Q. न्यायपालिका ने अक्सर भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के दुरुपयोग को अभियुक्तों के अधिकारों के साथ संतुलित करने का प्रयास किया है। इसके आलोक में, 'कूलिंग पीरियड’ और 'परिवार कल्याण समितियों' जैसे उपायों के हालिया न्यायिक समर्थन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। क्या 'न्यायिक प्रयोगवाद' (Judicial Experimentalism) के ऐसे उदाहरण पीड़ित के समय पर न्याय पाने के मौलिक अधिकार को कमजोर करते हैं? (250 शब्द, 15 अंक)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • ‘कूलिंग पीरियड’  और ‘परिवार कल्याण समितियों’ जैसे उपायों के न्यायिक समर्थन के सकारात्मक पहलू।
  • ‘कूलिंग पीरियड’  और ‘परिवार कल्याण समितियों’ जैसे उपायों के न्यायिक समर्थन की सीमाएँ।
  • सीमाओं से निपटने के लिए आगे की राह।
  • न्यायिक प्रयोगवाद कैसे पीड़ित के समय पर न्याय पाने के मौलिक अधिकार को कमजोर करता है।

उत्तर

भूमिका

भारतीय दंड संहिता की धारा 498A को विवाह में स्त्रियों को क्रूरता से बचाने के लिए अधिनियमित किया गया था। किंतु इसके दुरुपयोग की आशंकाओं को देखते हुए न्यायालयों ने ‘कूलिंग पीरियड’ और परिवार कल्याण समितियों जैसी सुरक्षा उपायों को जोड़ा। आरोपितों के अधिकार और पीड़ित संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित करते हुए ऐसे न्यायिक प्रयोग वास्तविक पीड़ितों के लिए न्याय में विलंब को लेकर चिंता उत्पन्न करते हैं।

मुख्य भाग

ऐसे न्यायिक अनुमोदन के सकारात्मक पक्ष

  • धारा 498A के दुरुपयोग की रोकथाम: न्यायालयों ने झूठी शिकायतों से मनमानी गिरफ्तारी और पारिवारिक उत्पीड़न की समस्या को स्वीकार किया।
    • उदाहरण: अरनेश कुमार  मामले (वर्ष 2014) में सर्वोच्च न्यायालय ने मनमानी हिरासत रोकने हेतु गिरफ्तारी से पहले चेकलिस्ट अनिवार्य की।
  • सुलह को प्रोत्साहन: कूलिंग पीरियड  मध्यस्थता और वार्ता का समय प्रदान करता है, जिससे जल्दबाजी में गिरफ्तारी अथवा वैवाहिक संबंधों के स्थायी रूप से टूटने की संभावना घटती है।
  • आरोपित की स्वतंत्रता की सुरक्षा: तात्कालिक कठोर कार्रवाई को धीमा करके निर्दोष पारिवारिक सदस्यों को अनावश्यक गिरफ्तारी और कारावास के आघात से बचाता है।
    • उदाहरण: NCRB आँकड़े दर्शाते हैं कि धारा 498A में गिरफ्तारी की संख्या घट रही है, जो सुरक्षा उपायों की प्रभावशीलता दर्शाती है।
  • पुलिस और न्यायालयों पर बोझ में कमी: परिवार कल्याण समितियों (FWCs) को रेफरल करने से वास्तविक मामलों को तुच्छ शिकायतों से अलग किया जा सकता है, जिससे पुलिस का कार्यभार और न्यायालय में लंबित मामलों में कमी आती है।

ऐसे न्यायिक अनुमोदन की सीमाएँ

  • समय पर न्याय से वंचना: पीड़िताओं को तुरंत सुरक्षा और राहत नहीं मिलती क्योंकि कूलिंग पीरियड समाप्त होने तक कोई कार्रवाई संभव नहीं।
  • आपराधिक न्याय प्रणाली की स्वायत्तता का ह्रास: शिकायतों को परिवार कल्याण समितियों की ओर स्थानातरित करना पुलिस और मजिस्ट्रेट के मूलाधिकारों को कमजोर करता है।
    • उदाहरण: सोशल एक्शन फोरम बनाम मानव अधिकार (वर्ष 2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने परिवार कल्याण समितियों को निरस्त कर पुलिस और न्यायालय की प्रधानता बहाल की।
  • वैधानिक समर्थन का अभाव: परिवार कल्याण समितियाँ अर्द्ध-न्यायिक निकाय हैं, जिनकी कोई वैधानिक अथवा संसदीय मान्यता नहीं, जिससे उनकी भूमिका संवैधानिक रूप से संदिग्ध बनी रहती है।
    • उदाहरण: राजेश शर्मा दिशा-निर्देश (वर्ष 2017) को न्यायिक सीमा से परे मानकर आलोचना हुई और एक वर्ष के भीतर वापस ले लिया गया।
  • पीड़िताओं का पुनः-आघात: विलंब और जबरन मध्यस्थता घरेलू हिंसा की वास्तविक पीड़िताओं की स्थिति को और बिगाड़ सकती है एवं उन्हें हिंसक परिवारों में रहने को मजबूर करती है।

सीमाओं से निपटने के उपाय

  • प्रारंभिक जाँच प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाना: ललिता कुमारी मामले में दिए गए निर्देशों के अनुसार, उचित पुलिस नेतृत्व वाली प्रारंभिक जाँच सुनिश्चित की जाए, न कि बिना किसी अधिकार वाली परिवार कल्याण समितियों पर निर्भर रहें।
    • उदाहरण: कानून पहले से ही वैवाहिक क्रूरता मामलों को प्रारंभिक जाँच के अंतर्गत रखता है।
  • पुलिस जवाबदेही में सुधार: अरनेश कुमार दिशा-निर्देश (वर्ष 2014) का पालन सुनिश्चित कर गिरफ्तारी प्रक्रिया पर निगरानी रखना।
    • उदाहरण: सतेंद्र कुमार अंतिल (वर्ष 2022) में न्यायालय ने निर्देश दिया कि यदि गिरफ्तारी अरनेश कुमार दिशा-निर्देश का उल्लंघन करती है, तो जमानत दी जानी चाहिए।
  • वैधानिक स्पष्टता: संसद को कानूनों का पुनरावलोकन करना चाहिए ताकि दुरुपयोग से सुरक्षा और पीड़ित-केंद्रित न्याय के बीच संतुलन स्थापित हो सके।
    • उदाहरण: दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) संशोधन, 2008 ने गिरफ्तारी के लिए ‘आवश्यकता के सिद्धांत’ को सम्मिलित किया।

कैसे न्यायिक प्रयोगवाद पीड़िता के समयबद्ध न्याय के मौलिक अधिकार को कमजोर करते हैं

  • निवारण में देरी: अनिवार्य कूलिंग पीरियड पीड़िताओं को लंबे समय तक प्रतीक्षा करने पर मजबूर करता है।
  • क्रूरता के विरुद्ध निवारक प्रभाव की कमी: अपराधी यह जानते हुए और अधिक साहसी हो सकते हैं कि तात्कालिक गिरफ्तारी की संभावना नहीं।
    • उदाहरण: NCRB आँकड़े दर्शाते हैं कि सुरक्षा उपायों के बावजूद धारा 498A के तहत दर्ज अपराधों की संख्या बढ़ रही है।
  • न्यायिक अधिकार क्षेत्र से परे जाना: न्यायालय विधायी भूमिका निभाने का जोखिम उठाते हैं, जिससे सांविधानिक संतुलन बिगड़ सकता है।
    • उदाहरण: राजेश शर्मा (वर्ष 2017) दिशा-निर्देशों की वापसी न्यायिक अतिक्रमण पर प्रतिरोध को दर्शाती है।
  • पुलिस की कार्यात्मक स्वायत्तता से वंचना: मामलों को परिवार कल्याण समितियों में स्थानांतरित करने से पुलिस और मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ कमजोर होती हैं।

कैसे न्यायिक प्रयोगवाद पीड़िता के समयबद्ध न्याय के मौलिक अधिकार को कमजोर नहीं करते

  • झूठे मामलों से सुरक्षा: निर्दोष व्यक्तियों को मनमानी गिरफ्तारी से बचाता है।
    • उदाहरण: अरनेश कुमार (2014) ने मनमानी गिरफ्तारी पर रोक लगाई।
  • वाद से पूर्व सुलह को बढ़ावा: मुकदमे से पहले संवाद और समाधान को प्रोत्साहित करता है।
    • उदाहरण: इलाहाबाद उच्च न्यायालय का मुकेश बंसल (2022) निर्णय वैवाहिक संबंधों को बचाने हेतु सुलह पर केंद्रित था।
  • प्रणालीगत बोझ की रोकथाम: झूठी शिकायतों के छँटने से पुलिस संसाधनों और न्यायालयों पर अनावश्यक दबाव घटता है।

निष्कर्ष

धारा 498A के अंतर्गत सुरक्षा उपायों हेतु न्यायिक प्रयास निर्दोषों की रक्षा और पीड़िताओं की न्याय तक पहुँच के बीच संतुलन साधने का प्रयास है। कूलिंग पीरियड  और परिवार कल्याण समितियों जैसे उपाय दुरुपयोग को तो कम करते हैं, किंतु इन्हें महिलाओं के समयबद्ध न्याय के अधिकार को कमजोर नहीं करना चाहिए। निष्पक्षता और तात्कालिकता दोनों सुनिश्चित करने वाला संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है।

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