Q. "न्यायिक निरंकुशता, यदि अनियंत्रित हो, तो जनता के विश्वास और लोकतांत्रिक वैधता को नष्ट कर सकती है।" क्या आप इस कथन से सहमत हैं? भारत के न्यायिक इतिहास और हालिया विवादों से उदाहरणों के साथ अपने विचारों की पुष्टि कीजिए।(15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • न्यायिक निरंकुशता और सार्वजनिक विश्वास व लोकतांत्रिक वैधता पर इसके प्रभाव पर चर्चा कीजिए।
  • न्यायिक सक्रियता और न्यायिक निरंकुशता के मध्य संक्षिप्त तुलना कीजिए।
  • न्यायपालिका को लोकतांत्रिक मूल्यों के रक्षक के रूप में उल्लेखित कीजिए।

उत्तर

भारतीय न्यायपालिका संविधान की संरक्षक और कानून की अंतिम व्याख्याकार है। हालाँकि, जब अदालतें अपने अधिकारों का अतिक्रमण करने लगती हैं या अत्यधिक विवेक का प्रयोग करने लगती हैं तो न्यायिक निरंकुशता का जोखिम उत्पन्न होता है- जहाँ न्यायाधीश विधायी या कार्यकारी ज्ञान को अपने विवेक से बदल देते हैं, जिससे शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को क्षति पहुँचती है। अगर इसे अनियंत्रित छोड़ दिया जाए, तो यह जनता के विश्वास और लोकतांत्रिक वैधता को खत्म कर सकती है।

न्यायपालिका लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षक है

  • मौलिक अधिकारों को कायम रखना: न्यायपालिका अधिकारों के दायरे को बढ़ाने और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करने में सहायक रही है। 
    • उदाहरण के लिए: नवतेज सिंह जौहर वाद (वर्ष 2018) ने अनुच्छेद- 21 के तहत गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बरकरार रखते हुए समलैंगिकता को अपराध से मुक्त कर दिया।
  • नियंत्रण और संतुलन सुनिश्चित करना: न्यायपालिका, स्वच्छंद कार्यकारी या विधायी कार्यों के खिलाफ एक निगरानीकर्ता के रूप में कार्य करती है और संवैधानिक नैतिकता को संरक्षित करती है। 
    • उदाहरण के लिए: केशवानंद भारती वाद (वर्ष 1973) ने मूल संरचना सिद्धांत की शुरुआत की, जिससे सत्तावादी संवैधानिक संशोधनों को रोका गया।
  • जनहित में न्यायिक मध्यक्षेप: जनहित याचिकाओं के माध्यम से, न्यायालयों ने बेजुबानों और हाशिए पर स्थित लोगों के लिए सामाजिक न्याय को सक्षम बनाया है। 
    • उदाहरण के लिए: विशाखा दिशा-निर्देश (वर्ष 1997) ने संसदीय कानून के अभाव में कार्यस्थल यौन उत्पीड़न कानूनों की नींव रखी।
  • चुनावी लोकतंत्र की रक्षा: न्यायालयों ने धनबल और राजनीति के अपराधीकरण को नियंत्रित करके स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
    • उदाहरण के लिए: लिली थॉमस वाद (वर्ष 2013) में सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी सांसदों/विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया, जिससे लोकतांत्रिक जवाबदेही मजबूत हुई।
  • पर्यावरण और मानवाधिकार न्यायशास्त्र को बढ़ावा देना: न्यायपालिका ने स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को विकसित किया है और प्रदूषण करने वाले को भुगतान करना जैसे सिद्धांत पेश किए हैं। 
    • उदाहरण के लिए: MC मेहता के वादों की श्रृंखला ने भारत के पर्यावरण विनियमन संरचना को आकार दिया।

न्यायिक निरंकुशता और सार्वजनिक विश्वास व लोकतांत्रिक वैधता पर इसका प्रभाव

  • कार्यपालिका और विधायी क्षेत्रों में अतिक्रमण: जब न्यायपालिका नीति-जैसे निर्देश जारी करना शुरू करती है, तो यह संविधान द्वारा गारंटीकृत शक्तियों के पृथक्करण को बाधित करती है। 
    • उदाहरण के लिए: 2G स्पेक्ट्रम वाद (वर्ष 2012) और कोयला ब्लॉक आवंटन (वर्ष 2014) में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्वव्यापी प्रभाव से लाइसेंस रद्द कर दिए, जिससे आर्थिक अनिश्चितता उत्पन्न हुई और कार्यकारी निर्णय लेने में बाधा उत्पन्न हुई।
  • अपारदर्शी कॉलेजियम प्रणाली और जवाबदेही का अभाव: न्यायिक नियुक्तियों की अपारदर्शी प्रणाली में बाहरी जाँच का अभाव है और यह जनता के विश्वास को कमज़ोर करती है। 
    • उदाहरण के लिए: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 99वें संविधान संशोधन और NJAC अधिनियम (वर्ष 2015) को रद्द करने से संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित सुधार अवरुद्ध हो गया, जिससे “न्यायिक सर्वोच्चता” की चिंताएँ बढ़ गईं।
  • अवमानना शक्तियों का स्वच्छंद उपयोग: अवमानना कानूनों का अत्यधिक उपयोग वैध आलोचना और सार्वजनिक चर्चा का दमन कर सकता है। 
    • उदाहरण के लिए: प्रशांत भूषण अवमानना वाद (वर्ष 2020) ने असहमति और सार्वजनिक जवाबदेही के लिए न्यायपालिका की सहिष्णुता के संबंध में बहस छेड़ दी।
  • चयनात्मक सक्रियता और असंगति: न्यायिक सक्रियता में असंगति समान न्याय के सिद्धांत को कमजोर करती है। 
    • उदाहरण के लिए: कुछ हाई-प्रोफाइल जनहित याचिकाओं में त्वरित निर्णय, अनुच्छेद- 370 और नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे मुद्दों पर विलंबित निर्णयों के विपरीत चयनात्मक तत्परता को दर्शाता है।
  • संस्थागत सुधार और स्व-नियमन का अभाव: आंतरिक सुधार या न्यायिक शिकायत तंत्र स्थापित करने का प्रतिरोध सार्वजनिक जवाबदेही को बाधित करता है। 
    • उदाहरण के लिए: विधि आयोग और द्वितीय ARC की सिफारिशों के बावजूद, न्यायपालिका में अभी भी कदाचार के लिए एक मजबूत आचार संहिता या अनुशासनात्मक ढाँचे का अभाव है।

न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक निरंकुशता

पहलू न्यायिक सक्रियता न्यायिक निरंकुशता
परिभाषा अधिकारों की रक्षा, विधायी अंतराल को भरने और न्याय को बढ़ावा देने में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका। कार्यकारी और विधायी कार्यों को दरकिनार करते हुए न्यायिक शक्ति का अत्यधिक या मनमाना प्रयोग।
संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 32, 226, तथा संविधान को बनाए रखने के कर्तव्य से व्युत्पन्न। यह तब उत्पन्न होता है जब न्यायालय संवैधानिक आदेश से परे जाकर कार्य करते हैं या उनमें आत्म-संयम का अभाव होता है।
उद्देश्य न्याय, समानता को बढ़ावा देना और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना। इससे प्रायः न्यायपालिका में सत्ता का अति-केन्द्रीकरण हो जाता है, जिससे शक्तियों का पृथक्करण कमजोर हो जाता है।
प्रमुख उदाहरण विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (वर्ष 1997), नवतेज सिंह जौहर (वर्ष 2018), केशवानंद भारती (वर्ष 1973) NJAC निर्णय (वर्ष 2015), प्रशांत भूषण अवमानना मामला (वर्ष 2020), चुनावी बांड और CAA मामलों में विलंबित सुनवाई।
परिणाम अधिकारों को सुदृढ़ बनाना, शासन सुधार और नीति नवाचार। सार्वजनिक विश्वास में संभावित कमी,  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव, तथा संवैधानिक कार्यप्रणाली में असंतुलन।
उपाय/संतुलन पारदर्शी जनहित याचिका दिशानिर्देश, न्यायिक जवाबदेही तंत्र, आंतरिक जाँच। संस्थागत सुधार (न्यायिक आचार संहिता, सुनवाई के लिए समयसीमा), न्यायिक शक्ति की सीमाओं पर संसदीय संवाद।

हालाँकि न्यायपालिका को स्वतंत्र और सशक्त रहना चाहिए, अनियंत्रित न्यायिक सक्रियता या अतिक्रमण न्यायिक निरंकुशता बनने का जोखिम उठाता है। जिससे संस्थागत संतुलन और सार्वजनिक विश्वास कमज़ोर होता है। एक पारदर्शी, जवाबदेह और आत्म-संयमित न्यायपालिका, विधायी और कार्यकारी परिपक्वता द्वारा पूरित, संवैधानिक लोकतंत्र और सार्वजनिक विश्वास को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

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