प्रश्न की मुख्य माँग
- लोक सभा के उपाध्यक्ष के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों का परीक्षण कीजिए।
- चर्चा कीजिए कि लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद लंबे समय तक रिक्त रहने से संस्थागत संतुलन, संसदीय लोकतंत्र और भारत की शासन प्रणाली की संघीय संरचना पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है।
- लोक सभा के उपाध्यक्ष के पद की रिक्ति के संबंध में सर्वोत्तम वैश्विक प्रथाओं का सुझाव दीजिए।
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उत्तर
लोकसभा का उपाध्यक्ष भारत की संसद के निम्न सदन में दूसरे सबसे बड़े अधिकारी के रूप में कार्य करता है, जो विधायी कार्यवाही में निरंतरता सुनिश्चित करता है। संविधान के अनुच्छेद-93 के तहत चुने गए उपाध्यक्ष, अध्यक्ष की अनुपस्थिति में सत्रों की अध्यक्षता करते हैं और संसदीय मर्यादा को बनाए रखते हैं।
लोक सभा के उपाध्यक्ष के संबंध में संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद-93 के तहत अनिवार्य चुनाव: संविधान लोकसभा को “जितनी जल्दी हो सके” एक उपाध्यक्ष का चुनाव करने का आदेश देता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि विधायी कार्यवाही में बाधा न आए।
- उदाहरण के लिए: 17वीं लोकसभा पहली और एकमात्र लोकसभा है, जिसमें संवैधानिक आवश्यकता का उल्लंघन करते हुए कोई उपाध्यक्ष नहीं था ।
- अनुच्छेद-95 के तहत शक्तियाँ: अध्यक्ष की अनुपस्थिति में, उपाध्यक्ष सभी संबंधित कर्तव्यों का निर्वहन करता है, जिससे सदन का निर्बाध संचालन संभव हो सके।
- हटाने का प्रावधान – अनुच्छेद-94: लोकसभा में बहुमत से पारित प्रस्ताव के द्वारा उपाध्यक्ष को हटाया जा सकता है, जिससे जवाबदेही और आंतरिक जांच सुनिश्चित होती है।
- उदाहरण के लिए: हालाँकि अभी तक किसी उपाध्यक्ष को हटाया नहीं गया है, लेकिन यह तंत्र सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करता है।
- अपेक्षित राजनीतिक तटस्थता: उपाध्यक्ष से निष्पक्ष रूप से कार्य करने की अपेक्षा की जाती है, अक्सर विपक्ष से चुने जाने वाले उपाध्यक्ष से ताकि संतुलित विधायी विचार-विमर्श सुनिश्चित हो सके।
- उदाहरण के लिए: विपक्ष दल से चुने गए चरणजीत सिंह अटवाल (2004-09) ने तटस्थता बनाए रखी और आवश्यकता पड़ने पर कार्यवाही की कुशलतापूर्वक अध्यक्षता की।
- विधायी समितियों की निगरानी: उपाध्यक्ष प्रमुख संसदीय समितियों की अध्यक्षता करते हैं व विधायी कार्य और निगरानी को आकार देने में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं।
- उदाहरण के लिए: उपाध्यक्ष निजी सदस्यों के विधेयकों पर समिति के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हैं, जो गैर-सरकारी विधान के एजेंडे को प्रभावित करते हैं।
भारत की शासन प्रणाली के लंबे समय तक रिक्त रहने का प्रभाव
संस्थागत संतुलन
- सदन के कामकाज में व्यवधान: उपाध्यक्ष के बिना, विधायी कार्यों में प्रक्रियागत देरी होती है और अध्यक्ष की अनुपस्थिति में नेतृत्व कमजोर हो जाता है।
- उदाहरण के लिए: 17वीं लोकसभा में अध्यक्ष की अनुपस्थिति के दौरान , प्रमुख सत्र वैकल्पिक पीठासीन प्राधिकारी के बिना आगे बढ़े, जिससे निर्णय लेने की गुणवत्ता प्रभावित हुई।
- संवैधानिक आशय का उल्लंघन: निरंतर रिक्तता अनुच्छेद-93 के तहत संवैधानिक निर्देश की अवहेलना करती है, तथा संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत को कमजोर करती है।
- निगरानी क्षमता का कमजोर होना: उपसभापति की अनुपस्थिति, सरकारी कार्यों की जाँच को कम करती है और समिति के प्रदर्शन में बाधा डालती है।
- उदाहरण के लिए: उप-सभापति द्वारा आमतौर पर प्रदान किए जाने वाले नेतृत्व की कमी के कारण कई संसदीय समितियों की बैठकें नियमित रूप से नहीं हो पाईं।
संसदीय लोकतंत्र
- लोकतांत्रिक मानदंडों का कमजोर होना: विपक्ष के उपाध्यक्ष की नियुक्ति न करना, लोकतांत्रिक परंपराओं और द्विदलीय भागीदारी को दरकिनार करता है।
- उदाहरण के लिए: पिछली लोकसभाओं ने विपक्षी सदस्यों को पद देने की परंपरा को बनाए रखा, जिससे समावेशी बहस और असहमति को बढ़ावा मिला।
- जवाबदेही तंत्र का क्षरण: वैकल्पिक पीठासीन अधिकारी की कमी, कार्यपालिका से प्रश्न करने की विधायिका की क्षमता को कमजोर करती है।
- संसदीय मानदंडों में जनता का अविश्वास: नागरिक इस निष्क्रियता को संवैधानिक प्रक्रियाओं के प्रति संसद की प्रतिबद्धता को कमजोर करने के रूप में देखते हैं।
संघीय संरचना
- राज्यों के लिए नकारात्मक मिसाल: इस नियुक्ति पर केंद्र की निष्क्रियता, राज्यों को इसी तरह की देरी अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती है, जिससे संघीय विधायी मानक कमजोर होते हैं।
- क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व में कमी: यह पद विधायी नेतृत्व में क्षेत्रीय विविधता और संतुलन को दर्शाने का अवसर प्रदान करता है।
- उदाहरण के लिए: अतीत में उपसभापति बिहार, आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों से आते थे, जो व्यापक क्षेत्रीय समावेश का प्रतिनिधित्व करते थे।
- सहकारी संघवाद पर दबाव: विपक्ष या क्षेत्रीय नियुक्तियों से बचना, केंद्रीकरण को दर्शाता है और संघीय संवाद को सीमित करता है।
- उदाहरण के लिए: संघ नेतृत्व की भूमिकाओं में विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्यों को शामिल न करने से एकतरफा शासन की धारणा को बढ़ावा मिलता है।
संवैधानिक निरंतरता, निष्पक्ष नेतृत्व और कुशल संसदीय कामकाज सुनिश्चित करने के लिए उपाध्यक्ष का होना जरूरी है। लंबे समय तक इस पद के रिक्त रहने से भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे को नुकसान पहुँचता है। समय पर चुनाव और वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के माध्यम से इस समस्या का समाधान करना, संस्थागत व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अति महत्त्वपूर्ण है ताकि संतुलन, सहकारी संघवाद, और विधायी शासन में जनता का विश्वास बना रहे।
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