प्रश्न की मुख्य माँग
- शरणार्थी-घुसपैठिए के बीच अंतर और शरणार्थी कानून का अभाव।
- एक व्यापक शरणार्थी कानून बनाने में चुनौतियाँ।
- आगे की राह।
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उत्तर
इतिहास के दौरान भारत ने पारसी समुदाय से लेकर तिब्बतियों तक अनेक विस्थापित समुदायों को शरण दी है, फिर भी एक स्पष्ट शरणार्थी कानून की अनुपस्थिति ने दया और संदेह के बीच की रेखा को धुँधला कर दिया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर, कई वास्तविक शरणार्थियों को घुसपैठिया के रूप में वर्गीकृत कर दिया जाता है, जिससे प्रणालीगत अस्पष्टता और असंगति उजागर होती है।
शरणार्थी–घुसपैठिया विभाजन और शरणार्थी कानून का अभाव
- कानूनी शून्यता: भारत किसी भी अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी संधि का सदस्य नहीं है, जिसके कारण शरणार्थी की कोई घरेलू परिभाषा नहीं है। फलस्वरूप, शरणार्थियों को नागरिकता अधिनियम के तहत अवैध प्रवासी माना जाता है।
- उदाहरण: भारत वर्ष 1951 संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन (UN Refugee Convention) और वर्ष 1967 प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है।
- तात्कालिक दृष्टिकोण: शरणार्थियों का प्रबंधन सामान्य विदेशी कानूनों के तहत किया जाता है, परंतु कोई विशिष्ट शरणार्थी नीति नहीं है।
- उदाहरण: इमिग्रेशन एंड फॉरेनर्स एक्ट, 2025 सभी विदेशियों पर समान रूप से लागू होता है, जिसमें शरणार्थियों के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं है।
- भेदभावपूर्ण व्यवहार: कुछ समुदायों को औपचारिक पुनर्वास (जैसे तिब्बती शरणार्थी) मिलता है, जबकि अन्य को बाहर रखा जाता है।
- धर्म आधारित बहिष्करण: नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA 2019) केवल अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले छह गैर-मुस्लिम समुदायों (हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, पारसी और बौद्ध) को नागरिकता प्रदान करता है।
- उदाहरण: इसमें रोहिंग्या मुसलमानों और श्रीलंकाई तमिलों जैसे समूह शामिल नहीं हैं।
- असंगत राहत: जहाँ राहत दी जाती है, वह भी अस्थायी और अपूर्ण रहती है।
- उदाहरण: हालिया अधिसूचना में 9 जनवरी, 2015 से पहले आए तमिल शरणार्थियों को दंडात्मक प्रावधानों से छूट दी गई, लेकिन अन्य अब भी असुरक्षित हैं।
व्यापक शरणार्थी कानून बनाने की चुनौतियाँ
- राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: वास्तविक शरणार्थियों और घुसपैठियों में भेद करना कठिन है, विशेष रूप से खुले सीमावर्ती क्षेत्रों के कारण।
- उदाहरण: बांग्लादेश या म्याँमार से आए शरणार्थियों को बिना दस्तावेजों के घुसपैठिया करार दिया जा सकता है।
- विविध प्रवाह: भारत में लगभग 2.11 लाख शरणार्थी विभिन्न क्षेत्रों — तिब्बत, श्रीलंका आदि — से हैं, जिससे एकसमान नीति बनाना कठिन हो जाता है।
- राजनीतिक संवेदनशीलता: धर्म और जातीयता के आधार पर शरणार्थियों का व्यवहार अक्सर राजनीतिक हो जाता है।
- उदाहरण: CAA वर्ष 2019 में छह गैर-मुस्लिम समूहों को प्राथमिकता दी गई, जबकि रोहिंग्या मुसलमानों जैसे अल्पसंख्यक समूहों को बाहर रखा गया।
- स्थायी निवास का भय: राज्य सरकारों को आशंका होती है कि मान्यता मिलने से जनसंख्या और संसाधन दबाव बढ़ जाएगा।
- उदाहरण: श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी शिविर दशकों से तमिलनाडु में हैं, जिनका अभी तक एकीकरण नहीं हुआ है, जिससे प्रशासनिक झिझक बनी रहती है।
- संस्थागत क्षमता का अभाव: कोई विशिष्ट शरणार्थी प्राधिकरण नहीं है, जो व्यवस्थित रूप से जांच, पुनर्वास और एकीकरण कर सके।
- उदाहरण: अभी भी फॉरेनर्स रजिस्ट्रेशन ढाँचे पर निर्भरता बनी हुई है।
आगे की राह
- व्यापक शरणार्थी कानून: ‘शरणार्थी’ को ‘अवैध प्रवासी/घुसपैठिया’ से अलग परिभाषित करने वाला कानून बनाया जाए, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवीय दायित्वों के बीच संतुलन स्थापित हो।
- समान व्यवहार: सभी समूहों पर लागू एक भेदभाव-रहित नीति बनाई जाए,
जिसमें किसी धर्म या क्षेत्र के आधार पर भेदभाव न हो।
- संस्थागत ढाँचा: एक स्वतंत्र शरणार्थी आयोग की स्थापना की जाए, जो दावों की जाँच करे, शरणार्थी दर्जा प्रदान करे, और उनके अधिकार एवं पुनर्वास की निगरानी करे।
- वैश्विक मानकों से समन्वय: भले ही भारत वर्ष 1951 सम्मेलन का सदस्य न हो, फिर भी इसके मुख्य सिद्धांतों के अनुरूप नीति बनाकर राष्ट्रीय हितों की रक्षा की जा सकती है।
- संतुलित दृष्टिकोण: मानवीय सहायता को सुरक्षा जाँच के साथ जोड़ा जाए,
ताकि वास्तविक शरणार्थियों और घुसपैठियों में स्पष्ट अंतर किया जा सके।
- उदाहरण: तमिल शरणार्थियों को हाल में दी गई छूट को तात्कालिक आदेशों की बजाय कानूनी ढाँचे में लाया जाए।
निष्कर्ष
भारत के लिए एक मानवीय और सुरक्षित शरणार्थी ढाँचा उसकी नैतिक साख और रणनीतिक हितों दोनों के लिए आवश्यक है। स्पष्ट कानूनी परिभाषाएँ, समान व्यवहार और मजबूत संस्थान मनमानी को न्यायपूर्णता में बदल सकते हैं, जिससे भारत उन उत्पीड़ितों के लिए एक सुरक्षित आश्रय बना रहे, बिना अपनी संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता किए।
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