Q. "महिलाओं को निर्णयन प्रक्रिया से बाहर रखने से लैंगिक मुद्दों पर नीतिगत दृष्टिहीनता उत्पन्न होती है।" भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिए। इस संदर्भ में पारंपरिक पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने में न्यायिक हस्तक्षेप कितने प्रभावी रहे हैं? (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के संदर्भ में, विश्लेषण कीजिए कि निर्णय लेने में महिलाओं के बहिष्कार के कारण लैंगिक मुद्दों पर नीतिगत अस्पष्टता कैसे उत्पन्न होती है।
  • परंपरागत  पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने में न्यायिक हस्तक्षेप कितने प्रभावी रहे हैं?
  • आगे की राह लिखिये।

उत्तर

जनसंख्या का लगभग 48% हिस्सा होने के बावजूद, महिलाओं के पास लोकसभा सीटों का 15% से भी कम हिस्सा है, जिसके कारण कार्यस्थल सुरक्षा, अवैतनिक देखभाल कार्य और आर्थिक अधिकारों जैसे प्रमुख लैंगिक मुद्दों पर नीतिगत समस्यायें व्याप्त हैं। यह बहिष्कार पितृसत्तात्मक मानदंडों को मजबूत करता है और लैंगिक-संवेदनशील नीति निर्धारण को सीमित करता है। हालाँकि, न्यायिक हस्तक्षेपों ने भेदभाव को चुनौती देने, कानूनी सुरक्षा को मजबूत करने और संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है  हालाँकि गहराई से व्याप्त पूर्वाग्रहों को खत्म करने में उनकी प्रभावशीलता पर बहस जारी है।

निर्णय लेने से बहिष्कृत होना एवं नीतिगत अस्पष्टताएँ

  • अपर्याप्त मातृत्व लाभ: महिलाओं के प्रतिनिधित्व की कमी से मातृ अधिकारों का कमजोर क्रियान्वयन होता है, जिससे गर्भावस्था के दौरान कार्यस्थल पर भेदभाव होता है और बच्चे की देखभाल में अपर्याप्त सहायता मिलती है। 
    • उदाहरण के लिए: मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 में सवेतन छुट्टी का प्रावधान है लेकिन निजी क्षेत्र में इसका क्रियान्वयन कम है, जिससे महिला कार्यबल में भागीदारी कम हो रही है।
  • लैंगिक-असंवेदनशील श्रम नीतियाँ: नीतियाँ लचीली कार्य व्यवस्था को समायोजित करने में विफल रहती हैं, जिससे महिलाओं के लिए पेशेवर और घरेलू जिम्मेदारियों में संतुलन बनाना कठिन हो जाता है।
  • यौन उत्पीड़न कानूनों की उपेक्षा: पुरुष-प्रधान नेतृत्व द्वारा महिलाओं की सुरक्षा की तात्कालिकता की अनदेखी के कारण कई कार्यस्थल POSH अधिनियम, 2013 का अनुपालन करने में विफल रहते हैं।
  • आर्थिक नीतियों में लैंगिक असमानता: नीतियाँ महिला उद्यमियों को समान ऋण पहुँच और व्यावसायिक प्रोत्साहन प्रदान करने में विफल रहती हैं, जिससे उनका आर्थिक सशक्तिकरण सीमित हो जाता है।

न्यायिक हस्तक्षेप की प्रभावशीलता

  • कार्यस्थल अधिकारों को मजबूत करना: न्यायालयों ने भेदभावपूर्ण बर्खास्तगी को खत्म करके और मातृ सुरक्षा को मजबूत करके लैंगिक-संवेदनशील कार्यस्थलों को सुनिश्चित किया है।
    • उदाहरण के लिए: सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में दो महिला न्यायाधीशों को बहाल किया, यह कहते हुए कि गर्भावस्था से संबंधित बर्खास्तगी दंडनीय और अवैध है।
  • तीन तलाक को अपराध बनाना: न्यायिक निर्णयों ने भेदभावपूर्ण धार्मिक प्रथाओं को खत्म कर दिया है, जिससे महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्राप्त हुई है। 
    • उदाहरण के लिए: शायरा बानो वाद (2017) ने तीन तलाक को अपराध बना दिया, जिससे मुस्लिम महिलाओं के वैवाहिक अधिकार सुरक्षित हो गए।
  • महिलाओं के उत्तराधिकार अधिकारों का विस्तार: न्यायालयों ने हिंदू उत्तराधिकार कानूनों में पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों का मुकाबला करते हुए समान संपत्ति अधिकारों को बरकरार रखा है।
    • उदाहरण के लिए: विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा, 2020 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि बेटियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार है, चाहे उनके पिता की मृत्यु हो गई हो।
  • यौन उत्पीड़न कानून लागू करना: न्यायिक सक्रियता ने कार्यस्थल सुरक्षा कानूनों को मजबूत किया है जिससे संस्थानों को सुरक्षा तंत्र लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। 
    • उदाहरण के लिए: विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) वाद के परिणामस्वरूप POSH अधिनियम, 2013 का निर्माण हुआ, जिसके तहत कार्यस्थल सुरक्षा उपायों को संस्थागत बनाया गया।
  • महिलाओं की स्वायत्तता की रक्षा: न्यायालयों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बरकरार रखा है और विवाह, ड्रेस कोड और गतिशीलता पर पितृसत्तात्मक प्रतिबंधों को खत्म किया है। 
    • उदाहरण के लिए: हादिया वाद (2018) ने माता-पिता के जबरन नियंत्रण को खारिज करते हुए महिला के अपने जीवनसाथी को चुनने के अधिकार की पुष्टि की।

आगे की राह 

  • अनिवार्य राजनीतिक प्रतिनिधित्व: विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण लागू करना, लैंगिक-समावेशी नीति निर्माण सुनिश्चित करना। 
    • उदाहरण के लिए: प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए आगामी चुनावों में महिला आरक्षण विधेयक (2023) को पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए।
  • न्यायिक निगरानी को मजबूत करना: न्यायालयों को लैंगिक कानूनों के अनुपालन की निगरानी करनी चाहिए और नीति क्रियान्वयन सुनिश्चित करना चाहिए। 
    • उदाहरण के लिए: फास्ट-ट्रैक कोर्ट को POSH अधिनियम के उल्लंघनों से निपटना चाहिए, ताकि कार्यस्थल पर उत्पीड़न के मामलों में समय पर न्याय सुनिश्चित हो सके।
  • आर्थिक अवसरों का विस्तार: नीतियों में महिलाओं के लिए वित्तीय समावेशन, कौशल प्रशिक्षण और उद्यमिता प्रोत्साहन को बढ़ाना चाहिए। 
    • उदाहरण के लिए: मुद्रा योजना का विस्तार किया जाना चाहिए ताकि महिलाओं के नेतृत्व वाले व्यवसायों के लिए अधिक जमानत-मुक्त ऋण उपलब्ध कराया जा सके।
  • लैंगिक-संवेदनशील शैक्षिक सुधार: स्कूल के पाठ्यक्रम में लैंगिक जागरूकता को शामिल किया जाना चाहिए, जिससे कम उम्र से ही पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग को तोड़ा जा सके। 
    • उदाहरण के लिए: समानता-आधारित शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए NCERT की पाठ्यपुस्तकों में लैंगिक-संवेदनशील सामग्री शामिल होनी चाहिए।
  • कार्यस्थल समानता लागू करना: मातृत्व और उत्पीड़न विरोधी कानूनों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए कंपनियों के लिए सख्त ऑडिट लागू करना चाहिए
    • उदाहरण के लिए: POSH अधिनियम और मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत अनिवार्य कार्यस्थल ऑडिट से लैंगिक समावेशिता बढ़ेगी।

कोई भी देश अपनी आधी आबादी को पीछे छोड़कर प्रगति नहीं कर सकता। लैंगिक-संवेदनशील नीतियों के लिए निर्णय लेने में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है। न्यायिक हस्तक्षेप, हालाँकि प्रभावशाली हैं, लेकिन उन्हें लागू करने के लिए पूरक विधायी सुधारों, जमीनी स्तर पर जागरूकता और संस्थागत तंत्र की आवश्यकता है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व, आर्थिक समावेशन और कानूनी सुरक्षा उपायों को मजबूत करना भारत के लिए वास्तव में न्यायसंगत और समावेशी शासन ढाँचे को बढ़ावा देगा ।

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