उपनिवेशवाद से स्वतंत्रता की ओर |
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चुनावी राजनीति का उद्भव – |
पृष्ठभूमि – |
- भारत की विशाल निरक्षर आबादी, विविधताओं, खराब आर्थिक स्थिति के बावजूद , भारत को मजबूत करने और लोकतांत्रिक संस्थानों को अपनाने के सन्दर्भ में बड़े स्तर पर राष्ट्रीय नेतृत्त्व का अभाव था|
- इस तरह की गंभीर चुनौतियों का सामना करते हुए, विभिन्न देशों के नेताओं ने लोकतंत्र के शासन का विरोध किया, उपनिवेशवाद से स्वतंत्र होने वाले विभिन्न देशों के नेताओं के अनुसार, उनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय एकता थी, जो लोकतंत्र के साथ कायम नहीं होगी क्योंकि यह मतभेद और टकराव लाएगा। इसलिए, हमने बहुत से नए स्वतंत्र देशों में गैर-लोकतांत्रिक शासन देखे हैं।
- प्रतिस्पर्धा और शक्ति राजनीति के सन्दर्भ में दो सबसे अधिक दिखाई देने वाली चीजें हैं, जबकि राजनीतिक गतिविधि का लक्ष्य सार्वजनिक हित का निर्णय करना और उसको पूरा करना होना चाहिए। यही वह मार्ग है जिसे हमारे नेताओं ने आगे अनुसरण करने का फैसला किया।
भारत– लोकतांत्रिक और गणतंत्र राष्ट्र– |
26 जनवरी 1950 को संविधान के अपनाने के बाद, देश की पहली प्राथमिकता लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को स्थापित करना था। भारत का चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए संवैधानिक प्रावधान के साथ जनवरी 1950 में स्थापित किया गया था। सु-कुमार सेन पहले मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गये|
- भारत ने लोकतंत्र के सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार मॉडल को अपनाया है, जहां कोई व्यक्ति उम्र की निर्धारित शर्त के अनुसार किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना मतदान कर सकता है|
- चुनाव आयोग को जल्द ही ये आभास हो गया कि भारत जैसे विशाल देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना एक मुश्किल काम है।
- पहले आम चुनाव की तैयारी व्यापक स्तर पर हुए थी। इससे पहले दुनिया में इतने बड़े पैमाने पर कोई भी चुनाव नहीं करवाया गया था।
- उस समय 17 करोड़ पात्र मतदाता थे, जिन्हें लोकसभा के लगभग 489 सांसदों और राज्य विधानसभाओं के 3200 विधायकों का चुनाव करना था।
- इन योग्य मतदाताओं में से केवल 15% लोग साक्षर थे । इसलिए चुनाव आयोग ने मतदान की कुछ विशेष विधि की मांग की थी, जैसे उम्मीदवारों को प्रतीक चिन्हों द्वारा पहचाना करना था, जिसे प्रत्येक प्रमुख पार्टी और स्वतंत्र उम्मीदवारों को प्रदान किया गया था, एक विशेष उम्मीदवार को सौंपे गए बॉक्स के मतपत्रों पर चित्रित किया गया था और चुनाव गुप्त मतदान प्रणाली द्वारा हुए थे।
- चुनाव आयोग ने निष्पक्ष चुनाव का संचालन करने के लिए 3 लाख से अधिक अधिकारियों और मतदान कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया। लोकतंत्र ने पहले चुनावों के साथ अपना एक महत्तपूर्ण कदम आगे बढ़ाया, जो विश्व के किसी भी देश में लोकतंत्र के क्षेत्र सबसे बड़ा प्रयोग था। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जहा अनेक जातियां, अनेक धर्म, अनपढ़ समाज और पिछड़ा वर्ग मौजूद था, वहा लोकतांत्रिक चुनावों को लेकर लोगों में कई संदेह थे ।
चुनाव 25 अक्टूबर, 1951 से 21 फरवरी, 1952 तक लगभग चार महीने में संपन्न हुआ । चुनाव निष्पक्ष, स्वतंत्र, और क्रमबद्ध तरीके से बहुत कम हिंसा के साथ संपन्न हुआ
राजनीतिक आदेश एवं चुनाव पर लोगो की प्रतिक्रिया – |
- राजनीतिक व्यवस्था के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र थी। उन्होंने इस जागरूकता के साथ मतदान में भाग लिया कि उनका वोट अमूल्य था।
- कुछ स्थानों पर, लोगों ने मतदान को उत्सव के रूप में मनाया, लोगो ने उत्सव के कपड़े पहने महिलाओं ने अपने गहने पहने।
- गरीबी और अशिक्षा के उच्च प्रतिशत के बावजूद, अमान्य वोटों की संख्या3% से 0.4% से भी कम थी
- इस चुनाव की एक उल्लेखनीय विशेषता यह थी की महिलाओं ने इसमें व्यापक स्तर पर भागीदारी की कम से कम 40% महिलाओं ने वोट दिया। इस प्रकार, लोगों में नेतृत्व का विश्वास पूरी तरह से उचित था। जब चुनाव परिणाम घोषित किए गए, तो आकलन किया गया कि लगभग 46% योग्य मतदाताओं ने वोट डाला।
स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव में भाग लेने वाले राजनीतिक दल – |
- इंडियन नेशनल कांग्रेस टू सोशलिस्ट पार्टी
- किसान मजदूर प्रजा पार्टी
- साम्यवादी और सहयोगी
- जन सिंह
- हिंदू महासभा
- आरआरपी [राम राज्य परिषद]
- अन्य स्थानीय दल
- निर्दलीय
परिणाम–
- लोकसभा के लिए कुल मतदान के 45% वोटों के साथ 364 सीटें जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी।
- केंद्र और सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी। लेकिन इसे चार राज्यों-मद्रास, त्रावणकोर,कोचीन, उड़ीसा, में बहुमत नहीं मिला, लेकिन निर्दलीय और छोटे स्थानीय दलों की मदद से वहां भी सरकारें बनाईं, जिनका विलय इसके साथ हो गया।
- साम्यवादी दल का प्रदर्शन आश्चर्यजनक था और यह लोकसभा में दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरा । रियासतों और बड़े जमींदारों ने अभी भी देश के कुछ हिस्सों में काफी प्रभाव डाला ।.
- उनकी पार्टी गणतंत्र परिषद ने उड़ीसा विधानसभा में 31 सीटें जीतीं। कांग्रेस के संख्यात्मक रूप से प्रभावी होने के बावजूद संसद में विपक्ष काफी प्रभावी था।
- मध्यम वर्ग के लिए, मजदूर संघ, किसान सभा, हड़ताल, उत्पीड़न, बैंड और प्रदर्शन जैसे राजनीतिक भागीदारी के अन्य रूप उपलब्ध थे, संगठित मजदूर वर्ग और अमीर और मध्यम वर्ग के किसान वर्ग। चुनाव ग्रामीण और शहरी गरीबों के विशाल जनसमूह के लिए प्रत्यक्ष राजनीतिक भागीदारी का मुख्य रूप थे।
- 1952 के बाद, नेहरू वर्षों के दौरान, 1957 और 1962 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए दो अन्य आम चुनाव हुए। मतदाता का मतदान 1957 में 47% और 1962 से 54% हो गया। दोनों चुनावों में, कांग्रेस फिर से एक सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और केंद्र और राज्यों स्तर पर सरकार बनाई।
- हालाँकि, 1957 में, कम्युनिस्ट केरल में सरकार बनाने में सक्षम रही , यह कम्युनिस्ट सरकार के लिए विश्व के किसी भी लोकतान्त्रिक देश में पहली जीत थी|
निष्कर्ष – |
- चुनावों का निष्पक्ष और शांतिपूर्ण आचरण इस बात का संकेत था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्थाओं के साथ ,राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत की जड़े मजबूत होने लगी हैं।
- चुनावों का सफल आयोजन, भारत और नेहरू विदेशों में, विशेष रूप से, पूर्व-औपनिवेशिक देशों के लिए एक मिसाल बनती जा रही थी।
- राजनीतिक नेतृत्व ने राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने और एकीकरण की अपनी नीतियों को वैध बनाने के लिए चुनावों का उपयोग किया। अशोक मेहता ने कहा, “संसद ने राष्ट्र के एकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया”।
List of Government and Prime Ministers (1947-2020)- |
नाम | जन्म-मृत्यु | कार्यकाल | उक्ति |
Jawahar Lal Nehru
जवाहर लाल नेहरू |
(1889–1964) | 5 अगस्त 1947 से 27 मई 1964
16 वर्ष, 286 दिन |
भारत के प्रथम, सबसे लंबे कार्यकाल और ऐसे पहले प्रधानमंत्री थे जिनकी मृत्यु कार्यकाल के दौरान हुई। |
Gulzarilal Nanda
गुलजारी लाल नंदा |
(1898–1998) | 27 मई,1964 से 9 जून 1964,
13 दिन |
भारत के पहले कार्यकारी प्रधानमंत्री। |
Lal Bahadur Shastri
लाल बहादुर शास्त्री |
(1904–1966) | 9 जून, 1964 से 11 जनवरी 1966
1 वर्ष, 216 दिन |
1965 में इंडिया पाकिस्तान युद्ध के दौरान इन्होंने “जय जवान जय किसान” का नारा दिया |
Indira Gandhi
इंदिरा गांधी |
(1917–1984) | 24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977
11 वर्ष, 59 दिन |
भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री| |
Morarji Desai मोरारजी देसाई | (1896–1995) | 24 मार्च 1977 – 28 जुलाई 1979
2 वर्ष ,116 दिन |
81 वर्ष के सबसे अधिक उम्र के प्रधानमंत्री और सबसे पहले प्रधानमंत्री जी थे जिन्होंने इस्तीफा दिया |
Charan Singh
चरण सिंह |
(1902–1987) | 28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी 1980
170 दिन |
एकमात्र प्रधानमंत्री जो संसद में कभी नहीं गयें |
Indira Gandhi
इंदिरा गांधी |
(1917–1984) | 14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर 1984
4 वर्ष, 291 दिन |
पहली महिला ,जो दूसरी बार प्रधानमंत्री बनी |
Rajiv Gandhi
राजीव गांधी |
(1944–1991) | 31 अक्टूबर 1984 से 2 दिसंबर 1989
5 वर्ष, 32 दिन |
सबसे कम उम्र ,मात्र 40 वर्ष में प्रधानमंत्री बने। |
V. P. Singh
वी पी सिंह |
(1931–2008) | 2 दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990
343 दिन |
अविश्वास प्रस्ताव के बाद पद छोड़ने वाले पहले प्रधानमंत्री| |
Chandra Shekhar
चंद्रशेखर |
(1927–2007) | 10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991
223 दिन |
यह समाजवादी जनता पार्टी से संबंधित थे। |
P. V. Narasimha Rao
पी वी नरसिम्हा राव |
(1921–2004) | 21 जून 1991 से 16 मई 1996
4 वर्ष, 330 दिन |
भारत के पहले प्रधानमंत्री जो दक्षिण भारत से संबंधित थे। |
Atal Bihari Vajpayee
अटल बिहारी बाजपेई |
(born 1924) | 16 मई 1996 से 1 जून 1996
,16 दिन |
सबसे कम कार्यकाल के प्रधानमंत्री। |
H. D. Deve Gowda
एच डी देवगौड़ा |
(born 1933) | 1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997
324 दिन |
ये जनता दल से संबंधित हैं |
Inder Kumar Gujral
इंदर कुमार गुजराल |
(1919–2012) | 21 अप्रैल 1997 to 19 मार्च 1998, 332 दिन | —— |
Atal Bihari Vajpayee
अटल बिहारी वाजपेई |
(born 1924) | 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004
6 वर्ष, 64 दिन |
पहले ऐसे गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री जिन्होंने अपना कार्यकाल संपूर्ण किया। |
Manmohan Singh
मनमोहन सिंह |
(born 1932) | 22 मई 2004 से 26 मई 2014
10 वर्ष, 4 महीना, 2 दिन |
पहले सिख प्रधानमंत्री |
Narendra Modi
नरेंद्र मोदी |
(born 1950) | 26 मई 2014, कार्यरत | लगातार दो बार प्रधानमंत्री बनने वाले भारत के चौथे प्रधानमंत्री हैं। |
लोकतांत्रिक संगठनों की स्थापना:
- इस अवधि में न्यायालयों की स्वतंत्रता का विकास हुआ।
- संसद का सम्म्मान किया गया और इसकी गरिमा, प्रतिष्ठा और शक्ति को बनाए रखने का प्रयास किया गया था।
- संसदीय समिति जैसे प्राक्कलन समिति आदि ने समीक्षक और प्रहरी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- नेहरू के नेतृत्व में, कैबिनेट प्रणाली एक उन्नत तरीके से विकसित हुई और प्रभावी रूप से कार्य की।
- इन वर्षों में संविधान में प्रदत्त संघवाद, जिसमे राज्यों को शक्तिया हस्तांतरित की गयी थी, भारतीय राजव्यवस्था को एक दृढ़ विशेषता के रूप में स्थापित किया गया
- सशस्त्र बलों पर सिविल गोवर्नमेंट के वर्चस्व की परंपरा पूरी तरह से लागू थी।
प्रसाशनिक नियंत्रण |
- प्रशासनिक संरचना का आधार स्तम्भ भारतीय सिविल सेवा था ।
- सरदार पटेल को महसूस हुआ कि प्रशासनिक निकाई की धारणा आवश्यक है । वह प्रशासन में अचानक से हुए असंतोष और शून्य के पक्ष में नहीं थे, विशेष रूप से आईसीएस के लिए ।
- कुशल पूर्ण प्रशिक्षित, बहुमुखी और अनुभवी नागरिक सेवाएं भारत के लिए एक अलग संपत्ति और लाभ था।
- नेहरू युग की एक सबसे बड़ी उपलब्धि वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी शिक्षा का क्षेत्र था।
- विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान के महत्व पर जोर देने के लिए, नेहरू ने खुद वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद की अध्यक्षता की, जिसने राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं और अन्य वैज्ञानिक संस्थानों का मार्गदर्शन और वित्त पोषण किया।
- आईआईटी का गठन किया गया। वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा दिया गया।
- बाद के वर्षों में, वैज्ञानिक अनुसंधानों को नुकसान होने लगा क्योंकि वैज्ञानिक संस्थानों का संगठन और प्रबंधन संरचना अत्यधिक नौकरशाही और श्रेणीबद्ध था।
- परमाणु ऊर्जा को महत्व दिया गया। नेहरू आश्वस्त थे कि परमाणु ऊर्जा (शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए) सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में क्रांति ला सकती है। परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना 1948 में की गई थी।
- रक्षा उपकरणों के उत्पादन में भारत की क्षमता बढ़ाने के लिए कदम उठाए गए, ताकि भारत अपनी रक्षा जरूरतों के मामले में आत्मनिर्भर हो सके।
सामाजिक परिवर्तन
- सामाजिक सुधारों के कुछ महत्वपूर्ण उपाय थे- भूमि सुधार, नियोजित आर्थिक विकास की शुरुआत, सार्वजनिक क्षेत्र का तेजी से विस्तार, ट्रेड यूनियनों के गठन का अधिकार और हड़ताल पर जाना, रोजगार की सुरक्षा और स्वास्थ्य बीमा का प्रावधान।
- आयकर और उत्पाद कर की प्रगतिशील नीतियों के माध्यम से धन के अधिक न्यायसंगत वितरण के लिए कदम उठाए गए थे|
- सरकार ने 1955 में अस्पृश्यता विरोधी कानून को संज्ञेय अपराध बनाकर एंटी-अस्पृश्यता कानून पारित किया। हालाँकि, एससी और एसटी पिछड़े हुए थे और जातिगत उत्पीड़न अभी भी व्यापक रूप से प्रचलित था, खासकर ग्रामीण भारत में|
- हिंदू कोड बिल संसद में पारित किया गया था। इसने पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए एकरसता और तलाक के अधिकार को पेश किया, सहमति और विवाह की उम्र को बढ़ाया, और महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति के रखरखाव और विरासत का अधिकार दिया। इस संबंध में एक महत्वपूर्ण कमी यह थी कि सभी धर्मों के अनुयायियों को कवर करने वाला एक समान नागरिक संहिता लागू नहीं किया गया था|
शिक्षा |
- बेहतर और व्यापक शिक्षा सामाजिक और आर्थिक प्रगति का एक महत्वपूर्ण साधन था।
- सरकार ने प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च और तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए बड़ी रकम प्रदान की। चूंकि शिक्षा मुख्य रूप से एक राज्य का विषय था, इसलिए नेहरू ने राज्य सरकारों से प्राथमिक शिक्षा पर खर्च को कम न करने का आग्रह किया।
- नेहरू के काल में, विशेष रूप से लड़कियों के मामले में शिक्षा का तेजी से विस्तार हुआ ।
- विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की संख्या में भारी वृद्धि हुई थी। हालांकि, प्राथमिक शिक्षा में हुई प्रगति, विशेष रूप से ग्रामीण भारत में, जरूरतों के अनुरूप नहीं थी।
- ग्रामीण उत्थान और गांवों में कल्याणकारी राज्य की नींव रखने के दो प्रमुख कार्यक्रम थे- सामुदायिक विकास कार्यक्रम और पंचायती राज। यद्यपि इसको कृषि विकास के लिए डिज़ाइन किया गया था, परन्तु इनका उद्देश्य कल्याणकारी था। उनका मूल उद्देश्य ग्रामीण भारत के स्वरुप को बदलना था।
- कार्यक्रम में ग्रामीण जीवन के सभी पहलुओं कृषि विधियों में सुधार से लेकर संचार, स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार तक को शामिल किया गया।
- कार्यक्रम का प्रभाव: लोगों द्वारा आत्मनिर्भरता और स्वयं सहायता, लोकप्रिय भागीदारी और जिम्मेदारी और पिछड़े समुदायों का उत्थान आदि के रूप में देखा जा सकता है।
- कार्यक्रम के परिणाम: कार्यक्रम के परिणामस्वरूप बेहतर बीज, उर्वरक, कृषि विकास, खाद्य उत्पादन, सड़कों, टैंकों और कुओं का निर्माण, स्कूल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, और शैक्षिक और स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार हुआ ।
- परन्तु , यह कार्यक्रम अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहा। यह लोगों को विकास गतिविधियों में पूर्ण भागीदार के रूप में शामिल करने में विफल रहा, साथ ही कार्यक्रम का नौकरशाहीकरण होने से भी लोकप्रिय भागीदारी में कमी देखी गई।
- सामुदायिक विकास कार्यक्रम की कमजोरियों का पता तब चला जब बलवंत राय मेहता समिति ने इसके नौकरशाहीकरण और लोकप्रिय भागीदारी की कमी की कड़ी आलोचना की।
- समिति ने ग्रामीण और जिला विकास प्रशासन के लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की सिफारिश की।
- समिति की सिफारिश पर, ग्राम पंचायत के साथ अपने आधार पर लोकतांत्रिक स्वशासन की एक अभिन्न प्रणाली शुरू करने का निर्णय लिया गया।
- नई प्रणाली, जिसे पंचायती राज को पारित किया गया तथा इसे विभिन्न राज्यों में लागू किया गया।
पंचायती राज |
- इसमें त्रि-स्तरीय संरचना, सीधे निर्वाचित ग्राम या ग्राम पंचायतें, और अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित ब्लॉक-स्तरीय पंचायत समितियाँ और जिला-स्तरीय जिला परिषद शामिल थीं।
- पंचायती राज का उद्देश्य सामुदायिक विकास कार्यक्रम की कमियों को तीन स्तरीय समिति के मार्गदर्शन में काम करने वाले अधिकारियों के साथ विकास प्रक्रिया के निर्णय लेने और कार्यान्वयन में लोकप्रिय भागीदारी प्रदान करना था।
- कमियां: राज्य सरकारों ने कम उत्साह दिखाया, पंचायती समितियों पर कोई वास्तविक शक्ति नहीं बनाई, अपनी शक्तियों और कार्यों पर अंकुश लगाया और उन्हें धन दिया। राजनीतिकरण और नौकरशाही के मुद्दे भी इसमें विद्यमान थे।
इस प्रकार, पंचायती राज बलवंत राय मेहता समिति, जवाहरलाल नेहरू द्वारा सौंपी गई भूमिका नहीं निभा सकीं। सामुदायिक विकास कार्यक्रम, पंचायती राज और सहकारी आंदोलन की मूल कमजोरी यह थी कि उन्होंने ग्रामीण समाज के वर्ग विभाजन को नजरअंदाज कर दिया, जहां लगभग आधी आबादी भूमिहीन थी या जिनके पास सीमांत भूमि थी, और इस तरह वे काफी शक्तिहीन थे। गाँव के सामाजिक और आर्थिक जीवन स्तर पर मुख्य रूप से पूँजीवादी किसानों/अमीर और मध्यम किसानों का प्रभुत्व था। न तो ग्रामीण वर्गों का प्रभुत्व था और न ही नौकरशाह सामाजिक एजेंट बन सकते थे|
कांग्रेस का प्रभुत्व (1947-1977) |
पृष्ठभूमि – |
- जैसा कि हमने चुनावी राजनीति के उद्भव के बारे में चर्चा की है, कांग्रेस पार्टी ने देश के पहले आम चुनावों में बड़ी सफलता हासिल की।
- शुरुआती तीन आम चुनावों में, कांग्रेस को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। कांग्रेस ने हर चार सीटों में से तीन पर जीत हासिल की लेकिन उसने कुल मतदान में आधे वोट भी प्राप्त नहीं किया।
- भारत की स्वतंत्रता के बाद, पहले 30 वर्षों के लिए, कांग्रेस सरकार लोकसभा में एकमात्र सबसे बड़ी पार्टी थी।
- भारतीय राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व था जो 1977 के आम चुनाव तक बिना रुके चला।
- भारत केवल एकमात्र ऐसा अपवाद नहीं है, जिसने एक पार्टी के प्रभुत्व का अनुभव किया हो, हम दुनिया के अन्य हिस्सों में भी ‘एक पार्टी के प्रभुत्व’ का उदाहरण देख सकते हैं.
- अन्य देशों में, हमने देखा है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मानदंडों के साथ समझौता हुआ है, जबकि भारत ने उन मूल्यों और मानदंडों को बरकरार रखा।
- चीन, क्यूबा और सीरिया जैसे कुछ देशों में संविधान केवल एक पार्टी को देश पर शासन करने की अनुमति देता है।
- कुछ अन्य जैसे म्यांमार, बेलारूस, मिस्र और इरिट्रिया कानूनी और सैन्य उपाय के कारण प्रभावी रूप से एक-पक्षीय राज्य थे|
कांग्रेस के प्रभुत्व की प्रकृति – |
- स्वतंत्रता के बाद के आम चुनावों को सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस अपने स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के परिश्रम के फल तक पहुंच गई थी। इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आंदोलनों की “विरासत” विरासत में मिली थी।
- पूरे देश में स्वतंत्रता आंदोलन के अपने मजबूत संगठनात्मक नेटवर्क के कारण, यह तुरंत जनता तक पहुंच गया और जनता के साथ अच्छी तरह से जुड़ा।
- इतने कम समय में खुद को संगठित करना और जनता का विश्वास हासिल करना अन्य राजनीतिक दलों के लिए संभव नहीं था। स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के दौरान, INC ने समावेशी दृष्टिकोण अपनाया और समाज के सभी स्तरों की सदस्यता स्वीकार की।
- स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस ने समान विशेषताओं को बनाए रखा। कांग्रेस भी विविध और भिन्न वर्ग, अनुभागीय और क्षेत्रीय हितों के सामंजस्य, आवास और समायोजन के लिए माध्यम के रूप में संवेदनशील कार्य करती रही।
- कांग्रेस एक वैचारिक गठबंधन था। इसने क्रांतिकारी और शांतिवादी, रूढ़िवादी और कट्टरपंथी, उग्रवादी और उदारवादी और केंद्र के दाएं, बाएं सभी रंगों को समायोजित किया|
- कांग्रेस पार्टी की गठबंधन प्रकृति ने विभिन्न गुटों को सहन किया और प्रोत्साहित किया और एक कमजोरी होने के बाबजूद , आंतरिक गुटबाजी कांग्रेस की ताकत बन गई।
- गुटों की प्रणाली सत्ताधारी पार्टी के भीतर संतुलन तंत्र के रूप में कार्य करती है। चुनावी प्रतियोगिता के पहले दशक में, कांग्रेस ने सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष के रूप में भी काम किया।
- इसलिए, प्रसिद्ध राजनीतिक वैज्ञानिक, श्री रजनी कोठारी ने भारतीय राजनीति के इस दौर को “कांग्रेस प्रणाली” कहा।
निष्कर्ष – |
- 1980 में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी (1984) के नेतृत्व में कांग्रेस ने फिर से सत्ता हासिल की।
- 1980-89 की अवधि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कांग्रेस के प्रभुत्व की वापसी का दौर है।
- 1989 के आम चुनाव में हारने के बाद, कांग्रेस ने बहुमत में कभी सरकार नहीं बनाई।
- 10 वीं लोकसभा के सदस्यों का चुनाव करने के लिए 1991 में भारत में आम चुनाव हुए।
- चुनाव का परिणाम यह था कि किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिल सकता था, इसलिए एक अल्पसंख्यक सरकार (वाम दलों की मदद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस) का गठन किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप अगले 5 वर्षों के लिए नये प्रधान मंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव बने।
विपक्षी दलों का उद्भव |
पृष्ठभूमि |
- कांग्रेस पार्टी के शानदार प्रदर्शन के कारण, सभी विपक्षी दलों ने “कांग्रेस प्रणाली” अवधि के दौरान लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में केवल एक टोकन प्रतिनिधित्व प्राप्त किया। फिर भी इन विरोधों ने व्यवस्था के लोकतांत्रिक चरित्र को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- विपक्षी दलों ने कांग्रेस की प्रथाओं और नीतियों की निरंतर और सैद्धांतिक आलोचना की। लोकतांत्रिक राजनीतिक विकल्प को जीवित रखते हुए, विपक्षी दलों ने व्यवस्था के साथ आक्रोश को लोकतंत्र विरोधी में बदलने से रोका।
- सही अर्थों में भारत के लोकतंत्र की शुरुआत में विपक्ष और कांग्रेस के बीच अच्छे संबंध थे।
- स्वतंत्रता से पहले अंतरिम सरकार में विपक्षी नेताओं का समावेश था और स्वतंत्रता के बाद की सरकार में भी विपक्षी नेताओं जैसे डॉ.बी.आर. अम्बेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी (जन जाभा) नेहरू के मंत्रिमंडल में थे।
- 1977 में- पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता सरकार ने किया था। हालांकि जनता सरकार 2 साल से ज्यादा नहीं टिक सकी लेकिन इसने कांग्रेस के प्रभुत्व को सफलतापूर्वक तोड़ दिया।
- भारतीय जनता पार्टी के उद्भव ने कांग्रेस सरकार के प्रभुत्व को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई|
विपक्षी दलों का उद्भव – |
समाजवादी पार्टी |
- स्वतंत्रता से पहले समाजवादी पार्टी की नींव तब पड़ी जब कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओं ने अधिक कट्टरपंथी और समतावादी कांग्रेस की मांग की। इसलिए, उन्होंने 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) का गठन किया।
- स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस पार्टी ने दोहरी सदस्यता के संबंध में नियम को बदल दिया था औरS.P के सदस्यों को कांग्रेस की सदस्यता से रोक दिया था। इस स्थिति ने सीएसपी नेताओं को 1948 में अलग सोशलिस्ट पार्टी बनाने के लिए मजबूर किया।
- समाजवादी लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा में विश्वास करते थे जो उन्हें कांग्रेस और कम्युनिस्टों से अलग करता था।
- समाजवादी पार्टी के नेताओं ने कांग्रेस पार्टी आलोचना करते हुए यह तर्क दिया कि कांग्रेस पार्टी पूजीपति वर्ग और जमींदार वर्ग के हित में काम करती है, जबकि अन्य वर्ग जैसे किसान और मजदुर वर्ग की अपेक्षाका करती है।
- समाजवादी पार्टी तब बड़ी दुविधा में थी जब 1955 में कांग्रेस पार्टी ने अपने लक्ष्य को समाज का समाजवादी स्वरूप घोषित किया। ऐसे परिदृश्य में, उनके नेता अशोक मेहता ने कांग्रेस के साथ सीमित सहयोग की पेशकश की।
- समाजवादी पार्टी के विभाजन और संघ से कई गुट उभरे। किसान मजदूर प्रजा पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, संयुक्ता सोशलिस्ट पार्टी ।
- जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, आचार्य नरेंद्र देव, एस.एम. जोशी समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता थे।
- समकालीन समय के कई पार्टी जैसे, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जनता दल (यूनाइटेड), जनता दल (सेकुलर) की उत्पत्ति समाजवादी पार्टी से हुई है।
भारतीय जनसंघ (BJS) |
- BJS का गठन 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा किया गया था और इसकी जड़ें आर.एस.एस. (राष्ट्रीय स्वयंसेवक सिंह) और आजादी से पहले के हिंदू महासभा से जुड़ी हुई थीं।
- BJS के नेता थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय (उन्होंने एकात्म मानववाद की अवधारणा की शुरुआत की), और बलराज मधोक.
- BJS ने लगभग सभी लोकसभा चुनावों में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया।
- समकालीन समय में, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपनी जड़ें बी.जे.एस. के साथ जोड़ लिया।
- BJS ने एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र के विचार पर जोर दिया और माना कि भारतीय संस्कृति और परंपराओं के आधार पर देश आधुनिक, प्रगतिशील और मजबूत बन सकता है।
RSS के साथ सम्बन्ध: |
- यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण था, और अपनी नींव के बाद, अपने कठिन विचारधारा और संगठनात्मकता को नियंत्रण में रखा।
- आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने के लिए तथा सरकार को राजी करने की इच्छा से उत्सुक आरएसएस कार्यकर्ताओं और नेताओं के द्वारा सरकार के साथ संवाद में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।
अवधारणा |
- इसने मिश्रित अर्थव्यवस्था, बड़े पैमाने के उद्योगों के विनियमन, प्रमुख औद्योगिक राष्ट्रीयकरण, ग्रामीण क्षेत्र में सेवा सहकारी समितियों आदि का समर्थन किया, लेकिन ये सिर्फ औपचारिक पद थे।
- अपने प्रारंभिक वर्षों में, जनसंघ ने अखण्ड भारत के अपने केंद्रीय उद्देश्य की खोज में भारत और पाकिस्तान के पुनर्मिलन के लिए तर्क दिया।
- एक देश, एक संस्कृति, एक राष्ट्र ’के नारा को बुलंद किया|
- प्रारंभ में यह संस्कृतिकरण और हिंदी भाषा के पक्ष में था और भारत की एक आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी की अवधारण के खिलाफ था परन्तु बाद में इसने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी मान्यता दी| (जब तक कि गैर-हिंदी राज्यों द्वारा हिंदी को आधारिक भाषा घोषित नहीं किया जाता )।
- इसने ज़बरदस्त हिंदू कोड बिल का विरोध किया और इसके पारित होने के बाद इस कानून को निरस्त करने का वचन दिया।
- इसने गोहत्या पर प्रतिबंध के अलावा किसी अन्य धार्मिक मुद्दे को नहीं उठाया।
- जनसंघ ने लगातार धर्मनिरपेक्ष दलों पर मुसलमानों के तुष्टिकरण का आरोप लगाया।
संप्रदायवाद: |
- पार्टी के सभी लोकप्रिय नारों सांप्रदायिक विचारधारा की अवधारणा से प्रेरित थी।
- मुसलमानों को पार्टी में शामिल करना भी उनके नेताओं और कैडरों द्वारा एक औपचारिकता के रूप में माना जाता था।
- 1967 में बीजेपी के अस्तित्व में आने से पहले जनसंघ पार्टी 35 सीटें के साथ एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में उभरी, परन्तु अब भी इसने दक्षिण भारत में खराब प्रदर्शन किया साथ ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद इसने पश्चिम बंगाल में तो अपनी राजनीतिक पकड़ खो दी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी – |
- रूस में बोल्शेविक क्रांति से प्रेरणा लेते हुए, वहाँ कई कम्युनिस्ट समूहों का उदय हुआ, जो समाजवाद की वकालत करते हुए 1920 की धारणा को प्रभावित करने वाली समस्याओं का हल है।
- कम्युनिस्टों ने मुख्य रूप से कांग्रेस के भीतर काम किया, लेकिन जब उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया, तो उन्होंने खुद को कांग्रेस से अलग कर लिया।
- इसने राजनीतिक पार्टी को चलाने के लिए समर्पित कैडर और योग्य कर्मियों को शामिल किया था।
- कम्युनिस्ट हिंसक विद्रोह में विश्वास करते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि सत्ता का हस्तांतरण वास्तविक नहीं था। बहुत कम लोगों को उनकी विचारधारा पर विश्वास था और वे सशस्त्र बल से कुचल दिए गए। बाद में उन्होंने हिंसक साधनों को छोड़ दिया और आम चुनावों में भाग लिया और दूसरे सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभर कर सामने आयें।
- पार्टी का समर्थन आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और केरल में अधिक केंद्रित था।
- उनके निष्ठावान नेताओं में ए.के. गोपालन, एस ए डांगे, ई.एम.एस. नंबूदिरी पैड, पी.सी. जोशी, अजय घोष और पी. सुंदरचार्य आदि शामिल थी|
- 1964 में CPI का विभाजन हुआ और चीन समर्थक गुट ने CPI (मार्क्सवादी) का गठन किया।
- जिसके परिणामस्वरूप भारतीय राज्यों इनकी पकड़ कमजोर हुए और उनकी उपस्थिति देश के बहुत कम राज्यों तक ही केंद्रित है|
स्वतंत्र पार्टी |
- स्वतंत्र पार्टी का गठन अगस्त 1959 में नागपुर कांग्रेस के संकल्प के बाद हुआ था, जिसमें सीमान्त भूमि, राज्य द्वारा खाद्यान्न व्यापार का अधिग्रहण, सहकारी गठन को अपनाना आदि शामिल था। वे इस संकल्प को नहीं मानते थे।
- पार्टी का मानना था कि अर्थव्यवस्था में सरकार की कम भागीदारी है। इसने अर्थव्यवस्था, केंद्रीय योजना, राष्ट्रीयकरण, सार्वजनिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप की विकास रणनीति का विरोध किया। उन्होंने प्रगतिशील कर व्यवस्था का विरोध किया और लाइसेंस राज को खत्म करने की मांग की।
- इसने गुटनिरपेक्ष नीति आलोचना की और सोवियत संघ के साथ-साथ भारत के अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंधों की वकालत की।
- उद्योगपति और बड़े जमींदारों ने इस पार्टी का समर्थन किया था।
- इस पार्टी का एक बहुत ही सीमित प्रभाव है, समर्पित कैडर की कमी है, इसलिए यह अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पायी।
- पार्टी के अध्यक्ष सी. राजगोपालाचारी, के.एम. मुंशी, एन.जी. रंगा और मीनू मसानी।
भारतीय जनता पार्टी (BJP)- |
- भाजपा का उद्भव श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 1951 में गठित भारतीय जनसंघ में हुआ|
- 1977 में, जनता पार्टी बनाने के लिए जनसंघ का कई अन्य दलों के साथ विलय हो गया|
- 1977 के आम चुनावों में इसने कांग्रेस पार्टी को हराया। तीन साल सत्ता में रहने के बाद, जनता पार्टी 1980 में भंग हो गई और तत्कालीन जनसंघ के सदस्यों के साथ मिलकर भाजपा का गठन किया।
- बीजेपी की स्थापना 1980 में हुई थी और इसके बाद यह भारत की राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी हो गई।
- भाजपा ने 1996 में अपनी पहली सरकार बनाई जिसमें पार्टी ने 161 लोकसभा सीटें हासिल कीं, जिससे वह संसद में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। वाजपेयी ने प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली, परन्तु लोकसभा में बहुमत प्राप्त करने में असमर्थ रहे, जिसके परिणामस्वरूप सरकार को 13 दिनों के बाद इस्तीफा देना पड़ा।
- 1996 में क्षेत्रीय दलों के गठबंधन ने सरकार बनाई, लेकिन यह समूह अल्पकालिक था, और 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए।
- भाजपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) नामक गठबंधन का नेतृत्व करते हुए चुनाव लड़ा, जिसमें समता पार्टी( Samata Party) शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना के अलावा ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनिद्र कषगम (AIADMK) और उसके सहयोगी दल शामिल थे।
- इन क्षेत्रीय दलों में, शिवसेना एकमात्र ऐसी थी जिसकी भाजपा के समान विचारधारा थी।
- NDA के पास तेलुगु देशम पार्टी (TDP) के बाहरी समर्थन के साथ बहुमत था और वाजपेयी प्रधानमंत्री के रूप में लौटे। हालांकि, मई 1999 में गठबंधन टूट गया जब AIADMK की नेता जयललिता ने अपना समर्थन वापस ले लिया, और फिर से नए चुनाव हुए|
- 13 अक्टूबर 1999 को, NDA, AIADMK के बिना, संसद में 303 सीटें जीती और इस तरह पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया।
- यह भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी जीत (183) थी। वाजपेयी जी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने तथा आडवाणी जी उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री बने|
- एनडीए सरकार ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। इसके नीतिगत एजेंडे में रक्षा और आतंक के साथ-साथ नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों पर अधिक आक्रामक रुख शामिल था।
- हालांकि, 2004 के आम चुनावों में, भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को हार मिली।
- 2014 में, लोकसभा में बहुमत वाली सीटों के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की विजयी हुई।
- IMP नेता- अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह, प्रमोद महाजन, नरेंद्र मोदी|
गठबंधन का युग/गठबंधन की राजनीति |
पृष्ठभूमि – |
- शुरुआती वर्षों में, कांग्रेस पार्टी ने भारी बहुमत प्राप्त किया।
- कांग्रेस पार्टी ने लोगों की लोकप्रियता और सम्मान पर धयान केंद्रित किया। पार्टी भारत में जनता से सीधे जुड़े हुई थीं। यह 1947 से 1967 तक केंद्र के साथ-साथ राज्यों में भी सत्ता में रहा और यह इसकी एक अखंड और अद्भुत विशेषता थी।
- हालांकि, मजबूत क्षेत्रीय दलों का उदय, विभिन्न सामाजिक समूहों का राजनीतिकरण और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए उनके संघर्ष ने राजनीतिक भारत में राजनीतिक परिवर्तन और मंथन किया और इसने संघीय स्तर पर गठबंधन सरकार को अपरिहार्य बना दिया|
भारत में गठबंधन राजनीति की शुरुआत |
- लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चौथे आम चुनावों के दौरान, नेहरू और शास्त्री के निधन के बाद, कांग्रेस पार्टी ने अपने जनादेश को समाप्त कर दिया और सामाजिक और संस्थागत परिवर्तन की पार्टी के रूप में अपना चरित्र और प्रेरणा खो दिया|
- लोग, भ्रष्टाचार और पार्टी सदस्यों की भागदौड़ भरी जीवनशैली से नाखुश थे। स्वतंत्र पत्रकार और प्रसारणकर्ता ज़ीरर मसानी के अनुसार, पार्टी के अनुशासन के भीतर निरंतर शक्ति के संघर्ष और तेजी से क्षरण के कारण, 1967 के चुनावों के दौरान कांग्रेस विरोधीयों का विश्वास और बढ़ा हुआ था।
- 1967 के चुनावों की एक महत्वपूर्ण विशेषता विपक्षी दलों का एक साथ आना था। 1967 के चुनावों ने अल्पकालिक गठबंधन सरकारों और दलबदल की राजनीति के दोहरे युग की शुरुआत की।
- तमिलनाडु को छोड़कर सभी विपक्षी शासित राज्यों में गठबंधन सरकारें बनीं। कांग्रेस ने भी कुछ राज्यों में गठबंधन सरकारें बनाईं।
- 1967 के चुनावों में गठबंधन की राजनीति की भी शुरुआत हुई। हरियाणा में जहां दलबदल की घटना पहली बार शुरू हुई थी, और नए शब्द “अया राम गया राम” गढ़ा गया था, ये उन नेताओं के लिए था जो अक्सर अपनी पार्टी बदलते रहते थे।
- 1967 से 1970 के दौरान लगभग 800 विधानसभा सदस्यों ने संसद में गए और उनमें से 155 ने मंत्री पद ग्रहण किया।
- 1967 के चुनावों ने नाटकीय रूप से कांग्रेस पार्टी के भीतर सत्ता के संतुलन को बदल दिया।
1977 के चुनाव – |
- आपातकाल (1975-77) और जे पी आंदोलन के कारण 1977 के आम चुनाव में केंद्र में कांग्रेस सरकार का पतन हुआ।
- अधिकांश विपक्षी दलों ने एक साथ आकर जनता पार्टी का गठन किया और 1977 के चुनाव बहुमत हासिल किया|
Formation of Government- |
Constituent Group | No. of MP’s | No. of Ministers |
जनसंघ (Jana Sangh ) | 94 | 11 |
भारतीय लोक दल( Bhartiya Lok Dal) | 71 | 12 |
कांग्रेस (Congress (O)) | 50 | 10 |
सोशलिस्ट पार्टीSocialist Party | 28 | 4 |
कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी (CFD:- Congress for Democracy) | 28 | 3 |
Ex-Congressmen (चंद्रशेखर समूह) | 5 | 2 |
Others [Like Akali Dal etc.] | 25 | 2 |
- जुलाई 1979 में सत्ता और स्थिति की आकांक्षा के कारण जनता गठबंधन ताश के पत्तों की तरह ढह गया। ढहने के अन्य कारण थे, दलबदल के द्वार खुले हुए थे और अकाली और अन्य क्षेत्रीय समूहों ने अपना समर्थन वापस ले लिया था।
- एल.के. आडवाणी के अनुसार जनता पार्टी 1979 की हार से कष्ट में थी, आंशिक रूप से एक पार्टी के अनुशासन और उनकी मूल अवधारणा के कारण गैर-प्रशासन अब शासन व्यवस्था का अवरोध बन गया |
- गठबंधन के भीतर सत्ता के लिए एक दूसरे से संघर्ष, टकराव का कारण बना।
- जनता सरकार के पतन के बाद, भारत में चरण सिंह के नेतृत्व में एक और गठबंधन सरकार बनीं लेकिन यह सरकार बहुत कम समय के लिए रही ।
- बाद में लगभग एक दशक तक भारत में कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में एक स्थिर पार्टी की सरकार थी, लोग पहले की दो गठबंधन सरकारों से नाखुश थे|
लगातार गठबंधन सरकार का काल – |
- कांग्रेस द्वारा एक दशक पुरानी स्थिर सरकार के बाद, गठबंधन की राजनीति की वापसी हुई। 1989 में चुनाव कांग्रेस पार्टी की हार का कारण बने लेकिन किसी अन्य पार्टी को भी बहुमत नहीं मिला था।
- कांग्रेस पार्टी की 1989 की इस हार ने इंडिया पार्टी सिस्टम पर कांग्रेस के प्रभुत्व के अंत को चिह्नित किया। इसलिए बहुदलीय व्यवस्था का युग शुरू हुआ।
- बहुदलीय व्यवस्था में इस नए विकास का मतलब था कि किसी भी पार्टी ने 1989 के बाद से किसी भी लोकसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं किया, जब तक कि बीजेपी ने 2014 में बहुमत हासिल नहीं कर लिया।
- नब्बे के दशक में दलित और पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले शक्तिशाली दलों और आंदोलनों का उदय भी हुआ। 1989 के चुनावों के साथ, भारत में गठबंधन की राजनीति का एक लंबा दौर शुरू हुआ।
- केंद्र में नौ सरकारें रही हैं, उनमें से ज्यादातर या तो गठबंधन सरकारें थी या फिर अल्पसंख्यक सरकार। इस चरण में, किसी भी सरकार को कई क्षेत्रीय दलों की भागीदारी या समर्थन के साथ ही बनाया जा सकता था ।
- इसे 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा, 1996 और 1997 में संयुक्त मोर्चा, 1997 में एनडीए, 1998 में बीजेपी के नेतृत्व में गठबंधन, 1999 में एनडीए और 2004 और 2009 में यूपीए में देखा जा सकता है।