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Dec 05 2024

संदर्भ

हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने बेटे हंटर बाइडेन को बिना शर्त क्षमादान प्रदान किया, जिन पर संघीय कर और शस्त्र (बंदूक) संबंधी अपराध दर्ज हैं।

संबंधित तथ्य

  • यह क्षमादान हंटर द्वारा वर्ष 2014 और 2024 के बीच किए गए संभावित संघीय अपराधों पर भी लागू होता है। राष्ट्रपति बाइडेन के इस निर्णय ने बहस शुरू कर दी।
    • यह उनके बेटे को क्षमा न करने की उनकी पिछली सार्वजनिक प्रतिबद्धता के विपरीत है।
  • राष्ट्रपति ने हंटर के विरुद्ध उनके पारिवारिक संबंधों के कारण चुनिंदा अभियोजन का आरोप लगाकर क्षमा को उचित ठहराया है।
    • हालाँकि, आलोचकों ने भाई-भतीजावाद और राजनीतिक पक्षपात के बारे में चिंताएँ जताई हैं।
  • अमेरिका में क्षमादान की शक्ति जॉर्ज वाशिंगटन के समय से ही विवादों में घिरी रही है, जिन्होंने वर्ष 1795 में व्हिस्की विद्रोह के नेताओं को क्षमादान प्रदान किया था। विवादास्पद क्षमादान के उदाहरणों में शामिल हैं:
    • बिल क्लिंटन द्वारा रोजर क्लिंटन को क्षमा करना: वर्ष 2001 में, राष्ट्रपति क्लिंटन ने अपने सौतेले भाई को ड्रग से संबंधित दोषसिद्धि के लिए क्षमा कर दिया था।
    • डोनाल्ड ट्रंप द्वारा चार्ल्स कुशनर को क्षमा करना: वर्ष 2020 में, ट्रंप ने अपने दामाद के पिता को क्षमा कर दिया, जिससे उनके ऊपर पक्षपात के आरोप लगे थे।

क्षमादान शक्ति के बारे में

  • क्षमादान शक्ति से तात्पर्य राज्य या सरकार के प्रमुख में निहित अधिकार से है, जो अपराधों के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्तियों को क्षमादान प्रदान करता है।
  • यह शक्ति सजा से राहत दे सकती है, सजा कम कर सकती है या संबंधित अयोग्यताएँ समाप्त कर सकती है। हालाँकि, क्षमा का अर्थ यह जरूरी नहीं कि दोषसिद्धि का रिकॉर्ड समाप्त कर दिया जाए।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति: संविधान राष्ट्रपति को महाभियोग के मामलों को छोड़कर संघीय अपराधों को क्षमा करने की शक्ति देता है।
  • यह शक्ति व्यापक है, जो कानूनी कार्यवाही से पहले, मुकदमों के दौरान या दोषसिद्धि के बाद क्षमादान जारी करने की अनुमति देती है।
  • भारत में क्षमादान शक्ति: संविधान के अनुच्छेद-72 और अनुच्छेद-161 राष्ट्रपति और राज्यपालों को क्षमा, राहत, प्रशमन, लघुकरण, छूट देने का अधिकार देते हैं।
    • इन शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर किया जाता है।

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्तियों पर प्रमुख निर्णय

  • मारू राम बनाम भारत संघ (1980): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है, यदि इसका प्रयोग मनमाने ढंग से, तर्कहीन रूप से या गलत उद्देश्य से किया जाता है। इसने इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि क्षमादान व्यक्तिगत विवेक का कार्य नहीं है।
  • केहर सिंह बनाम भारत संघ (1989): सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति को क्षमादान देने या अस्वीकार करने के लिए कारण बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने माना कि क्षमादान शक्तियों का प्रयोग करने में राष्ट्रपति के निर्णय को योग्यता के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती, संवैधानिक सीमाओं के भीतर इसकी विवेकाधीन प्रकृति की पुष्टि की।
  • एपुरू सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश सरकार (2006): न्यायालय ने दोहराया कि राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति निरपेक्ष नहीं है और इसे न्यायिक समीक्षा के अधीन लाया जा सकता है।
  • समीक्षा के मानदंड: क्षमादान निर्णयों को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए और उन्हें मनमानी या दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से मुक्त होना चाहिए।
    • इस निर्णय ने क्षमादान के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की संभावना को बढ़ा दिया है।
  • शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत संघ (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि दया याचिकाओं पर निर्णय लेने में देरी मृत्युदंड को कम करने का एक वैध आधार हो सकती है।
    • इसने न्याय प्रशासन में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा शीघ्र निर्णय लेने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है।

क्षमादान की शक्ति की उत्पत्ति और विकास

  • क्षमादान की शक्ति की उत्पत्ति: क्षमादान शक्ति की उत्पत्ति ब्रिटिश शाही दया के विशेषाधिकार से हुई है, जो सम्राट द्वारा प्रयोग किया जाने वाला एक ऐतिहासिक विशेषाधिकार है। प्रारंभ में, इस शक्ति ने मृत्युदंड जैसी कठोर सजाओं के विकल्प प्रदान करने के तरीके के रूप में कार्य किया।
  • क्षमादान की शक्ति का विकास: समय के साथ, क्षमादान की शक्ति क्षमादान देने के लिए एक तंत्र के रूप में विकसित हुई, जिसका प्रयोग अक्सर सरकारी मंत्रियों की सलाह पर किया जाता था।
    • यह बदलाव निरंकुश राजतंत्र से शासन के अधिक संरचित रूप में संक्रमण को दर्शाता है।
  • आधुनिक लोकतंत्रों में भूमिका: समकालीन लोकतंत्रों में, क्षमादान शक्ति प्रतीकात्मक और कार्यात्मक दोनों महत्त्व रखती है।
    • इसका उपयोग न्यायिक त्रुटियों को ठीक करने, कथित अन्याय को संबोधित करने और विशिष्ट मामलों में करुणा प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है।

क्षमादान शक्ति की तुलना: अमेरिकी राष्ट्रपति, भारतीय राष्ट्रपति और भारतीय राज्यपाल

पहलू अमेरिकी राष्ट्रपति भारतीय राष्ट्रपति भारत के राज्यों के  राज्यपाल
संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद II, खंड 2, अमेरिकी संविधान अनुच्छेद-72, भारतीय संविधान अनुच्छेद-161, भारतीय संविधान
प्रयोज्यता केवल संघीय अपराध; महाभियोग मामले शामिल नहीं हैं। संघीय कानूनों, सैन्य न्यायालय और मृत्यु दंड के अंतर्गत अपराध राज्य कानून के तहत अपराध; मृत्युदंड और कोर्ट मार्शल को छोड़कर
क्षमा का समय दोषसिद्धि से पहले या बाद में दी जा सकती है। केवल दोषसिद्धि के बाद केवल दोषसिद्धि के बाद
विवेक का स्तर पूर्णतः; सलाह या अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं कैबिनेट की सलाह पर आधारित; सीमित विवेकाधिकार राज्य सरकार की सलाह पर आधारित; सीमित विवेकाधिकार
शक्ति की सीमा व्यापक एवं स्वतंत्र; इसमें आत्म-क्षमा भी शामिल है। सीमित; सरकार से स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकता है।  राज्य कानून अपराधों तक सीमित; स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकते हैं। 
क्षमादान के प्रकार क्षमा, दंडविराम, विनिमय, छूट, आम माफी क्षमा, विनिमय, दंडविराम, छूट, राहत क्षमा, विनिमय, दंडविराम, छूट, राहत
कोर्ट मार्शल मामले कोई प्रावधान नहीं शामिल शामिल नहीं
मृत्यु दंड क्षमा कर सकते हैं? क्षमा कर सकते हैं? क्षमा नहीं कर सकता। वह केवल मृत्यु दंड को निलंबित/छोड़/छूट दे सकता है।
न्यायिक समीक्षा न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं मनमाना, दुर्भावनापूर्ण या तर्कहीन होने पर न्यायिक समीक्षा के अधीन मनमाना, दुर्भावनापूर्ण या तर्कहीन होने पर न्यायिक समीक्षा के अधीन
अन्य निकायों की भूमिका कोई अनिवार्य परामर्श नहीं मंत्रिपरिषद से सलाह की आवश्यकता है। राज्य मंत्रिपरिषद से सलाह की आवश्यकता है।
आत्म-क्षमा संभव (विवादास्पद और अप्रमाणित) लागू नहीं लागू नहीं

क्षमादान शक्ति की चुनौतियाँ और आलोचना

  • लोकतांत्रिक सिद्धांतों के साथ टकराव: राजतंत्र में निहित, क्षमा करने की शक्ति कानून के शासन और शक्तियों के पृथक्करण का खंडन कर सकती है तथा अनियंत्रित सत्ता की धारणा को बढ़ावा दे सकती है।
  • न्याय में देरी: दया याचिकाओं में अक्सर राजनीतिक उद्देश्यों से प्रभावित देरी या अस्वीकृति का सामना करना पड़ता है।
  • राजनीतिक प्रभाव: दया याचिका के फैसले अक्सर राजनीतिक विचारों से प्रभावित होते हैं, जिससे न्याय में देरी होती है और निष्पक्षता समाप्त हो जाती है।
  • भाई-भतीजावाद और दुरुपयोग: राष्ट्रपति बाइडेन द्वारा अपने बेटे को क्षमा करने जैसे उदाहरण पक्षपात के बारे में चिंताएँ उत्पन्न करते हैं, जिससे संवैधानिक निष्पक्षता में जनता का विश्वास कम होता है।

क्षमा शक्ति का विकल्प

  • यूनाइटेड किंगडम में, आपराधिक मामलों की समीक्षा आयोग (Criminal Cases Review Commission-CCRC) की स्थापना ने दया के शाही विशेषाधिकार पर निर्भरता को कम कर दिया है।
  • CCRC न्याय की संभावित चूकों की पारदर्शी तरीके से जाँच करता है, जिससे त्रुटियों को सुधारने का अधिक वस्तुनिष्ठ तरीका उपलब्ध होता है।

आगे की राह

  • जब तक क्षमा करने की शक्ति संवैधानिक ढाँचे का हिस्सा बनी रहेगी, तब तक इसका प्रयोग पूरी ईमानदारी से किया जाना चाहिए।
  • लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का भरोसा बनाए रखने के लिए, यह शक्ति पारदर्शी और भाई-भतीजावाद या पक्षपात से मुक्त होनी चाहिए।
  • क्षमा करने को वास्तविक न्यायिक त्रुटियों को सुधारने के लिए एक तंत्र के रूप में काम करना चाहिए।
  • यह शक्ति न्यायिक समीक्षा सहित जाँच और संतुलन के अधीन होनी चाहिए।

संदर्भ 

हाल ही में, संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UN Convention to Combat Desertification- UNCCD) और संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय जल, पर्यावरण और स्वास्थ्य संस्थान (UNU-INWEH) ने सऊदी अरब के रियाद में UNCCD के ‘16वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (COP16) में ‘सूखे का अर्थशास्त्र: सूखे से निपटने के लिए प्रकृति आधारित समाधानों में निवेश लाभदायक है’ (Economics of drought: Investing in nature-based solutions for drought resilience proaction pays) नामक रिपोर्ट जारी की।

UNCCD के ‘16वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (COP16)

  • UNCCD के ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (COP16) का 16वाँ सत्र 2 से 13 दिसंबर, 2024 तक रियाद, सऊदी अरब में आयोजित किया जाएगा।
    • यह सम्मेलन की 30वीं वर्षगाँठ के साथ संरेखित है।
    • यह पहली बार होगा जब UNCCD COP मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका (Middle East and North Africa-MENA) क्षेत्र में आयोजित किया जाएगा, जो मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे के प्रभावों को पहले से प्रभावित है।

संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UN Convention to Combat Desertification- UNCCD) के बारे में

  • यह मरुस्थलीकरण और सूखे के प्रभावों से निपटने के लिए स्थापित एकमात्र कानूनी रूप से बाध्यकारी ढाँचा है।
    • यह भूमि क्षरण के प्रभाव को कम करने और भूमि की रक्षा करने के लिए एक बहुपक्षीय प्रतिबद्धता है ताकि सभी लोगों को भोजन, पानी, आश्रय और आर्थिक अवसर प्रदान कर सकें।
  • यह रियो डी जेनेरियो में वर्ष 1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन के तीन सम्मेलनों में से एक है।
  • वर्ष 1994 में शुरू किया गया। 
  • सदस्य: 197 पक्षकार (196 राष्ट्र + यूरोपीय संघ),
    • भारत ने वर्ष 1994 में इस पर हस्ताक्षर किए तथा वर्ष 1996 में इसका अनुसमर्थन किया।
  • सचिवालय: UNCCD का स्थायी सचिवालय जर्मनी के बॉन में अवस्थित है।
  • सिद्धांत: यह अभिसमय भागीदारी, साझेदारी और विकेंद्रीकरण के सिद्धांतों पर आधारित है।
  • फोकस क्षेत्र: अभिसमय विशेष रूप से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र पारिस्थितिकी तंत्रों को संबोधित करता है, जिन्हें शुष्क भूमि के रूप में जाना जाता है।
  • ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (COP): इसका आयोजन प्रत्येक दो वर्ष में किया जाता है।
  • वित्तीय तंत्र: इसके अनुच्छेद-21 के तहत वर्ष 1994 में स्थापित वैश्विक तंत्र (GM) अभिसमय को लागू करने और मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे को संबोधित करने के लिए वित्तीय संसाधनों को जुटाने की सुविधा प्रदान करता है।
  • UNCCD 2018-2030 रणनीतिक रूपरेखा: यह भूमि क्षरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality-LDN) प्राप्त करने के लिए एक वैश्विक प्रतिबद्धता है।
    • उद्देश्य: इसका उद्देश्य क्षरित भूमि के विशाल विस्तार की उत्पादकता को पुनर्स्थापित  करना, 1.3 बिलियन से अधिक लोगों की आजीविका में सुधार करना और कमजोर आबादी पर सूखे के प्रभावों को कम करना है।

भूमि क्षरण तटस्थता ( Land Degradation Neutrality-LDN) के बारे में

  • LDN एक ऐसी स्थिति है, जहाँ पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक भूमि संसाधन स्थिर रहते हैं या समय के साथ बेहतर होते हैं।
  • इस रणनीति का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा उचित वित्तपोषण और कार्रवाई के साथ वर्ष 2030 तक एक बिलियन हेक्टेयर भूमि को पुनर्स्थापित करना है।
  • 109 देशों ने वर्ष 2030 के लिए स्वैच्छिक LDN लक्ष्य निर्धारित किए हैं।
  • वर्ष 2016 से 2019 के बीच, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय स्रोतों से लगभग 5 बिलियन डॉलर मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे से निपटने के लिए आवंटित किए गए हैं, जिससे 124 देशों में परियोजनाओं को समर्थन मिला है।

UNCCD रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ

  • भूमि क्षरण का स्तर: वर्तमान में, दुनिया की 40% भूमि क्षरित हो चुकी है, जिसका असर वैश्विक स्तर पर 3.2 बिलियन लोगों, विशेष रूप से स्वदेशी समुदायों, ग्रामीण परिवारों, युवाओं और महिलाओं के जीवन पर पड़ रहा है।
  • सूखे की वार्षिक लागत: सूखे की वार्षिक वैश्विक लागत पहले से ही $307 बिलियन से अधिक है, जो भूमि कुप्रबंधन, वनों की कटाई, भूजल अतिदोहन और जलवायु परिवर्तन के कारण है।
  • मानव-प्रेरित सूखा: वर्ष 2000 से मानव-प्रेरित सूखे में 29% की वृद्धि हुई है और अनुमानों से पता चलता है कि वर्ष 2050 तक, दुनिया भर में चार में से तीन लोग इससे प्रभावित हो सकते हैं।
    • सूखे का संबंध केवल वर्षा की कमी से नहीं, बल्कि अस्थिर भूमि और जल प्रबंधन प्रथाओं से भी है।

  • वित्तीय घाटा: भूमि पुनर्स्थापन और सूखा सहनीयता लक्ष्यों को पूरा करने के लिए दुनिया को वर्ष 2025 से 2030 तक सालाना 355 बिलियन डॉलर की आवश्यकता है।
    • वर्तमान निवेश वर्ष 2016 में 37 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2022 में 66 बिलियन डॉलर हो गया है, लेकिन वार्षिक कमी 278 बिलियन डॉलर की बनी हुई है।
    • निजी क्षेत्र वर्तमान में आवश्यक वित्तपोषण का केवल 6% योगदान देता है और निजी निवेश को बढ़ाना आवश्यक है।
  • निष्क्रियता की लागत: भूमि क्षरण से वैश्विक अर्थव्यवस्था को पहले से ही सालाना 878 बिलियन डॉलर का नुकसान हो रहा है, जिसमें कृषि उत्पादकता, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और सूखे से होने वाली क्षति शामिल है।
  • प्रकृति आधारित समाधानों (NbS) के लिए आर्थिक और पर्यावरणीय मामले
    • प्रकृति आधारित समाधान (NbS) जल प्रवाह, भंडारण और आपूर्ति को बढ़ाने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों और मृदा स्वास्थ्य को पुनर्स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
      • उदाहरणों में शामिल हैं: पुनर्वनीकरण, चराई प्रबंधन, और जलग्रहण पुनरुद्धार।
    • NbS का तिगुना लाभांश:
      • सूखे से होने वाले नुकसान और क्षति को कम करना।
      • भूमि और जल उपयोगकर्ताओं की आय बढ़ाना।
      • जलवायु लचीलापन, जैव विविधता और सतत विकास के लिए सह-लाभ उत्पन्न करना।
    • NbS में निवेश किए गए प्रत्येक $1 से $27 तक का लाभ मिलता है, जैसे:
      • किसानों की आय में वृद्धि।
      • मूल्य शृंखला में लचीलापन।
      • दीर्घकालिक आर्थिक लागत में कमी।
    • व्यावसायिक संभावना: वर्ष 2030 तक, NbS $10.1 ट्रिलियन का व्यावसायिक मूल्य उत्पन्न कर सकता है और वैश्विक स्तर पर 395 मिलियन नौकरियाँ उत्पन्न कर सकता है।

भूमि क्षरण के बारे में

  • UNCCD के अनुसार, भूमि क्षरण से तात्पर्य वर्षा आधारित कृषि भूमि, सिंचित कृषि भूमि, चरागाह, वन और वन्य भूमि की जैविक या आर्थिक उत्पादकता और जटिलता में कमी या क्षति से है।

भारत में भूमि क्षरण की स्थिति

भूमि क्षरण के कारण

  • असंवहनीय कृषि पद्धतियाँ: जल संसाधनों का असंवहनीय उपयोग, विशेष रूप से शुष्क या सूखे क्षेत्रों में, मृदा क्षरण और अपरदन को बढ़ावा देता है।
    • असंवहनीय सिंचाई, मीठे जल संसाधनों को कम करती है, विशेष रूप से पंजाब जैसे क्षेत्रों में, जहाँ भूजल निष्कर्षण पुनःपूर्ति स्तर से 165% अधिक है, जिससे लवणीकरण की समस्या भी उत्पन्न होती है।
  • उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग: नाइट्रोजन और फास्फोरस आधारित उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग पोषक तत्त्वों के असंतुलन के कारण पारिस्थितिकी तंत्र को अस्थिर करता है।
    • उदाहरण के लिए, मैक्सिको की खाड़ी के “मृत क्षेत्र” जैसे जल निकायों का सुपोषण उर्वरक अपवाह से संबंधित है।
  • जलवायु परिवर्तन: ग्लोबल वार्मिंग भारी वर्षा और सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता को बढ़ाती है, जिससे मृदा क्षरण में तेजी आती है।
    • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग ने अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में मरुस्थलीकरण को और खराब कर दिया है।
  • वनों की कटाई: कृषि और शहरी विस्तार के लिए वनों की कटाई से वनस्पति आवरण नष्ट हो जाता है, जिससे मृदा क्षरण के प्रति संवेदनशील हो जाती है।
    • वर्ष 1980 से भारत ने विकास के लिए 1.5 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि को नष्ट कर दिया है और इस नुकसान का अधिकांश हिस्सा वर्ष 2000 के बाद हुआ है।
  • शहरीकरण का विस्तार: शहरीकरण ने आवास विनाश, प्रदूषण और जैव विविधता के नुकसान में योगदान देकर भूमि क्षरण को तेज कर दिया है।
    • दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) ने नोएडा, गुरुग्राम और गाजियाबाद जैसे क्षेत्रों में तेजी से शहरी विस्तार का अनुभव किया है, जिससे कृषि भूमि का महत्त्वपूर्ण नुकसान हुआ है।
  • अतिचारण: पशुओं द्वारा अनियंत्रित चराई वनस्पति आवरण को कम करती है, मिट्टी के पोषक तत्त्वों को कम करती है और मरुस्थलीकरण को तीव्र करती है।
    • भारत और पाकिस्तान में थार रेगिस्तान का विस्तार अतिचारण और खराब भूमि प्रबंधन प्रथाओं के कारण हुआ है।

भूमि क्षरण के प्रभाव

  • कृषि उत्पादकता में कमी: मिट्टी की उर्वरता में कमी से फसल की पैदावार कम होती है, जिससे खाद्य असुरक्षा का जोखिम बढ़ता है।
    • FAO के अनुसार, खराब होती भूमि वैश्विक कृषि उत्पादकता को 12% तक कम करती है, जो सालाना 400 बिलियन डॉलर के नुकसान के बराबर है।
  • बीमारियों का बढ़ता जोखिम: भूमि क्षरण के कारण स्वच्छ जल की कमी से हैजा और पेचिश जैसी जल जनित बीमारियाँ फैलती हैं।
    • उदाहरण के लिए, उप-सहारा अफ्रीका में सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पानी से संबंधित बीमारियों का बार-बार प्रकोप होता है।
  • समुद्री और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान: नदियों और महासागरों में उर्वरकयुक्त मृदा के बहाव से शैवाल का विकास होता है, जिससे ऑक्सीजन का स्तर कम होता है और जलीय जीवन को नुकसान पहुँचता है।
    • गंगा नदी पोषक तत्त्वों के प्रदूषण से ग्रस्त है, जिससे मछलियों की आबादी में कमी आ रही है।
  • जलवायु परिवर्तन में योगदान: दूषित मृदा से कार्बन और नाइट्रस ऑक्साइड निकलता है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि होती है।
    • UNCCD रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि भूमि क्षरण से कार्बन अवशोषण क्षमता 20% कम हो जाती है।
  • जैव विविधता का नुकसान: वनों की कटाई और शहरीकरण के कारण आवास विनाश से वन्यजीव प्रजातियों को खतरा है।
    • उदाहरण के लिए, अमेजन वर्षावन में भूमि परिवर्तन ने जगुआर और ऊदबिलाव जैसी प्रजातियों को खतरे में डाल दिया है।
  • आर्थिक नुकसान और आजीविका पर प्रभाव: भूमि क्षरण के कारण वैश्विक आर्थिक हानि सालाना 10.6 ट्रिलियन डॉलर या दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 17% होने का अनुमान है।
    • इथियोपिया में किसानों को क्षरित फसल भूमि से सालाना 4 बिलियन डॉलर का नुकसान होता है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी और बढ़ रही है।

भूमि क्षरण के प्रमुख स्थल

  • भूमि क्षरण से गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों में दक्षिण एशिया, उत्तरी चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका में उच्च पठार और कैलिफोर्निया तथा भूमध्यसागरीय क्षेत्र शामिल हैं।
  • शुष्क भूमि, जो मानवता की एक-तिहाई आबादी का आवास क्षेत्र है, विशेष रूप से असुरक्षित है। इन क्षेत्रों में अफ्रीका का तीन-चौथाई हिस्सा शामिल है।

निम्न आय वाले देशों पर असमानुपातिक प्रभाव

  • कम आय वाले देश, विशेषतौर पर उष्णकटिबंधीय एवं शुष्क क्षेत्रों में, भूमि क्षरण का असंगत भार  वहन करते हैं।
  • गरीब देशों को भूमि क्षरण प्रभावों का अधिक सामना करना पड़ता है, जबकि इसकी चुनौतियों से निपटने के लिए उनके पास पर्याप्त क्षमता का अभाव है।

भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए सरकारी उपाय

  • मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस: इसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (SAC) द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह पुनर्स्थापन योजना में सहायता के लिए क्षरित भूमि पर राज्यवार जानकारी प्रदान करता है।
    • भारत में अनुमानित भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण: वर्ष 2018-19 में 97.84 मिलियन हेक्टेयर।
  • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना: इस योजना का लक्ष्य है:
    • वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को बहाल करना
    • वर्ष 2030 तक 2.5-3 बिलियन टन CO2 समतुल्य उत्पन्न करने के लिए वन और वृक्ष आवरण को बढ़ाना।
  • वनरोपण योजनाएँ
    • हरित भारत के लिए राष्ट्रीय मिशन (GIM) (2014): जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत आठ मिशनों में से एक।
    • वनाग्नि सुरक्षा एवं प्रबंधन योजना (FFPM) (2017): वनाग्नि से निपटने में राज्यों की सहायता करने के लिए बनाई गई।
    • CAMPA (2004) के तहत प्रतिपूरक वनरोपण: प्रतिपूरक वनरोपण के लिए जारी किए गए धन का कुशल और पारदर्शी उपयोग सुनिश्चित करना।
    • राष्ट्रीय तटीय मिशन कार्यक्रम (2014): तटीय क्षेत्रों के सतत् विकास को सुनिश्चित करना।
  • राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम (NAP): यह योजना वर्ष 2000 से राष्ट्रीय वनरोपण एवं पारिस्थितिकी विकास बोर्ड (NAEB) द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर क्रियान्वित की जा रही है।
    • इसका उद्देश्य जन भागीदारी के माध्यम से क्षरित वनों और आस-पास के क्षेत्रों को पुनः स्थापित करना है।
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) (2015) का वाटरशेड विकास घटक: भूदृश्य के पारिस्थितिकी कायाकल्प और आर्थिक विकास में सुधार करना।
  • विजुअलाइजेशन के लिए ऑनलाइन पोर्टल: अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (SAC), अहमदाबाद के सहयोग से विकसित किया गया।
    • क्षरित भूमि क्षेत्रों और क्षरण का कारण बनने वाली प्रक्रियाओं को विजुअलाइज करने की अनुमति देता है।
  • ICFRE देहरादून में उत्कृष्टता केंद्र: भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (ICFRE), देहरादून में परिकल्पित है।
    • ज्ञान साझा करने और सर्वोत्तम प्रथाओं के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • सतत् भूमि प्रबंधन में भारत के अनुभवों को साझा करने का लक्ष्य रखता है।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग: भारत UNCCD का एक पक्ष है और मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में सक्रिय रूप से भाग लेता है।

वैश्विक प्रयास

  • बॉन चैलेंज (Bonn Challenge): इसका लक्ष्य वर्ष 2020 तक 150 मिलियन हेक्टेयर वनविहीन और क्षरित भूमि को पुनर्स्थापित करना तथा वर्ष 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर भूमि को पुनर्स्थापित करना है।
  • ग्रेट ग्रीन वॉल (Great Green Wall): इसे ग्लोबल एनवायरमेंट फैसिलिटी (GEF) द्वारा शुरू किया गया।
    • साहेल-सहारा अफ्रीका के 11 देश भूमि क्षरण से निपटने और परिदृश्य में देशज पौधों को पुनर्स्थापित करने के लिए कार्य कर रहे हैं।

आगे की राह

  • सतत् कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना: कृषि वानिकी, फसल चक्र और जैविक खेती जैसी सतत् कृषि तकनीकों को अपनाने से मिट्टी का कटाव और रासायनिक प्रदूषण कम हो सकता है।
    • भारत में ‘शून्य बजट प्राकृतिक खेती’ (Zero Budget Natural Farming- ZBNF) पहल ने मृदा के स्वास्थ्य में सुधार किया है और किसानों के लिए इनपुट लागत कम की है।
  • वनीकरण और वनीकरण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना: भारत के ग्रीन इंडिया मिशन जैसी बड़े पैमाने पर वनीकरण परियोजनाएँ जैव विविधता और कार्बन पृथक्करण में सुधार करते हुए क्षरित भूमि को पुनर्स्थापित कर सकती हैं।
  • प्रकृति आधारित समाधान (NbS) अपनाना: वाटरशेड प्रबंधन और आर्द्रभूमि पुनर्स्थापन जैसे NbS को लागू करने से जल संरक्षण और जैव विविधता के लिए सह-लाभ प्रदान करते हुए भूमि क्षरण को संबोधित किया जा सकता है।

UNCCD रिपोर्ट की नीतिगत सिफारिशें

  • राष्ट्रीय सूखा प्रबंधन योजनाओं में NbS को शामिल किया जाना चाहिए ताकि सतत् भूमि और जल प्रथाओं को मुख्यधारा में लाया जा सके।
  • स्थानीय समुदायों को स्थायी प्रथाओं को लागू करने में सहायता करने के लिए भूमि स्वामित्व और जल अधिकार सुनिश्चित करना।
  • प्रभावी भूमि और जल प्रबंधन नीतियों को लागू करने के लिए स्थानीय शासन को मजबूत करना।
  • NbS में निवेश आकर्षित करने के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देना।
  • हानिकारक सब्सिडी को स्थायी भूमि और जल प्रबंधन की दिशा में पुनर्निर्देशित करना।
  • NbS के लाभों को प्रदर्शित करने के लिए प्रभावी डेटा संग्रह और निगरानी को बढ़ाना, निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहित करना।
  • संपूर्ण समाज का दृष्टिकोण अपनाना: सरकारों, व्यवसायों, नागरिक समाज और शिक्षाविदों को सूखे के प्रति समुदाय और पारिस्थितिकी तंत्र को लचीला बनाने के लिए सहयोग करना चाहिए।

    • केन्या की ताना नदी बेसिन परियोजना ने क्षरण को कम किया और स्थानीय जल उपलब्धता में सुधार किया, जिससे लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र दोनों को लाभ हुआ।
  • कानूनी और नीतिगत ढाँचों को मजबूत करना: सरकारों को भूमि क्षरण शमन को राष्ट्रीय नीतियों में शामिल करना चाहिए और भूमि उपयोग विनियमनों को लागू करना चाहिए।
  • भूमि निगरानी के लिए प्रौद्योगिकी और डेटा का लाभ उठाना: उपग्रह इमेजरी और GIS का उपयोग भूमि उपयोग में परिवर्तनों को ट्रैक करने, क्षरण हॉटस्पॉट की पहचान करने और पुनर्स्थापन प्रयासों को निर्देशित करने में मदद कर सकता है।
    • यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के प्रहरी उपग्रह साहेल क्षेत्र में मरुस्थलीकरण की निगरानी कर रहे हैं, जिससे लक्षित हस्तक्षेपों में सहायता मिल रही है।
  • वित्तीय संसाधन जुटाना: सार्वजनिक-निजी भागीदारी, ग्रीन बॉण्ड और हानिकारक सब्सिडी को पुनः प्रयोग करने के माध्यम से निवेश को बढ़ाना वित्तपोषण अंतराल को संबोधित कर सकता है।
    • FAO की रिपोर्ट के अनुसार, वार्षिक वैश्विक कृषि सब्सिडी में से 540 बिलियन डॉलर को स्थायी प्रथाओं के लिए पुनर्निर्देशित करने से भूमि क्षरण से निपटने के लिए संसाधन मिल सकते हैं।
  • समुदायों को शामिल करना और स्थानीय शासन को मजबूत करना: भूमि पुनर्स्थापन के प्रयासों में स्थानीय समुदायों को शामिल करने से स्वामित्व, बेहतर कार्यान्वयन और दीर्घकालिक सफलता सुनिश्चित होती है।
    • भारत में सुखोमाजरी वाटरशेड परियोजना ने समुदायों को बेहतर सिंचाई और पीने के पानी के साथ प्रोत्साहित करके सफलता प्राप्त की, जिससे मिट्टी का क्षरण कम हुआ और वन क्षेत्र बढ़ा है।
    • इथियोपिया में, समुदाय आधारित भूमि स्वामित्व सुधारों ने स्थानीय लोगों को अपनी भूमि का स्थायी प्रबंधन करने के लिए सशक्त बनाकर क्षरण को कम किया है।

निष्कर्ष 

भूमि क्षरण पारिस्थितिकी तंत्र, आजीविका और वैश्विक स्थिरता के लिए एक महत्त्वपूर्ण खतरा है। इस चुनौती से निपटने के लिए एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो सतत् प्रथाओं, तकनीकी नवाचार और सामुदायिक भागीदारी को जोड़ता है।

  • पुनर्स्थापना प्रयासों को प्राथमिकता देकर, प्रमुख विकासात्मक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को प्राप्त करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के लिए पृथ्वी को सुरक्षित कर सकते हैं।

संदर्भ

हाल ही में विश्व वन्यजीव संरक्षण दिवस (World Wildlife Conservation Day) मनाया गया। 

विश्व वन्यजीव संरक्षण दिवस के बारे में 

  • यह प्रत्येक वर्ष 4 दिसंबर को मनाया जाता है। 
  • उद्देश्य: अवैध शिकार, अतिव्यावसायीकरण और वैश्विक वन्यजीव ट्रैकिंग सहित संरक्षण मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाना।

  • वर्ष 2024 की थीम: ‘लोगों एवं ग्रह को जोड़ना: वन्यजीव संरक्षण में डिजिटल नवाचार की खोज’ (Connecting People and Planet: Exploring Digital Innovation in Wildlife Conservation)

भारत की जैव विविधता स्थिति

  • भारत, विश्व के भूमि क्षेत्र का केवल 2.4% भाग कवर करता है, लेकिन इसका कारण है:
    • सभी दर्ज प्रजातियों में से 7-8%, जिनमें शामिल हैं:
      • 45,000 पौधों की प्रजातियाँ।
      • 91,000 पशु प्रजातियाँ।
  • अपनी समृद्ध जैव विविधता के कारण एक विशाल विविधता वाले देश के रूप में पहचाना जाता है।
    • स्तनधारी प्रजातियों का 8.58%
    •  पक्षी प्रजातियों का 13.66%
    • सरीसृप का 7.91% 
    • उभयचर प्रजातियों का 4.66% 
    • मछली प्रजातियों का 11.72% 
    • पादप प्रजातियों का 11.8%। 
  • भारत में 10 जैव-भौगोलिक क्षेत्र हैं, जिनमें शामिल हैं:
    • ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र: इसमें लद्दाख पर्वत, तिब्बती पठार और हिमालयी सिक्किम शामिल हैं
    • हिमालयी क्षेत्र: भारत में एक जैव-भौगोलिक क्षेत्र
    • उत्तर-पश्चिमी रेगिस्तानी क्षेत्र: भारत में एक जैव-भौगोलिक क्षेत्र
    • अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र: भारत में एक जैव-भौगोलिक क्षेत्र
    • पश्चिमी घाट: विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों वाला एक वैश्विक जैव-विविधता हॉटस्पॉट
    • दक्कन का पठार: एक अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का 42% हिस्सा कवर करता है।
    • गंगा का मैदान: भारत में एक जैव-भौगोलिक क्षेत्र
    • मध्य उच्चभूमि: भारत में एक जैव-भौगोलिक क्षेत्र
    • पूर्वोत्तर क्षेत्र: भारत में एक जैव-भौगोलिक क्षेत्र
    • तटीय क्षेत्र: भारत में एक जैव-भौगोलिक क्षेत्र
  • भारत में चार वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट हैं:-हिमालय, इंडो-बर्मा, पश्चिमी घाट-श्रीलंका, सुंडालैंड।

खतरे में प्रजातियाँ

  • भारत में गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियाँ
    • भारत में 73 गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियाँ (वर्ष 2022 तक) हैं।
    • IUCN वर्गीकरण: गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों को जंगल में विलुप्त होने का सबसे अधिक खतरा है।
    • वर्ष 2011 से संख्या (47 प्रजातियाँ) में वृद्धि के कारण
      • बेहतर डेटा संग्रह एवं निगरानी।
      • पर्यावास विनाश एवं अन्य खतरे।
  • स्थानिक प्रजातियाँ खतरे में
    • आठ स्थानिक प्रजातियों सहित 9 गंभीर रूप से लुप्तप्राय स्तनधारी शामिल हैं:
      • कश्मीर स्टैग (हंगुल)
      • मालाबार लार्ज स्पॉटेड सिवेट (Malabar large-spotted Civet)।
      • अंडमान श्रेव (Andaman Shrew)
      • जेनकिन श्रेव (Jenkin’s shrew)
      • निकोबार श्रेव (Nicobar Shrew)
      • नमदाफा उड़ने वाली गिलहरी (Namdapha Flying Squirrel)
      • लार्ज रॉक रैट (Large Rock Rat)
      • लीफलेटेड लीफ नोज्ड बैट (Leafletted Leaf-nosed Bat)
  • कम महत्त्व प्राप्त प्रजातियाँ खतरे में
    • शेर, बाघ एवं चीता जैसे बड़े मांसाहारी जीवों, जिनके अक्सर अपने पर्यटन आकर्षण के कारण अन्य लुप्तप्राय प्रजातियों पर कम ध्यान दिया जाता है।
    • राजस्थान में विद्युत लाइनों से टकराव के कारण ग्रेट इंडियन बस्टर्ड जैसे पक्षियों को गंभीर खतरों का सामना करना पड़ता है।

प्रजातियों के विलुप्त होने के पीछे कारक

  • पर्यावास की हानि: शहरीकरण एवं वनों की कटाई प्राकृतिक आवासों को नष्ट कर देती है।
  • प्रजातियों का स्थानांतरण: प्रजातियों को उनके प्राकृतिक आवास से हटाने से पारिस्थितिकी संतुलन बाधित होता है।
  • वैश्विक प्रदूषण: प्रदूषण पारिस्थितिकी तंत्र को खराब करता है, जिससे प्रजातियों का अस्तित्व प्रभावित होता है।
  • जलवायु परिवर्तन: तेजी से हो रहे पर्यावरणीय परिवर्तनों से उन प्रजातियों को खतरा है, जो अनुकूलन नहीं कर सकती हैं।
  • अवैध वन्यजीव व्यापार: प्रजातियों का निरंतर दोहन उनके विलुप्त होने की संभावना को बढ़ा देता है एवं जूनोटिक बीमारियाँ के संक्रमण को बढ़ावा देता है।

वन्यजीव संरक्षण के लिए भारत का घरेलू कानूनी ढाँचा

वन्यजीवों के लिए संवैधानिक प्रावधान

  • 42वाँ संशोधन अधिनियम 1976: ‘वन’ एवं ‘जंगली जानवरों तथा पक्षियों की सुरक्षा’ को समवर्ती सूची में जोड़ा गया।
  • अनुच्छेद-51A (g): वनों एवं वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा तथा सुधार करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य है।
  • अनुच्छेद-48A: राज्य को पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार तथा वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा का आदेश देता है।

कानूनी ढाँचा

  • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972: वन्यजीव संरक्षण एवं लुप्तप्राय प्रजातियों की सुरक्षा के लिए कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
  • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986: पर्यावरण की सुरक्षा एवं सुधार पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • जैविक विविधता अधिनियम, 2002: इसका उद्देश्य जैविक विविधता का संरक्षण करना एवं इसके घटकों का सतत् उपयोग सुनिश्चित करना है।

वैश्विक वन्यजीव संरक्षण प्रयासों के साथ भारत का सहयोग

  • वन्यजीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES): लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतरराष्ट्रीय व्यापार को नियंत्रित करता है।
  • जंगली जानवरों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर अभिसमय (CMS): प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • जैविक विविधता अभिसमय (CBD): सतत् विकास एवं जैव विविधता संरक्षण को बढ़ावा देता है।
  • विश्व विरासत सम्मेलन: दुनिया भर में सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक विरासत की रक्षा करता है।
  • रामसर अभिसमय: आर्द्रभूमि के संरक्षण एवं सतत् उपयोग के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि है।
  • वन्यजीव व्यापार निगरानी नेटवर्क (TRAFFIC): प्रजातियों को शोषण से बचाने के लिए वन्यजीव व्यापार पर नजर रखता है।
  • वनों पर संयुक्त राष्ट्र फोरम (UNFF): विश्व स्तर पर सतत् वन प्रबंधन को बढ़ावा देता है।
  • अंतरराष्ट्रीय व्हेलिंग आयोग (International Whaling Commission- IWC): व्हेल आबादी के संरक्षण एवं व्हेलिंग के प्रबंधन के लिए कार्य करता है।
  • अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN): वैश्विक संरक्षण प्रयासों के लिए डेटा, विश्लेषण एवं वकालत प्रदान करता है।
  • ग्लोबल टाइगर फोरम (GTF): बाघों को विलुप्त होने से बचाने के लिए समर्पित अंतरराष्ट्रीय निकाय है।

संदर्भ

मौर्य इतिहास से जुड़े कुम्हरार (Kumhrar) स्थल पर भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India-ASI) द्वारा 80 स्तंभों वाले सभा भवन की खुदाई की जा रही है।

मौर्य साम्राज्य

  • स्थापना: इसकी स्थापना 321 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा की गई थी।
  • विस्तार: इस साम्राज्य की सीमा अपने चरमोत्कर्ष के दौरान अफगानिस्तान से लेकर दक्कन के पठार तक फैली हुई थी और इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) थी।

मौर्य साम्राज्य के प्रमुख शासक 

  • चंद्रगुप्त मौर्य: साम्राज्य के संस्थापक, अपने प्रशासनिक सुधारों और सैन्य विजयों के लिए जाने जाते हैं।
  • बिंदुसार: साम्राज्य का विस्तार किया और अन्य राज्यों के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए।
  • अशोक महान: 268 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व तक शासन किया, बौद्ध धर्म में धर्मांतरण और शांति तथा अहिंसा को बढ़ावा देने के प्रयासों के लिए जाने जाते हैं।

प्रशासन

  • जटिल नौकरशाही के साथ अत्यधिक केंद्रीकृत प्रशासन।
  • कर संग्रह और शासन की कुशल प्रणाली।
  • विशाल साम्राज्य पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए मजबूत सैन्य बल।

कला और संस्कृति

  • वास्तुकला: स्तूपों और स्तंभों सहित स्मारकीय वास्तुकला का विकास।
  • मूर्तिकला: उत्कृष्ट पत्थर की नक्काशी और मूर्तियाँ, जो अक्सर बौद्ध विषयों को दर्शाती हैं।
  • साहित्य: महाकाव्य रामायण और महाभारत सहित संस्कृत साहित्य का उत्कर्ष।
  • दर्शन: बौद्ध धर्म और जैन धर्म का प्रसार, जिसने भारतीय विचार एवं संस्कृति को प्रभावित किया।

विरासत

  • मौर्य साम्राज्य ने एकीकृत भारतीय उपमहाद्वीप की नींव रखी।
  • अशोक के धम्म ने भारतीय सत्यनिष्ठा एवं नैतिकता के विकास को प्रभावित किया।
  • साम्राज्य की प्रशासनिक और आर्थिक प्रणालियों का बाद के भारतीय राजवंशों पर स्थायी प्रभाव पड़ा।

उत्खनन स्थल के बारे में

  • 80 स्तंभों वाला हॉल इस स्थल की एक प्रमुख विशेषता है।
  • ऐसा माना जाता है कि यह बौद्ध सभा हॉल था, जिसका उपयोग सम्राट अशोक (268 ईसा पूर्व – 232 ईसा पूर्व) द्वारा बुलाई गई तीसरी बौद्ध परिषद के लिए किया गया था।
    • हॉल को लकड़ी की छत के नीचे लकड़ी के फर्श पर खड़े बलुआ पत्थर के खंभों द्वारा छत को सहारा दिया गया था।
  • कुम्हरार में मौर्य महल: 80 स्तंभों वाले हॉल के अलावा, कुम्हरार में मौर्य महल भी था, जिसे प्राचीन ग्रंथों में बेजोड़ भव्यता की संरचना के रूप में वर्णित किया गया है।
    • ग्रीक राजदूत मेगस्थनीज ने इसकी तुलना फारस की राजधानियों सुसा (Susa) और इक्बाटाना (Ecbatana) के वैभव से की थी, जो अपनी भव्यता के लिए जानी जाती थीं।
    • महल की लकड़ी की संरचना, जटिल डिजाइनों के साथ मिलकर वास्तुकला और शहरी नियोजन में मौर्य वास्तुकला विरासत को प्रदर्शित करती है।

स्थल पर ऐतिहासिक उत्खनन

  • प्रारंभिक खोजें (वर्ष 1912-1915): अमेरिकी पुरातत्त्वविद् डेविड ब्रेनार्ड स्पूनर के नेतृत्व में उत्खनन के पहले चरण में एक अक्षुण्ण स्तंभ और 80 गड्ढों के अवशेष मिले, जो अन्य स्तंभों की स्थिति को दर्शाते हैं।
  • उत्खनन का अगला चरण (वर्ष 1961-1965): के. पी. जयसवाल अनुसंधान संस्थान ने अतिरिक्त स्तंभों और टुकड़ों की खोज की, जिसमें अब स्थल पर प्रदर्शित 4.6 मीटर लंबा स्तंभ भी शामिल है।
  • महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष: इन उत्खननों के दौरान संभवतः दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इंडो-यूनानी आक्रमण या 5वीं शताब्दी के अंत या 6वीं शताब्दी की शुरुआत में हूण आक्रमण के दौरान लगी विनाशकारी आग के साक्ष्य मिले, साथ ही स्थल पर राख की मोटी परतें भी पाई गईं हैं।

संदर्भ

नीति आयोग ने अपनी पहली तिमाही रिपोर्ट ‘ट्रेड वॉच’ जारी की, जो भारत के व्यापार एवं वाणिज्य परिदृश्य का मूल्यांकन करती है।

नीति आयोग की टिप्पणियाँ

  • भारत की सीमित सफलता: रिपोर्ट में वियतनाम, थाईलैंड, कंबोडिया और मलेशिया की तुलना में चीन प्लस वन रणनीति का लाभ उठाने में भारत की सीमित सफलता को स्वीकार किया गया है।
    • ये देश सस्ते श्रम, सरलीकृत कर ढाँचे, कम टैरिफ और सक्रिय मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) जैसे प्रतिस्पर्द्धी लाभों के कारण महत्त्वपूर्ण लाभार्थी के रूप में उभरे हैं।
    • भारत ने चीन-केंद्रित आपूर्ति श्रृंखलाओं से दूर वैश्विक बदलाव द्वारा प्रस्तुत अवसरों का पूरी तरह से लाभ नहीं उठाया है।
    • बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अन्य देशों में विविधता लाकर अपने परिचालन को जोखिम मुक्त कर रही हैं।
  • वैश्विक व्यापार व्यवधान: हाल ही में पारस्परिक व्यापार प्रतिबंधों सहित अमेरिका-चीन व्यापार संघर्षों ने वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को खंडित कर दिया है।
    • महत्त्वपूर्ण सामग्रियों पर निर्यात प्रतिबंध और चीनी वस्तुओं पर बढ़े हुए टैरिफ व्यापार की गतिशीलता को नया आकार दे रहे हैं।
  • क्षेत्रीय चुनौतियाँ: कमजोर घरेलू माँग और चीन से अधिक आपूर्ति के कारण भारतीय लौह एवं इस्पात निर्यात में भारी गिरावट (वित्त वर्ष 2025 की पहली तिमाही में 33%) देखी गई है।
    • भारत का लौह एवं इस्पात उद्योग विशेष रूप से यूरोपीय संघ के कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (Carbon Border Adjustment Mechanism-CBAM) के प्रति संवेदनशील है, जो 20-35% टैरिफ लगा सकता है।
  • अमेरिकी व्यापार नीतियों में अवसर: चीनी वस्तुओं पर टैरिफ (60% तक) भारत को वैश्विक बाजारों में प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त प्रदान कर सकता है।
    • व्यापार विविधीकरण कम प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों में अवसर प्रदान करता है जहाँ भारत की वैश्विक हिस्सेदारी 1% से कम है।

चीन प्लस वन रणनीति के बारे में

  • यह बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा अन्य देशों में उत्पादन या सोर्सिंग का विस्तार करके चीन पर निर्भरता कम करने के लिए अपनाई गई रणनीति है। 
    • उदाहरण के लिए: एप्पल (Apple) ने चीन पर निर्भरता कम करने के लिए भारत में अपने कुछ उत्पादों का निर्माण शुरू कर दिया है।
  • चीन +1 के प्रमुख चालक
    • चीनी आयात पर अमेरिकी व्यापार बाधाएँ।
    • भू-राजनीतिक तनाव के कारण आपूर्ति शृंखलाओं का विखंडन।
    • चीन के लिए लागत-प्रतिस्पर्द्धी एवं स्थिर विकल्पों की खोज।

चीन+1 रणनीति के लाभ प्राप्त करने में चुनौतियाँ

  • आंतरिक सीमाएँ: वियतनाम और कंबोडिया जैसे प्रतिस्पर्द्धियों की तुलना में उच्च श्रम लागत होना।
    • जटिल कर कानून और प्रमुख व्यापार ब्लॉकों के साथ सीमित FTA
    • अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा और नौकरशाही संबंधी देरी।
  • वैश्विक गतिशीलता: चीन में अधिशेष उत्पादन और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से प्रतिस्पर्द्धा के कारण भारतीय बाजारों में चीनी उत्पादों की डंपिंग, जो वैश्विक व्यापार में बेहतर स्थिति में हैं।
  • पर्यावरणीय विनियम: CBAM के अनुपालन से भारतीय निर्यातकों के लिए लागत बढ़ जाती है, विशेष रूप से लोहा, इस्पात और एल्यूमीनियम जैसे उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में।
    • यूरोपीय संघ के बाजार में भारतीय निर्यात की माँग में संभावित कमी होना।

चीन +1 रणनीति का लाभ उठाने के लिए भारत सरकार की पहल

  • उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना: यह योजना इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्यूटिकल्स, टेक्सटाइल और ऑटोमोबाइल जैसे प्रमुख क्षेत्रों में घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन से जुड़ा प्रोत्साहन प्रदान करती है। PLI योजना ने वैश्विक कंपनियों से महत्त्वपूर्ण निवेश आकर्षित किया है।
  • ‘मेक इन इंडिया’ पहल: इस पहल का उद्देश्य विनियमों को सरल बनाकर, बुनियादी ढाँचे में सुधार करके और कौशल विकास को बढ़ावा देकर भारत को वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनाना है।
  • इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण पर ध्यान: भारत सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं, जिसमें सेमीकंडक्टर विनिर्माण सुविधाएँ स्थापित करना और निवेश आकर्षित करने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करना शामिल है।
  • व्यापार समझौते: भारत बाजार तक पहुँच बढ़ाने और व्यापार बाधाओं को कम करने के लिए विभिन्न देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों पर सक्रिय रूप से वार्ता कर रहा है।
  • बुनियादी ढाँचे का विकास: भारत सरकार कनेक्टिविटी में सुधार और रसद लागत को कम करने के लिए सड़क, बंदरगाह और रेलवे जैसी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं में अधिक निवेश कर रही है।
  • कौशल विकास: भारत सरकार विनिर्माण क्षेत्र की माँगों को पूरा करने के लिए कुशल कार्यबल बनाने के लिए कौशल विकास कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित कर रही है।

आगे की राह 

  • विनिर्माण क्षमताओं में वृद्धि: उच्च तकनीक वाले उद्योगों और महत्त्वपूर्ण वैश्विक माँग वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना।
    • प्रोत्साहन और बुनियादी ढाँचे के विकास के माध्यम से घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देना।
  • नीतियों को सरल बनाना: भारत को विदेशी निवेशकों के लिए अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनाने के लिए कर कानूनों में सुधार करना।
    • नए बाजारों तक पहुँच बनाने के लिए मुक्त व्यापार समझौतों को तेजी से आगे बढ़ाना।
  • जोखिम कम करना: चीनी माल की डंपिंग को रोकने के लिए उपाय लागू करना।
    • कार्बन विनियमन के अंतर्गत आने वाले उद्योगों को अनुपालन लागत में छूट देकर या व्यापार शर्तों पर बातचीत करके सहायता प्रदान करना।
  • लीवरेज व्यापार अवसर (Leverage Trade Opportunities): अमेरिका-चीन व्यापार प्रतिबंधों से प्रभावित बाजारों में निर्यात का विस्तार करना।
    • विविधीकरण के लिए वैश्विक व्यापार में कम प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों को लक्षित करना।

संदर्भ

हाल ही में लोकसभा ने बैंकिंग कानून (संशोधन) विधेयक, 2024 [Banking Laws (Amendment) Bill, 2024] को ध्वनिमत से पारित कर दिया।

निवेशक शिक्षा एवं संरक्षण कोष (Investor Education and Protection Fund-IEPF) के बारे में

  • स्थापना: IEPF की स्थापना कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत की गई थी, जिसे कंपनी (संशोधन) अधिनियम, 1999 द्वारा संशोधित किया गया था।
  • उद्देश्य: निवेशकों की जागरूकता को बढ़ावा देना और निवेशकों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करना।
  • प्रशासनिक प्राधिकरण: कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय (भारत सरकार) के तहत संचालित निवेशक शिक्षा और संरक्षण निधि प्राधिकरण (Investor Education and Protection Fund Authority-IEPFA) निवेशक शिक्षा एवं संरक्षण कोष (IEPF)  के प्रशासन के लिए जिम्मेदार है।

बैंकिंग कानून (संशोधन) विधेयक के प्रमुख प्रावधान

  • नामित व्यक्तियों (Nominees) की संख्या में वृद्धि: यह विधेयक जमाकर्ताओं को एक साथ अधिकतम चार नामित व्यक्तियों को नामित करने की अनुमति देता है, जिसमें उनके शेयरों का अनुपात निर्दिष्ट होता है।
  • क्रमिक नामांकन (Successive Nomination): यह क्रमिक नामांकन विकल्प प्रस्तुत करता है, जिससे जमाकर्ता एक विशिष्ट क्रम में कई नामित व्यक्तियों को सूचीबद्ध कर सकते हैं।
    • नामित व्यक्तियों से जमाकर्ता द्वारा निर्दिष्ट क्रम में निधियों का दावा करने के लिए संपर्क किया जाएगा।
  • शेयरधारिता में पर्याप्त हित: निदेशक पदों के लिए शेयरधारिता में ‘पर्याप्त हित’ निर्धारित करने की सीमा ₹5 लाख से बढ़ाकर ₹2 करोड़ कर दी गई है।
  • सहकारी बैंकों के लिए प्रावधान: नियामक परिवर्तनों के साथ सामजस्य स्थापित करने के लिए सहकारी बैंकों में निदेशकों का कार्यकाल 8 वर्ष से बढ़ाकर 10 वर्ष कर दिया गया है।
    • केंद्रीय सहकारी बैंक के निदेशक को अब राज्य सहकारी बैंक के बोर्ड में सेवा करने की अनुमति होगी।
  • निवेशक शिक्षा और संरक्षण निधि (Investor Education and Protection Fund- IEPF): विधेयक में दावा न किए गए लाभांश, शेयर, ब्याज या बांड की मोचन राशि को IEPF में स्थानांतरित करने के प्रावधान शामिल हैं, यदि वे लगातार सात वर्षों तक दावा न किए गए हों।
    • व्यक्तियों को IEPF में स्थानांतरित की गई राशि या प्रतिभूतियों के लिए स्थानांतरण या रिफंड का दावा करने की अनुमति होगी।

नामित व्यक्ति (Nominee) के बारे में

  • नामित व्यक्ति, वह व्यक्ति होता है जिसे किसी अन्य व्यक्ति की ओर से लाभ या संपत्ति प्राप्त करने के लिए नामित किया जाता है। इस व्यक्ति को अक्सर सुविधा, गोपनीयता या कानूनी कारणों से चुना जाता है।
  • नामित व्यक्ति हो सकता है:
    • पारिवारिक सदस्य: जीवनसाथी, बच्चे या माता-पिता सामान्य विकल्प हैं।
    • विश्वसनीय मित्र: करीबी दोस्तों को नामांकित किया जा सकता है, अगर वे विश्वसनीय हों।
    • कानूनी संस्थाएँ: ट्रस्ट या कंपनियों को नामांकित किया जा सकता है।
  • नामांकित व्यक्तियों के सामान्य उपयोग
    • वित्तीय खाते: खाता प्रबंधन को सरल बनाने और खाताधारक की मृत्यु की स्थिति में परिसंपत्तियों के सुचारू हस्तांतरण को सुनिश्चित करने के लिए किया जा सकता है।
    • बीमा पॉलिसियाँ: एक लाभार्थी को नामित करना जो पॉलिसी की आय प्राप्त करेगा।
    • संपत्ति स्वामित्व: किसी अन्य व्यक्ति की ओर से संपत्ति रखना, प्रायः कर या गोपनीयता कारणों से।
    • कंपनी निदेशक पद (Company Directorships): कंपनी के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए किसी व्यक्ति को नियुक्त करना।
  • कानूनी निहितार्थ: नामांकित व्यक्ति के साथ समझौते स्पष्ट और कानूनी रूप से बाध्यकारी होने चाहिए।
  • कर संबंधी विचार: किसी विदेशी संस्था को नामांकित करने से कर संबंधी निहितार्थ हो सकते हैं।
  • गोपनीयता संबंधी चिंताएँ: हालाँकि नामित व्यक्ति गोपनीयता प्रदान कर सकते हैं, लेकिन पारदर्शिता के साथ इसे संतुलित करना आवश्यक है।
  • नियामक अनुपालन: नामांकित व्यक्ति की व्यवस्था को प्रासंगिक कानूनों और विनियमों का अनुपालन करना चाहिए।
  • भारत में नामांकित व्यक्तियों के लिए कानूनी प्रावधान: भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 खाताधारक और नामांकित व्यक्ति के बीच कानूनी संबंधों को नियंत्रित करता है। 
    • बैंकिंग विनियमन अधिनियम, बीमा अधिनियम और कंपनी अधिनियम जैसे कई अन्य अधिनियमों में भी नामांकन से संबंधित प्रावधान हैं।

संदर्भ

हाल ही में रक्षा अधिग्रहण परिषद (Defence Acquisition Council-DAC) ने 21,772 करोड़ रुपये के पाँच पूँजी अधिग्रहण प्रस्तावों को मंजूरी दी है।

खरीद प्रस्ताव में शामिल हैं:

  • ‘न्यू वाटर जेट फास्ट अटैक क्राफ्ट’ (New Water Jet Fast Attack Crafts): DAC ने भारतीय नौसेना के लिए 31 ‘न्यू वाटर जेट फास्ट अटैक क्राफ्ट’ की खरीद के लिए आवश्यकता की स्वीकृति (Acceptance of Necessity-AoN) प्रदान की।
    • कार्य: क्राफ्ट को कम तीव्रता वाले समुद्री संचालन, निगरानी, ​​गश्त और तट के करीब खोज एवं बचाव कार्यों के लिए डिजाइन किया गया है।
  • ‘फास्ट इंटरसेप्टर क्राफ्ट’ (Fast Interceptor Craft): 120 फास्ट इंटरसेप्टर क्राफ्ट की खरीद के लिए AoN प्रदान किया गया।
    • कार्य: ये जहाज कई भूमिकाएँ निभा सकते हैं जैसे- तटीय रक्षा के लिए विमान वाहक, विध्वंसक, फ्रिगेट और पनडुब्बियों जैसी उच्च मूल्य इकाइयों की सुरक्षा करना।
  • ‘इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सूट’ (Electronic Warfare Suite-EWS): EWS में बाहरी हवाई स्व-सुरक्षा जैमर पॉड्स, अगली पीढ़ी के रडार चेतावनी रिसीवर और SU-30 MKI विमान के लिए संबंधित उपकरण शामिल हैं।
    • कार्य: यह प्रणाली SU-MKI की परिचालन क्षमताओं को बढ़ाएगी और इसे दुश्मन के रडार से बचाएगी।
  • उन्नत हल्के हेलीकॉप्टर (ALH): तटीय क्षेत्रों में तटीय सुरक्षा एवं निगरानी को मजबूत करने के लिए तटरक्षक बल के लिए छह ALH मरीन की खरीद के लिए AoN प्रदान किया गया।
  • T-72 और T-90 टैंकों, BMP और सुखोई लड़ाकू विमानों के इंजनों के ओवरहाल के लिए भी मंजूरी दी गई, जिससे इन परिसंपत्तियों की सेवा अवधि बढ़ जाएगी।

रक्षा अधिग्रहण परिषद (DAC) के बारे में

  • रक्षा अधिग्रहण परिषद रक्षा मंत्रालय में तीनों सेनाओं (थल सेना, नौसेना एवं वायु सेना) और भारतीय तटरक्षक बल के लिए नई नीतियों और पूँजी अधिग्रहण पर निर्णय लेने के लिए सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था है।
  • अध्यक्ष: रक्षा मंत्री
  • स्थापना: वर्ष 1999 के कारगिल युद्ध के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली में सुधार की सिफारिशों पर वर्ष 2001 में इसका गठन किया गया था।
  • सदस्य: रक्षा राज्य मंत्री ‘चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ’ (CDS), तीनों सेनाओं (थल सेना, नौसेना, वायु) के प्रमुख रक्षा सचिव, एकीकृत स्टाफ समितियों के प्रमुख, रक्षा अनुसंधान एवं विकास सचिव।
  • सदस्य सचिव: ‘डिप्टी चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ’ (Dy. Chief of Defence Staff)
  • कार्य
    • पूँजी अधिग्रहण प्रस्तावों को ‘सैद्धांतिक’ स्वीकृति प्रदान करना।
    • अधिग्रहण प्रस्तावों को अनिवार्यता की स्वीकृति प्रदान करना।
    • ‘खरीदना’, ‘खरीदना एवं बनाना’ तथा ‘बनाना’ से संबंधित अधिग्रहण प्रस्तावों का वर्गीकरण।
  • रक्षा खरीद प्रक्रिया
    • आवश्यकता की स्वीकृति (Acceptance of Necessity): सैद्धांतिक रूप से स्वीकृति रक्षा मंत्रालय द्वारा रक्षा (वित्त) के परामर्श से ‘आवश्यकता की स्वीकृति’ की प्रक्रिया में पहला कदम है और यह वित्त मंत्रालय/सुरक्षा पर कैबिनेट समिति के अंतिम विचार के लिए एक सिफारिश है। 
    • DAC विचार-विमर्श के आधार पर रक्षा मंत्री का निर्णय कार्यान्वयन से रक्षा खरीद बोर्ड, रक्षा उत्पादन बोर्ड और रक्षा अनुसंधान एवं विकास बोर्ड तक प्रभावी रहता है।

संदर्भ

संसद के शीतकालीन सत्र में केंद्रीय पर्यावरण, वन, और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने आँकड़े प्रस्तुत किए, जिनमें भारत में तटीय अपरदन (Coastal Erosion) के मुद्दे पर प्रकाश डाला गया है।

  • भारत की तटरेखा 13 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में विस्तृत है, जिसकी लंबाई 7,500 किलोमीटर से अधिक है।

तटीय अपरदन के संबंध में भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत मुख्य आँकड़े

  • तटीय अपरदन का राष्ट्रीय अवलोकन: भारत की 33.6% तटरेखा का क्षरण हो रहा है, 26.9% में अभिवृद्धि हो रही है तथा 39.6% स्थिर बनी हुई है।
  • 40% से अधिक तटीय अपरदन चार राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में देखा गया है:
    • पश्चिम बंगाल (63%), पांडिचेरी (57%), केरल (45%) और तमिलनाडु (41%) में।
  • अध्ययन अवधि: यह अध्ययन राष्ट्रीय तटीय अनुसंधान केंद्र (NCCR) द्वारा उपग्रह इमेजरी और क्षेत्र सर्वेक्षणों का उपयोग करके वर्ष 1990-2018 के बीच की अवधि को कवर किया गया है।
  • संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान: भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना एवं सेवा केंद्र (INCOIS) द्वारा तैयार बहु-जोखिम भेद्यता मानचित्र (Multi-Hazard Vulnerability Maps- MHVM) जोखिम वाले क्षेत्रों को चिह्नित करने के लिए हाई रिजॉल्यूशन टेर्रीन मैपिंग (High-Resolution Terrain Mapping) का उपयोग करते हैं।
    • ये मानचित्र अत्यधिक जल स्तर, तटरेखा में परिवर्तन, समुद्र स्तर में वृद्धि, तथा ‘हाई रिजॉल्यूशन टेर्रीन मैपिंग’ से प्राप्त डेटा का उपयोग करके सुनामी और झंझा महोर्मि जैसी आपदाओं के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करते हैं।
  • कर्नाटक की जिला-स्तरीय स्थिति
    • दक्षिण कन्नड़: दक्षिण कन्नड़ की 36.66 किमी. लंबी तटरेखा का 17.74 किमी. (48.4 प्रतिशत) हिस्सा वर्ष 1990 से 2018 के मध्य नष्ट हो गया।
    • उडुपी: 34.7 प्रतिशत अपरदन (100.71 किमी. में से 34.96 किमी.)
    • उत्तर कन्नड़: इसकी 175.65 किमी. लंबी तटरेखा के 12.3% भाग पर सबसे कम अपरदन हुआ है।

तटीय क्षरण/तटीय अपरदन के बारे में

  • परिभाषा: तटीय अपरदन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्राकृतिक बलों, मुख्य रूप से समुद्री लहरों, धाराओं, चक्रवातों, ज्वार-भाटे तथा मानवीय गतिविधियों जैसे- रेत खनन, बुनियादी ढाँचे का निर्माण, प्रदूषण, मैंग्रोव का विनाश, ड्रेजिंग आदि के कारण तट रेखाओं में कटाव शुरू  हो जाता है।

तटीय क्षरण के कारण

  • प्राकृतिक कारण
    • समुद्री लहरें और ज्वार: लगातार समुद्री लहरों का आना और उच्च ऊर्जा वाले ज्वार तलछट विस्थापन का कारण बनते हैं।
    • समुद्र स्तर में वृद्धि: जलवायु परिवर्तन के कारण वृद्धि तेज हो जाती है, जिससे तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं।
    • चक्रवात और झंझा महोर्मि: बार-बार आने वाले चक्रवातों से विशेष रूप से पूर्वी तट पर अपरदन बढ़ जाता है।
  • मानवजनित कारण
    • रेत खनन: अस्थायी निष्कर्षण तलछट संतुलन को बाधित करता है।
    • बुनियादी ढाँचे का विकास: बंदरगाह तथा शहरीकरण प्राकृतिक तलछट प्रवाह को बदलते हैं।
    • मैंग्रोव वनों की कटाई: प्राकृतिक अवरोधों के नष्ट होने से तटीय भेद्यता बढ़ जाती है।
    • प्रदूषण: अपशिष्ट जमाव तथा औद्योगिक निर्वहन तटीय मिट्टी को अस्थिर करते हैं।

भारत में तटीय प्रबंधन से जुड़े संगठन

  • राष्ट्रीय सतत् तटीय प्रबंधन केंद्र (NCSCM)
    • परिचय: इसकी स्थापना वर्ष 2011 में तट की सुरक्षा, संरक्षण, पुनर्वास, प्रबंधन और नीतिगत सलाह के लिए एक स्वायत्त संस्थान के रूप में की गई थी।
    • नोडल मंत्रालय: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (भारत सरकार)।
    • अधिदेश: एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM) दृष्टिकोण को राष्ट्रव्यापी रूप से अपनाने का समर्थन करता है।
  • राष्ट्रीय तटीय अनुसंधान केंद्र (NCCR)
    • परिचय: यह पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय का एक संलग्न कार्यालय है।
    • कार्यक्षेत्र: इसका उद्देश्य तटीय प्रक्रियाओं, पारिस्थितिकी तंत्र, तटरेखा क्षरण, प्रदूषण, खतरों और तटीय भेद्यता को संबोधित करने के लिए अनुसंधान को बढ़ावा देना है।
  • भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (INCOIS)
    • परिचय: वर्ष 1999 में स्थापित, यह भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) के तहत एक स्वायत्त निकाय है। 
    • यह विभिन्न क्षेत्रों को महासागर से संबंधित सेवाएँ तथा जानकारी प्रदान करता है, जिससे समुद्री संसाधनों का सतत् उपयोग सुनिश्चित होता है।

तटीय क्षरण की यांत्रिक प्रक्रिया

तटीय अपरदन मुख्यतः चार मुख्य प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है।

  • अपघर्षण (Corrasion): तीव्र समुद्री लहरें समुद्र तट पर मौजूद कंकड़-पत्थरों जैसी सामग्री को धीरे-धीरे नष्ट करती हैं और लहरों से कटाव के निशान बनाती हैं।
  • घर्षण: रेत और बड़े टुकड़ों को ले जाने वाली लहरें चट्टानों या शीर्षभूमि के आधार को नष्ट कर देती हैं, जिससे सैंडपेपर जैसा प्रभाव उत्पन्न होता है, विशेष रूप से तूफानों के दौरान।
  • हाइड्रोलिक प्रक्रिया: जब लहरें चट्टान से टकराती हैं, तो वे दरारों में वायु को फँसा लेती हैं।
    • जब लहरें पीछे हटती हैं, तो फँसी हुई वायु बलपूर्वक बाहर निकलती है, जिससे चट्टान टूट जाती हैं, विशेषकर इसलिए क्योंकि अपक्षय की क्रिया पहले ही चट्टान को कमजोर कर देती है।
  • सन्निघर्षण (Attrition): लहरों के कारण चट्टानें और कंकड़ आपस में टकराते हैं, जिससे वे छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाते हैं।

तटीय अपरदन का प्रभाव

  • भूमि और आवास का नुकसान: तटीय अपरदन के कारण मूल्यवान भूमि का नुकसान होता है, विशेषकर घनी आबादी वाले तटीय क्षेत्रों में। इसके परिणामस्वरूप समुदायों का विस्थापन होता है और महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों को हानि पहुँचती है।
    • उदाहरण: जैसे-जैसे समुद्र सीमा रेखा स्थल की ओर बढ़ रही है, पश्चिम बंगाल के सुंदरवन में मैंग्रोव वन नष्ट हो रहे हैं, जिससे जैव विविधता और इन संसाधनों पर निर्भर स्थानीय समुदायों की आजीविका को खतरा उत्पन्न हो रहा है।
  • कृषि तथा आजीविका पर प्रभाव: तटीय अपरदन से कृषि भूमि का लवणीकरण होता है, जिससे फसल की पैदावार प्रभावित होती है और पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ बाधित होती हैं।
    • मछुआरे, जो स्वस्थ तटीय पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर हैं, भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रहे हैं।
      • उदाहरण: केरल के कोच्चि के कुछ हिस्सों में तटीय अपरदन के कारण कृषि क्षेत्रों में खारे जल का प्रवेश हो रहा है।
  • तटीय बाढ़ और झंझा महोर्मि: मानसून और चक्रवातों के दौरान टीलों, मैंग्रोव और प्रवाल भित्तियों जैसी प्राकृतिक बाधाओं के क्षरण से तटीय क्षेत्रों में झंझा महोर्मि और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
  • जैव विविधता पर प्रभाव: तटीय अपरदन से समुद्री और स्थलीय प्रजातियों के आवासों को खतरा उत्पन्न हो रहा है, विशेष रूप से संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्रों जैसे मैंग्रोव, प्रवाल भित्तियों और रेतीले समुद्र तटों पर।
    • इससे जैव विविधता की हानि होती है तथा स्थानीय समुदायों के लिए आवश्यक संसाधनों का ह्रास होता है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता: अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में समुद्र का स्तर बढ़ रहा है और तटीय अपरदन हो रहा है, जिससे उनके पारिस्थितिकी तंत्र और बुनियादी ढाँचे को खतरा उत्पन्न हो रहा है।
  • राष्ट्रीय एवं वैश्विक सुरक्षा चिंताएँ
    • जोखिम में रणनीतिक स्थान: भारतीय नौसेना के ठिकानों, बंदरगाहों तथा लक्षद्वीप जैसे द्वीप क्षेत्रों की भेद्यता संबंधी चिंताएँ बढ़ रही हैं।
    • भू-राजनीतिक परिणाम: तटरेखाओं के बदलने के कारण समुद्री संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हो सकती है।
      • उदाहरण: हाल ही में, श्रीलंकाई नौसेना ने द्वीप राष्ट्र के प्रादेशिक जल में कथित अवैध मछली पकड़ने के लिए 18 भारतीय मछुआरों को गिरफ्तार किया है और उनके मछली पकड़ने वाले ट्रॉलर को जब्त कर लिया है।

भारत में तटीय अपरदन से निपटने की चुनौतियाँ

  • जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का बढ़ता स्तर, तूफानों की बढ़ती आवृत्ति और लहरों के पैटर्न में बदलाव तटीय क्षेत्रों के अपरदन के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाते हैं।
  • अपर्याप्त तटीय प्रबंधन नीतियाँ: हालाँकि एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM) मौजूद है, इसका कार्यान्वयन अक्सर कमजोर होता है, असंगत प्रवर्तन और हितधारकों के बीच समन्वय की कमी के कारण अप्रभावी अपरदन प्रबंधन स्थापित होता है।
  • प्राकृतिक तटीय अवरोधों ​​का नुकसान: अक्सर मानवीय गतिविधियों के कारण मैंग्रोव, प्रवाल भित्तियों और रेत के टीलों जैसे प्राकृतिक अवरोधों ​​का विनाश होता है, जिससे तटीय क्षेत्र अपरदन, बाढ़ और अन्य पर्यावरणीय खतरों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
  • तटीय डेटा और अनुसंधान का अभाव: स्थानीय तटीय गतिशीलता तथा अपरदन प्रवृत्तियों पर अपर्याप्त डेटा और अनुसंधान तटीय संरक्षण के लिए प्रभावी निर्णय लेने और दीर्घकालिक योजना बनाने में बाधा डालते हैं।
  • प्रदूषण: तटीय प्रदूषण, विशेष रूप से प्लास्टिक अपशिष्ट और अनुपचारित सीवेज, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और तलछट परिवहन को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे अपरदन की समस्याएँ बढ़ सकती हैं।

तटीय क्षरण से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयास

  • यूनेस्को द्वारा महासागर दशक (वर्ष 2021-2030): महासागर दशक 2021 से 2030 तक सतत् विकास के लिए परिवर्तनकारी महासागर विज्ञान समाधानों को उत्प्रेरित करने हेतु एक वैश्विक पहल है।
    • यह वैज्ञानिक अनुसंधान और महासागर के स्वास्थ्य को संरक्षित करने और पुनर्स्थापित करने के लिए समाधानों के कार्यान्वयन को बढ़ावा देता है, जिसमें तटीय क्षरण को रोकने के प्रयास भी शामिल हैं।
  • वैश्विक अनुकूलन नेटवर्क (GAN): संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन ज्ञान को साझा करने और आदान-प्रदान करने के लिए वर्ष 2010 में वैश्विक अनुकूलन नेटवर्क की स्थापना की।
  • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने वर्ष 2010 में वैश्विक अनुकूलन नेटवर्क की स्थापना की ताकि वर्ष में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन ज्ञान को साझा और आदान-प्रदान किया जा सके।
    • उदाहरण: GAN तटीय अपरदन के प्रभावों को कम करने के लिए सतत् तटीय क्षेत्र प्रबंधन प्रथाओं को लागू करने में छोटे द्वीप राज्यों की सहायता करता है।

तटीय प्रबंधन तकनीकों (हार्ड इंजीनियरिंग और सॉफ्ट इंजीनियरिंग) के बीच अंतर

पहलू

हार्ड इंजीनियरिंग

सॉफ्ट इंजीनियरिंग

दृष्टिकोण अपरदन को नियंत्रित करने के लिए कृत्रिम संरचनाएँ। अपरदन प्रभाव को कम करने के लिए प्राकृतिक समाधान।
लागत उच्च प्रारंभिक लागत तथा रखरखाव। कम लागत, अक्सर दीर्घकालिक बचत के साथ।
पर्यावरणीय प्रभाव प्राकृतिक प्रक्रियाओं और आवासों को बाधित कर सकता है। सामान्यतः अधिक पर्यावरण अनुकूल एवं टिकाऊ।
दीर्घ अवधि  लंबे समय तक चलने वाला लेकिन रखरखाव की आवश्यकता हो सकती है। अनुकूलनीय तथा समय के साथ विकसित हो सकता है।
उदाहरण समुद्री दीवारें, ग्रॉयन (Groynes), ब्रेकवाटर, रॉक कवच। समुद्र तट पोषण, मैंग्रोव पुनरुद्धार, तटीय वनस्पति, रेत के टीलों का स्थिरीकरण।

भारत में तटीय क्षरण से निपटने के लिए सरकारी पहल

  • खतरे की रेखा का निर्धारण: केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने देश के संपूर्ण तट के लिए खतरे की रेखा निर्धारित कर दी है।
    • खतरे की रेखा जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में वृद्धि सहित तटरेखा में होने वाले परिवर्तनों का संकेत है।
    • इस रेखा का उपयोग तटीय राज्यों में एजेंसियों द्वारा आपदा प्रबंधन के लिए एक उपकरण के रूप में किया जाना है, जिसमें अनुकूली एवं शमन उपायों की योजना बनाना शामिल है।
    • खतरे की रेखा केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा अनुमोदित तटीय राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों की नई तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजनाओं में शामिल है।
  • तटीय विनियमन क्षेत्र (CRZ) अधिसूचना, 2019
    • इसका उद्देश्य तटीय क्षेत्रों का संरक्षण, समुद्री क्षेत्रों की सुरक्षा तथा मछुआरों तथा स्थानीय समुदायों के लिए आजीविका को सुरक्षित करना है। तट के किनारे अपरदन नियंत्रण उपायों की अनुमति देता है।
    • अतिक्रमण को रोकने और अपरदन को कम करने के लिए ‘नो डेवलपमेंट जोन’ (NDZ) की शुरुआत की है।
  • तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजनाएँ (CZMPs)
    • राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के आदेश के अनुपालन में, सभी तटीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को CZMPs को अंतिम रूप देने का निर्देश दिया गया।
    • इन योजनाओं में अपरदन-प्रवण क्षेत्रों का मानचित्रण और प्रभावित क्षेत्रों के लिए तटरेखा प्रबंधन योजना (Shoreline Management Plans- SMP) तैयार करना शामिल है।
  • तटीय संरक्षण के लिए राष्ट्रीय रणनीति
    • केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने प्रभावी तटीय संरक्षण उपायों को लागू करने के लिए सभी तटीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए दिशा-निर्देशों के साथ एक राष्ट्रीय रणनीति विकसित की है।
  • तटीय प्रबंधन सूचना प्रणाली (Coastal Management Information System- CMIS)
    • CMIS एक डेटा संग्रहण गतिविधि है, जो तटीय क्षेत्रों के निकट डेटा एकत्र करने के लिए की जाती है, जिसका उपयोग संवेदनशील तटीय क्षेत्रों में स्थल-विशिष्ट तटीय सुरक्षा संरचनाओं की योजना, डिजाइन, निर्माण और रखरखाव में किया जा सकता है।
  • कर्नाटक सरकार के प्रयास: कर्नाटक सरकार ने तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना (CRZ), 2019 के अनुसार, तटरेखा प्रबंधन योजना तैयार की है।
    • यह विश्व बैंक द्वारा वित्तपोषित कर्नाटक तटीय लचीलापन एवं अर्थव्यवस्था सुदृढ़ीकरण (K-SHORE) परियोजना का क्रियान्वयन कर रहा है।
      • इस पहल का उद्देश्य तटीय सुरक्षा को मजबूत करना और प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध लचीलापन बढ़ाना, सतत् प्रथाओं के माध्यम से तटीय समुदायों की आजीविका की रक्षा करना और समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या का समाधान करना है।
  • अन्य
    • भू-स्थानिक मानचित्रण: क्षरण हॉटस्पॉट की निगरानी के लिए भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) तथा रिमोट सेंसिंग का उपयोग करता है।
      • उदारहण: चिल्का विकास प्राधिकरण ओडिशा के चिल्का झील में तटरेखा में होने वाले परिवर्तनों की निगरानी और अवसादन के प्रबंधन के लिए रिमोट सेंसिंग का उपयोग कर रहा है।
    • सॉफ्ट इंजीनियरिंग तकनीकें: समुद्र तट पोषण और तटरेखा स्थिरीकरण के लिए मैंग्रोव, स्वदेशी पौधों का रोपण।
      • उदाहरण: विशाखापत्तनम, आंध्र प्रदेश (Visakhapatnam, Andhra Pradesh)।  
    • कृत्रिम चट्टानें तथा ब्रेकवाटर: क्षरण को नियंत्रित करने के लिए तरंगीय ऊर्जा को कम करना।
      • उदाहरण: तमिलनाडु ने मछलियों के आवास को बेहतर बनाने तथा लहरों और अपरदन को कम करने के लिए कई स्थानों पर कृत्रिम चट्टानें स्थापित की हैं।
    • समुदाय आधारित दृष्टिकोण: संरक्षण परियोजनाओं में स्थानीय भागीदारी को प्रोत्साहित करना। उदाहरण के रूप में
      • सुंदरी परियोजना: सुंदरी परियोजना का उद्देश्य भारतीय सुंदरबन में 4,000 हेक्टेयर शहरी क्षरित मैंग्रोव को कई स्थानीय प्रजातियों के पौधे लगाकर तथा स्थानीय आजीविका को बढ़ावा देकर पुनर्स्थापित करना है।
    • समुद्र तट पर्यावरण और सौंदर्य प्रबंधन सेवाएँ (Beach Environment & Aesthetics Management Services- BEAMS): ब्लू फ्लैग प्रमाणन की तर्ज पर, भारत ने एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM) परियोजना के तहत अपना स्वयं का इको-लेबल (BEAMS) भी लॉन्च किया है।
      • इसे ‘सोसायटी ऑफ इंटीग्रेटेड कोस्टल मैनेजमेंट’ (SICOM) और केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा लॉन्च किया गया है।
      • इसका उद्देश्य तटीय प्रदूषण को कम करना, सतत् समुद्र तट विकास को बढ़ावा देना, पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण करना तथा समुद्र तट पर जाने वालों के लिए स्वच्छता, स्वास्थ्य और सुरक्षा सुनिश्चित करना है।

तटीय प्रबंधन के लिए वैश्विक उदाहरण

  • OECD की ‘रिस्पॉन्डिंग टू राइजिंग सी रिपोर्ट’ के अनुसार: डेनमार्क, जर्मनी, नीदरलैंड और यूनाइटेड किंगडम ने भविष्य में समुद्र के स्तर में वृद्धि से निपटने के लिए भवन और तटीय बुनियादी ढाँचे के लिए डिजाइन मानकों को मजबूत किया है।
  • चीन के ‘स्पंज’ (Sponge) शहर: स्पंज सिटी चीन में एक शहरी नियोजन मॉडल है, जो पूरी तरह से जल निकासी प्रणालियों पर निर्भर रहने के बजाय हरित बुनियादी ढाँचे को मजबूत करके बाढ़ प्रबंधन पर जोर देता है।

आगे की राह 

  • तटीय अनुकूलन उपायों का कार्यान्वयन: तटीय अनुकूलन से तात्पर्य उन रणनीतियों और कार्यों से है, जो तटीय क्षेत्रों को जलवायु परिवर्तन, बढ़ते समुद्री स्तर और तूफान एवं अपरदन जैसे प्राकृतिक खतरों के प्रभावों से बचाने के लिए डिजाइन किए गए हैं।
    • उदाहरण: पारंपरिक कठोर इंजीनियरिंग समाधान जैसे कि समुद्री दीवारें, ब्रेकवाटर और जेट्टी का उपयोग तटीय अपरदन को कम करने के लिए किया जा सकता है।
  • प्रकृति आधारित समाधानों (NbS) का कार्यान्वयन: जैसे कि मैंग्रोव पुनरुद्धार, बाँस की बाड़ और सीप की चट्टानों को प्रभावी विकल्प के रूप में बढ़ावा दिया जा सकता है।
  • तटीय डेटा सिस्टम को मजबूत करना: सटीक डेटा संग्रह के लिए तटीय प्रबंधन सूचना प्रणाली (CMIS) को और अधिक क्षेत्रों तक विस्तारित करना।
    • उपग्रह इमेजरी, GIS मैपिंग और वास्तविक समय एआई आधारित अपरदन निगरानी का लाभ उठाना।
  • तटरेखा प्रबंधन योजनाएँ (SMP): तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजनाओं (CZMP) में पहचाने गए सभी अपरदन-प्रवण क्षेत्रों के लिए SMP की तैयारी एवं कार्यान्वयन में तेजी लाना।
  • तटीय अपरदन के कारण विस्थापित लोगों का पुनर्वास और पुनर्स्थापन: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) को 15वें वित्त आयोग की वर्ष 2021 की रिपोर्ट के अनुरूप नीति विकसित करनी चाहिए, जिसमें पहली बार नदी तटीय तथा अपरदन के कारण विस्थापित लोगों के पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है।
  • प्रतिमान बदलाव का आह्वान: तटीय अपरदन के प्राकृतिक तथा मानव-प्रेरित दोनों कारकों को संबोधित करने वाले प्रतिक्रियात्मक उपायों से स्थायी, सक्रिय रणनीतियों की ओर स्थानांतरित होने की तत्काल आवश्यकता है।

निष्कर्ष

  • तटीय अपरदन को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए एक स्थायी और सहयोगात्मक दृष्टिकोण आवश्यक है।
  • विज्ञान, नीति और सामुदायिक कार्रवाई को एकीकृत करके, भारत अपने तटीय पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा कर सकता है, अपने समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है और जलवायु परिवर्तन की उभरती चुनौतियों के विरुद्ध लचीलापन बढ़ा सकता है।

संदर्भ

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) ने एक ऐसे मामले में सुनवाई शुरू की, जिसमें मौजूदा अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत जलवायु परिवर्तन पर देशों के दायित्वों एवं उन दायित्वों के कानूनी परिणामों पर उसकी सलाहकारी राय माँगी गई है।

मामले की मुख्य बिंदु

  • उद्देश्य: विकसित देशों को उनकी जलवायु जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए, विकासशील देशों ने अपनी चिंताओं को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में उठाया है तथा अपने दायित्वों के उल्लंघन के कानूनी परिणामों को स्पष्ट करने का अनुरोध किया है।
  • यह पहल वानुअतु के जलवायु परिवर्तन संबंधी मुद्दे से संबंधित है, जिसे वर्ष 2021 में शुरू किया गया था और ‘पैसिफिक आइलैंड स्टूडेंट्स फाइटिंग क्लाइमेट चेंज’ (PISFCC) द्वारा समर्थित किया गया था।
  • 29 मार्च, 2023 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 132 देशों द्वारा सह-प्रायोजित एक प्रस्ताव के साथ इसे बढ़ावा मिला।
    • प्रस्ताव में पेरिस समझौते एवं मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा जैसे अंतरराष्ट्रीय कानूनी उपकरणों का उल्लेख किया गया है।
  • अप्रैल 2023 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा आधिकारिक तौर पर ICJ को प्रेषित किया गया।

वानुअतु

  • वानुअतु दक्षिण प्रशांत महासागर में स्थित एक द्वीपीय राष्ट्र है।
  • इसमें 83 द्वीपों की एक शृंखला शामिल है, जो 1,300 किलोमीटर तक फैली हुई है।
  • राजधानी एवं सबसे बड़ा शहर पोर्ट विला है, जो एफेट द्वीप पर अवस्थित है।
  • वानुअतु अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जिसमें सक्रिय ज्वालामुखी, प्राचीन समुद्र तट एवं प्रवाल चट्टानें शामिल हैं।
  • यह गोताखोरी, स्नॉर्कलिंग एवं अन्य जल क्रीडा के लिए एक लोकप्रिय गंतव्य है।

जलवायु मुकदमेबाजी (Climate Litigation)

  • जलवायु मुकदमेबाजी का तात्पर्य जलवायु परिवर्तन एवं उसके प्रभावों को संबोधित करने के लिए की गई कानूनी कार्रवाइयों से है।
  • इसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन या जलवायु से संबंधित नुकसान के लिए जिम्मेदार संस्थाओं के विरुद्ध मुकदमा दायर करने वाले व्यक्ति, संगठन या सरकारें शामिल हैं।
  • जलवायु मुकदमेबाजी के उदाहरण
    • अर्जेंडा मामला (नीदरलैंड): एक ऐतिहासिक मामला, जहाँ डच नागरिकों ने अपर्याप्त जलवायु कार्रवाई के लिए सरकार पर सफलतापूर्वक मुकदमा दायर किया।
    • जूलियाना बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका: एक युवा नेतृत्व वाला मुकदमा, जिसमें आरोप लगाया गया है कि जलवायु परिवर्तन पर अमेरिकी सरकार की कार्रवाई वादी के जीवन, स्वतंत्रता एवं संपत्ति के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करती है।
  • भारत में जलवायु मुकदमेबाजी: भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक मजबूत कानूनी ढाँचा है, जिसमें जलवायु मुकदमेबाजी के प्रावधान भी शामिल हैं।
    • राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) पर्यावरणीय मामलों के लिए एक विशेष न्यायाधिकरण है, जो नागरिकों को पर्यावरणीय नुकसान के निवारण के लिए सशक्त बनाता है।
  • भारत में ऐतिहासिक जलवायु मुकदमेबाजी मामले
    • रिधिमा पांडे बनाम भारत संघ: एक युवा जलवायु कार्यकर्ता ने भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों पर प्रकाश डालते हुए अपर्याप्त जलवायु कार्रवाई के लिए सरकार पर मुकदमा दायर किया।
    • थर्मल पॉवर प्लांटों के खिलाफ मामले: वायु प्रदूषण एवं ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए थर्मल पॉवर प्लांटों के खिलाफ कई मामले दर्ज किए गए हैं, जिससे पर्यावरण संबंधी नियम सख्त हो गए हैं।
    • जनहित याचिका (PIL): जलवायु परिवर्तन शमन एवं अनुकूलन पर सरकारी नीतियों को चुनौती देने में जनहित याचिकाएँ महत्त्वपूर्ण रही हैं, जिससे नवीकरणीय ऊर्जा तथा सतत् विकास पर ध्यान केंद्रित हुआ है।
    • वन संरक्षण एवं जैव विविधता से संबंधित मामले: वनों, वन्यजीवों एवं जैव विविधता की रक्षा के लिए मामले दायर किए गए हैं, जो जलवायु शमन तथा अनुकूलन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

  • न्यायालय के समक्ष पूछे गए प्रश्नों में शामिल हैं:
    • मानव-जनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए राष्ट्रों के दायित्व।
    • कमजोर राष्ट्रों एवं भावी पीढ़ियों को होने वाले नुकसान के लिए कानूनी निहितार्थ।

मामले का महत्त्व 

  • ICJ के इतिहास का सबसे बड़ा मामला
    • 91 लिखित वक्तव्य एवं 62 टिप्पणियाँ प्रस्तुत की गईं।
    • 97 राष्ट्रों एवं 11 अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भागीदारी।
  • गंभीर जलवायु परिवर्तन प्रभावों का सामना कर रहे छोटे द्वीपीय विकासशील राष्ट्रों के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • अपर्याप्त जलवायु वित्त प्रतिबद्धताओं पर COP29 की आलोचना के बाद तात्कालिकता पर प्रकाश डाला गया।

पेरिस समझौते के अनुसार, विकसित देशों के लिए दायित्व

  • शमन: विकसित देश पूर्ण अर्थव्यवस्था-व्यापी उत्सर्जन कटौती लक्ष्य हासिल करने के लिए बाध्य हैं।
  • वित्त: उन्हें विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन को कम करने एवं अनुकूलित करने में मदद करने के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए।
  • प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: विकसित देशों को विकासशील देशों के लिए जलवायु-अनुकूल प्रौद्योगिकियों के विकास एवं हस्तांतरण को बढ़ावा देना चाहिए।
  • क्षमता निर्माण: उन्हें जलवायु परिवर्तन से निपटने की क्षमता बढ़ाने के लिए विकासशील देशों में क्षमता निर्माण का समर्थन करना चाहिए।
  • पारदर्शिता एवं जवाबदेही: विकसित देशों को अपने जलवायु कार्यों एवं अपने लक्ष्यों की दिशा में प्रगति पर नियमित रूप से रिपोर्ट देनी चाहिए।

लघु द्वीपीय राष्ट्र के लिए खतरा

  • समुद्र के स्तर में वृद्धि: सबसे तात्कालिक खतरा समुद्र के स्तर में वृद्धि है, जो समुद्र तट को नष्ट कर सकता है, निचले इलाकों में जल भर सकता है एवं मीठे जल की आपूर्ति को प्रभावित कर सकता है।
    • मालदीव जैसे निचले द्वीपीय राष्ट्र विशेष रूप से इस खतरे के प्रति संवेदनशील हैं।
  • चरम मौसम की घटनाएँ: लगातार एवं तीव्र तूफान, चक्रवात तथा टाइफून बुनियादी ढाँचे एवं पारिस्थितिकी तंत्र को व्यापक नुकसान पहुँचा सकते हैं। छोटे द्वीपीय राष्ट्र, अपने सीमित संसाधनों के साथ, ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए संघर्ष करते हैं।
  • महासागरों का अम्लीकरण: समुद्र द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषण में वृद्धि से अम्लीकरण होता है, जिससे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र, विशेष रूप से प्रवाल चट्टानों को नुकसान पहुँचता है, जो पर्यटन एवं मत्स्यपालन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
  • जल की कमी: वर्षा के पैटर्न में बदलाव से सूखा पड़ सकता है, जिससे कृषि एवं जल की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है।
  • खाद्य सुरक्षा: कृषि, मत्स्यपालन एवं पर्यटन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव खाद्य सुरक्षा तथा आर्थिक स्थिरता से समझौता कर सकता है।

BRICS ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ (NDB) में भारत का योगदान

भारत ने वर्ष 2015-16 एवं वर्ष 2021-22 के बीच सात किस्तों में BRICS न्यू डेवलपमेंट बैंक (New Development Bank- NDB) में 2 बिलियन डॉलर का योगदान दिया है।

भारत एवं न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB)

  • NDB की स्थापना: न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) की स्थापना वर्ष 2014 में ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन एवं दक्षिण अफ्रीका) द्वारा की गई थी।
  • उद्देश्य: ब्रिक्स एवं अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं में बुनियादी ढाँचे तथा सतत् विकास परियोजनाओं के लिए संसाधन जुटाना। 
  • NDB में भारत की भूमिका: NDB एवं BRICS की पहल में भारत का योगदान वैश्विक वित्तीय प्रणालियों को मजबूत करने तथा समावेशी आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की उसकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है।
    • भारत NDB का संस्थापक सदस्य है।
    • यह बैंक की निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेता है।
    • भारत को विभिन्न बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए NDB वित्तपोषण से काफी लाभ हुआ है।

भारत पर NDB का प्रभाव

  • इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंसिंग: NDB ने दिल्ली-मेरठ रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम, मेट्रो रेल परियोजनाओं एवं नवीकरणीय ऊर्जा पहल जैसी परियोजनाओं के लिए पर्याप्त धनराशि प्रदान की है।
    • भारत में वर्तमान में 4,867 मिलियन डॉलर मूल्य की NDB ऋण द्वारा वित्तपोषित 20 बाहरी सहायता प्राप्त परियोजनाएँ संचालित हैं।
    • ये परियोजनाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में परिवहन, जल संरक्षण, खाद्य प्रबंधन एवं कनेक्टिविटी जैसे क्षेत्रों पर केंद्रित हैं।
  • सतत् विकास: बैंक स्वच्छ ऊर्जा एवं पर्यावरण संरक्षण पर भारत के फोकस के अनुरूप, सतत् विकास लक्ष्यों को प्राथमिकता देता है।

अमेरिका-भारत MH-60R हेलीकॉप्टर डील

हाल ही में, अमेरिका ने भारत के MH-60R सीहॉक हेलीकॉप्टरों के लिए सहायक उपकरण प्रदान करने के लिए 1.17 बिलियन डॉलर के सौदे को मंजूरी दी।

संबंधित तथ्य

  • उन्नत क्षमताएँ: इस समझौते का उद्देश्य भारत की पनडुब्बी रोधी युद्ध क्षमताओं को उन्नत करना एवं संभावित खतरों को रोकना है।
  • लॉकहीड मार्टिन प्रमुख ठेकेदार: लॉकहीड मार्टिन इस परियोजना का प्राथमिक ठेकेदार होगा।

MH-60R हेलीकॉप्टर के बारे में

  • इसका विनिर्माण लॉकहीड मार्टिन द्वारा किया गया है एवं अमेरिकी नौसेना के प्राथमिक समुद्री हेलीकॉप्टर में उपयोग किया जाता है। इसे अत्याधुनिक एवियोनिक्स तथा सेंसर के साथ हर मौसम में संचालन के लिए डिजाइन किया गया है।
  • क्षमताएं
    • पनडुब्बी रोधी युद्ध (Anti-Submarine Warfare- ASW)।
    • सतह-रोधी युद्ध (Anti-Surface Warfare- ASuW)।
    • खोज-एवं-बचाव (Search-And-Rescue- SAR), निगरानी, ​​नौसैनिक गोलाबारी समर्थन, रसद, तथा ऊर्ध्वाधर पुनःपूर्ति (Vertical Replenishment- VERTREP)
    • फ्रिगेट, विध्वंसक, क्रूजर, उभयचर जहाज एवं विमान वाहक से संचालित होता है।
  • विशेषताएँ: एयरबोर्न सक्रिय सोनार, मल्टी-मोड रडार, FLIR बुर्ज एवं एक एकीकृत आत्मरक्षा प्रणाली से सुसज्जित है।
    • तीन या चार फ्लाइट क्रू एवं पाँच यात्रियों को ले जा सकता है।
  • भारत का अधिग्रहण: भारत ने वर्ष 2020 में ₹14,000 करोड़ में 24 MH-60R हेलीकॉप्टरों का ऑर्डर दिया था, जिसकी डिलीवरी वर्ष 2022 में शुरू हुई एवं वर्ष 2025 तक पूरी हो जाएगी।

अभ्यास हरिमाऊ शक्ति (HARIMAU SHAKTI)

हाल ही में भारत-मलेशिया संयुक्त सैन्य अभ्यास हरिमाऊ शक्ति (HARIMAU SHAKTI) का चौथा संस्करण मलेशिया के पहांग जिले के बेंटोंग शिविर में शुरू हुआ।

  • उद्देश्य: संयुक्त राष्ट्र अधिदेश के अध्याय VII के अंतर्गत जंगली इलाके में आतंकवाद विरोधी अभियान चलाने के लिए संयुक्त सैन्य क्षमता बढ़ाना।
    • संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अध्याय VII सुरक्षा परिषद को अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को बनाए रखने या बहाल करने के लिए कार्रवाई करने का अधिकार देता है।

संदर्भ

हाल ही में विद्रोही मिलिशिया हयात तहरीर अल-शाम (Hayat Tahrir al-Sham- HTS) ने सीरिया के दूसरे सबसे बड़े शहर अलप्पो पर अधिकार कर लिया है।

सीरिया के बारे में

  • स्थान: सीरिया एक पश्चिमी एशियाई देश है, जो भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर उत्तरी एवं पूर्वी गोलार्द्ध में स्थित है।
  • सीमाएँ: यह तुर्किए (उत्तर), इराक (पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व), जॉर्डन (दक्षिण), इजरायल तथा लेबनान (दक्षिण-पश्चिम) के साथ सीमाएँ साझा करता है।

सीरिया का भूगोल

  • पर्वत: एंटी-लेबनान पर्वत, सीरिया एवं लेबनान को अलग करते हैं, जिसका उच्चतम बिंदु माउंट हर्मन (2,814 मीटर) है।
    • बिशरी पर्वत (Bishri Mountains) पश्चिम-मध्य एवं उत्तरी क्षेत्रों पर अवस्थित है।
  • नदियाँ: फरात (Euphrates) नदी (तुर्किए  से निकलने वाली) एवं उसकी सहायक नदी, खबूर नदी (Khabur River), प्रमुख जल निकाय हैं।
    • छोटी नदियाँ केंद्रीय घाटियों एवं एक मानव निर्मित जलाशय अल-असद (Al-Assad) में प्रवाहित होती हैं।

  • वनस्पतियाँ : तटीय क्षेत्र भूमध्यसागरीय वनस्पतियों से समृद्ध हैं, जबकि पूर्व में सीरियाई रेगिस्तान में विरल वनस्पति पाई जाती  है।
  • समुद्र: भूमध्य सागर पश्चिम में अवस्थित है, जिसमें रेतीली खाड़ियाँ, चट्टानें एवं चट्टानी हेडलैंड के साथ 180 किमी. लंबी तटरेखा है।
  • सीरिया के महत्त्वपूर्ण शहर
    • दमिश्क: राजधानी एवं सबसे बड़ा शहर, बारदा नदी के पास स्थित, दुनिया के सबसे पुराने लगातार बसे शहरों में से एक है।
    • अलप्पो: सीरिया का सबसे अधिक आबादी वाला शहर है।
  • जलवायु: सीरिया में भूमध्यसागरीय जलवायु है, जिसमें हल्की, नम सर्दियाँ एवं गर्म, शुष्क ग्रीष्मकाल होते हैं। पूर्वी रेगिस्तानी क्षेत्र शुष्क हैं।

संदर्भ

सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन राज्य मंत्रालय के तहत भारत के सकल घरेलू उत्पाद आधार वर्ष को वर्ष 2011-12 से वर्ष 2022-23 तक संशोधित करने के लिए बिस्वनाथ गोलदार (Biswanath Goldar) की अध्यक्षता में 26 सदस्यीय ACNAS  उच्च स्तरीय पैनल का गठन किया गया है।

अद्यतन के उद्देश्य

  • आधार वर्ष संशोधन: GDP गणना के लिए नया आधार वर्ष 2022-23 तक अद्यतन किया जाएगा।
    • आधार वर्ष 2011-12 पर आधारित वर्तमान GDP शृंखला जनवरी 2015 में शुरू की गई थी।
  • आधार वर्ष बदलने के प्रमुख कारण
    • प्रतिबिंबित आर्थिक बदलाव: भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन हुए हैं, विशेषकर सेवा एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में। पुराना आधार वर्ष वर्तमान आर्थिक वास्तविकता का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।
    • नए डेटा स्रोतों का लाभ उठाना: डिजिटल भुगतान एवं E-कॉमर्स जैसे उच्च-आवृत्ति डेटा स्रोतों की उपलब्धता में सुधार हुआ है, जिससे अधिक सटीक GDP गणना संभव हो सकी है।
    • महामारी के बाद की अर्थव्यवस्था को अपनाना: कोविड-19 महामारी ने वैश्विक एवं घरेलू आर्थिक गतिशीलता को नया आकार दिया है। एक नया आधार वर्ष इन परिवर्तनों को शामिल करने तथा आर्थिक सुधार का अधिक सटीक आकलन प्रदान करने में मदद करता है।
    • अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ संरेखित करना: आधार वर्ष को अद्यतन करने से अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ भारत के सकल घरेलू उत्पाद डेटा की तुलना बढ़ जाती है, जिससे वैश्विक आर्थिक विश्लेषण की सुविधा मिलती है।
  • राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी सलाहकार समिति (Advisory Committee on National Accounts Statistics- ACNAS): पैनल में RBI , शिक्षा जगत, केंद्र एवं राज्य सरकारों के सदस्य एवं शोधकर्ता शामिल हैं।
  • समय-सीमा और अपेक्षाएँ: यह अभ्यास वर्ष 2026 की शुरुआत तक पूरा होने की उम्मीद है।

आधार वर्ष के बारे में 

  • आधार वर्ष एक विशिष्ट वर्ष है, जिसका उपयोग समय के साथ आर्थिक परिवर्तनों को मापने के लिए एक बेंचमार्क के रूप में किया जाता है।
  • आधार वर्ष में संशोधन: सरकार समय-समय पर अर्थव्यवस्था की संरचना एवं संघटन में परिवर्तन को प्रतिबिंबित करने के लिए आधार वर्ष में संशोधन करती है।
  • पहला अनुमान: पहला आधिकारिक GDP अनुमान आधार वर्ष के रूप में वर्ष 1948-49 पर आधारित था।
    • वर्ष 1956 में केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (CSO) के तहत प्रकाशित किया गया था।

GDP गणना में आधार वर्ष की भूमिका

  • मूल्य सूचकांक: आधार वर्ष की कीमतों का उपयोग मूल्य सूचकांक बनाने के लिए किया जाता है, जैसे कि GDP डिफ्लेटर।
  • GDP डिफ्लेटर: किसी अर्थव्यवस्था में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के समग्र मूल्य स्तर की एक माप।
    • गणना: (नाममात्र (नॉमिनल) GDP / वास्तविक GDP ) x 100
  • वास्तविक GDP  गणना: वास्तविक GDP = नाममात्र GDP / GDP डिफ्लेटर
  • हालिया आधार वर्ष: GDP गणना के लिए भारत का वर्तमान आधार वर्ष 2011-12 है।

सांख्यिकीय रिपोर्टिंग को मजबूत करने के लिए उठाए गए कदम

  • मानकीकृत डेटा संरचनाएँ: राष्ट्रीय सांख्यिकी प्रणाली में डेटा संग्रह एवं रिपोर्टिंग के  बीच सामंजस्य स्थापित करना।
  • प्रशासनिक डेटा का उपयोग: डेटा गुणवत्ता बढ़ाने के लिए प्रशासनिक रिकॉर्ड का एकीकरण करना।
  • सलाहकार भूमिका: ACNAS नए डेटा स्रोतों की पहचान करेगा एवं संशोधित राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी संकलित करने के लिए कार्यप्रणाली को परिष्कृत करेगा।

आधार वर्ष में परिवर्तन के निहितार्थ

  • आर्थिक वृद्धि संबंधी बेहतर अंतर्दृष्टि: आधार वर्ष को संशोधित करने से ऐतिहासिक GDP अनुमानों को समायोजित किया जाएगा, जिससे आर्थिक रुझानों एवं विकास पैटर्न की स्पष्ट समझ प्राप्त होगी।
  • उन्नत नीति नियोजन: सटीक GDP डेटा स्वास्थ्य, शिक्षा एवं बुनियादी ढाँचे जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में बेहतर लक्षित सरकारी नीतियों को सक्षम करेगा।
  • निवेशकों के विश्वास को बढ़ावा: अद्यतन एवं पारदर्शी डेटा अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति को दर्शाएगा, जिससे निवेशकों का विश्वास आकर्षित होगा।

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