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निबंध का प्रारूप
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रिया एक छोटे से गाँव में पली-बढ़ी थी जहाँ हर कोई एक-दूसरे के बारे में जानता था। उसे जीवंत त्योहार, जानी-पहचानी भाषा और अपने घनिष्ठ समुदाय की गर्मजोशी बहुत पसंद थी। किन्तु जब वह कॉलेज के लिए एक बड़े शहर में गई, तो सब कुछ बदल गया। अचानक, वह विभिन्न राज्यों से आये विभिन्न भाषाएं बोलने वाले तथा विभिन्न परंपराओं का पालन करने वाले लोगों से घिर गयी। रिया ने खुद को दुविधा में पाया। वह अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहती थी, लेकिन साथ ही अपने नए दोस्तों और नए अनुभवों के साथ सामंजस्य भी स्थापित करना चाहती थी। उसकी व्यक्तिगत भावनाओं और उसके आस-पास की सामाजिक दुनिया के मध्य यह खींचतान पहचान के बारे में एक वास्तविकता को उजागर करती है, जो न केवल अत्यंत व्यक्तिगत है, बल्कि समाज द्वारा भी आकार लेती है।
पहचान भीतर से शुरू होती है। यह एक अनोखी, विकासशील कहानी है जो प्रत्येक व्यक्ति अपने बारे में स्वयं को बताता है कि वह कौन है। आत्म-खोज की यह यात्रा प्रायः परिवार, शिक्षा और अनुभवों के माध्यम से अल्प आयु में ही शुरू हो जाती है, जो व्यक्ति के स्वयं के प्रति दृष्टिकोण को प्रभावित करते हैं और प्रायः जीवनपर्यन्त परिस्थितियों, विकल्पों और प्रतिबिंबों द्वारा आकार लेते हैं।
“मैं कौन हूँ?” और “मेरा स्थान कहाँ है?” जैसे प्रश्न पूछने से व्यक्तियों को स्वयं के बारे में स्पष्ट और सुसंगत समझ विकसित करने में मदद मिलती है, जिससे स्वायत्तता और आत्मविश्वास बढ़ता है। यद्यपि, यह यात्रा निश्चित नहीं है, व्यक्तिगत पहचान निरंतर विकसित होती रहती है क्योंकि लोग नए अनुभवों, विचारों और चुनौतियों का सामना करते हैं। उदाहरण के लिए, किसी रूढ़िवादी परिवार में पला-बढ़ा व्यक्ति शिक्षा या यात्रा के माध्यम से अधिक उदारवादी विचार अपना सकता है, जो उसकी पहचान की परिवर्तनशील प्रकृति को दर्शाता है।
इस प्रक्रिया में आत्म-अभिव्यक्ति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लोग अपनी बदलती पहचान को वस्त्रों, भाषा, रिश्तों, करियर पथ और शौक के माध्यम से व्यक्त करते हैं। एक पारंपरिक भारतीय परिवार की युवा महिला शुरू में सांस्कृतिक अपेक्षाओं का पालन कर सकती है, लेकिन बाद में वह परंपरा और नवीनता का सम्मिश्रण करते हुए आधुनिक कला की खोज कर सकती है। इसी प्रकार, ग्रामीण क्षेत्र से शहर में आने वाला एक युवा व्यक्ति अपने राजनीतिक धारणाओं को बदल सकता है, क्योंकि वह अपने पालन-पोषण को नए प्रभावों के साथ संतुलित करता है।
हालाँकि, इस व्यक्तिगत यात्रा में संघर्ष भी शामिल हो सकता है, विशेषकर जब आंतरिक पहचान बाह्य अपेक्षाओं से संघर्ष करती है या जब अभिघातजन्य अनुभव भ्रम और आत्म-संदेह का कारण बनते हैं।
यद्यपि पहचान अत्यंत व्यक्तिगत होती है, किन्तु यह उस समाज द्वारा भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित होती है जिसमें हम रहते हैं। सामाजिक पहचान से तात्पर्य है कि व्यक्तियों को किस प्रकार समूहीकृत किया जाता है तथा नस्ल, जाति, धर्म, भाषा, लिंग या राष्ट्रीयता जैसी विशेषताओं के आधार पर उन्हें किस प्रकार अनुभूत कराया जाता है। ये श्रेणियाँ एक दूसरे से अपनेपन और साझा अर्थ सृजित करती हैं। उदाहरण के लिए, दिवाली, ईद या क्रिसमस मनाने वाले समुदाय का हिस्सा होना न केवल सांस्कृतिक भागीदारी का प्रतीक है, बल्कि समूह की पहचान को भी सुदृढ़ करता है। हालाँकि, ये समूह प्राकृतिक या निश्चित नहीं हैं। वे सामाजिक रूप से निर्मित हैं और इतिहास, सत्ता और राजनीति द्वारा आकार लेते हैं। समय के साथ-साथ समाज ने कुछ पदानुक्रम और नियंत्रण बनाए रखने के लिए जाति, वर्ग या नस्ल जैसी श्रेणियों का निर्माण और पुनर्निर्माण किया है। उदाहरण के लिए, भारत में जाति व्यवस्था सदियों से विकसित हुई है और आज भी सामाजिक भूमिकाओं, वर्तमान स्थिति और अवसरों तक पहुंच को प्रभावित करती है।
सामाजिक पहचान सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति अपनी आत्म-अवधारणा का एक भाग समूहों से संबंधित होने से प्राप्त करते हैं। ये समूह सदस्यताएँ गौरव, सुरक्षा और निरंतरता प्रदान करती हैं। भाषा, रीति-रिवाज, वेशभूषा और सांस्कृतिक प्रथाएँ सामूहिक पहचान को सुदृढ़ करती हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय पहचान झंडों, राष्ट्रगानों और सार्वजनिक छुट्टियों जैसे साझा प्रतीकों के माध्यम से आकार लेती है, जो एक सामूहिक आख्यान का निर्माण करते हैं कि हम लोग कौन हैं।
इन पहचानों को आकार देने में संस्थाएँ एक शक्तिशाली भूमिका निभाती हैं। परिवार सांस्कृतिक मानदंडों को आगे बढ़ाते हैं, विद्यालय प्रमुख इतिहास पढ़ाते हैं, मीडिया कुछ मूल्यों को बढ़ावा देता है, और राज्य प्रायः एकीकृत राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देता है। हालाँकि, यह संस्थागत प्रभाव उन लोगों को भी हाशिए पर धकेल सकता है जो प्रमुख कथानक में उपयुक्त नहीं बैठते।
सामाजिक पहचान एकता को बढ़ावा देती है, लेकिन जब वे कठोर या राजनीतिक हो जाती हैं तो वे संघर्ष का कारण भी बन सकती हैं। जब सामान्य मानवता की अपेक्षा मतभेदों पर जोर दिया जाता है तो रूढ़िवादिता, बहिष्कार और यहां तक कि हिंसा भी उत्पन्न हो सकती है। दुनिया भर में धार्मिक या जातीय संघर्ष प्रायः गहराई से जड़ें जमाए हुए और धूर्तता से की गई सामाजिक पहचानों से उत्पन्न होते हैं। रिया की कहानी में, उसकी गांव की पहचान ने उसे कुछ रीति-रिवाजों और सामाजिक अपेक्षाओं से जोड़ा, जबकि शहरी जीवन ने उसे नए सामाजिक समूहों से परिचित कराया, जिसने स्वयं के बारे में उसकी समझ को नया रूप दिया। उसे विरासत में मिली पहचान और उसके द्वारा निर्मित नई पहचान के बीच संघर्ष ने आंतरिक संघर्ष और सामाजिक अलगाव को जन्म दिया, जिसके कारण उसे स्वयं बने रहने के लिए अनेक दबावों से जूझना पड़ा।
चूंकि पहचान अत्यंत व्यक्तिगत होती है और समाज द्वारा निर्धारित होती है, इसलिए व्यक्ति प्रायः इस बात को लेकर तनाव का अनुभव करता है कि वह स्वयं को किस रूप में देखता है और दूसरे उससे किस रूप में अपेक्षा रखते हैं। यह पहचान संघर्ष तब उत्पन्न होता है जब व्यक्तिगत विश्वास सामाजिक मानदंडों से टकराते हैं। उदाहरण के लिए, रूढ़िवादी समाजों में LGBTQ+ व्यक्ति की सामाजिक अस्वीकृति या हिंसा से बचने के लिए अपनी वास्तविक पहचान छिपाने के लिए बाध्य हो सकते हैं। ऐसे मामलों में, अनुरूपता का दबाव व्यक्तिगत विकास और मानसिक कल्याण को बाधित कर सकता है।
सभी लोग इन तनावों पर अलग-अलग तरीकों से प्रतिक्रिया करते हैं। कुछ लोग आत्मसात करना चुनते हैं, अर्थात अपनी पहचान के कुछ भागों को दबा कर प्रमुख सामाजिक अपेक्षाओं के साथ घुल- मिल जाते हैं। अन्य लोग अपनी विशिष्टता (भिन्नता) पर जोर देकर यह साबित कर सकते हैं कि वे कौन हैं, भले ही इससे उन्हें हाशिए पर या बहिष्कृत किया जाए। उदाहरण के लिए, अप्रवासी प्रायः इसी कठिन कठिन राह पर चलते हैं। वे प्रमुख संस्कृति को अपनाने के लिए दबाव महसूस कर सकते हैं, साथ ही अपनी पैतृक परंपराओं और भाषाओं को बनाए रखने की अभिलाषा भी रख सकते हैं।
आज की परस्पर संबद्ध दुनिया में, वैश्वीकरण, प्रवासन, प्रौद्योगिकी और पहचान-आधारित राजनीति जैसी आधुनिक शक्तियों ने पहचान निर्माण की गतिशीलता को तीव्र कर दिया है। वैश्वीकरण ने विशेष रूप से संकर पहचानों को जन्म दिया है, जहां वैश्विक और स्थानीय संस्कृतियां रोजमर्रा की जिंदगी में घुलमिल जाती हैं। उदाहरण के लिए, युवा भारतीय दिवाली जैसे पारंपरिक त्यौहार मनाते हुए वैश्विक मीडिया जैसे के-पॉप, हॉलीवुड फिल्में या अंतर्राष्ट्रीय फैशन का आनंद ले सकते हैं। यह सांस्कृतिक सम्मिश्रण व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को समृद्ध करता है, लेकिन प्रामाणिकता और स्वदेशी मूल्यों के क्षरण के बारे में प्रश्न भी उठाता है।
प्रवासन और प्रवासी पहचान को और अधिक जटिल बना देते हैं। प्रवासी अक्सर नए वातावरण के साथ सामंजस्य बिठाते हुए अपनी मातृभूमि के साथ भावनात्मक और सांस्कृतिक संबंध बनाए रखते हैं। यह दोहरी संबद्धता बहुस्तरीय पहचानों का निर्माण करती है जो नागरिकता, बहुसंस्कृतिवाद और समावेशन के इर्द-गिर्द होने वाली चर्चाओं को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, कनाडा में सिख प्रवासी अपनी धार्मिक परंपराओं और पंजाबी संस्कृति को संरक्षित रखते हुए कनाडा के नागरिक और राजनीतिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। ये पहचान स्थिर नहीं है और प्रत्येक पीढ़ी के साथ विकसित होती रहती है, तथा इनमें प्रायः विरासत में मिली और अपनाई गई सांस्कृतिक तत्वों का सम्मिश्रण होता रहता है।
डिजिटल प्रौद्योगिकी पहचान में एक और आयाम जुटाती है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म व्यक्तियों को भौगोलिक सीमाओं से परे अपनी पहचान तलाशने, उसे अभिव्यक्त करने और यहां तक कि उसे नया स्वरूप देने का अधिकार देते हैं। हाशिये पर पड़े समूहों को प्रायः ऑनलाइन स्पेस पर एकजुटता और प्रतिनिधित्व मिलता है। साथ ही, ये प्लेटफॉर्म पहचान-आधारित प्रतिध्वनि, साइबर धमकी या उत्पीड़न को जन्म दे सकते हैं, विशेषकर तब जब पहचान का राजनीतिकरण या रूढ़िबद्धता हो जाती है।
इससे पहचान की राजनीति और सामाजिक आंदोलनों का उदय होता है, जहां व्यक्ति हाशिए पर डाले जाने के साझा अनुभवों के आधार पर मान्यता और अधिकारों की माँग के लिए लामबंद होते हैं। ब्लैक लाइव्स मैटर, भारत में दलित सक्रियता, या LGBTQ+ गौरव परेड जैसे आंदोलनों ने प्रणालीगत अन्याय की ओर वैश्विक ध्यान आकर्षित किया है और पहले से खामोश पहचानों को आवाज दी है। हालांकि, ऐसे आंदोलन समुदायों को सशक्त बनाते हैं, लेकिन यदि पहचान दूसरों के प्रति बहिष्कार या शत्रुता का आधार बन जाए तो वे ध्रुवीकरण में भी योगदान दे सकते हैं।
इन दबावों के परिणामस्वरूप कभी-कभी पहचान का संकट उत्पन्न हो जाता है, विशेष रूप से तीव्र सामाजिक परिवर्तन, आघात या विस्थापन के समय यह और उजागर हो जाता है। उदाहरण के लिए, शरणार्थियों को अक्सर अपनी पहचान खोने का गहरा दुख सहना पड़ता है, अर्थात जब उन्हें अपनी मातृभूमि से जबरन अलग कर दिया जाता है तो वे अपरिचित समाजों में अपनापन तलाशने के लिए संघर्ष करते हैं।
इसके अतिरिक्त, जब सत्ता या मान्यता तक पहुँच के लिए प्रतिस्पर्धी पहचानें आपस में टकराती हैं, तो सामाजिक संघर्ष भड़क सकते हैं। म्यांमार में रोहिंग्या संकट इसका स्पष्ट उदाहरण है, जहाँ एक जातीय अल्पसंख्यक को राष्ट्रीय पहचान से हिंसक रूप से बाहर रखा गया था, यह घटना दर्शाती है कि किस प्रकार गलत ढंग से की गई सामाजिक संरचनाएं जातीय संहार और मानवीय आपदा का कारण बन सकती हैं। ऐसे मामलों में, सत्तावादी शासन अक्सर नियंत्रण को और सुदृढ़ करने के लिए पहचान के आधार पर विभाजन का फायदा उठाते हैं, तथा शासन की विफलताओं से ध्यान हटाने के लिए अल्पसंख्यकों को बलि का बकरा बनाते हैं।
इस प्रकार, आधुनिक युग में, पहचान अब केवल व्यक्तिगत खोज या सांस्कृतिक विरासत का विषय नहीं रह गया है। यह एक जीवंत, विकासशील वास्तविकता है जो वैश्विक शक्तियों, डिजिटल मीडिया और राजनीतिक संघर्षों से प्रभावित है। यह शक्ति और एकजुटता का स्रोत हो सकता है, लेकिन संघर्ष और संकट का भी उद्गम हो सकता है।
पहचान को उसकी सम्पूर्ण समृद्धि में पोषित करने के लिए, समाज को संस्कृति को एक जीवंत व विकासशील ढांचे के रूप में अपनाना होगा। कला, भाषा और परंपरा में नवाचार को प्रोत्साहित करना – जैसे फ्यूजन संगीत या पुनर्कल्पित उत्सव – व्यक्तियों को गतिशील, सार्थक माध्यम से पहचान तलाशने में मदद करता है। शैक्षिक संस्थानों को पाठ्यक्रम में विविध दृष्टिकोणों को शामिल करना चाहिए अर्थात सहानुभूति, आलोचनात्मक सोच और बहु-पहचान के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना चाहिए। इससे न केवल समावेशी व्यक्तिगत पहचान बनती है, बल्कि सांस्कृतिक रूप से विविध समुदायों के बीच अलगाव को कम करने और आपसी समझ को बढ़ावा देकर सामूहिक सामाजिक सद्भाव को भी शक्ति मिलती है।
समावेशी और सामंजस्यपूर्ण समाज के निर्माण के लिए, व्यक्तियों को अपनी पहचान सुरक्षित रूप से तलाशने और अभिव्यक्त करने में सहायता प्रदान की जानी चाहिए। समावेशी शिक्षा, मानसिक स्वास्थ्य सहायता और आत्म-अभिव्यक्ति के लिए खुले स्थान इस व्यक्तिगत यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, जो विद्यालय आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देते हैं और विविधता का उल्लास मनाते हैं, वे युवाओं को स्वस्थ आत्म-बोध विकसित करने में मदद कर सकते हैं।
साथ ही, सामाजिक विविधता की रक्षा करना भी महत्वपूर्ण है। भेदभाव-विरोधी कानून, सकारात्मक कार्रवाई और सांस्कृतिक अधिकार नीतियां यह सुनिश्चित करती हैं कि हाशिए पर पड़ी पहचानों को न केवल स्वीकार किया जाए बल्कि उनका सम्मान किया जाए और उन्हें शामिल भी किया जाए। संस्थाओं को बदलती वास्तविकताओं के साथ तालमेल बिठाते हुए सांस्कृतिक परंपराओं को सक्रिय रूप से संरक्षित करना चाहिए तथा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी समूह खुद को अलग-थलग या बहिष्कृत महसूस न करे।
पूर्वाग्रह को कम करने और साझा मानवता पर जोर देने के लिए अंतर-सांस्कृतिक संवाद को बढ़ावा देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। बहुसांस्कृतिक त्यौहार या सामुदायिक कार्यक्रम जैसे पहल जो विभिन्न सामाजिक समूहों को एक साथ लाते हैं, विभाजन को कम कर सकते हैं और आपसी समझ को बढ़ावा दे सकते हैं। आज की ध्रुवीकृत दुनिया में, पहचान की राजनीति पर गंभीरता से विचार करना भी आवश्यक है। जबकि साझा पहचान के इर्द-गिर्द सामूहिक लामबंदी समुदायों को सशक्त बना सकती है और न्याय की मांग कर सकती है, इसके साथ ही सामाजिक विखंडन को रोकने के लिए पहचान की रेखाओं के पार गठबंधन बनाने के प्रयास भी किए जाने चाहिए। यद्यपि साझा पहचानों के इर्द-गिर्द सामूहिक लामबंदी समुदायों को सशक्त बना सकती है और न्याय की मांग कर सकती है, इसके साथ ही सामाजिक विखंडन को रोकने के लिए पहचान की सीमाओं के पार गठबंधन बनाने के प्रयास भी होने चाहिए।
अंततः, पहचान की दिशा में आगे बढ़ने के लिए व्यक्तिगत प्रामाणिकता का सम्मान करने, सामाजिक विविधता को महत्व देने, तथा साझा मानवीय यात्रा में समुदायों के बीच एकजुटता को बढ़ावा देने के बीच एक गतिशील संतुलन की आवश्यकता होती है।
रिया का अनुभव हमें प्रदर्शित करता है कि पहचान व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से प्रभावित होती है। यह हमारे अंदर के स्वरूप और हम किस समूह से संबंधित हैं, के बीच एक सतत् संवाद है। किसी भी स्वरूप को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। एक स्वस्थ समाज सामाजिक विविधता को महत्व देते हुए व्यक्तिगत यात्रा का सम्मान करता है। यह लोगों को अपनी सांस्कृतिक पहचान को खोए बिना स्वतंत्रतापूर्वक अपनी पहचान तलाशने का अवसर देता है। परिवर्तन और विविधता से भरी एक परस्पर जुड़ी दुनिया में, पहचान की जटिलता को खुलेपन और सहानुभूति के साथ स्वीकार करने से न्यायपूर्ण और जीवंत समुदायों का निर्माण करने में मदद मिलेगी, जहां प्रत्येक व्यक्ति फल-फूल सकेगा।
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