Q. नालसा (NALSA) निर्णय और ‘उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम’, 2019 द्वारा स्थापित एक प्रगतिशील कानूनी ढाँचे के बावजूद, भारत में लैंगिक पहचान की प्रक्रिया अक्सर उभयलिंगी (ट्रांसजेंडर) व्यक्तियों के लिए एक "दंडात्मक प्रक्रिया" होती है। कानूनी अधिकारों और उनके कार्यान्वयन के बीच इस अंतर के प्राथमिक कारणों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। नौकरशाही को अधिक संवेदनशील और उत्तरदायी बनाने के उपाय सुझाइए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • लिंग आधारित पहचान मान्यता की कानूनी रूपरेखा और प्रक्रिया की सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  • कानूनी अधिकारों और उनके कार्यान्वयन के बीच इस अंतर के प्राथमिक कारणों का विश्लेषण कीजिए।
  • प्रशासन को अधिक संवेदनशील और उत्तरदायी बनाने के उपाय सुझाइए।

उत्तर

सर्वोच्च न्यायालय ने NALSA बनाम भारत संघ (2014) वाद में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लैंगिक आत्म-पहचान के अधिकार को मान्यता दी तथा उन्हें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा घोषित कर कल्याणकारी उपायों हेतु पात्र ठहराया। इसे उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 तथा संविधान के अनुच्छेद-14 और 21 द्वारा और सुदृढ़ किया गया, जिससे समानता और गरिमा का संवैधानिक आश्वासन मिलता है। फिर भी, इन प्रगतिशील प्रावधानों का क्रियान्वयन बेहद धीमा है, जो भारतीय प्रशासनिक तंत्र की जड़ता और अनिच्छा को उजागर करता है। साथ ही व्यावहारिक रूप से अधिकार केवल कागज पर सिमट कर रह जाते हैं।

विधिक ढाँचे और मान्यता प्रक्रिया की सीमाएँ

  • रिकॉर्ड सुधार की प्रक्रियात्मक कठोरता: प्रचलित प्रशासनिक मानदंडों में दस्तावेजों को क्रमिक रूप से सुधारने की शर्त होती है, जिससे लंबी और जटिल प्रक्रिया जन्म लेती है। यह व्यक्ति की आत्म-पहचान को त्वरित मान्यता देने के मूल उद्देश्य को बाधित करता है।
    • उदाहरण के लिए: मणिपुर में डॉ. बेऑन्सी लाइश्रम के मामले में विश्वविद्यालय ने सबसे पुराने प्रमाण-पत्र से सुधार की अनिवार्यता जताई, जिसके कारण उनकी लैंगिक पहचान की औपचारिक मान्यता में वर्षों की देरी हुई।
  • आत्मपहचान के असंगत अनुप्रयोग: NALSA निर्णय के बावजूद, अनेक अधिकारी आज भी जन्म-निर्धारित लिंग को मानक मानते हैं और आत्म-घोषित पहचान को गौण समझते हैं। यह प्रशासनिक सोच और समाज दोनों में गहराई से व्याप्त पूर्वाग्रह को दर्शाता है।
  • प्रशासनिक जड़ता: अधिकांश प्राधिकरण तभी सक्रिय होते हैं, जब उन्हें न्यायालय या उच्चतर आदेश बाध्य करता है। यह न केवल संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी है बल्कि यह भी दर्शाता है कि विधिक प्रावधानों का स्वैच्छिक अनुपालन प्रशासन की प्राथमिकता नहीं है।
    • उदाहरण के लिए: स्पष्ट वैधानिक प्रावधान होने के बावजूद मणिपुर उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा, जो राज्य संस्थाओं की उदासीनता का प्रमाण है।
  • कार्यान्वयन नियमों में स्पष्टता का अभाव: राज्य स्तरीय नियमों की असंगतियों और अस्पष्टताओं के कारण वर्ष 2019 अधिनियम की अलग-अलग व्याख्याएँ सामने आती हैं। यह अधिकारों के एकसमान प्रवर्तन में बाधा उत्पन्न करती हैं। उदाहरण के लिए: कुछ राज्यों में आत्म-पहचान विधिक मानक होने के बावजूद चिकित्सकीय प्रमाण-पत्र की माँग की जाती है, जिससे व्यक्तियों को अपमानजनक और अनावश्यक जाँच प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है।
  • संसाधन और बुनियादी ढाँचे की कमी: विशेष शिकायत निवारण तंत्र या त्वरित प्राधिकरण की अनुपस्थिति के कारण अनुरोधों का निपटान लंबित रहता है। इससे व्यक्ति के जीवन पर प्रत्यक्ष प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए: ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को पहचान-पत्र या दस्तावेज सुधार हेतु महीनों, कभी-कभी वर्षों तक इंतजार करना पड़ता है, जो उन्हें सामाजिक व आर्थिक अवसरों से वंचित कर देता है।
  • संस्थागत सामाजिक कलंक: संस्थानों के कर्मचारी प्रायः पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता रखते हैं, जिसके कारण साधारण प्रशासनिक निर्णय भी प्रभावित होते हैं। इसके परिणामस्वरूप यह समस्या कानून से अधिक सामाजिक दृष्टिकोण की प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए: विद्यालय और विश्वविद्यालय “संभावित दुरुपयोग” का तर्क देकर लैंगिक सुधार को टालते हैं, जिससे ट्रांसजेंडर छात्र-छात्राओं को शिक्षा के अधिकार में बाधा आती है।

विधिक अधिकारों और उनके क्रियान्वयन के बीच अंतर के कारण

  • लैंगिक द्वैत की सांस्कृतिक जड़ें: गहराई से व्याप्त सामाजिक धारणाएँ अधिकारियों को लिंग को केवल जैविक सेक्स के आधार पर परिभाषित करने के लिए बाध्य करती हैं। इसके परिणामस्वरूप विविध लैंगिक पहचानों को नकार दिया जाता है। यह सोच भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में लैंगिक द्वैत की गहरी पैठ को दर्शाती है।
  • कानूनी प्रावधानों के बारे में कम जागरूकता: कार्यालयों में कार्यरत अग्रपंक्ति के कर्मचारी (Frontline workers) प्रायः सर्वोच्च न्यातालाय के NALSA निर्णय और उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 से अनभिज्ञ रहते हैं। इस अज्ञानता के कारण अधिकार केवल कागजों में सीमित रह जाते हैं और व्यावहारिक जीवन में इनका क्रियान्वयन बाधित होता है।
  • जवाबदेही का भय: अधिकारी अक्सर ऑडिट जाँच या भविष्य में निर्णय पलटे जाने की आशंका से अनुमोदन में देरी करते हैं या उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। यह भय प्रशासनिक निष्क्रियता को जन्म देता है और अधिकार पाने की प्रक्रिया को ‘दंडात्मक अनुभव’ बना देता है।
  • प्रशिक्षण और संवेदनशीलता का अभाव: अधिकारियों को ट्रांसजेंडर दस्तावेजों की कुशलतापूर्वक और सम्मानपूर्वक जाँच करने हेतु कोई संस्थागत प्रशिक्षण नहीं उपलब्ध कराया जाता है। इससे प्रायः प्रक्रियाएँ लंबी हो जाती हैं। 
    • उदाहरण के लिए: मंत्रालयों द्वारा प्रमाण-पत्र जारी करने वाले कर्मचारियों के लिए लैंगिक संवेदनशीलता संबंधी कार्यशालाएँ शायद ही कभी आयोजित की जाती हैं। यह प्रशासनिक उदासीनता को स्पष्ट करता है।
  •  साधारण विषयों के लिए न्यायालय पर निर्भरता: सामान्य दस्तावेज सुधार जैसे मामूली मामलों को भी अक्सर न्यायालय के पास भेज दिया जाता है, जिससे समय और संसाधनों की अनावश्यक बर्बादी होती है। 
    • उदाहरण के लिए: स्पष्ट वैधानिक प्रावधान होने के बावजूद, व्यक्तिगत मामलों में बार-बार उच्च न्यायालय के आदेश लिए जाते हैं। यह न्यायपालिका पर अतिरिक्त बोझ डालता है और पीड़ित व्यक्ति को और विलंब झेलना पड़ता है।
  • खंडित नीति प्रवर्तन: केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों और राज्य-स्तरीय क्रियान्वयन में असंगति के कारण भ्रम की स्थिति बनती है। एक ही कानून अलग-अलग राज्यों में भिन्न रूप से लागू होता है, जिससे ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकार समान रूप से सुरक्षित नहीं हो पाते हैं।

प्रशासन को अधिक संवेदनशील और उत्तरदायी बनाने के उपाय

  • अनिवार्य संवेदीकरण प्रशिक्षण: नियमित और संरचित संवेदनशीलता मॉड्यूल अधिकारियों को ट्रांसजेंडर अधिकारों की समझ प्रदान करते हैं तथा उनके भीतर निहित पूर्वाग्रहों को कम करते हैं। यह प्रशिक्षण केवल कानूनी जानकारी नहीं बल्कि दृष्टिकोण में मानवीय परिवर्तन  लाने के लिए आवश्यक है। 
    • उदाहरण के लिए: जैसे कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (निवारण) अधिनियम के अंतर्गत लिंग-संवेदनशीलता मॉड्यूल अनिवार्य किए गए हैं, वैसे ही ट्रांसजेंडर संदर्भ में भी लागू किए जा सकते हैं।
  • स्पष्ट और एकरूप दिशा-निर्देश: मानकीकृत दिशा-निर्देशों से पूरे देश में लैंगिक पहचान अद्यतन करने की प्रक्रिया एकसमान होगी। इससे राज्यों के बीच भिन्नता और भ्रम समाप्त होगा। 
    • उदाहरण: आधार अपडेट की तरह ट्रांसजेंडर दस्तावेजों हेतु सिंगल-विंडो ऑनलाइन पोर्टल की स्थापना की जानी चाहिए, जिससे प्रक्रियाएँ तेज, पारदर्शी और उपयोगकर्ताओं के अनुकूल हो सकें।
  • जवाबदेही तंत्र: समयबद्ध निपटान और देरी पर दंडात्मक प्रावधानों से न केवल प्रशासनिक दक्षता बढ़ेगी बल्कि मनमाने ढंग से आवेदनों को अस्वीकार करने की प्रवृत्ति भी कम होगी। 
    • उदाहरण: मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के सेवा का अधिकार अधिनियम (Right to Services Act) की तर्ज पर यह व्यवस्था लागू की जा सकती है, जहाँ निर्धारित समय सीमा में सेवा न देने पर अधिकारी पर जुर्माना लगाया जाता है।
  • विकेंद्रीकृत शिकायत निवारण प्रकोष्ठ: स्थानीय स्तर पर स्थापित हेल्पडेस्क छोटे-मोटे विवादों और त्रुटियों को तुरंत सुलझा सकते हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति को उच्च न्यायालय या वरिष्ठ अधिकारियों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा और न्याय तक त्वरित पहुँच संभव होगी।
  • सामुदायिक परामर्श और निगरानी: नीति निर्माण प्रक्रिया में ट्रांसजेंडर समुदाय के हितों को शामिल करने से न केवल विश्वास कायम होता है बल्कि सुधार भी वास्तविक आवश्यकताओं पर आधारित हो जाते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: केरल का राज्य ट्रांसजेंडर न्याय बोर्ड (State Transgender Justice Board) जिसमें समुदाय के सदस्य शामिल हैं, एक सफल मॉडल है जिसे अन्य राज्यों में भी अपनाया जा सकता है।

निष्कर्ष

NALSA (2014) निर्णय और वर्ष 2019 का अधिनियम द्वारा प्रगतिशील विधिक आधार स्थापित किए जाने के बावजूद, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अभी भी ऐसी प्रक्रियात्मक बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो उनकी आत्म-पहचान के अधिकार को एक “दंडात्मक प्रक्रिया” में परिवर्तन कर देती हैं। यह स्थिति विधिक अधिकार और वास्तविक जीवन के अनुभव के बीच गंभीर अंतर को दर्शाती है। इस अंतर को कम करने के लिए आवश्यक है कि विधिक प्रावधानों का पूरे देश में समान रूप से क्रियान्वयन हो, प्रशासन को संवेदनशील बनाया जाए, जवाबदेही तंत्र विकसित किए जाएँ और विकेंद्रोंकृत शिकायत निवारण व्यवस्था स्थापित की जाए। ये कदम संविधान द्वारा प्रदत्त समानता, गरिमा और स्वतंत्रता की गारंटी के अनुरूप होंगे। जस्टिस राधाकृष्णन पीठ (NALSA ) जैसी समितियों और मणिपुर उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप जैसे न्यायिक उदाहरण हमें एक ऐसे प्रशासनिक ढाँचे का मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, जो वास्तव में समावेशी, न्यायसंगत और मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित हो।

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