प्रश्न की मुख्य माँग
- न्यायिक प्रशासन और संस्थागत प्रभावशीलता में मुख्य न्यायाधीशों की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर चर्चा कीजिए।
- उच्च न्यायालयों की कार्यप्रणाली पर मुख्य न्यायाधीशों के संक्षिप्त कार्यकाल के प्रभाव का विश्लेषण कीजिए।
- संस्थागत चुनौती का समाधान करने के लिए उपाय सुझाइये।
|
उत्तर
न्यायपालिका की स्थिरता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक प्रशासन में मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। सितंबर 2024 में, भारत के आठ उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई थी। हालाँकि, इनमें से अधिकांश नियुक्तियाँ बहुत कम समय के लिए होंगी, जो न्यायपालिका की संस्थागत स्थिरता के संबंध में चिंताएँ उत्पन्न करती हैं। संक्षिप्त कार्यकाल दीर्घकालिक सुधारों में बाधा डाल सकते हैं और न्यायिक प्रणाली की सही समय पर और निष्पक्ष न्याय देने की क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं।
Enroll now for UPSC Online Course
न्यायिक प्रशासन और संस्थागत प्रभावशीलता में मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका
- प्रशासनिक नेतृत्व: मुख्य न्यायाधीश न्यायालय के समग्र कामकाज की देखरेख करते हैं, तथा सुचारू संचालन सुनिश्चित करते हैं।
- उदाहरण के लिए: मामलों का आवंटन करने, कार्यभार का उचित वितरण सुनिश्चित करने तथा प्रशासनिक बाधाओं को दूर करने में मुख्य न्यायाधीश की भूमिका न्यायालय की कार्यकुशलता को बढ़ाने में अति महत्त्वपूर्ण है, तथा न्यायिक प्रभावशीलता में सीधे योगदान प्रदान करती है।
- न्यायिक नियुक्तियाँ: मुख्य न्यायाधीश न्यायिक नियुक्तियों की संस्तुति करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो न्यायालय के कामकाज और निर्णयों की गुणवत्ता को प्रभावित करती है।
- उदाहरण के लिए: भारत के मुख्य न्यायाधीश यह सुनिश्चित करते हैं कि योग्य और सक्षम न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाए, जिससे निर्णयों की गुणवत्ता और संस्थागत अखंडता बढ़े।
- अनुशासनात्मक नियंत्रण: वे न्यायपालिका के भीतर अनुशासन बनाए रखते हैं, गलती करने वाले न्यायाधीशों और कर्मचारियों को नियंत्रित करते हैं।
- उदाहरण के लिए: मुख्य न्यायाधीशों ने आवश्यकता पड़ने पर न्यायाधीशों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू की है, जिससे न्यायिक प्रणाली में जवाबदेही और विश्वास सुनिश्चित होता है।
- सार्वजनिक जुड़ाव: मुख्य न्यायाधीश, अक्सर कानूनी संगठनों के साथ जुड़ते हैं, जिससे न्यायपालिका का जनता के साथ जुड़ाव बढ़ता है।
- उदाहरण के लिए: मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ सार्वजनिक मंचों पर सक्रिय रहे हैं, डिजिटल दुनिया में न्यायपालिका के सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा की है और न्यायाधीशों को तकनीकी प्रगति के अनुकूल होने की आवश्यकता पर बल दिया है।
- न्यायिक पर्यवेक्षण: मुख्य न्यायाधीश कानूनी मामलों पर अंतिम प्राधिकारी के रूप में कार्य करते हैं, तथा राज्य में न्यायिक व्याख्या की दिशा निर्धारित करते हैं।
मुख्य न्यायाधीशों के संक्षिप्त कार्यकाल का उच्च न्यायालयों के कामकाज पर प्रभाव
- अप्रभावी केस प्रबंधन: बारम्बार नेतृत्व परिवर्तन के कारण प्रभावी वाद प्रबंधन में बाधा आती है और न्याय वितरण में देरी होती है।
- उदाहरण के लिए: राज्यों में मुख्य न्यायाधीशों के उच्च टर्नओवर दर के कारण लंबित मामलों का असंगत प्रबंधन होता है, जिससे जनता को न्याय वितरण में और देरी होती है।
- अपर्याप्त संस्थागत ज्ञान: संक्षिप्त कार्यकाल, मुख्य न्यायाधीशों को अपने उच्च न्यायालयों की विशिष्ट आवश्यकताओं और चुनौतियों की गहरी समझ विकसित करने से रोकता है।
- व्यवस्थागत सुधारों पर ध्यान न देना: संक्षिप्त कार्यकाल के कारण मुख्य न्यायाधीशों के लिए न्यायिक दक्षता और वाद प्रबंधन सहित न्यायालय की अन्य आंतरिक प्रणालियों में सुधार पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है।
- उदाहरण के लिए: स्वतंत्रता के बाद से 65 वर्षों में, भारतीय न्यायपालिका में 24 मुख्य न्यायाधीश हुए हैं , जिनका औसत कार्यकाल केवल 2.75 वर्ष रहा है , जिससे मुख्य न्यायाधीशों के लिए वाद प्रबंधन में दीर्घकालिक सुधारों को लागू करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
- न्यायिक स्वतंत्रता पर प्रभाव: नेतृत्व में बार-बार परिवर्तन से अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है और इसकी स्वायत्तता बाधित हो सकती है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरा हो सकता है।
- कर्मचारियों का मनोबल और प्रतिधारण: संक्षिप्त कार्यकाल, अस्थिरता का कारण बनता है जिससे कर्मचारियों का मनोबल प्रभावित होता है और उच्च बदलाव होता है, जो न्यायालय के कामकाज को और जटिल बनाता है।
- उदाहरण के लिए: दिल्ली और महाराष्ट्र जैसे उच्च-स्तरीय उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीशों के बदलाव के परिणामस्वरूप कर्मचारियों से संबंधित अनिश्चितता उत्पन्न हुई है, जिससे न्यायालय प्रणाली की दक्षता और उत्पादकता प्रभावित हुई है।
- सुधारों में निरंतरता का अभाव: संक्षिप्त कार्यकाल न्यायिक सुधारों की निरंतरता को बाधित करते हैं, जिससे दीर्घकालिक योजनाएँ प्रभावित होती हैं।
इस संस्थागत चुनौती से निपटने के उपाय
- लंबे कार्यकाल सुनिश्चित करना: मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए सुधारों को लागू करने से नेतृत्व और न्यायिक सुधारों में निरंतरता सुनिश्चित हो सकती है।
- उदाहरण के लिए: न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव ने मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल को कम-से-कम 7-8 वर्ष तक बढ़ाने का सुझाव दिया, जो दीर्घकालिक सुधारों को लागू करने के लिए आवश्यक स्थिरता प्रदान कर सकता है।
- न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार: कॉलेजियम प्रणाली को मजबूत करना चाहिए या न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना करनी चाहिए ताकि न्यायाधीशों का सही समय पर और योग्यता के आधार पर चयन सुनिश्चित हो सके, जिससे कार्यकाल कम होने वाली देरी को रोका जा सके।
- उदाहरण के लिए: कॉलेजियम प्रणाली के तहत उच्चतम न्यायालय की सिफारिशों को लागू करने से कुछ नियुक्तियों में तेजी आई है।
- राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण का प्रस्ताव: न्यायिक अवसंरचना विकास की देखरेख और उसे सुव्यवस्थित करने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए, जिससे व्यक्तिगत मुख्य न्यायाधीशों पर निर्भरता कम हो।
- उदाहरण के लिए: भारत के मुख्य न्यायाधीश ने बार-बार इस प्राधिकरण की वकालत की है ताकि संक्षिप्त कार्यकालों से उत्पन्न प्रणालीगत चुनौतियों का समाधान किया जा सके।
- प्रशासनिक कर्तव्यों का प्रत्यायोजन: मुख्य न्यायाधीशों पर बोझ कम करने के लिए वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच प्रशासनिक जिम्मेदारियों को वितरित करना चाहिए जिससे उन्हें अपने संक्षिप्त कार्यकाल के दौरान न्यायिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित करने की सुविधा मिल सके।
- सुधारों की आवधिक निगरानी: मुख्य न्यायाधीशों द्वारा शुरू किए गए सुधारों की प्रगति की निगरानी के लिए संस्थागत तंत्र बनाना चाहिये, ताकि नेतृत्व में परिवर्तन के बावजूद निरंतरता सुनिश्चित हो सके।
- उदाहरण के लिए: ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना, जिसकी निगरानी सर्वोच्च न्यायालय की ई-समिति द्वारा केंद्रीय रूप से की जाती है, नेतृत्व में परिवर्तन के बावजूद प्रगति सुनिश्चित करती है।
- न्यायिक नेतृत्व प्रशिक्षण: मुख्य न्यायाधीश का पदभार ग्रहण करने से पहले न्यायाधीशों के लिए नेतृत्व प्रशिक्षण का आयोजन करना चाहिए ताकि संक्षिप्त कार्यकाल के बावजूद उनकी प्रभावशीलता बढ़े।
- उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी (NJA) न्यायाधीशों को उच्च भूमिकायें निभाने हेतु तैयार करने के लिए वाद प्रबंधन और न्यायालय प्रशासन पर सत्र आयोजित करती है।
- तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति: संविधान के अनुच्छेद 224A के तहत प्रावधान का उपयोग करके तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाए, ताकि लंबित मामलों और प्रशासनिक बोझ को कम किया जा सके।
- उदाहरण के लिए: मद्रास उच्च न्यायालय ने लंबित मामलों से प्रभावी ढंग से निपटने हेतु तदर्थ नियुक्तियों का उपयोग किया है।
- निरंतरता के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग: बेहतर वाद प्रबंधन के लिए डिजिटलीकरण को अपनाना चाहिए और प्रगति के लिए व्यक्तिगत न्यायाधीशों पर निर्भरता कम करनी चाहिए।
- उदाहरण के लिए: कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा लंबित मामलों की निगरानी के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उपकरणों को एकीकृत करने से यह सुनिश्चित होता है कि सुधार डेटा-संचालित हों और अल्पकालिक नेतृत्व पर कम निर्भर हों।
Check Out UPSC CSE Books From PW Store
स्थिरता बनाए रखने और न्यायिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए मुख्य न्यायाधीशों के संक्षिप्त कार्यकाल से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करना अति महत्त्वपूर्ण है। लंबे कार्यकाल, बेहतर प्रशासनिक सहायता और राष्ट्रीय समन्वय न्यायपालिका की प्रभावशीलता को मजबूत कर सकते हैं। ये कदम सभी के लिए समय पर न्याय प्राप्त करने के भारत के लक्ष्य के अनुरूप हैं, जैसा कि न्याय वितरण और कानूनी सुधारों के लिए राष्ट्रीय मिशन में उल्लिखित है। इससे न्यायिक प्रणाली में निरंतर और सार्थक प्रगति सुनिश्चित होगी।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Latest Comments