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Nov 07 2024

Title Subject Paper
दोषियों के लिए क्षमा नीति पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश Polity and governance ​, GS Paper 2,
संक्षेप में समाचार
सार्वजनिक स्थान पर किसी महिला की फोटो खींचना दृश्यावलोकन (वायरिज्म) नहीं है: केरल हाईकोर्ट Polity and governance ​, GS Paper 2,
भारत की ऊर्जा प्रगति: जीवाश्म ईंधन से स्वच्छ ऊर्जा की ओर बदलाव Environment and Ecology, GS Paper 3,
उत्तर प्रदेश में डीजीपी नियुक्ति के नए नियम politics and governance, GS Paper 2,
उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला Polity and governance ​, GS Paper 2,
संसद का शीतकालीन सत्र Polity and governance ​, GS Paper 2,
दुर्लभ रोगों में पेटेंट का दुरुपयोग Health, GS Paper 2,
राज्य को प्रत्येक निजी संपत्ति अधिग्रहित करने का अधिकार नहीं: सर्वोच्च न्यायालय Polity and governance ​, GS Paper 2,

संदर्भ 

उच्चतम न्यायालय ने देश में दोषियों के लिए स्थायी क्षमा को नियंत्रित करने वाली नीतियों की पारदर्शिता को मानकीकृत करने एवं सुधारने के लिए राज्य तथा केंद्रशासित प्रदेश सरकारों को निर्देश जारी किए हैं।

राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की क्षमादान शक्तियाँ

  • क्षमादान (Pardon): भारत का राष्ट्रपति किसी अपराधी को उसकी सजा और दोषसिद्धि दोनों से मुक्त करते हुए क्षमा प्रदान कर सकता है तथा अपराधी को सभी सजाओं, दंडों और अयोग्यताओं से मुक्त कर सकता है।
  • विनिमय (Commutation): इसका अर्थ है दंड की प्रकृति में परिवर्तन करना तथा दंड के एक रूप के स्थान पर हल्का रूप लागू करना।
    • उदाहरण: मृत्युदंड को कठोर कारावास में परिवर्तित किया जा सकता है, जिसे बाद में साधारण कारावास में परिवर्तित किया जा सकता है।
  • छूट (Remission): छूट का अर्थ है दंड की प्रकृति में परिवर्तन किए बिना दंड की अवधि को कम करना।
    • उदाहरण: दो वर्ष के कठोर कारावास की सजा को घटाकर एक वर्ष के कठोर कारावास में बदला जा सकता है।
  • राहत (Respite): इसका अर्थ है किसी विशेष कारण जैसे कि दोषी की शारीरिक अक्षमता या गर्भावस्था के कारण मूल सजा के स्थान पर कम सजा देना।
  • दंडविराम (Reprieve): इसका तात्पर्य है कि सजा के निष्पादन पर अस्थायी अवधि के लिए रोक लगा दी जाती है, ताकि दोषी को राष्ट्रपति से क्षमा या सजा में छूट माँगने का समय मिल सके।

निर्देशों के बारे में

  • मामला: न्यायिक पीठ द्वारा वर्ष 2021 के स्वत: संज्ञान मामले की सुनवाई करते हुए निर्देश पारित किए गए, जिसका शीर्षक ‘जमानत देने के लिए नीतिगत रणनीति’ था।
    • अद्यतन: अतिरिक्त मुद्दों जैसे कि क्या राज्यों को सभी क्षमा अस्वीकृतियों के लिए कारण बताना चाहिए एवं दोषी आवेदनों की स्वतंत्र रूप से पात्रता पर विचार करना चाहिए, इस पर 3 दिसंबर, 2024 को आगे विचार-विमर्श किया जाएगा।
  • निर्देश
    • निर्णयों की समय पर सूचना: राज्यों को यह सुनिश्चित करने के लिए व्यापक कदम उठाने की आवश्यकता है कि छूट के लिए पात्र दोषियों को पर्याप्त जानकारी मिले तथा उनके मामलों पर निष्पक्ष विचार किया जाए।
    • नीति संबंधी जानकारी तक पहुँच: वर्तमान क्षमा नीतियों को, भविष्य में किए जाने वाले किसी भी संशोधन सहित, देश भर की जेलों में उपलब्ध कराया जाना चाहिए तथा संबंधित सरकारी वेबसाइटों पर अंग्रेजी में अपलोड किया जाना चाहिए।
    • अपील अस्वीकृति के बारे में सूचित करना: आदेश पारित होने के एक सप्ताह के भीतर दोषियों को स्थायी छूट के आवेदन की अस्वीकृति के बारे में सूचित किया जाना चाहिए।
      • इन अस्वीकृतियों की प्रतियाँ राज्य सरकार द्वारा संबंधित जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों को भेजी जानी चाहिए ताकि दोषियों को उचित कानूनी सहायता सुनिश्चित की जा सके।
    • लंबित अपील: सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि लंबित दोषसिद्धि अपीलों के कारण ही देरी को उचित नहीं ठहराया जा सकता है और लंबित अपीलों के कारण छूट पर विचार न करने की प्रथा की भी उसने आलोचना की।
      • हालाँकि, न्यायालय ने कहा कि यदि राज्य द्वारा सजा बढ़ाने या दोषमुक्त करने के लिए अपील दायर की जा रही हो तो आवेदन को लंबित रखा जा सकता है।
    • मामलों पर व्यक्तिगत विचार: न्यायिक पीठ ने क्षमा अनुदान के लिए ‘रूढ़िवादी शर्तें’ लागू करने के विरुद्ध निर्णय दिया और कहा कि कोई भी शर्ते प्रत्येक मामले के विशिष्ट विवरण के आधार पर तैयार की जानी चाहिए।

क्षमा पर गृह मंत्रालय के दिशा-निर्देश

नीचे दी गई श्रेणियों के कैदी, जिन्होंने पिछले तीन वर्षों में सजा अवधि के दौरान लगातार अच्छा आचरण बनाए रखा है और कोई सजा नहीं पाई है, विशेष छूट के लिए पात्र हो सकते हैं:

  • 50 वर्ष एवं उससे अधिक उम्र की महिलाएँ तथा ट्रांसजेंडर दोषी, जिन्होंने अपनी कुल सजा अवधि का 50% पूरा कर लिया है।
  • 60 वर्ष एवं उससे अधिक उम्र के पुरुष दोषी, जिन्होंने अपनी कुल सजा अवधि का 50% पूरा कर लिया है (अर्जित सामान्य क्षमा की अवधि की गणना किए बिना)। 
  • 70% एवं उससे अधिक (मेडिकल बोर्ड द्वारा विधिवत प्रमाणित) दिव्यांगता वाले शारीरिक रूप से दिव्यांग/अक्षम दोषी, जिन्होंने अपनी कुल सजा अवधि का 50% पूरा कर लिया है।
  • असाध्य रूप से बीमार अपराधी (मेडिकल बोर्ड द्वारा विधिवत प्रमाणित)।
  • ऐसे सजायाफ्ता कैदी, जिन्होंने अपनी कुल सजा अवधि का दो-तिहाई (66%) पूरा कर लिया है। 
  • गरीब या निर्धन कैदी जो अपनी सजा पूरी कर चुके हैं लेकिन उन पर लगाए गए जुर्माने का भुगतान न करने के कारण अभी भी जेल में हैं, उनका जुर्माना माफ कर दिया गया है।
  • ऐसे व्यक्ति जिन्होंने कम उम्र में यानी 18-21 वर्ष के बीच अपराध किया है एवं उनके विरुद्ध कोई अन्य आपराधिक संलिप्तता/मामला नहीं है, जिन्होंने अपनी सजा अवधि का 50% पूरा कर लिया है।

दंड में क्षमा के लिए नीति के बारे में

  • दंड में क्षमा का अर्थ है दंड की प्रकृति में परिवर्तन किए बिना उसकी अवधि को कम करना।
    • उदाहरण: पाँच वर्ष के कठोर कारावास की सजा को घटाकर एक वर्ष किया जा सकता है।  
  • सिद्धांत: जेलों का उद्देश्य प्रतिशोधात्मक दंड देने के बजाय पुनर्वासात्मक न्याय प्रदान करना है।
  • उद्देश्य: क्षमा याचिकाओं पर तब विचार किया जाता है, जब मामले के कुछ ऐसे पहलू सामने आते हैं, जो न्यायालय में कार्यवाही के दौरान सामने नहीं आए थे और कार्यपालिका कानून के अनुसार क्षमा, निलंबन या अल्पीकरण के माध्यम से दोषी पर दया दिखा सकती है।
  • क्षमा के लिए संवैधानिक प्रावधान
    • संविधान के अनुच्छेद-72 (राष्ट्रपति) एवं अनुच्छेद-161 (राज्यपाल) में किसी दोषी को क्षमादान, विनिमय, छूट, राहत या दंडविराम देने की संप्रभु शक्तियाँ दी गई हैं। हालाँकि, कार्यकारी प्रमुख इन शक्तियों का प्रयोग केवल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कर सकता है।
  • वैधानिक प्रावधान 
    • आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 432: उपयुक्त राज्य सरकारें आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 432 के तहत दोषी को दी गई सजा की पूरी या आंशिक सजा माफ कर सकती हैं। 
    • आजीवन कारावास के मामलों में: CrPC की धारा 433A के अनुसार, जेल में 14 वर्ष की अवधि पूरी होने के बाद ही क्षमा पर विचार किया जा सकता है।
      • संगीत बनाम हरियाणा राज्य (वर्ष 2012): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी अपराधी द्वारा आजीवन कारावास की सजा पूरी करने तथा जेल में 14 वर्ष पूरे करने के बाद भी, उसे समयपूर्व रिहाई का अधिकार नहीं मिलता है तथा सजा में छूट पर केवल मामला-दर-मामला आधार पर ही विचार किया जाना चाहिए।

हरियाणा राज्य बनाम महेंद्र सिंह एवं अन्य (2007)

  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद-20 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों के अनुसार छूट के लिए विचार किए जाने के अधिकार को कानूनी माना जाना चाहिए।
    • चूँकि किसी कैदी को जेल में उसके अच्छे आचरण के आधार पर छूट मिलती है, इसलिए छूट को दान या करुणा के कार्य के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे कानूनी कर्तव्य के निर्वहन के रूप में देखा जाना चाहिए।

मिर्जा मोहम्मद हुसैन बनाम यूपी राज्य (वर्ष 2002)

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद-161 के तहत क्षमादान की शक्ति कार्यपालिका की ओर से विवेकाधीन नहीं हो सकती है और इसका प्रयोग संविधान के शक्ति विभाजन सिद्धांत को नकारते हुए किया जा सकता है।

    • राज्य का विषय: जेल राज्य का विषय है, इसलिए प्रत्येक राज्य के जेल नियम कुछ सुधारात्मक और पुनर्वास गतिविधियों की पहचान करते हैं, जिन्हें दोषी सजा में छूट पाने के लिए उपयोग कर सकते हैं।
  • क्षमा पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश: लक्ष्मण नस्कर बनाम भारत संघ (2000) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच आधार निर्धारित किए थे, जिनके आधार पर छूट पर विचार किया जाना था। 
    • यह निर्धारित करना कि क्या अपराध एक व्यक्तिगत अपराध है जो समाज को प्रभावित नहीं करता है।
    • अपराध की पुनरावृत्ति की संभावना। 
    • क्या दोषी ने अपराध करने की अपनी क्षमता खो दी है। 
    • क्या दोषी को एवं अधिक कारावास में रखने का कोई सार्थक उद्देश्य है। 
    • दोषी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति। 

क्षमा के लिए

क्षमा के विरुद्ध

सुधारात्मक न्याय: क्षमा देना सुधारात्मक न्याय के सिद्धांत को बढ़ावा देता है एवं संभावना को अलग करना सुधार के लिए अनुकूल नहीं है। दुरुपयोग: राजनीतिक लाभ के लिए या विशेषाधिकार प्राप्त कुछ लोगों के हितों की रक्षा के लिए सत्ता का दुरुपयोग किया जा सकता है।

  • उदाहरण: बिलकिस बानो मामले के दुष्कर्म के दोषियों को क्षमादान।
मूल अधिकार: प्रत्येक कैदी को सुधार एवं पुन: एकीकृत होने का अवसर दिया जाना चाहिए। शक्तियों का पृथक्करण: कार्यपालिका को क्षमादान की शक्ति देना शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के विरुद्ध है, जिससे आपराधिक न्याय प्रणाली की निष्पक्षता एवं अखंडता में जनता का विश्वास कम हो जाता है।
राज्य पर बोझ: कम अपराध वाले दोषियों को क्षमा दी जा सकती है, जिससे उन्हें समाज में पुनः शामिल होने में मदद मिलेगी एवं राज्य पर भी कम बोझ पड़ेगा। पारदर्शिता: खुले न्यायिक परीक्षण के विपरीत, क्षमादान के पीछे निर्णय लेने की प्रक्रिया अक्सर अपारदर्शी होती है, जिसमें कार्यपालिका के कार्यों के लिए बहुत कम सार्वजनिक जाँच या औचित्य प्रदान किया जाता है।
न्यायिक गलती को सुधारने के लिए: इसे अत्यधिक या गलत कारावास के लिए सुधारात्मक उपाय के रूप में प्रदान किया जा सकता है। न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करता है: इस अधिकार का प्रयोग करने वाली कार्यपालिका द्वारा न्यायिक निर्णयों को कमजोर किया जाता है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया कम स्वतंत्र एवं कम सम्मानित हो जाती है।

भारत में उल्लेखनीय क्षमा के मामले

  • राजीव गांधी हत्या मामला (वर्ष 1991): तमिलनाडु सरकार ने राजीव गांधी हत्याकांड के दोषियों में से एक ए. जी. पेरारिवलन को अच्छे आचरण के आधार पर सजा माफ करने की सिफारिश की है। राज्यपाल ने याचिका खारिज कर दी है।
  • पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या (वर्ष 1995): पंजाब सरकार ने वर्ष 2014 में पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या में शामिल कुछ दोषियों को अच्छे आचरण के आधार पर रिहा करने का फैसला किया, जिससे न्याय और पीड़ित परिवारों के अधिकारों को लेकर बहस छिड़ गई।
  • जेसिका लाल मर्डर केस (1999): वर्ष 2011 में दिल्ली सरकार ने अच्छे आचरण का हवाला देते हुए मनु शर्मा की समयपूर्व रिहाई की सिफारिश की थी, जिसे खारिज कर दिया गया था। दोषी मनु शर्मा को हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
  • बिलकिस बानो केस: गुजरात सरकार ने दुष्कर्म के 11 दोषियों को सजा में क्षमा दी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को खारिज कर दिया।

अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA)

ISA असेंबली के सातवें सत्र में वर्ष 2024 से वर्ष 2026 तक दो वर्ष की अवधि के लिए अपने अध्यक्ष और सह-अध्यक्ष का चुनाव किया गया।

संबंधित तथ्य

  • भारत और फ्राँस  ने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन असेंबली की अध्यक्षता और सह-अध्यक्षता बरकरार रखी है।

अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) का अवलोकन

  • संगठन के बारे में: यह 120 सदस्य और हस्ताक्षरकर्ता देशों वाला एक संधि आधारित अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जो देश पूर्णतः या आंशिक रूप से कर्क रेखा और मकर रेखा के बीच अवस्थित हैं।

पैराग्वे अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) में शामिल होने वाला 100वाँ देश बन गया।

  • मिशन: ISA का मिशन वर्ष 2030 तक सौर ऊर्जा में 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश प्राप्त करना है, साथ ही प्रौद्योगिकी और इसके वित्तपोषण की लागत को कम करना है।
  • मुख्यालय: ISA का मुख्यालय भारत में है, यह पहला अंतरराष्ट्रीय अंतर-सरकारी संगठन है, जिसका मुख्यालय भारत में है।
  • शासन संरचना
    • ISA असेंबली: यह असेंबली ISA की वार्षिक सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था है, जो प्रत्येक सदस्य देश का प्रतिनिधित्व करती है।
      • यह सभा ISA के फ्रेमवर्क समझौते को लागू करने के लिए जिम्मेदार है।
    • समितियाँ: ISA की पाँच समितियाँ हैं:-
      • स्थायी समिति और चार क्षेत्रीय समितियाँ जो चार ISA क्षेत्रों में से प्रत्येक के लिए स्थापित की गई हैं, अर्थात्, 
      • अफ्रीका; एशिया और प्रशांत; यूरोप और अन्य; तथा लैटिन अमेरिकी और कैरेबियन देश।
    • सचिवालय: सचिवालय यह सुनिश्चित करता है कि सभा के निर्णयों का अनुपालन करने तथा ऐसे निर्णयों के कार्यान्वयन में ISA सदस्य देशों की कार्रवाइयों में समन्वय स्थापित करने के लिए उचित कदम उठाए जाएँ।
      • ISA सचिवालय का नेतृत्व महानिदेशक करते हैं और यह दिल्ली, भारत में स्थित है।

ISA की प्रमुख पहल

  • सोलर डेटा पोर्टल (Solar Data Portal): सोलर परियोजनाओं में सूचित निर्णय लेने के लिए पारदर्शी अंतर्दृष्टि के साथ हितधारकों को सशक्त बनाते हुए वास्तविक समय का सोलर डेटा प्रदान करता है।
  • ईज ऑफ डूइंग सोलर (Ease of Doing Solar): देश के विधायी और नीतिगत ढाँचों को सोलर ऊर्जा के लिए अधिक सहायक बनाने के लिए विश्लेषण तथा सलाहकार सेवाएँ प्रदान करता है।
  • वैश्विक सोलर सुविधा (Global Solar Facility): इसका उद्देश्य कम सेवा वाले क्षेत्रों, विशेष रूप से अफ्रीका में सोलर परियोजनाओं के लिए वाणिज्यिक पूँजी जारी करना है।
  • सोलरएक्स स्टार्टअप चैलेंज (SolarX Startup Challenge): सोलर सेक्टर के लिए अभिनव, स्केलेबल समाधानों की सफलतापूर्वक पहचान और समर्थन किया है।
  • स्टार-सेंटर पहल (STAR-Centre Initiative): सोलर टेक्नोलॉजी एप्लीकेशन रिसोर्स-सेंटर (STAR-C) विशेष प्रशिक्षण सुविधाओं, उपकरणों और संरचित शिक्षण मॉड्यूल से लैस हैं, जो अत्यधिक कुशल सोलर कार्यबल को विकसित करने के लिए डिजाइन किए गए हैं।
    • आज तक, ISA ने सात देशों में स्टार केंद्रों की सफलतापूर्वक स्थापना और संचालन किया है: इथियोपिया, सोमालिया, क्यूबा, ​​कोटे डी आइवर, किरिबाती, घाना और बांग्लादेश।

कृष्ण अय्यर सिद्धांत (Krishna Iyer Doctrine)

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, जिसमें कृष्ण अय्यर सिद्धांत का उल्लेख किया गया था, ने व्यक्तिगत अधिकारों और सामाजिक हितों के बीच संतुलन बनाने में न्यायपालिका की भूमिका के बारे में बहस छेड़ दी।

कृष्ण अय्यर सिद्धांत के बारे में

  • कृष्णा अय्यर सिद्धांत, जिसका नाम सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश वी.आर. कृष्णा अय्यर के नाम पर रखा गया है, एक न्यायिक दर्शन है, जो मानवाधिकारों, सामाजिक न्याय और सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने में न्यायपालिका की भूमिका पर जोर देता है।
  • इसकी विशेषता हाशिए पर पड़े समूहों की सुरक्षा और समानता को बढ़ावा देने के लिए एक मजबूत प्रतिबद्धता है।

कृष्ण अय्यर सिद्धांत के मुख्य पहलू

  • मानवाधिकार और सामाजिक न्याय: यह सिद्धांत मानवाधिकारों और सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देता है तथा हाशिए पर पड़े एवं वंचित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा की वकालत करता है। 
  • न्यायिक सक्रियता: यह न्यायिक सक्रियता को प्रोत्साहित करता है, जहाँ न्यायपालिका सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए सामाजिक और आर्थिक नीतियों को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाती है। 
  • जनहित याचिका: यह सिद्धांत जनहित याचिका का समर्थन करता है, जिससे व्यक्तियों और संगठनों को जनहित की ओर से न्यायालय में मामले लाने की अनुमति मिलती है।
  • नियम के रूप में जमानत, अपवाद के रूप में जेल (Bail as the Rule, Jail as the Exception): यह सिद्धांत अभियुक्त व्यक्तियों को जमानत देने के महत्त्व पर जोर देता है, विशेषकर गैर-गंभीर मामलों में। 
  • वंचितों पर ध्यान केंद्रित करना: सिद्धांत समाज के वंचित और हाशिए पर पड़े वर्गों की जरूरतों पर विशेष ध्यान देने का आह्वान करता है।

संदर्भ 

केरल उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 354 C के तहत दृश्यावलोकन (Voyeurism) का अपराध तब लागू नहीं होता, जब कोई महिला ऐसी जगह पर हो जहाँ उसे देखे जाने या फोटो खींचे जाने से निजता का उल्लंघन नहीं हो सकता है।

संबंधित तथ्य

  • यह निर्णय दो आरोपियों की याचिका के जवाब में दिया गया, जिन्होंने एक महिला के घर के सामने उसकी तस्वीर लेने से संबंधित आरोपों को खारिज करने की माँग की थी।
  • मामले की पृष्ठभूमि
    • घटना का विवरण: यह घटना वर्ष 2022 में हुई थी, जब आरोपी ने कथित तौर पर शिकायतकर्ता की उसके घर के सामने फोटो खींची और जब उसका सामना हुआ तो उसने यौन इशारे किए।
    • प्रारंभिक आरोप: पुलिस ने IPC की धारा 354C [दृश्यावलोकन (Voyeurism)] और 509 (महिला की गरिमा का अपमान करने के उद्देश्य से किया गया कृत्य) के तहत मामला दर्ज किया।

उच्च न्यायालय के निर्णय के मुख्य बिंदु

  • सार्वजनिक स्थानों पर दृश्यावलोकन (Voyeurism) लागू नहीं होता: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि IPC की धारा 354C के तहत दृश्यावलोकन का अपराध केवल तभी लागू होता है जब किसी महिला को निजी कार्य करते हुए देखा जाता है या उसकी तस्वीर खींची जाती है, जहाँ वह उचित रूप से निजता की अपेक्षा करती है।
  • सार्वजनिक स्थान अपवाद के रूप में: चूँकि घटना महिला के घर के सामने हुई थी, जो एक सार्वजनिक स्थान है, इसलिए दृश्यावलोकन का आरोप खारिज कर दिया गया।
  • यौन उत्पीड़न के संभावित आरोप: न्यायालय ने सुझाव दिया कि अभियुक्त के कृत्य IPC की धारा 354A(1)(i) और (iv) के तहत यौन उत्पीड़न के अंतर्गत आ सकते हैं, जिसमें किसी महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने के इरादे से किए गए कृत्य भी शामिल हैं।
  • अन्य आरोपों की निरंतरता: न्यायालय ने अभियोजन पक्ष को भारतीय दंड संहिता की धारा 509 के तहत आरोप आगे बढ़ाने की अनुमति दे दी, जो किसी महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने के इरादे से कहे गए शब्दों, इशारों या कृत्यों से संबंधित है।

केरल उच्च न्यायालय के निर्णय के सामाजिक निहितार्थ

  • सार्वजनिक स्थानों पर निजता की सीमाओं का पुनर्परिभाषित होना
    • निजता अपेक्षाओं में बदलाव: यह निर्णय एक कानूनी समझ स्थापित करता है कि सार्वजनिक स्थानों में निजता सीमित है, जो लोगों की इस धारणा को बदल सकता है कि लोग कब और कहाँ निजता की उम्मीद कर सकते हैं।
    • सार्वजनिक बातचीत के लिए कानूनी स्पष्टता: दृश्यावलोकन (वॉयरिज्म) की सीमाओं को स्पष्ट करके, यह निर्णय सार्वजनिक स्थानों में निजता के उल्लंघन के बारे में मार्गदर्शन प्रदान करता है, जिससे दृश्यावलोकन (वॉयरिज्म) कानूनों का अधिक सटीक अनुप्रयोग हो सकता है।
  • सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा और आराम पर प्रभाव
    • व्यक्तिगत सुरक्षा से संबंधित चिंताओं में वृद्धि: कई महिलाएँ सार्वजनिक क्षेत्रों में कम सुरक्षित महसूस कर सकती हैं, उन्हें डर है कि बिना किसी कानूनी परिणाम के अवांछित फोटोग्राफी बढ़ सकती है, जिससे सड़कों, समुद्र तटों और पार्कों जैसी जगहों पर असुविधा हो सकती है।
    • लैंगिक-विशिष्ट सुरक्षा पर बहस: इस निर्णय से इस बात पर चर्चा हो सकती है कि क्या महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर उत्पीड़न और अवांछित ध्यान से बचाने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा आवश्यक है।
  • सार्वजनिक फोटोग्राफी और सम्मान के बारे में सामाजिक मानदंड
    • सार्वजनिक व्यवहार पर प्रभाव: इस कानूनी उदाहरण के साथ, व्यक्ति बिना सहमति के सार्वजनिक रूप से फोटो लेने के लिए अधिक उत्साहित महसूस कर सकते हैं, जिससे फोटो खींचने वाले लोगों में असुविधा या अनादर की भावना उत्पन्न हो सकती है।

संदर्भ 

एशिया-प्रशांत जलवायु रिपोर्ट (Asia-Pacific Climate Report) से पता चलता है कि भारत जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए प्रतिबद्ध है और इसका लक्ष्य वर्ष 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन हासिल करना है।

नेट जीरो के बारे में

  • यह उत्पादित ग्रीनहाउस गैस की मात्रा और वायुमंडल से उसके निष्कासन के बीच का संतुलन है।
  • यह संतुलन उत्सर्जन में कमी एवं निष्कासन के माध्यम से स्थापित किया जा सकता है।
  • महत्त्व 
    • यह ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
    • चरम मौसमी घटनाओं और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करना।
    • दीर्घकालिक पर्यावरणीय स्थिरता का समर्थन करता है।

संबंधित तथ्य

  • संक्रमण लक्ष्य: भारत ने अपनी रणनीति को भारी जीवाश्म ईंधन निर्भरता से हटाकर सब्सिडी सुधारों एवं नवीकरणीय निवेशों के माध्यम से स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने की ओर स्थानांतरित किया है।
  • जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सुधार
    • प्रमुख रणनीति: भारत ने स्वच्छ ऊर्जा विकास को समर्थन देने के लिए जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को कम करते हुए ‘हटाओ, लक्ष्य बनाओ और स्थानांतरित करो’ दृष्टिकोण अपनाया है।
    • प्रभाव: वर्ष 2014 से 2018 तक, भारत ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में काफी कमी की, जिससे धनराशि को सौर ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों जैसी नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं की ओर पुनर्निर्देशित किया जा सका।

        सकल शून्य और नेट जीरो के बीच अंतर

पहलू

सकल शून्य

नेट जीरो 

परिभाषा कोई ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन नहीं होता। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को निष्कासन द्वारा संतुलित किया जाता है।
लक्ष्य उत्सर्जन का पूर्ण उन्मूलन। निष्कासन के साथ उत्सर्जन को संतुलित करें।
उपलब्धि सभी उत्सर्जनों में महत्त्वपूर्ण कमी की आवश्यकता है। कटौती और प्रतिसंतुलन के माध्यम से प्राप्त किया गया।
साध्यता प्राप्त करना अधिक चुनौतीपूर्ण है। अल्पावधि में अधिक प्राप्त करने योग्य।
प्रभाव आदर्श अंतिम-अवस्था लक्ष्य। समग्र उत्सर्जन को कम करने की दिशा में मध्यवर्ती कदम।

एशिया-प्रशांत जलवायु रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष

  • प्रभावी सब्सिडी सुधार: भारत के ‘हटाओ, लक्ष्य बनाओ और बदलाव करो’ दृष्टिकोण के कारण जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में 85% की कमी आई है।
  • कर-वित्तपोषित अक्षय ऊर्जा: कोयला उत्पादन पर करों ने स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं और बुनियादी ढाँचे के वित्तपोषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • GST एकीकरण की चुनौतियाँ: GST के तहत कोयला केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सेवा कर निधियों का पुनर्निर्देशन स्वच्छ ऊर्जा के लिए वित्तपोषण निरंतरता बनाए रखने में चुनौतियों को उजागर करता है।
  • नवीकरणीय ऊर्जा विकास: रिपोर्ट में सौर ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहनों और एक लचीले ऊर्जा ग्रिड में भारत के बढ़ते निवेश को दर्शाया गया है।

एशिया-प्रशांत में जलवायु अनुकूलन के लिए प्रमुख सिफारिशें

  • समन्वित एवं तत्काल जलवायु अनुकूलन
    • एशिया-प्रशांत क्षेत्र में जलवायु प्रभावों का मुकाबला करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में तत्काल और एकीकृत अनुकूलन प्रयासों को लागू करना।
  • बेहतर जलवायु जोखिम मूल्यांकन और जागरूकता: सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में सूचित निर्णयों का समर्थन करने के लिए जलवायु जोखिमों का आकलन और संचार करने की प्रक्रियाओं को बढ़ाना।
  • राष्ट्रीय विकास योजनाओं में जलवायु अनुकूलन: जल संसाधन, कृषि और सामाजिक संरक्षण जैसे प्रमुख क्षेत्रों को प्राथमिकता देते हुए लचीले विकास को बढ़ावा देने के लिए जलवायु अनुकूलन रणनीतियों को राष्ट्रीय विकास योजनाओं में शामिल करना।
  • विस्तारित जलवायु अनुकूलन वित्तपोषण: मिश्रित वित्त मॉडल का उपयोग करके जलवायु अनुकूलन के लिए वित्तपोषण में वृद्धि करना, जिसमें सार्वजनिक और निजी संसाधनों का संयोजन किया जाता है, ताकि वित्तपोषण संबंधी अंतराल को कम किया जा सके और सतत् लचीलेपन को समर्थन दिया जा सके।
  • संस्थागत और बाजार समर्थन को मजबूत करना: प्रभावी और स्थायी जलवायु अनुकूलन निवेश को बढ़ावा देने के लिए संस्थागत क्षमता का निर्माण करें, बाजारों में सुधार करना और सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करना।

एशिया-प्रशांत जलवायु रिपोर्ट के बारे में

  • एशियाई विकास बैंक (ADB) ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिए विशिष्ट जलवायु परिवर्तन मुद्दों की जाँच करने के लिए एशिया-प्रशांत जलवायु रिपोर्ट प्रकाशित की है।

  • उद्देश्य: जलवायु चुनौतियों से निपटने और उनका प्रबंधन करने में मदद करने के लिए स्पष्ट अंतर्दृष्टि और नीतिगत सिफारिशें प्रदान करना।
  • मुख्य फोकस क्षेत्र
    • जलवायु भेद्यता: जलवायु प्रभावों के प्रति क्षेत्र की संवेदनशीलता का विश्लेषण करता है और उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों की पहचान करता है।
    • प्रभाव और लागत अनुमान: जलवायु परिवर्तन से जुड़ी संभावित आर्थिक और सामाजिक लागतों का अनुमान लगाता है।
    • अनुकूलन और शमन के लिए प्राथमिकता वाली कार्रवाइयाँ: क्षेत्र में जलवायु जोखिमों को कम करने और लचीलापन बनाने के लिए तत्काल कार्रवाई का प्रस्ताव करता है।

स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण के लिए प्रमुख पहल

  • जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सुधार
    • रणनीतिक चरणबद्ध समाप्ति: भारत ने वर्ष 2010 से वर्ष 2014 तक पेट्रोल और डीजल सब्सिडी को धीरे-धीरे कम किया है।
    • कर समायोजन: वर्ष 2014 से वर्ष 2017 तक जीवाश्म ईंधन पर कर वृद्धि ने अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए धन जुटाने में मदद की।

महत्त्वपूर्ण कटौती: वर्ष 2014 और  2018 के बीच, जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में कटौती की गई, जिससे स्वच्छ ऊर्जा निवेश के लिए संसाधन मुक्त हो गए।

  • स्वच्छ ऊर्जा को समर्थन देने में कराधान की भूमिका
    • कोयला केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सेवा कर (वर्ष 2010-2017): कोयला उत्पादन और आयात पर कर ने अक्षय ऊर्जा पहलों को निधि देने में मदद की।

    • निधि आवंटन: कोयला केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सेवा कर संग्रह का लगभग 30% एक समर्पित निधि के माध्यम से स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं का समर्थन करता है।
    • GST में बदलाव: वर्ष 2017 के बाद, केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सेवा कर को GST में समाहित कर दिया गया, जिसने इन निधियों को स्वच्छ ऊर्जा के बजाय राज्य मुआवजे के लिए पुनर्निर्देशित किया।
  • प्रमुख स्वच्छ ऊर्जा कार्यक्रम 
    • राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन: स्वच्छ ऊर्जा स्रोत के रूप में हाइड्रोजन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • पीएम-कुसुम योजना: कृषि में नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को प्रोत्साहित करती है, किसानों को लाभ पहुँचाती है और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करती है।
    • पीएम सूर्य घर-मुफ्त बिजली योजना: नवीकरणीय ऊर्जा तक पहुँच का विस्तार करती है और ग्रामीण ऊर्जा उपलब्धता को बढ़ाती है।

निष्कर्ष

  • भारत की प्रगति: भारत के सुधार स्थायी ऊर्जा की ओर बदलाव ला रहे हैं, जो अन्य देशों के लिए एक उदाहरण है।
  • आर्थिक और सामाजिक प्रभाव: जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में कटौती और नए कराधान उपायों ने न केवल स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा दिया है, बल्कि आर्थिक विकास और रोजगार सृजन में भी योगदान दिया है।
  • जलवायु लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता: भारत के प्रयास जलवायु परिवर्तन से निपटने तथा समावेशी ऊर्जा परिदृश्य को बढ़ावा देने के प्रति दीर्घकालिक प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं।

संदर्भ 

उत्तर प्रदेश के राज्य मंत्रिमंडल ने अपने पुलिस महानिदेशक (DGP) की नियुक्ति के लिए नए नियमों (‘पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश चयन एवं नियुक्ति नियमावली, 2024’) को मंजूरी दे दी है।

‘पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश चयन एवं नियुक्ति नियमावली, 2024’ के बारे में

  • उत्तर प्रदेश सरकार ने ब्रिटिश काल के पुलिस अधिनियम, 1861 के तहत नए नियमों का प्रस्ताव किया है।
  • उद्देश्य: आधिकारिक वक्तव्य के अनुसार, ये नियम वर्ष 2006 के प्रकाश सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय के परिप्रेक्ष्य में लाए गए हैं। निर्णय में राज्य सरकारों से एक नया पुलिस अधिनियम बनाने का आह्वान किया गया है, जो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करेगा और कानून का शासन स्थापित करेगा।
  • पृष्ठभूमि: उत्तर प्रदेश में वर्ष 2022 से कोई नियमित पुलिस महानिदेशक नहीं है क्योंकि राज्य ने राज्य पुलिस प्रमुख नियुक्त किए जाने के योग्य वरिष्ठ भारतीय पुलिस सेवा (IPS) अधिकारियों का पैनल नहीं बनाया है।
    • सर्वोच्च न्यायालय जल्द ही कम-से-कम आठ राज्यों अर्थात् पंजाब, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, झारखंड और बिहार को तदर्थ पुलिस महानिदेशक नियुक्त करने के लिए जारी किए गए अवमानना ​​नोटिसों पर सुनवाई करेगा।
  • प्रावधान
    • चयन एवं नियुक्ति समिति: पुलिस महानिदेशक के चयन एवं नियुक्ति के लिए समिति होगी।
      • अध्यक्ष: इसकी अध्यक्षता उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश करेंगे।
      • अन्य सदस्य: राज्य के मुख्य सचिव; UPSC का एक नामित व्यक्ति; उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष या नामित व्यक्ति; गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव/प्रमुख सचिव; तथा सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक।
    • निश्चित कार्यकाल: नए नियमों में पुलिस महानिदेशक कार्यालय का न्यूनतम कार्यकाल दो वर्ष निर्धारित किया गया है।
    • पात्रता: पात्र अभ्यर्थियों के पास रिक्ति सृजन की तिथि तक छह माह की सेवा शेष होनी चाहिए।
      • इसके अलावा, जो अधिकारी वर्तमान में वेतन मैट्रिक्स के स्तर 16 पर महानिदेशक (DG) की भूमिका में कार्यरत हैं, उनके भी चयन के लिए विचार किया जाएगा।
    • निष्कासन: राज्य सरकार पुलिस महानिदेशक को दो वर्ष पूरे होने से पहले हटा सकती है, यदि उसके खिलाफ कोई आपराधिक मामला या भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया गया हो या वह अन्यथा अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में विफल रहता हो।

राज्य पुलिस महानिदेशकों की नियुक्ति

  • केंद्र सरकार की ओर से UPSC अध्यक्ष की अध्यक्षता वाली एक पैनल समिति संबंधित राज्य सरकार को 3 अधिकारियों की सूची देती है। राज्य सरकार को सूची में से एक नाम चुनना होता है और उसे पुलिस महानिदेशक के पद पर नियुक्त करना होता है।
    • सदस्य: समिति में केंद्रीय गृह सचिव, राज्य सरकार के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक तथा गृह मंत्रालय द्वारा नामित केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (CAPF) के प्रमुखों में से एक शामिल होता है, जो इसके सदस्यों के समान कैडर से नहीं होता है।
  • राज्य सरकार को अपनी ओर से वरिष्ठ भारतीय पुलिस सेवा (IPS) अधिकारियों का एक पैनल बनाना होगा, जो राज्य पुलिस प्रमुख नियुक्त किए जाने के योग्य हों, जैसा कि वर्ष 2006 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा निर्धारित किया गया है।
  • राज्य पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति के लिए UPSC के दिशा-निर्देश: UPSC ने पहली बार वर्ष 2009 में राज्य पुलिस महानिदेशक के पद पर नियुक्ति के लिए एक पैनल तैयार करने के लिए दिशा-निर्देश तैयार किए थे।
    • चयन: राज्य सरकार द्वारा विभाग के तीन वरिष्ठतम अधिकारियों में से पुलिस महानिदेशक का चयन किया जाएगा, जिन्हें UPSC द्वारा उस पद पर पदोन्नति के लिए पैनल में शामिल किया गया है।
    • केवल उन पुलिस अधिकारियों को ही राज्य के पुलिस महानिदेशक के रूप में नियुक्ति के लिए विचार किया जाएगा, जिनकी सेवानिवृत्ति से पहले कम-से-कम छह महीने की सेवा शेष हो।
    • केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर अधिकारी: यदि केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) राज्य सरकार को सूचित करता है कि “अधिकारियों को कार्यमुक्त करना संभव नहीं होगा” तो समिति राज्य डीजीपी के पद के लिए केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर भारतीय पुलिस सेवा (IPS) अधिकारियों का मूल्यांकन नहीं करेगी।
    • अनुभव: योग्य अधिकारियों को कानून और व्यवस्था, अपराध शाखा, आर्थिक अपराध शाखा, या खुफिया शाखा जैसे क्षेत्रों में दस वर्ष का अनुभव तथा खुफिया ब्यूरो, अनुसंधान और विश्लेषण विंग, या केंद्रीय जाँच ब्यूरो जैसे केंद्रीय निकायों में प्रतिनियुक्ति की आवश्यकता होती है।
    • शॉर्टलिस्ट करना: अधिकतम 3 उम्मीदवारों को ही शॉर्टलिस्ट किया जा सकता है, लेकिन “असाधारण परिस्थितियों” में सूची में तीन से कम अधिकारी शामिल हो सकते हैं।

पुलिस सुधार पर सर्वोच्च न्यायालय का प्रकाश सिंह मामले में निर्णय

  • वादी: उत्तर प्रदेश पुलिस और असम पुलिस के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने वर्ष 1996 में अपनी सेवानिवृत्ति के बाद पुलिस सुधारों की माँग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी।
  • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: इसने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को पुलिस सुधार लाने का निर्देश दिया और कई निर्देश जारी किए, जिन्हें लागू करने की जरूरत थी ताकि पुलिस को किसी भी राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जा सके।
  • निर्देश: निर्णय में उच्चतम न्यायालय के छह मुख्य निर्देश थे:-
    • स्थायी सुरक्षा: राज्य के IG और पुलिस महानिदेशक कार्यालय को नियुक्ति के बाद न्यूनतम 2 वर्ष की स्थायी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, ताकि उनके कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप की स्थिति से बचा जा सके।
    • शक्तियों का पृथक्करण: दस लाख या उससे अधिक की आबादी वाले कस्बों/शहरी क्षेत्रों से शुरू करके, धीरे-धीरे छोटे कस्बों/शहरी क्षेत्रों तक पुलिस व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए जाँच और कानून व्यवस्था के कार्य को अलग करना।
    • पुलिस स्थापना बोर्ड की स्थापना: राज्य स्तर पर पुलिस अधिकारियों और वरिष्ठ नौकरशाहों से मिलकर बना एक पुलिस स्थापना बोर्ड (Police Establishment Board-PIB) पुलिस उपाधीक्षक के पद से नीचे के अधिकारियों के सभी स्थानांतरण, पोस्टिंग, पदोन्नति और अन्य सेवा संबंधी मामलों पर निर्णय लेगा।
    • राज्य पुलिस शिकायत प्राधिकरण (State Police Complaints Authority-SPCA): पुलिस कार्रवाई से पीड़ित आम लोगों को अपनी शिकायतें दर्ज कराने के लिए एक मंच देने हेतु राज्य और जिला स्तर पर राज्य पुलिस शिकायत प्राधिकरण (SPCA) की स्थापना करना।
    • राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग: केंद्रीय पुलिस संगठनों (Central Police Organisations-CPO) के प्रमुखों के चयन और नियुक्ति के लिए उपयुक्त नियुक्ति प्राधिकरण के समक्ष रखे जाने वाले पैनल को तैयार करने के लिए संघ स्तर पर एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की स्थापना करना।
    • राज्य सुरक्षा आयोग: राज्य सुरक्षा आयोग (State Security Commissions-SSC) की स्थापना करना, जिसमें राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, रिबेरो समिति या सोराबजी समिति द्वारा अनुशंसित किसी भी मॉडल पर नागरिक समाज के सदस्य शामिल होंगे।

संदर्भ 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च शिक्षा प्रावधानों के संबंध में अपवादों के साथ उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 (Uttar Pradesh Madrasa Education Board Act, 2004) की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा।

निर्णय के मुख्य बिंदु

  • सीमाओं के साथ मान्यता: प्राथमिक और माध्यमिक मदरसा शिक्षा के लिए अधिनियम को बरकरार रखा गया, लेकिन फाजिल (स्नातक) और कामिल (स्नातकोत्तर) स्तरों पर उच्च शिक्षा प्रावधानों के लिए इसे असंवैधानिक घोषित किया गया।
  • UGC अधिनियम के साथ टकराव: ये स्तर संघ सूची की प्रविष्टि 66 का अतिक्रमण करते हैं, जो विशेष रूप से केंद्र सरकार को उच्च शिक्षा मानकों पर नियंत्रण प्रदान करता है।
  • UP मदरसा अधिनियम, 2004 (UP Madarsa Act, 2004): इसे यूपी में मदरसा शिक्षा को विनियमित करने के लिए पेश किया गया था, जिसमें इस्लामी अध्ययन, तिब्ब (Tibb) और उर्दू जैसे विषय शामिल हैं।
    • इसके तहत यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड की स्थापना की गई, जो पाठ्यक्रम, परीक्षा और कामिल व फाजिल डिग्री की निगरानी करता है।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय: इसने अनुच्छेद-14, अनुच्छेद-15 और अनुच्छेद-21-A के उल्लंघन और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा की कमी का हवाला देते हुए यूपी मदरसा अधिनियम को रद्द कर दिया।
    • उच्च न्यायालय ने मदरसा छात्रों को नियमित उत्तर प्रदेश स्कूलों में शामिल करने का आदेश दिया।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय के धर्मनिरपेक्षता संबंधी तर्क पर प्रतिक्रिया: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संवैधानिक वैधता को केवल मूल ढाँचे के उल्लंघन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है।
    • किसी कानून को अवैध ठहराने के लिए यह आवश्यक है कि वह धर्मनिरपेक्षता से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का स्पष्ट उल्लंघन करता हो।

शिक्षा को विनियमित करने का राज्य का अधिकार

  • राज्य मदरसा शिक्षा को विनियमित कर सकता है ताकि छात्रों के लिए योग्यता मानकों को सुनिश्चित किया जा सके, जिससे उन्हें समाज में प्रभावी रूप से भाग लेने की अनुमति मिल सके।
  • अधिनियम मदरसा बोर्ड को दैनिक प्रशासन में हस्तक्षेप किए बिना पाठ्यक्रम, शिक्षक योग्यता और बुनियादी ढाँचे के मानकों को निर्धारित करने की अनुमति देता है।

अनुच्छेद-30 के तहत अल्पसंख्यक अधिकार

  • अनुच्छेद-30 अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार प्रदान करता है, लेकिन यह अधिकार पूर्ण नहीं है।
  • राज्य अल्पसंख्यक अधिकारों को संतुलित करते हुए शैक्षिक मानकों को सुनिश्चित करने के लिए नियम लागू कर सकता है।

प्रविष्टि 25 के अंतर्गत ‘शिक्षा’ की व्याख्या

  • समवर्ती सूची की प्रविष्टि 25 में “शिक्षा” शब्द का व्यापक अर्थ है, जिसमें धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक दोनों तरह की शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थान शामिल हैं।
  • मान्यता प्राप्त मदरसे मुख्य रूप से शिक्षा देने के उद्देश्य से बनाए गए हैं और इसलिए वे प्रविष्टि 25 के दायरे में आते हैं।

विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार धर्मनिरपेक्ष मानक

  • अनुच्छेद-21A (शिक्षा का अधिकार) शैक्षणिक संस्थानों के प्रशासन के लिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों के साथ संरेखित है।
  • धर्मनिरपेक्ष मानक: मदरसा बोर्ड संस्थान की अल्पसंख्यक स्थिति को प्रभावित किए बिना धर्मनिरपेक्ष शिक्षा मानक निर्धारित कर सकता है।
  • धार्मिक शिक्षा [अनुच्छेद-28(3)]: अनुच्छेद-28(3) अल्पसंख्यक संस्थानों में छात्रों को धार्मिक शिक्षा या पूजा के लिए मजबूर किए जाने से बचाता है, अगर संस्थान राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त है या सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित है।

संदर्भ

शीतकालीन सत्र 25 नवंबर से 20 दिसंबर, 2024 तक चलेगा, जो संसदीय कार्य पर निर्भर करेगा।

अपेक्षित मुद्दे तथा घटनाएँ 

  • जम्मू-कश्मीर राज्य का दर्जा (J&K Statehood): नई विधानसभा के गठन के बाद जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा दिए जाने पर चर्चा और पिछले कार्यकाल से खाली पड़े लोकसभा में उपसभापति पद की माँग से संबंधित मुद्दों पर चर्चा की जाएगी।
  • विदेश नीति संबंधी विषय: इजरायल-फिलिस्तीन और रूस-यूक्रेन संघर्षों के बारे में भारत के रुख पर संभावित बहस हो सकती है।
  • जनगणना और जाति जनगणना: आगामी जनगणना और जाति जनगणना के संभावित समावेश पर अपेक्षित प्रश्नों पर चर्चा हो सकती है।
  • एक राष्ट्र, एक चुनाव: हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकृत एक राष्ट्र- एक चुनाव के इस प्रस्ताव पर स्पष्टता की माँग कर सकता है।
  • वक्फ (संशोधन) विधेयक: संयुक्त समिति द्वारा इस सत्र के दौरान अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने की उम्मीद है।
  • संविधान दिवस समारोह: संविधान को अपनाने की 75वीं वर्षगाँठ मनाने के लिए 26 नवंबर को संविधान सदन के सेंट्रल हॉल में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा।

संबंधित संवैधानिक अनुच्छेद

  • अनुच्छेद-79: राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर एक द्विसदनीय विधायिका की स्थापना करता है।
  • अनुच्छेद-85: संसद को आहूत करने, स्थगित करने और भंग करने का प्रावधान करता है।
  • अनुच्छेद-100: दोनों सदनों के लिए मतदान और कोरम की आवश्यकताओं को निर्दिष्ट करता है।

भारत में संसद के सत्र

  • भारत की संसद का कामकाज सत्रों की एक शृंखला द्वारा संचालित होता है, जिसमें संसद सदस्य (Members of Parliament) देश को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों पर चर्चा, बहस और कानून बनाने के लिए मिलते हैं।
  • इन सत्रों को निर्देशित करने वाले संवैधानिक प्रावधान मुख्य रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद-85 में उल्लिखित हैं।

संसद को समन करना 

  • संविधान का अनुच्छेद-85 राष्ट्रपति को संसद के प्रत्येक सदन को आहूत करने का अधिकार देता है।
    • यह संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति की सिफारिश पर किया जाता है। मंजूरी मिलने के बाद, सांसदों को आधिकारिक तौर पर राष्ट्रपति के नाम पर बुलाया जाता है।
  • आवृत्ति: संविधान में यह अनिवार्य किया गया है कि दो सत्रों के बीच छह महीने से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि संसद वर्ष में कम-से-कम दो बार बैठक करे।
  • परंपरा: यद्यपि संविधान में कोई निश्चित समय-सारिणी नहीं दी गई है, लेकिन स्थापित परंपराओं के अनुसार, संसद आम तौर पर प्रत्येक वर्ष तीन सत्रों के लिए बैठक करती है।

तीन संसदीय सत्र

  • बजट सत्र (जनवरी-अप्रैल/मई): पहला तथा सबसे लंबा सत्र, यह आमतौर पर जनवरी के अंतिम सप्ताह में शुरू होता है और अप्रैल या मई की शुरुआत तक समाप्त हो जाता है।
    • संसदीय समितियों को बजटीय प्रस्तावों की जाँच करने का अवसर देने के लिए बीच में अवकाश रखा जाता है।
  • मानसून सत्र (जुलाई-अगस्त): यह सत्र लगभग तीन सप्ताह तक चलता है और इसमें विभिन्न विधायी मामलों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
  • शीतकालीन सत्र (नवंबर-दिसंबर): यह सबसे छोटा सत्र है, जो आमतौर पर नवंबर से दिसंबर तक आयोजित होता है।

विशेष सत्र

  • विशेष सत्र एक अनिर्धारित सत्र होता है, जिसे तीन नियमित वार्षिक सत्रों (बजट, मानसून और शीतकालीन) के अलावा राष्ट्रीय महत्त्व के जरूरी मामलों या विशिष्ट मुद्दों पर विचार करने के लिए बुलाया जाता है।
    • इसे सरकार राष्ट्रपति की मंजूरी से बुलाती है और यह एक पूर्व-निर्धारित एजेंडे पर ध्यान केंद्रित करता है, जिससे केंद्रित बहस और त्वरित विधायी कार्रवाई की अनुमति मिलती है।

प्रमुख संसदीय शब्दावली 

  • समन (Summoning): समन का तात्पर्य सभी सदस्यों को एक सत्र के लिए इकट्ठा होने के लिए बुलाने की आधिकारिक प्रक्रिया से है।
  • स्थगन (Adjournment): स्थगन अस्थायी रूप से सदन की बैठक को निलंबित कर देता है, अगली बैठक (घंटे, दिन या सप्ताह) के लिए समय निर्दिष्ट करता है।
    • यदि अगली बैठक के लिए कोई निर्दिष्ट तिथि नहीं है, तो इसे अनिश्चित काल के लिए स्थगन कहा जाता है।
  • सत्रावसान: सत्रावसान सत्र के आधिकारिक समापन को दर्शाता है। जबकि राज्यसभा (काउन्सिल ऑफ स्टेट) एक स्थायी निकाय है, और इसे भंग नहीं किया जा सकता है, सत्रावसान इसके वर्तमान सत्र को समाप्त कर देता है।
    • लोकसभा (लोगों का सदन) में सत्रावसान सत्र को समाप्त कर देता है, लेकिन सदन को भंग नहीं करता है।
  • कोरम: कोरम किसी भी सदन की बैठक आयोजित करने के लिए उपस्थित होने के लिए आवश्यक सांसदों की न्यूनतम संख्या है।
    • संवैधानिक आवश्यकता: कोरम के लिए कुल संख्या का दसवाँ हिस्सा आवश्यक है।
    • लोकसभा: न्यूनतम 55 सदस्य
    • राज्यसभा: न्यूनतम 25 सदस्य।

सत्र का महत्त्व 

  • संसद के सत्र भारत की विधायी प्रक्रिया के नियमित कामकाज को सुनिश्चित करते हैं, जो राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए परंपराओं और संवैधानिक प्रावधानों द्वारा निर्देशित होते हैं।
  • संरचित बैठकों के माध्यम से, संसद बजटीय आवंटन की जाँच करती है, महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कानून बनाती है और कार्यपालिका पर नियंत्रण और संतुलन बनाए रखती है, जिससे भारत में सर्वोच्च विधायी निकाय के रूप में उसका संवैधानिक जनादेश पूरा होता है।

संसद की कम उत्पादकता के कारण

  • विपक्षी दलों द्वारा बार-बार व्यवधान और विरोध प्रदर्शन।
  • सत्तारूढ़ दल के बहुमत के बावजूद प्रमुख मुद्दों पर आम सहमति का अभाव।
  • छोटे सत्र बहस और चर्चा के लिए समय सीमित करते हैं।

कम उत्पादकता के निहितार्थ

  • कराधान, बुनियादी ढाँचे और सामाजिक कल्याण पर महत्त्वपूर्ण कानून बनाने में देरी।
  • सरकार की जवाबदेही और निगरानी में बाधा।
  • लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का भरोसा कम होता है।
  • संसाधनों की बर्बादी और अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव।

आगे की राह

  • सांसदों के बीच सम्मान और व्यावसायिकता की संस्कृति को बढ़ावा देना।
  • नीतिगत मामलों पर रचनात्मक संवाद और बहस को बढ़ावा देना।
  • कड़ी पूछताछ और जाँच के माध्यम से निगरानी को मजबूत करना।
  • सांसदों के लिए समय पर और पारदर्शी सूचना तक पहुँच सुनिश्चित करना।

संदर्भ

स्वास्थ्य समूहों तथा उपचार कार्यकर्ताओं का तर्क है कि दुर्लभ बीमारियों में पेटेंट एकाधिकार सस्ती दवा तक पहुँच को प्रतिबंधित कर रहा है, विशेषकर निम्न और मध्यम आय वाले देशों (Low and Middle Income Countries- LMIC) के रोगियों के लिए।

स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी (Spinal Muscular Atrophy- SMA)

  • SMA एक आनुवंशिक विकार है, जो मांसपेशियों की कमजोरी और शोष (Atrophy) का कारण बनता है।
  • कारण: SMN1 जीन में उत्परिवर्तन के कारण सर्वाइवल मोटर न्यूरॉन (Survival Motor Neuron- SMN) प्रोटीन की कमी हो जाती है।
  • प्रकार: शुरुआत एवं गंभीरता के आधार पर चार प्रकार (टाइप 1-4), जिसमें टाइप 1 सबसे गंभीर है।
  • लक्षण: मांसपेशियों की कमजोरी, खराब मोटर फ़ंक्शन, श्वसन संबंधी समस्याएँ और निगलने में कठिनाई।
  • उपचार: न्यूसिनर्सन (Nusinersen), जीन थेरेपी और सहायक देखभाल।
  • वंशानुक्रम: ऑटोसोमल रिसेसिव (Autosomal Recessive); माता-पिता में उत्परिवर्तित जीन की एक प्रति होती है।

संबंधित तथ्य 

  • रोश की विधिक कार्रवाई (Roche’s Legal Action): रोश ने पेटेंट उल्लंघन का हवाला देते हुए नैटको फार्मा (Natco Pharma) को ‘स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी’ (Spinal Muscular Atrophy- SMA) की दवा रिसडिप्लैम के जेनेरिक संस्करण का उत्पादन करने से रोकने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा दायर की है।
  • मूल्य निर्धारण में असमानता: रोश रिसडिप्लैम के लिए प्रति बोतल लगभग ₹6 लाख चार्ज करता है, जबकि उत्पादन लागत से पता चलता है कि इसे सालाना अनुमानित ₹3,024 पर उपलब्ध कराया जा सकता है।
  • पेटेंट अवधि: रिसडिप्लैम के लिए रोश का पेटेंट वर्ष 2035 तक है, जो प्रतिस्पर्द्धी मूल्य निर्धारण और अधिक किफायती जेनेरिक तक पहुँच को सीमित करता है।
  • रोश का तर्क: रोश स्वास्थ्य सेवा नवाचार और रोगियों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए अपने दायित्व पर जोर देता है, जबकि यह भी मानता है कि भविष्य की चिकित्सा प्रगति को बनाए रखने के लिए अपने पेटेंट की सुरक्षा करना आवश्यक है।

स्वास्थ्य समूह तथा कार्यकर्ताओं की चिंताएँ 

  • जनहित जोखिम में: स्वास्थ्य समूहों का तर्क है कि रिसडिप्लैम पर रोश का एकाधिकार किफायती पहुँच को सीमित करता है, जिससे जनहित और रोगी के स्वास्थ्य को जोखिम होता है।
  • स्थानीय स्वास्थ्य सेवा रणनीतियों पर प्रभाव: यह एकाधिकार भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के घरेलू उत्पादन और थोक खरीद रणनीतियों का उपयोग करके उपचार लागत को कम करने के प्रयासों में बाधा डाल सकता है।

दुर्लभ रोग (Rare Disease) क्या है?

  • दुर्लभ रोग कम व्यापकता वाली स्वास्थ्य स्थिति है, जो सामान्य आबादी में अन्य प्रचलित बीमारियों की तुलना में कम संख्या में लोगों को प्रभावित करती है।
  • भारत में वैश्विक दुर्लभ रोग घटनाओं का एक-तिहाई हिस्सा है, जिसमें 450 से अधिक पहचानी गई बीमारियाँ हैं।
  • उदाहरण के रूप में ‘स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी’ (Spinal Muscular Atrophy) और ‘गौचर रोग’ (Gaucher’s Disease), म्यूकोपॉलीसेकेराइडोसिस टाइप 1 (Mucopolysaccharidosis Type 1) और व्हिपल रोग (Whipple’s)।

अन्य दुर्लभ बीमारियों से संबंधित समस्याएँ 

  • सिस्टिक फाइब्रोसिस (CF) दवा तक पहुँच: पेटेंट संबंधी बाधाओं के कारण भारत में CFTR मॉड्यूलेटर [एलेक्साकाफ्टर (Elexacaftor)/टेजाकाफ्टर (Tezacaftor)/इवाकाफ्टर (Ivacaftor)] की उपलब्धता नहीं हो पा रही है, जो सिस्टिक फाइब्रोसिस (Cystic Fibrosis- CF) के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपचार है। पेटेंट धारक वर्टेक्स फार्मास्यूटिकल्स ने CF दवा को भारतीय  FDA मे पंजीकृत नहीं कराया है, जिसके कारण मरीजों को इस दवा को व्यक्तिगत रूप से आयात करना पड़ता है, जिसकी लागत प्रति वर्ष 1 करोड़ रुपये होती है।
  • इन मॉड्यूलेटरों का जेनेरिक उत्पादन अर्जेंटीना में शुरू हो गया है, लेकिन पेटेंट प्रतिबंधों के कारण भारतीय मरीजों को इसकी सुविधा नहीं मिल पा रही है।

दुर्लभ रोगों के लिए पेटेंट एकाधिकार के पक्ष और विपक्ष

पक्ष

विपक्ष

  • नवाचार को प्रोत्साहित करता है: पेटेंट दवा कंपनियों को दुर्लभ बीमारियों के लिए अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) में भारी निवेश करने के लिए एक मजबूत प्रोत्साहन प्रदान करते हैं, जिनके संभावित बाजार अक्सर छोटे होते हैं।
  • निवेश की रक्षा करता है: पेटेंट कंपनियों को अपने महत्त्वपूर्ण आरएंडडी लागतों को पुनः प्राप्त करने की अनुमति देता है, निवेश पर वापसी सुनिश्चित करता है और आगे के नवाचार को प्रोत्साहित करता है।
  • प्रतिस्पर्द्धा को प्रोत्साहित करता है: हालाँकि पेटेंट अस्थायी एकाधिकार प्रदान करते हैं, वे समय के साथ बेहतर उपचार और कम लागत विकसित करने के लिए कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को भी बढ़ावा देते हैं।
  • उच्च दवा मूल्य: पेटेंट एकाधिकार के कारण दवा की कीमतें बढ़ सकती हैं, जिससे कई रोगियों के लिए उपचार उपलब्ध नहीं हो पाते, विशेषकर कम आय वाले देशों में।
  • सीमित पहुँच: पेटेंट द्वारा दिए गए विशेष अधिकार जीवन रक्षक दवाओं तक पहुँच को सीमित कर सकते हैं, विशेषकर जरूरतमंद रोगियों के लिए।
  • जेनेरिक प्रतिस्पर्द्धा में बाधाएँ: पेटेंट जेनेरिक दवाओं के प्रवेश में देरी कर सकते हैं, जो आम तौर पर अधिक किफायती होती हैं, जिससे रोगियों की पहुँच सीमित हो जाती है।
  • दुरुपयोग की संभावना: पेटेंट धारक अपने एकाधिकार को बढ़ाने और उच्च मूल्य बनाए रखने के लिए एवरग्रीनिंग जैसी प्रतिस्पर्द्धा-विरोधी प्रथाओं में संलग्न हो सकते हैं।

आगे की राह

  • मूल्य नियंत्रण: दुर्लभ रोगों के उपचारों पर कठोर मूल्य नियंत्रण लागू करना ताकि उन्हें रोगियों के लिए वहनीय बनाया जा सके।
  • अनिवार्य लाइसेंसिंग: जेनेरिक निर्माताओं को पेटेंट दवाओं के किफायती संस्करण बनाने की अनुमति देने के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग का उपयोग करना।
  • स्वास्थ्य बीमा कवरेज: रोगियों पर वित्तीय बोझ को कम करने के लिए दुर्लभ रोगों के लिए व्यापक स्वास्थ्य बीमा कवरेज सुनिश्चित करना।
  • वित्तीय प्रोत्साहन: जेनेरिक निर्माताओं को किफायती दुर्लभ रोग उपचारों के विकास और उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करना।
  • नियामक समर्थन: सस्ती दवाओं तक पहुँच में तेजी लाने के लिए जेनेरिक दवा अनुमोदन के लिए नियामक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना।
  • वैश्विक सहयोग: अंतरराष्ट्रीय भागीदारी के माध्यम से दुर्लभ रोग अनुसंधान और उपचार में ज्ञान, संसाधन और नैदानिक ​​विशेषज्ञता को साझा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना।
  • वैश्विक पहुँच पहल: विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देशों में किफायती दुर्लभ रोग उपचारों तक पहुँच का विस्तार करने के उद्देश्य से वैश्विक पहलों का समर्थन करना।

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निजी हितधारकों के स्वामित्व वाला प्रत्येक संसाधन संविधान के अनुच्छेद-39(b) के तहत ‘सार्वजनिक कल्याण’ (Common Good) के लिए सरकार द्वारा उपयोग योग्य नहीं है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-39(b) पर सर्वोच्च न्यायालय के संबंधित निर्णय

  • कर्नाटक राज्य बनाम श्री रंगनाथ रेड्डी मामला (वर्ष 1977)
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि निजी स्वामित्व वाले संसाधन ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों’ के अंतर्गत नहीं आते हैं।
    • इस निर्णय पर न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने असहमति जताई थी।
  • वर्ष 1977 रंगनाथ रेड्डी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में कृष्ण अय्यर की असहमति: न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने यह व्याख्या प्रस्तुत की थी कि निजी हितधारकों के स्वामित्व वाले संसाधन ‘समुदाय के भौतिक संसाधन’ (Material Resources of the Community) के रूप में कार्य कर सकते हैं।
  • संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल मामला (वर्ष 1983): सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीश कृष्ण अय्यर के विचार की पुष्टि की तथा कहा कि निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को समुदाय के भौतिक संसाधन माना जाना चाहिए।
  • मफतलाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत संघ मामला (वर्ष 1996): उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-39(b) के तहत भौतिक संसाधनों में प्राकृतिक, भौतिक, चल तथा अचल संपत्ति सहित सार्वजनिक एवं निजी दोनों संसाधन शामिल हैं।

संबंधित तथ्य

  • सर्वोच्च न्यायालय की 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने बहुमत के निर्णय में राज्य की अधिग्रहण की ऐसी शक्ति को खारिज कर दिया।

पृष्ठभूमि

  • याचिका के आधार पर संवैधानिक पीठ को संदर्भित किया गया: संवैधानिक पीठ को भेजा गया यह संदर्भ संपत्ति मालिक संघ (Property Owners Association- POA) सहित विभिन्न पक्षों द्वारा दायर याचिकाओं पर आधारित था। 
  • याचिकाकर्ताओं ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-39 (b) और अनुच्छेद-31 C की संवैधानिक योजनाओं के परिप्रेक्ष्य में राज्य द्वारा निजी संपत्तियों पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है।
    • वर्ष 1992 में संपत्ति मालिक संघ (POA) द्वारा दायर मुख्य याचिका सहित कुल 16 याचिकाओं पर विचार किया गया।
    • मामले को तीन बार पाँच और सात न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंचों को भेजा गया था।
    • 20 फरवरी, 2002 को मामले को 9 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ को भेजा गया था।

संपत्ति अधिकार (Property Rights) के बारे में

  • गुरुदत्त शर्मा बनाम बिहार राज्य मामले में (वर्ष 1961): सर्वोच्च न्यायालय ने संपत्ति को ‘अधिकारों के समूह’ (Bundle of Rights) के रूप में परिभाषित किया।
    • मूर्त संपत्ति के मामले में, इसमें शामिल होंगे: स्वामित्व का अधिकार (Right of Possession), उपभोग का अधिकार (Right to Enjoy), सुरक्षित रखने का अधिकार (Right to Retain), हस्तांतरित करने का अधिकार (Right to Alienate), नष्ट करने का अधिकार (Right to Destroy) आदि।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत व्याख्या: इस तथ्य के बावजूद कि मौलिक अधिकार के रूप में संपत्ति के अधिकार को निरस्त कर दिया गया है, इस अधिकार की व्याख्या अभी भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक पहलू के रूप में की जा सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रमुख मुद्दे

  • अनुच्छेद-31C का अस्तित्व: क्या अनुच्छेद-31C, जो संपत्ति के अधिकार से संबंधित प्रमुख संवैधानिक प्रावधान है, बाद के संशोधनों और संशोधनों को खारिज करने वाले न्यायालय के निर्णयों के बावजूद अस्तित्व में है।
    • वर्ष 2024 में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि क्या सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1978-1980 के बीच अनुच्छेद-31C को पूरी तरह से निरस्त कर दिया था या फिर केशवानंद भारती के बाद की स्थिति को बहाल कर दिया था, जिसमें अनुच्छेद-39(b) और अनुच्छेद-39 (C) संरक्षित रहे थे।
  • अनुच्छेद-39(b) की व्याख्या: क्या सरकार निजी स्वामित्व वाली संपत्तियों का अधिग्रहण तथा पुनर्वितरण कर सकती है, यदि उन्हें संविधान के अनुच्छेद-39(b) में उल्लिखित ‘समुदाय के भौतिक संसाधन’ (Material Resources of the Community) के रूप में माना जाता है।

न्यायमूर्ति धूलिया की असहमतिपूर्ण राय

  • निर्णय को गैर-संपूर्ण कारकों तक सीमित करता है: बहुमत के निर्णय का मानना ​​है कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधन ‘समुदाय के भौतिक संसाधन’ नहीं हैं, ‘विधायिका के दायरे को कारकों की एक गैर-संपूर्ण सूची तक सीमित करता है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि किन संसाधनों को भौतिक संसाधन माना जा सकता है,’ और, ‘इस पूर्व-निर्धारित निर्धारण की कोई आवश्यकता नहीं है।’
  • विधायिका का विशेषाधिकार: यह निर्णय करना विधानमंडल का कार्य है कि सामान्य कल्याण के लिए भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण किस प्रकार वितरित किया जाए।

सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ

  • समाजवादी अर्थव्यवस्था से बाजार अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव: मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने बहुमत की राय में न्यायमूर्ति अय्यर के विचार को ‘एक विशेष विचारधारा’ (Particular Ideology) के रूप में खारिज कर दिया।
    • न्यायालय ने कहा कि भारत समाजवाद से उदारीकरण तथा फिर बाजार आधारित सुधारों की ओर बढ़ चुका है।
    • भारतीय अर्थव्यवस्था पहले ही सार्वजनिक निवेश के प्रभुत्व से सार्वजनिक तथा निजी निवेश के सह-अस्तित्व में परिवर्तित हो चुकी है।
  • कठोर आर्थिक सिद्धांत: यह व्याख्या कि प्रत्येक निजी स्वामित्व वाली संपत्ति का उपयोग, राज्य द्वारा ‘सार्वजनिक कल्याण के लिए’ (Subserve the Common Good) भौतिक संसाधन के रूप में किया जा सकता है, एक ‘कठोर आर्थिक सिद्धांत’ (Rigid Economic Theory) की परिकल्पना करता है, जो निजी संसाधनों पर राज्य के अधिक नियंत्रण की वकालत करता है। 
  • आर्थिक लोकतंत्र और संवैधानिक ढाँचा: इस निर्णय ने भारतीय संविधान में निहित आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा की पुष्टि की।
    • इसने स्वीकार किया कि आर्थिक संसाधनों को विनियमित करने में राज्य की भूमिका है, लेकिन इस भूमिका का निर्वहन संयम के साथ तथा लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिए।
    • निजी संपत्ति के राज्य अधिग्रहण को प्राथमिकता देने वाली एकल विचारधारा को लागू करना हमारे संवैधानिक ढाँचे के मूल्यों एवं सिद्धांतों को कमजोर करेगा।
  • अनुच्छेद-39(b) की रूपरेखा: अनुच्छेद-39(b) नीति को अनिवार्य बनाता है, जो समुदाय के भौतिक संसाधनों के स्वामित्व एवं नियंत्रण को निर्देशित करता है ताकि सार्वजनिक कल्याण के लिए सर्वोत्तम वितरण किया जा सकता है।
    • विस्तृत दृष्टिकोण नहीं माना जा सकता है: न्यायालय ने माना कि ‘सैद्धांतिक रूप से’ (Theoretically) निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को समुदाय के भौतिक संसाधनों के रूप में माना जा सकता है, हालाँकि एक विस्तृत दृष्टिकोण नहीं लिया जा सकता है।
  • ‘भौतिक संसाधनों’ के प्रति संदर्भ आधारित दृष्टिकोण: न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद-39(b) में ‘संसाधन’ शब्द को संदर्भ के अनुसार देखा जाना चाहिए।
    • किसी संसाधन को समुदाय के भौतिक संसाधन के रूप में प्राप्त किया जा सकता है या नहीं, यह कई ‘गैर-संपूर्ण कारकों’ पर निर्भर करेगा जैसे:-
      • संसाधन की प्रकृति एवं विशेषताएँ।
      • क्या इसका अधिग्रहण समुदाय के कल्याण के लिए आवश्यक है?
      • संसाधन की कमी की मात्रा।
      • कुछ निजी व्यक्तियों या संस्थाओं के हाथों में संसाधन के संकेंद्रण के परिणाम।
    • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि निजी स्वामित्व वाले प्रत्येक संसाधन को स्वचालित रूप से सार्वजनिक उपयोग या सार्वजनिक कल्याण के लिए आवश्यक नहीं माना जा सकता है।
      • उदाहरण के लिए, मकान तथा वाहन जैसी निजी परिसंपत्तियों को केवल इसलिए समुदाय के संसाधन के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता क्योंकि वे निजी स्वामित्व में हैं।
  • अनुच्छेद-31C के अस्तित्व पर: उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-31C पर केशवानंद मामले के बाद की स्थिति बहाल हो गई है, यानी राज्य सार्वजनिक कल्याण के लिए भौतिक संसाधनों को पुनर्वितरित करने का प्रयास कर सकता है [भारतीय संविधान के अनुच्छेद-39(b) के तहत]। 
    • यह संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं कर सकता, जिसमें निजी संपत्ति का अधिकार (44वें संशोधन के बाद अनुच्छेद-300A के तहत संरक्षित) भी शामिल है।
    • राज्य को निजी संपत्ति का अधिग्रहण करते समय उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए मौलिक अधिकारों का सम्मान करना चाहिए।

संपत्ति के अधिकारों पर संवैधानिक दृष्टिकोण

  • अनुच्छेद-19(1)(f): मूल रूप से संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी दी गई थी।
  • अनुच्छेद-31: विधि की उचित प्रक्रिया के बिना संपत्ति से वंचित करने के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान की गई।
  • मौलिक अधिकार मामला/ केशवानंद भारती मामला (वर्ष 1973): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संपत्ति का अधिकार संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा नहीं है और इसलिए,
    • संसद संबंधित व्यक्ति की निजी संपत्ति को संबंधित अच्छे एवं सार्वजनिक हित के लिए अधिग्रहित या नियंत्रित कर सकती है।
  • भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची: संपत्ति के अधिकार से संबंधित कानूनों सहित कुछ कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाती है।
  • वर्ष 1978 का 44वाँ संशोधन अधिनियम: इसने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों से हटा दिया और इसे कानूनी अधिकार के रूप में अनुच्छेद-300A के अंतर्गत रखा।
  • अनुच्छेद-300A: यह मनमाने ढंग से संपत्ति से वंचित करने के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है, लेकिन संपत्ति को मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी नहीं देता है।
  • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy – DPSP): अनुच्छेद-36 से अनुच्छेद-51 कानून बनाने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में कार्य करते हैं, लेकिन ये न्यायालयों में लागू नहीं होते हैं।
    • अनुच्छेद-39(b) राज्य को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देता है कि भौतिक संसाधनों का वितरण सार्वजनिक कल्याण के लिए सर्वोत्तम तरीके से किया जाए।
    • अनुच्छेद-39(c) का उद्देश्य सार्वजनिक कल्याण के लिए धन एवं उत्पादन के साधनों के संकेंद्रण को रोकना है।
  • अनुच्छेद-31C: DPSP को लागू करने वाले कानूनों का संरक्षण
    • अनुच्छेद-31C के तहत, अनुच्छेद-39(b) और अनुच्छेद-39(c) में निदेशक सिद्धांतों को लागू करने वाले कानूनों को अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) या अनुच्छेद-19 (वाक् और सभा जैसी मौलिक स्वतंत्रता) का उल्लंघन करने के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
    • केशवानंद भारती मामले (वर्ष 1973) में, न्यायालय ने अनुच्छेद-31C की वैधता को बरकरार रखा, लेकिन स्पष्ट किया कि ऐसे कानून अभी भी न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं करते हैं।
  • संपत्ति अधिग्रहण के बदले मुआवजे पर उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण: राज्य किसी व्यक्ति की संपत्ति सार्वजनिक उद्देश्य के लिए ले सकता है, लेकिन उसे मुआवजा देना होगा। यह मुआवजा संपत्ति के मूल्य के बराबर होना आवश्यक नहीं है, लेकिन यह उचित होना चाहिए।

राज्य द्वारा धन के पुनर्वितरण के समर्थन में कारण

  • धन का निष्पक्ष और न्यायसंगत वितरण: समाज के सभी वर्गों के सामान्य हितों की पूर्ति करने के लिए धन का निष्पक्ष और न्यायसंगत वितरण आवश्यक है।
  • संपत्ति का सामाजीकरण (Socialisation of Property): व्यक्तिगत स्वामित्व और अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, संपत्ति के सामाजीकरण पर जोर दिया गया है।
    • यह सुनिश्चित करने के लिए कि संपत्ति तथा संसाधन इस तरह वितरित किए जाएँ, जिससे सामूहिक कल्याण का लाभ हो, न कि कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हों।
    • यह दृष्टिकोण सामाजिक न्याय तथा आर्थिक समानता को बढ़ावा देना चाहता है।
  • गरीबी उन्मूलन: हाशिए पर पड़े समूहों के जीवन स्तर को ऊपर उठाता है और गरीबी को कम करता है।
  • सामाजिक अशांति को रोकना: असमानता से प्रेरित तनाव को कम करना और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देना। 
  • संवैधानिक अधिदेश: सभी नागरिकों के कल्याण को बढ़ावा देने और कल्याणकारी राज्य के आदर्श को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक दायित्वों के साथ संरेखित करना।

राज्य द्वारा धन का पुनर्वितरण

  • यह सरकार की उन कार्रवाइयों को संदर्भित करता है, जो अमीरों से गरीबों को धन हस्तांतरित करती है। उदाहरण के रूप में प्रगतिशील कराधान, सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों, सार्वजनिक सेवाओं और धन हस्तांतरण जैसे तरीकों के माध्यम से धन का हस्तांतरण किया जाता है। 
  • इसका लक्ष्य आर्थिक असमानता को कम करने और सभी नागरिकों के लिए बुनियादी जीवन स्तर की सुविधाएँ सुनिश्चित करना होता है।

राज्य द्वारा धन के पुनर्वितरण के विरुद्ध कारण

  • संपत्ति अधिकारों का उल्लंघन: संपत्ति का पुनर्वितरण निजी संपत्ति के अधिकार का उल्लंघन माना जा सकता है, जो संविधान द्वारा गारंटीकृत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वामित्व अधिकारों को कमजोर करता है।
  • राज्य ‘प्रतिकूल नियंत्रण’ के माध्यम से स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता: राज्य ‘प्रतिकूल नियंत्रण’ (Adverse Possession) की अवधारणा के माध्यम से निजी संपत्ति पर अतिक्रमण नहीं कर सकता तथा स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता। ऐसा करने से राज्य अतिक्रमणकारी बन जाता है।
    • ‘प्रतिकूल नियंत्रण’ की अवधारणा इस विचार से उपजी है कि भूमि को खाली नहीं छोड़ा जाना चाहिए, बल्कि इसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जाना चाहिए।
    • मूलतः, प्रतिकूल कब्जे का तात्पर्य संपत्ति के प्रतिकूल नियंत्रण से है, जो ‘निरंतर, निर्बाध एवं शांतिपूर्ण’ होना चाहिए।
  • मुक्त बाजार सिद्धांतों का क्षरण: धन पुनर्वितरण अहस्तक्षेप अर्थशास्त्र को कमजोर करता है, जिसके परिणामस्वरूप संसाधनों का कम कुशल आवंटन होता है और समग्र धन सृजन में कमी आती है।
    • राज्य हमेशा मुक्त बाजार की तरह धन के वितरण में उतना प्रभावी नहीं हो सकता है। 
    • व्यवसायों तथा व्यक्तियों को निवेश करने या अपनी गतिविधियों का विस्तार करने के लिए कम प्रोत्साहन मिल सकता है।
  • कड़ी मेहनत तथा नवाचार के प्रति हतोत्साहन: इससे व्यक्तियों की कड़ी मेहनत करने या नवाचार करने की प्रेरणा कम हो सकती है, क्योंकि उन्हें लग सकता है कि उनके प्रयासों को पर्याप्त रूप से पुरस्कृत नहीं किया जा रहा है।
  • बढ़ती निर्भरता: निरंतर पुनर्वितरण से सरकारी सहायता पर निर्भरता बढ़ सकती है, जिससे नागरिकों में आत्मनिर्भरता एवं व्यक्तिगत जिम्मेदारी की भावना कम हो सकती है।
    • यह व्यक्तियों को वित्तीय जोखिम उठाने या गलत निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है, यह जानते हुए कि राज्य इसके परिणामों को कम करने के लिए हस्तक्षेप करेगा।
  • संघर्ष तथा सामाजिक अशांति उत्पन्न करने की संभावना: इससे धनी लोगों में असंतोष उत्पन्न हो सकता है, जिससे विभिन्न आर्थिक वर्गों के बीच सामाजिक विभाजन एवं संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।

राज्य द्वारा संपत्ति के पुनर्वितरण में राज्य के सामने आने वाली चुनौतियाँ

  • कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति: राजनीतिक नेतृत्व में संसाधनों के समान वितरण के लिए नीतियों को लागू करने के लिए दृढ़ संकल्प की कमी हो सकती है, विशेष रूप से निहित स्वार्थों की शक्तिशाली पैरवी के सामने।
  • ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों’ को परिभाषित करने में अस्पष्टता: स्पष्टता का अभाव विभिन्न क्षेत्रों में पुनर्वितरण नीति के सुसंगत अनुप्रयोग में बाधा उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि विभिन्न प्राधिकारियों के पास इस बारे में अलग-अलग विचार हो सकते हैं कि सार्वजनिक कल्याण के लिए पुनर्वितरित किए जाने वाले संसाधनों का क्या अर्थ है।
  • संवैधानिक बाधाएँ: संसाधनों के पुनर्वितरण के प्रयासों को अक्सर भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद-19 (निवास और बसने के अधिकार) के तहत कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • आर्थिक बाधाएँ: भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में, संसाधनों को अर्जित करने और पुनर्वितरित करने की राज्य की राजकोषीय क्षमता सीमित हो सकती है।

आगे की राह 

  • न्यायिक स्पष्टता बढ़ाना: न्यायपालिका को अनुच्छेद-300A के तहत संपत्ति के अधिकारों की स्पष्ट तथा सुसंगत व्याख्या प्रदान करनी चाहिए, विशेष रूप से राज्य के हस्तक्षेप और निजी स्वामित्व की सीमाओं के संबंध में।
  • कमजोर समूहों के लिए संपत्ति अधिकारों को बढ़ावा देना: महिलाओं, आदिवासियों और ग्रामीण आबादी जैसे हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए बेहतर संपत्ति अधिकारों की दिशा में कार्य करना।
    • उदाहरण: अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 का उद्देश्य वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों को मान्यता देना है, लेकिन धीमी गति से कार्यान्वयन के कारण कई लोग अपने स्वामित्व की कानूनी मान्यता से वंचित रह गए है।
  • आर्थिक विकास और संपत्ति अधिकारों में संतुलन: यह सुनिश्चित करना कि आर्थिक विकास के लिए कानून एवं नीतियाँ, जैसे कि बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण, सार्वजनिक कल्याण को संतुलित करते हुए संपत्ति अधिकारों का सम्मान करे।
    • निजी संपत्ति के राज्य अधिग्रहण की व्यापक व्याख्या को अस्वीकार करके, न्यायालय ने आर्थिक लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्त्व की पुनः पुष्टि की है।

निष्कर्ष

भारत में संपत्ति के अधिकार और राज्य की शक्ति पर चर्चा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का यह ऐतिहासिक निर्णय महत्त्वपूर्ण है।

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