द्वारा या उनके 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक, जो भी पहले हो, निर्धारित किया जाता है। 
    • वे पुनर्नियुक्ति के लिए पात्र नहीं हैं।
  • आयुक्तों को पद से हटाने की विधि
    • राष्ट्रपति मुख्य सूचना आयुक्त या किसी सूचना आयुक्त को पद से हटा सकते हैं।
  • शक्तियाँ और कार्य
    • CIC, RTI अधिनियम के तहत एक अपीलीय प्राधिकरण के रूप में कार्य करता है।
    • इसे निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं:
      • RTI के गैर-अनुपालन से संबंधित शिकायतों को प्राप्त करना और उनकी जाँच करना। 
      • यदि उचित आधार मौजूद हों तो स्वप्रेरणा से जाँच करना। 
      • सिविल न्यायालय की शक्तियों का प्रयोग करना, जैसे कि समन जारी करना और दस्तावेजों को प्रस्तुत करने की आवश्यकता।
    • CIC केंद्र सरकार और संघ राज्य क्षेत्रों के अंतर्गत कार्यालयों, वित्तीय संस्थानों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और अन्य संस्थाओं से संबंधित शिकायतों तथा अपीलों पर विचार करता है।

राज्य सूचना आयोग (SIC)

  • प्रत्येक राज्य सरकार एक SICs का गठन करती है। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
    • एक राज्य मुख्य सूचना आयुक्त (SCIC)। 
    • अधिकतम दस राज्य सूचना आयुक्त (SIC)।
  • नियुक्ति: सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा एक समिति की सिफारिशों के आधार पर की जाती है, जिसमें शामिल हैं:
    • मुख्यमंत्री इसके अध्यक्ष होंगे,
    • राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता होंगे, और
    • मुख्यमंत्री द्वारा नामित एक राज्य कैबिनेट मंत्री होंगे।
  • पद से हटाना: राज्यपाल राज्य मुख्य सूचना आयुक्त या किसी भी राज्य सूचना आयुक्त को पद से हटा सकता है।

RTI अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ

  • संस्थागत ढाँचा
    • केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) और राज्य सूचना आयोग (SICs) अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी करने और सूचना देने से इनकार करने के संबंध में अपीलों का समाधान करने के लिए स्थापित किए गए हैं। 
    • नागरिकों को उनके अनुरोध के अनुसार सूचना प्रदान करने के लिए केंद्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर लोक सूचना अधिकारी (PIO) नियुक्त किए जाते हैं।
  • अपील का प्रावधान 
    • विभागीय अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष अपील की जा सकती है तथा यदि अपीलीय प्राधिकारी का निर्णय संतोषजनक न हो तो द्वितीय अपील भी की जा सकती है।
  • अधिनियम के तहत प्रदत्त अधिकार
    • अधिनियम, प्रत्येक नागरिक को सार्वजनिक प्राधिकरणों से सूचना का अनुरोध करने की अनुमति देता है। 
    • धारा 4 सार्वजनिक प्राधिकरणों को औपचारिक RTI अनुरोधों को कम करने के लिए व्यवस्थित रूप से रिकॉर्ड बनाए रखने और सूचना की विशिष्ट श्रेणियों का सक्रिय रूप से खुलासा करने का आदेश देती है।
  • प्रयोज्यता
    • यह अधिनियम संविधान, कानून या अधिसूचनाओं द्वारा स्थापित सरकारी निकायों सहित सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों पर लागू होता है। 
    • ऐसे संगठन और गैर-सरकारी संगठन जो सरकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पर्याप्त धन प्राप्त करते हैं, वे भी इसके दायरे में आते हैं।
  • छूट
    • धारा 8 कुछ छूटों को निर्दिष्ट करती है, जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, व्यक्तिगत गोपनीयता या व्यापार रहस्य से संबंधित जानकारी। 
    • RTI अधिनियम की धारा 8 के तहत अपवादों का प्रावधान
      • भारत की संप्रभुता और अखंडता
      • राज्य के सुरक्षा, सामरिक, वैज्ञानिक या आर्थिक हित
      • विदेशी राज्यों के साथ संबंध
      • अपराध को बढ़ावा देना
      • धारा 8 (2) आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, 1923 के तहत छूट प्रदान करती है।
    • द्वितीय अनुसूची में सूचीबद्ध कुछ खुफिया और सुरक्षा संगठन, जैसे इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB), रॉ और राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (NTRO) को अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है।
  • समय सीमा और अपील
    • सूचना अनुरोध के 30 दिनों के भीतर या यदि मामला जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित है तो 48 घंटों के भीतर प्रदान की जानी चाहिए। 
    • यदि नागरिकों को सूचना देने से मना कर दिया जाता है या वे PIO द्वारा दिए गए उत्तर से असंतुष्ट हैं तो वे अपील दायर कर सकते हैं।
  • क्षेत्राधिकार
    • यह अधिनियम निचली अदालतों को RTI अनुरोधों से संबंधित मुकदमों या आवेदनों पर विचार करने से रोकता है। 
    • हालाँकि, संविधान के अनुच्छेद-32 और 226 के तहत रिट क्षेत्राधिकार अप्रभावित रहता है।

अधिनियम में संशोधन

  • RTI (संशोधन) अधिनियम, 2019 ने केंद्र सरकार को CIC और सूचना आयुक्तों (ICs) के कार्यकाल, वेतन और सेवा की शर्तों को निर्धारित करने का अधिकार दिया, जिससे उनकी स्वतंत्रता को लेकर चिंताएँ पैदा हुईं। 
  • डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (DPDP) अधिनियम, 2023 ने RTI अधिनियम के तहत सभी व्यक्तिगत सूचनाओं को प्रकटीकरण से छूट देने के लिए धारा 8(1)(J) में संशोधन किया।

सूचना के अधिकार का महत्त्व (RTI)

  • नागरिकों का सशक्तीकरण: RTI नागरिकों को सरकारी नीतियों, निर्णयों और गतिविधियों के बारे में सूचना तक पहुँच प्रदान करके लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए सशक्त बनाता है।
    • यह प्राधिकारियों से प्रश्न करने तथा उन्हें जवाबदेह ठहराने में व्यक्तियों की भूमिका को मजबूत करता है।
  • पारदर्शिता को बढ़ावा: सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा सूचना का सक्रिय प्रकटीकरण (जैसा कि RTI अधिनियम की धारा 4 द्वारा अनिवार्य है) शासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।
    • यह सार्वजनिक संस्थाओं के कामकाज में गोपनीयता को न्यूनतम करता है।
  • शासन में जवाबदेही: RTI सार्वजनिक प्राधिकरणों के लिए अपने कार्यों और निर्णयों को उचित ठहराने के लिए एक तंत्र स्थापित करता है।
    • यह नागरिकों को सरकारी कार्यकुशलता पर नजर रखने में मदद करता है और यह सुनिश्चित करता है कि अधिकारी अपने आचरण के प्रति जवाबदेह रहें।
  • भ्रष्टाचार से लड़ने का साधन: कदाचार और अनियमितताओं को उजागर करके, RTI भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक शक्तिशाली साधन के रूप में कार्य करता है।
    • उदाहरण: महाराष्ट्र में आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले को उजागर करने में RTI अधिनियम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन: नागरिकों को अपनी प्रगति को सत्यापित करने और निगरानी करने में सक्षम बनाकर, RTI सरकारी योजनाओं और कल्याणकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन को बढ़ाता है।
    • उदाहरण: राजस्थान में मनरेगा रिकार्डों में हुई विसंगतियों को उजागर करने के लिए RTI  का उपयोग किया गया।
  • लोकतंत्र को मजबूत बनाना: RTI नागरिकों को जागरूक कर लोकतंत्र में उनकी सहभागिता को बढ़ावा देता है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि सरकार लोगों की आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी बनी रहे।
  • बेहतर रिकॉर्ड रखने को प्रोत्साहन: सूचना प्रदान करने या प्रकट करने का दायित्व सार्वजनिक प्राधिकारियों को व्यवस्थित एवं कुशलतापूर्वक अभिलेख बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करता है।
  • सार्वजनिक विश्वास को बढ़ाना: पारदर्शिता और जवाबदेही सरकार और उसके नागरिकों के मध्य विश्वास को बढ़ावा देती है।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा: RTI आवश्यक जानकारी तक पहुँच को सक्षम करके भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद-19 (1) (ए)) जैसे मौलिक अधिकारों को मजबूती प्रदान करता है। 
  • सुशासन को बढ़ावा देना: RTI जवाबदेही, पारदर्शिता और नागरिक सशक्तीकरण को बढ़ावा देकर सुशासन के लिए आधारशिला के रूप में कार्य करता है।

RTI अधिनियम के कार्यान्वयन में चुनौतियाँ

  • कार्यात्मक चुनौतियाँ
    • सूचना आयोगों में रिक्तियांँ: कई केंद्रीय और राज्य सूचना आयोगों (CICs और SICs) में कर्मचारियों की कमी है तथा मुख्य सूचना आयुक्तों सहित कई पद रिक्त हैं।
      • अक्टूबर 2024 तक, भारत में 29 राज्य सूचना आयोगों (SICs) में से सात में रिक्तियों के कारण निष्क्रिय या उनमें कर्मचारियों की कमी थी।
    • अपीलों और शिकायतों के लंबित मामलें: 30 जून तक सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत 4 लाख से अधिक अपीलें और शिकायतें लंबित हैं, जिसके कारण शिकायत निवारण में काफी देरी होती है।
      • कुछ राज्य सूचना आयोग मामलों के निपटान में एक वर्ष से अधिक समय लगा देते हैं, जिससे अधिनियम की प्रभावशीलता कम हो जाती है।
    • अपर्याप्त लिंग प्रतिनिधित्व: वर्ष 2005 से अब तक सभी सूचना आयुक्तों में से केवल 9% महिलाएँ रही हैं, जो लिंग असंतुलन को उजागर करता है।
  • संरचनात्मक चुनौतियाँ
    • सार्वजनिक प्राधिकरण की परिभाषा में अस्पष्टता: पीएम केयर्स फंड जैसी कुछ संस्थाओं को यह दावा करके RTI अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है कि वे सार्वजनिक प्राधिकरण नहीं हैं। 
    • धारा 8 के तहत छूट: राष्ट्रीय सुरक्षा और व्यक्तिगत गोपनीयता जैसे कारणों से दी गई छूट का प्रायः सूचना देने से इनकार करने के लिए दुरुपयोग किया जाता है। 
    • संशोधनों के माध्यम से कमजोर करना: RTI (संशोधन) अधिनियम, 2019 ने केंद्र सरकार को सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, वेतन और सेवा शर्तों को निर्धारित करने की शक्ति दी, जो संभावित रूप से उनकी स्वतंत्रता को प्रभावित करती है। 
    • डिजिटल बुनियादी ढाँचे की कमी: अभिलेखों का डिजिटलीकरण अपर्याप्त है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जिससे सूचना की कुशल पुनर्प्राप्ति और प्रसार में बाधा आती है।
  • प्रक्रियागत चुनौतियाँ
    • नौकरशाही संबंधी प्रतिरोध: सार्वजनिक अधिकारी प्रायः स्वयं को जाँच से बचाने या अपनी अक्षमता और भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए जानकारी का खुलासा करने में अनिच्छुक रहते हैं।
    • राजनीतिक दलों द्वारा गैर-अनुपालन: RTI अधिनियम के दायरे में लाए जाने के बावजूद, प्रमुख राजनीतिक दलों ने सार्वजनिक सूचना अधिकारी नियुक्त नहीं किए हैं।
    • अपर्याप्त रिकॉर्ड रखरखाव: सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा खराब रिकॉर्ड रखने से जानकारी प्राप्त करना और कुशलतापूर्वक प्रदान करना जटिल हो जाता है।
    • सूचना प्रदान करने में देरी: हालाँकि अधिनियम में 30 दिनों (या जीवन अथवा स्वतंत्रता के मामलों के लिए 48 घंटे) के भीतर जानकारी प्रदान करने का आदेश दिया गया है, अक्षमता या जवाबदेही की कमी के कारण देरी सामान्य है।
  • जागरूकता और सुरक्षा 
    • जागरूकता और शिक्षा का अभाव: कई नागरिक, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, RTI अधिनियम के तहत अपने अधिकारों से अनभिज्ञ हैं, जिसके कारण इसका कम उपयोग हो रहा है। 
    • RTI कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: भ्रष्टाचार या सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करने वाले कार्यकर्ताओं को धमकियों, उत्पीड़न और यहाँ तक कि हिंसा का सामना करना पड़ता है। 
      • सूचना माँगने के लिए प्रतिशोध में कई RTI कार्यकर्ताओं पर हमला किया गया है या उनकी हत्या कर दी गई है। 
    • व्हिसलब्लोअर सुरक्षा का कमजोर होना: व्हिसलब्लोअर सुरक्षा अधिनियम, 2014 में RTI कार्यकर्ताओं सहित गलत कामों को उजागर करने वालों की सुरक्षा के लिए मजबूत प्रावधानों का अभाव है।

भारत में RTI के लिए आगे की राह

  • रिक्तियों को भरना: लंबित मामलों को कम करने और कार्यकुशलता में सुधार करने के लिए CIC और SICs में समय पर नियुक्तियाँ सुनिश्चित करना।
  • द्वितीय ARC की सिफारिशें
    • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने अपनी रिपोर्ट “सूचना का अधिकार – सुशासन की मास्टर कुंजी” में RTI कार्यान्वयन की निगरानी, ​​इसके प्रभाव का मूल्यांकन करने और RTI के लिए राष्ट्रीय पोर्टल के सुचारू संचालन को सुनिश्चित करने के लिए एक राष्ट्रीय समन्वय समिति (NCC) की स्थापना की सिफारिश की। 
    • इसने राज्य स्तर पर विश्वसनीय गैर-लाभकारी संगठनों को जागरूकता अभियान सौंपने और RTI के समुचित संचालन के लिए सार्वजनिक प्राधिकरणों में पर्याप्त कर्मचारियों की भर्ती करने की भी सिफारिश की।
    • इसके अतिरिक्त, इसने RTI प्रक्रिया की समग्र दक्षता में सुधार के लिए सरकारी अधिकारियों के लिए उचित रिकॉर्ड रखने और प्रशिक्षण की आवश्यकता पर बल दिया।
  • जागरूकता बढ़ाना: विशेष रूप से ग्रामीण और हाशिए के क्षेत्रों में व्यापक जागरूकता अभियान चलाना।
  • RTI कार्यकर्ताओं की सुरक्षा: मुखबिरों और कार्यकर्ताओं की सुरक्षा के लिए मजबूत तंत्र लागू करना।
  • मुखबिरों की सुरक्षा अधिनियम को मजबूत बनाना: मुखबिरों और RTI कार्यकर्ताओं को धमकियों, उत्पीड़न और हिंसा से बचाने के लिए कड़े प्रावधान और प्रवर्तन तंत्र लागू करना।
  • रिकॉर्ड प्रबंधन में सुधार: रिकॉर्ड को डिजिटाइज करना और बेहतर रिकॉर्ड रखरखाव और पुनर्प्राप्ति के लिए PIO को पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान करना।
  • सूचना आयुक्तों का स्वतंत्र कामकाज: राजनीतिक या कार्यकारी हस्तक्षेप से उन्हें बचाकर सूचना आयोगों की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए RTI अधिनियम में संशोधन करना।

निष्कर्ष

सूचना का अधिकार अधिनियम शासन में पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिकों के सशक्तीकरण को सुनिश्चित करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है। हालाँकि, रिक्तियों, देरी, प्रक्रियात्मक अक्षमताओं और RTI कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की चुनौतियों का समाधान करना एक खुली और जवाबदेह सरकार को बढ़ावा देने में इसकी क्षमता को पूर्ण रूप से साकार करने के लिए आवश्यक है।

संदर्भ

26 नवंबर को भारत ने वर्ष 1949 में संविधान सभा द्वारा संविधान को अपनाए जाने की 75वीं वर्षगाँठ मनाई।

संविधान दिवस: इतिहास

  • संविधान निर्माण प्राधिकरण: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने का कार्य एक विधायी निकाय को सौंपा गया, जिसे संविधान सभा के नाम से जाना जाता है।
    • संविधान सभा की स्थापना वर्ष 1946 की कैबिनेट मिशन योजना के तहत की गई थी।
  • संविधान सभा का गठन
    • संविधान सभा के पहले सत्र की अध्यक्षता सबसे वृद्ध सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने की थी, जो अंतरिम अध्यक्ष के रूप में कार्यरत थे। 
    • 11 दिसंबर, 1946 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद को सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया।
  • संविधान निर्माण के लिए गठित समितियाँ: संविधान सभा ने संविधान निर्माण के लिए 13 समितियाँ गठित कीं।
    • प्रारूप समिति प्राथमिक निकाय थी, जिसके अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अंबेडकर थे।
  • संविधान सभा के सत्र: संविधान सभा ने दो वर्ष, 11 महीने और 18 दिनों में 11 सत्र आयोजित किए।
  • अपनाया गया: संविधान 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था।

भारतीय संविधान का विकास

  • भारत का संविधान प्रारंभ होने पर: इसके प्रारंभ होने के समय इसमें 22 भागों में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं।
  • संशोधन और अनुकूलनशीलता: भारत के विकसित होते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाते हुए, संविधान को इसके अपनाए जाने के बाद से 105 बार संशोधित किया गया है।
  • वर्तमान स्थिति: भारत का संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान बना हुआ है।
    • जो भारत की लोकतांत्रिक और कानूनी प्रणाली की नींव के रूप में कार्य करता है।
    • साथ ही यह एक जीवंत दस्तावेज बना हुआ है, जो समकालीन आवश्यकताओं के अनुकूल है।
  • वर्तमान में, भारत के संविधान में 25 भागों में 448 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं।

डॉ. बी.आर. अंबेडकर, जिन्हें व्यापक रूप से भारतीय संविधान के ‘मुख्य वास्तुकार’ या ‘पिता’ के रूप में माना जाता है, ने कहा: “संविधान केवल वकीलों का दस्तावेज नहीं है; यह जीवन का एक माध्यम है और इसकी भावना हमेशा युग की भावना होती है।”

संवैधानिक व्याख्याओं के विभिन्न प्रकार

  • पाठ्यवाद (Textualism): संवैधानिक पाठ के स्पष्ट या ऐतिहासिक अर्थ पर ध्यान केंद्रित करना।
    • उदाहरण: ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) में अनुच्छेद-19, 21 और 22 की शाब्दिक व्याख्या।
  • मौलिकता (Originalism): संविधान निर्माताओं की मंशा पर विचार करना।
    • उदाहरण: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में संसद की संशोधन शक्ति के बारे में संविधान निर्माताओं की मंशा पर विचार किया गया।
  • न्यायिक उदाहरण: पिछले न्यायालय के निर्णयों पर भरोसा करना।
    • उदाहरण: मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में अनुच्छेद-21 की व्याख्या का विस्तार करने के लिए पिछले निर्णयों पर निर्भरता।
  • व्यावहारिकता (Pragmatism): व्यावहारिक परिणामों पर विचार करना।
    • उदाहरण: विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) में विशिष्ट कानून के अभाव में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को संबोधित करने के लिए दिशा-निर्देशों का निर्माण।
  • नैतिक तर्क: नैतिक सिद्धांतों को लागू करना।
    • उदाहरण: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) में सम्मान और समानता के सिद्धांतों के आधार पर सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध से मुक्त करना।

लचीले और कठोर संविधान के बीच अंतर

पहलू

लचीला संविधान

कठोर संविधान

संशोधन प्रक्रिया

संशोधन करना आसान है; इसके लिए विधानमंडल में साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है।

संशोधन करना कठिन है; इसके लिए विशेष प्रक्रिया या बहुमत की आवश्यकता होती है।

उदाहरण यूनाइटेड किंगडम, न्यूजीलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी
परिवर्तन अनुकूलनशीलता

बिना किसी बड़ी बाधा के सामाजिक परिवर्तनों के प्रति अत्यधिक अनुकूलनशील

संशोधन के लिए औपचारिक, प्रायः लंबी प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।

लचीलापन उभरती जरूरतों और चुनौतियों से निपटने के लिए अधिक लचीला

कम लचीला, स्थिरता सुनिश्चित करता है लेकिन त्वरित अनुकूलन के साथ संघर्ष कर सकता है।

संवैधानिक प्रकृति

आमतौर पर ये कानून अलिखित या आंशिक रूप से लिखित होते हैं तथा समय के साथ इनमें बदलाव होते रहते हैं।

लिखित, संशोधन के लिए विशिष्ट प्रावधानों के साथ।
स्थिरता बनाम परिवर्तन

प्रगति और स्थिरता के बीच संतुलन के लिए त्वरित समायोजन की अनुमति देता है।

स्थिरता के मामले में मजबूत, लेकिन सामाजिक परिवर्तनों के साथ विकसित होने में धीमी हो सकती है।

भारत के संविधान दिवस के बारे में

  • वार्षिक पालन: भारत में संविधान दिवस प्रतिवर्ष 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान को अपनाने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
    • इस दिन अपनाया गया संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ, यह दिन वर्ष 1930 के पूर्ण स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) घोषणा का सम्मान करने के लिए चुना गया था।
  • सरकारी पदनाम
    • वर्ष 2015 में, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने आधिकारिक तौर पर 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में नामित किया।
    • यह दिन संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने और डॉ. बी.आर. अंबेडकर की 125वीं जयंती के साथ मेल खाने के लिए चुना गया था।
  • पूर्व पालन: संविधान दिवस के रूप में इसकी औपचारिक घोषणा से पहले, 26 नवंबर को कानून दिवस के रूप में मनाया जाता था।

संविधान दिवस का महत्त्व

  • संवैधानिक आदर्शों के प्रति जागरूकता: संविधान दिवस संवैधानिक आदर्शों, अधिकारों और प्रतिबद्धताओं के बारे में जागरूकता बढ़ाता है, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर ध्यान केंद्रित करता है, साथ ही राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है।
  • भारत की परिवर्तनकारी यात्रा पर चिंतन करना: यह दिन भारत की परिवर्तनकारी यात्रा को दर्शाता है और लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
    • अपनी स्थापना के बाद से, संविधान पिछले 75 वर्षों में राष्ट्र की प्रगति को आकार देने वाले मार्गदर्शक ढाँचे के रूप में कार्य करता है।
  • संविधान सभा के विजन का सम्मान: यह दिन एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव रखने में संविधान सभा के विजन और प्रयासों का भी सम्मान करता है।
  • नागरिक भागीदारी को बढ़ावा देना: संविधान दिवस सक्रिय नागरिक भागीदारी और जिम्मेदारी को प्रोत्साहित करता है, एक प्रगतिशील, समावेशी और समतावादी समाज के निर्माण के लिए भारत के समर्पण को मजबूत करता है।

भारत और संवैधानिक शासन

  • संवैधानिक शासन के बारे में: यह सरकार की उस प्रणाली को संदर्भित करता है, जिसमें राज्य के अधिकार को संविधान द्वारा परिभाषित, सीमित और विनियमित किया जाता है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा सत्ता का प्रयोग संविधान द्वारा स्थापित कानूनी ढाँचे के भीतर रहे।
  • एक संवैधानिक लोकतंत्र के रूप में भारत की यात्रा इसके संविधान को अपनाने और उसके कार्यान्वयन में निहित है, जो देश के राजनीतिक और कानूनी ढाँचे को नियंत्रित करता है।

भारत की संवैधानिक यात्रा को आकार देने वाले ऐतिहासिक निर्णय

  • केशवानंद भारती (1973): ‘मूल संरचना सिद्धांत’ की स्थापना की, जिससे संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति सीमित हो गई।
  • मेनका गांधी (1978): अनुच्छेद-21 के दायरे का विस्तार किया, गरिमा के साथ जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी दी।
  • मिनर्वा मिल्स (1980): मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन को मजबूत किया।
  • इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992): अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण को बरकरार रखा, लेकिन इसे 50% तक सीमित कर दिया, जिससे सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों को नया रूप मिला और भारत में जाति और वर्ग पर बहस छिड़ गई।
  • विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए दिशा-निर्देश स्थापित किए, जिसके परिणामस्वरूप कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 लागू हुआ।
  • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): एक ऐतिहासिक फैसले में, न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निरस्त करते हुए समलैंगिकता को अपराध से मुक्त कर दिया।
  • पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017): न्यायालय ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी, जिसका प्रभाव डेटा सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वायत्तता पर पड़ा।

भारत का संविधान किस प्रकार राष्ट्र की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है।

  • राजनीतिक आयाम
    • संविधान प्राथमिक स्रोत के रूप में: भारत का संविधान कानूनी अधिकार के प्राथमिक स्रोत के रूप में कार्य करता है, जो संसद और राज्य विधानसभाओं को कानून बनाने का अधिकार देता है।

भारत की संविधान सभा में महिलाओं की भूमिका

  • 299 सदस्यीय संविधान सभा में 15 महिला सदस्य थीं (जिनमें से दो ने बाद में इस्तीफा दे दिया), जिनमें सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी और विजया लक्ष्मी पंडित जैसी प्रमुख हस्तियाँ शामिल थीं।

यहाँ संविधान सभा की पाँच उल्लेखनीय महिलाएँ हैं

  • अम्मू स्वामीनाथन (वर्ष 1894- वर्ष 1978): संविधान सभा में उन्होंने पुरुष-प्रधान विरोध का सामना करने के बावजूद हिंदू कोड बिल और लैंगिक समानता के बारे में बात की।
    • स्वतंत्रता के बाद, वह तमिलनाडु के डिंडीगुल से चुनी गईं तथा रूस, चीन और अमेरिका जैसे देशों में भारत की सद्भावना राजदूत के रूप में कार्य किया।
  • एनी मैस्करेन (1902-1963): संविधान सभा के सदस्य के रूप में, उन्होंने गणतंत्र के शुरुआती दिनों में एक मजबूत केंद्र की आवश्यकता के बारे में बात की, साथ ही स्थानीय सरकारों की स्वायत्तता पर भी जोर दिया।
  • बेगम कुदसिया एजाज रसूल (वर्ष 1909-2001): उन्होंने महिलाओं के मुद्दों का समर्थन किया और अलग धार्मिक निर्वाचन क्षेत्रों का विरोध किया।
  • दक्षायनी वेलायुधन (वर्ष 1912-1978): वे अलग निर्वाचन क्षेत्रों की आवश्यकता पर अंबेडकर से असहमत थीं, उनका कहना था कि यह प्रावधान मतभेदों को उजागर करता है और राष्ट्रवाद के खिलाफ है।
  • रेणुका रे (वर्ष 1904-1997): वर्ष 1946 में, वे संविधान सभा के लिए चुनी गईं और उन्होंने हिंदू कोड बिल जैसे मुद्दों पर चर्चा की और विधायिकाओं में महिलाओं के आरक्षण का विरोध किया, यह कहते हुए कि यह ‘हमारे विकास में बाधा बनेगा और हमारी बुद्धिमत्ता और क्षमता का अपमान होगा’।

    • कानून का शासन: सर्वोच्च न्यायालय ने कानून के शासन को संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक घोषित किया है। इसका मतलब है कि कानून की सर्वोच्चता होनी चाहिए तथा कोई भी कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए, कानून के सामने हर कोई समान है।
    • शक्तियों का पृथक्करण: संविधान विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच एक अच्छा संतुलन स्थापित करता है। नियंत्रण तथा संतुलन सुनिश्चित करने के लिए शक्तियों को तीन शाखाओं में विभाजित किया गया है:
      • विधानमंडल (संसद): कानून बनाता है। 
      • कार्यपालिका (राष्ट्रपति तथा मंत्री): कानूनों को लागू करता है।
      • न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय): कानून की व्याख्या करती है तथा उसे कायम रखती है।
    • चुनाव सुधार: भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव जैसे संवैधानिक प्रावधानों पर आधारित है।
      • भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहाँ सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार है।
      • चुनाव आयोग जैसी संस्थाएँ चुनावी अखंडता को बनाए रखने के लिए संविधान से अपना अधिकार प्राप्त करती हैं।
    • संशोधनीयता: सामाजिक परिवर्तनों के अनुकूल संविधान में संशोधन (भारतीय संविधान के भाग-XX में अनुच्छेद-368) किया जा सकता है।
    • उभरते लोकतंत्रों के लिए प्रेरणा का स्रोत
  • आर्थिक आयाम 
    • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (DPSP): ये वे दिशा-निर्देश हैं, जिनका पालन भारत सरकार को देश के शासन के लिए करना है। वे अदालतों द्वारा लागू करने योग्य नहीं हैं।
      • उदाहरण: मनरेगा तथा शिक्षा का अधिकार जैसी पहल अनुच्छेद-39 तथा अनुच्छेद-45 के अनुरूप हैं, जो कल्याणकारी नीतियों को आकार देने में संविधान की भूमिका को प्रदर्शित करती हैं।
  • सामाजिक आयाम
    • मौलिक अधिकार: भारत के संविधान के भाग-III में निहित मौलिक अधिकार व्यक्तियों की स्वतंत्रता तथा स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बनाए गए अधिकारों का एक बुनियादी समूह है।
    • धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान का उद्देश्य एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाना है, जहाँ सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाता है।
    • सामाजिक असमानताओं को संबोधित करना: संविधान के अनुच्छेद-15 तथा 16 के तहत सकारात्मक कार्रवाई ने हाशिए पर पड़े समुदायों को सशक्त बनाया है।
  • न्यायिक आयाम 
    • एकीकृत न्यायपालिका: यह संघ तथा राज्य दोनों कानूनों को प्रशासित करने के लिए न्यायालयों की एक एकीकृत प्रणाली प्रदान करता है।
    • न्यायिक समीक्षा: यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके तहत सरकार की कार्यकारी, विधायी या प्रशासनिक कार्रवाइयों की न्यायपालिका द्वारा समीक्षा की जाती है।
      • यह न्यायालयों को संविधान को कायम रखने, न्याय सुनिश्चित करने तथा राज्य के अतिक्रमण के विरुद्ध भी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने का अधिकार देता है।

पिछले 75 वर्षों में हुई संवैधानिक प्रगति

  • राजनीतिक सशक्तीकरण
    • लोकतांत्रिक चुनाव: भारत सफलतापूर्वक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव कराता है, जिससे यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन गया है।
      • उदाहरण: विश्व का सबसे बड़ा मतदाता समूह 96.88 करोड़ है, जो भारत में वर्ष 2024 के आम चुनाव के लिए मतदान करने के लिए पंजीकृत है।
    • विकेंद्रीकरण: 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों ने पंचायती राज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकायों के माध्यम से स्थानीय शासन को सशक्त बनाया, जिससे जमीनी स्तर पर लोकतंत्र मजबूत हुआ।
    • बढ़ा हुआ प्रतिनिधित्व: विधानसभाओं तथा स्थानीय शासन में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षण ने हाशिए पर पड़े समुदायों की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाया है।
      • उदाहरण: 18वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित 74 सांसद (14%) महिलाएँ हैं।
  • आर्थिक विकास 
    • गरीबी निर्मूलन: निदेशक सिद्धांतों पर न्यायिक जोर ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत भोजन के अधिकार को मान्यता देने जैसी कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावित किया है।
      • नीति आयोग के चर्चा पत्र के अनुसार, भारत में बहुआयामी गरीबी में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है, जो वर्ष 2013-14 में 29.17% से घटकर वर्ष 2022-23 में 11.28% हो गई है, यानी 17.89 प्रतिशत अंकों की कमी।
    • औद्योगिक विकास: भारत वर्ष 2024 के लिए विश्व की GDP रैंकिंग में 5वें स्थान पर है।
    • साक्षरता दर: भारतीय राष्ट्रीय सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2023 में भारत की साक्षरता दर 77.7 प्रतिशत है।
  • मौलिक अधिकारों को मजबूत बनाना
    • न्यायिक व्याख्याएँ: निर्णयों के माध्यम से अधिकारों का विस्तार, जैसे:
      • निजता का अधिकार (के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ, 2017)।
      • 86वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद-21A के तहत शिक्षा का अधिकार।
    • भेदभाव विरोधी कानून: SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम जैसे कानूनों के लागू होने से कमजोर समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
  • हाशिए पर पड़े समूहों की पहचान 
    • LGBTQ+ अधिकार: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (वर्ष 2018) के माध्यम से धारा 377 को अपराधमुक्त करने से अनुच्छेद-14, 15 तथा 21 के तहत LGBTQ+ अधिकारों की पुष्टि हुई।
    • अल्पसंख्यक अधिकार: अनुच्छेद-30 के माध्यम से अल्पसंख्यकों के लिए शैक्षिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों को मजबूत करना।
  • समानता में उन्नति
    • अस्पृश्यता का उन्मूलन: अस्पृश्यता को समाप्त करने के संविधान के निर्देश में सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रमों, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों (SC) और अन्य पिछड़ा वर्गों (OBC) के लिए आरक्षण के साथ प्रगति देखी गई है।
    • अधूरी सामाजिक तथा आर्थिक समानता: इन उपायों के बावजूद, वास्तविक सामाजिक और आर्थिक समानता प्राप्त करने का लक्ष्य अधूरा है।
      • आगे के अवसरों की निरंतर माँग तथा जाति जनगणना समाज में परिणामों की समानता के लिए चल रहे संघर्षों का संकेत देती है।
  • बंधुत्व एवं राष्ट्रीय एकता
    • जाति और क्षेत्र के आधार पर लामबंदी: जाति, पंथ, क्षेत्र तथा भाषा के आधार पर वोटों की लामबंदी भारतीय राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता बनी हुई है।
      • इससे डॉ. अंबेडकर द्वारा परिकल्पित सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक एकता पर प्रभाव पड़ा है तथा बंधुत्व को एक प्रगतिशील कार्य के रूप में बनाए रखा है।
    • राष्ट्रवाद की भावना: स्थायी स्थानीय पहचान के बावजूद, राष्ट्रवाद की एक मजबूत भावना उभरी है, जिसका प्रमाण अंतरराष्ट्रीय संकट या गौरव के समय में राष्ट्रीय एकता से मिलता है, जैसे कि कारगिल युद्ध (वर्ष 1999) तथा गलवान घटना (वर्ष 2020) के दौरान।

संवैधानिक संस्थाओं के लिए चुनौतियाँ

  • संसद की भूमिका में कमी: एक मजबूत विधायी निकाय के रूप में कार्य करने की संसद की क्षमता कमजोर हो गई है।
    • संसदीय दिनों में कमी: संसद की वार्षिक बैठकों की औसत संख्या पहली लोकसभा में 135 दिनों से घटकर 17वीं लोकसभा (वर्ष 2019-24) में मात्र 55 दिनों पर आ गई है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: राजनीतिक व्यक्तियों द्वारा चुनाव आयोग, न्यायपालिका जैसी संवैधानिक संस्थाओं तथा प्रवर्तन निदेशालय (ED), केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) जैसी जाँच एजेंसियों को प्रभावित करने के लगातार प्रयास उनके स्वतंत्र कामकाज को कमजोर करते हैं और विश्वास को कम करते हैं।
    • उदाहरण: संवैधानिक निकायों के प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति में पारदर्शिता का अभाव, निष्पक्षता और राजनीतिक पक्षपात पर प्रश्न उठाता है।
  • न्यायिक लंबितता तथा अतिक्रमण: न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता तथा विश्वसनीयता के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
    • लंबित मामलों के कारण न्याय में देरी होती है, जबकि विधायिका या कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण से शक्तियों के पृथक्करण के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • भ्रष्टाचार और जवाबदेही: संस्थागत भ्रष्टाचार के आरोपों से जनता का भरोसा तथा कार्यकुशलता कमजोर होती है।
  • निगरानी में कमी: संसदीय समितियों का कमजोर होना तथा अध्यादेशों का अत्यधिक उपयोग विधायी जाँच को कम करता है।
  • तकनीकी चुनौतियाँ: गलत सूचना तथा साइबर सुरक्षा जोखिम चुनाव एवं न्यायिक पारदर्शिता जैसी प्रक्रियाओं के लिए खतरा हैं।
    • चुनावी हेरफेर तथा शासन के उदाहरणों के कारण वी-डेम इंस्टिट्यूट ने भारत को ‘चुनावी निरंकुशता’ करार दिया है।

आगे की राह 

  • संस्थागत स्वतंत्रता को बनाए रखना: पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रियाओं और कार्यात्मक स्वतंत्रता के माध्यम से चुनाव आयोग, न्यायपालिका और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) जैसे संवैधानिक निकायों की स्वायत्तता सुनिश्चित करना।
  • संघवाद को मजबूत करना: समान संसाधन आवंटन सुनिश्चित करके और पक्षपातपूर्ण केंद्रीय हस्तक्षेपों के बारे में चिंताओं को दूर करके सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना।
  • जागरूकता को बढ़ावा देना: नागरिकों के बीच संवैधानिक अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जागरूकता बढ़ाना जीवंत लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
  • समावेशी विकास: पर्यावरणीय स्थिरता का सम्मान करते हुए सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को पाटने के लिए नीतियों को संवैधानिक आदर्शों के साथ संरेखित किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

  • भारत का संविधान कठोरता तथा लचीलेपन के बीच संतुलन बनाता है, जिससे सामाजिक परिवर्तनों के अनुकूल ढलते हुए इसके मूल सिद्धांतों को संरक्षित रखने की अनुमति मिलती है। यह अनुकूलनशीलता, शिक्षा के अधिकार, अनुच्छेद-370 में संशोधन, GST, NCBC तथा गोपनीयता, धारा 377, तीन तलाक तथा नोटा पर प्रमुख निर्णयों जैसे प्रावधानों में स्पष्ट है, यह दर्शाता है कि, जैसा कि डार्विन ने कहा था, अस्तित्व परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता पर निर्भर करता है।
  • विकसित होने की यह क्षमता ही हमारे लोकतंत्र की निरंतर मजबूती तथा प्रासंगिकता सुनिश्चित करती है।

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