Q. डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि 'संवैधानिक नैतिकता कोई स्वाभाविक भावना नहीं है। इसे विकसित करना पड़ता है।' इस विचार के संदर्भ में, आलोचनात्मक रूप से विश्लेषण कीजिए कि 'संवैधानिक नैतिकता' में क्या शामिल है और वर्तमान भारत में इसे विकसित करने में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • संवैधानिक नैतिकता के अर्थ और तत्त्व 
  • समकालीन भारत में संवैधानिक नैतिकता के विकास में चुनौतियाँ

उत्तर

डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने भारत के संविधान का परिचय देते हुए इस बात पर जोर दिया कि “संवैधानिक नैतिकता”, यानी स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के संवैधानिक मूल्यों के पालन की भावना, शासकों तथा नागरिकों, दोनों का मार्गदर्शन करे। कानूनी आज्ञाकारिता के विपरीत, इसके लिए केवल प्रक्रियाओं का पालन करने के बजाय लोकतांत्रिक नैतिकता को आत्मसात् करना आवश्यक है।

संवैधानिक नैतिकता के अर्थ और तत्त्व

  • संवैधानिक मूल्यों का पालन, व्यक्तिगत शासन का नहीं: यह माँग करता है कि राज्य और नागरिकों के सभी कार्य संविधान में निहित सिद्धांतों द्वारा निर्देशित हों, न कि व्यक्तिगत या बहुसंख्यक इच्छाशक्ति द्वारा।
    • उदाहरण: दिल्ली सरकार बनाम भारत संघ (2018) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने सहकारी संघवाद को संवैधानिक नैतिकता के एक पहलू के रूप में रेखांकित किया।
  • कानून के शासन और संस्थागत स्वायत्तता का सम्मान: यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता का प्रयोग संवैधानिक सीमाओं के भीतर हो, संस्थागत स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए।
    • उदाहरण: रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक (2019) में न्यायालय की टिप्पणियों ने न्यायाधिकरणों को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त रखने की आवश्यकता को बरकरार रखा।
  • स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के प्रति प्रतिबद्धता: ये मूल मूल्य सुनिश्चित करते हैं कि लोकतंत्र प्रक्रियात्मक न होकर, मूल हो।
    • उदाहरण: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) ने व्यक्तिगत गरिमा को संवैधानिक नैतिकता का केंद्र माना।
  • सहिष्णुता और असहमति लोकतांत्रिक गुण: भिन्न विचारों का सम्मान बहुलवाद को बनाए रखता है।
    • उदाहरण: सबरीमाला मामले (2018) में न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि संवैधानिक नैतिकता, सामाजिक नैतिकता से ऊपर है।
  • जवाबदेही और पारदर्शिता: संवैधानिक नैतिकता शासन में सार्वजनिक तर्क और नैतिक आचरण को कायम रखती है।
    • उदाहरण: RTI अधिनियम (2005) और नियुक्तियों में पारदर्शिता पर न्यायिक सक्रियता इस लोकाचार को दर्शाती है।
  • अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े वर्गों का संरक्षण: यह कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित करता है और बहुसंख्यकवादी आवेगों से बचाता है।
    • उदाहरण: केशवानंद भारती (1973) ने ‘मूल संरचना’ को राज्य शक्ति की नैतिक सीमा के रूप में पढ़ा।
  • संस्थागत सम्मान और संवैधानिक देशभक्ति: नागरिकों और प्रतिनिधियों को संविधान का सम्मान एक जीवंत नैतिक दस्तावेज के रूप में करना चाहिए, न कि केवल एक कानूनी दस्तावेज़ के रूप में।

समकालीन भारत में संवैधानिक नैतिकता को विकसित करने की चुनौतियाँ

  • बहुसंख्यकवाद और पहचान की राजनीति का उदय: लोकलुभावन बयानबाजी अक्सर बहुलवाद और अल्पसंख्यक अधिकारों को कमजोर करती है।
    • उदाहरण: घृणास्पद भाषण, सतर्कतावाद और धर्म-आधारित ध्रुवीकरण बंधुत्व की संवैधानिक भावना को नष्ट करते हैं।
  • संस्थागत स्वतंत्रता का क्षरण: न्यायपालिका, मीडिया और वैधानिक निकायों पर कार्यपालिका का बढ़ता प्रभाव नियंत्रण और संतुलन को कमजोर करता है।
    • उदाहरण: न्यायिक नियुक्तियों में देरी और चुनाव आयोग का राजनीतीकरण इस प्रवृत्ति को उजागर करते हैं।
  • कमजोर विधायी नैतिकता और राजनीतिक अवसरवाद: बार-बार दल-बदल और राजनीति का अपराधीकरण संवैधानिक नैतिकता के प्रति अनादर प्रदर्शित करता है।
    • उदाहरण: कर्नाटक विधानसभा दलबदल मामले (2019) ने संवैधानिक खामियों के दुरुपयोग को उजागर किया।
  • जनता की उदासीनता और नागरिक शिक्षा का अभाव: संवैधानिक कर्तव्यों के बारे में सीमित जागरूकता लोकतंत्र में नागरिकों की नैतिक भागीदारी को कम करती है।
    • उदाहरण: स्थानीय शासन के साथ कम जुड़ाव और मतदाताओं के घटते विश्वास इस अंतर को दर्शाते हैं।
  • न्यायिक अतिक्रमण बनाम जवाबदेही की दुविधा: नैतिकता बनाए रखने के लिए न्यायपालिका पर अत्यधिक निर्भरता संस्थाओं के बीच असंतुलन का कारण बनती है।
    • उदाहरण: नीतिगत क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता का विस्तार अक्सर अतिक्रमण की आलोचना को आमंत्रित करता है।
  • सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार और कमजोर नैतिक संस्कृति: संरक्षण की राजनीति और पारदर्शिता का अभाव संवैधानिक शासन में विश्वास को कम करते हैं।
  • सूचना अव्यवस्था और ध्रुवीकृत सार्वजनिक विमर्श: सोशल मीडिया पर गलत सूचना, तर्कसंगत संवैधानिक बहस के बजाय भावनात्मक लोकलुभावनवाद को बढ़ावा देती है।

निष्कर्ष

बी. आर. अंबेडकर द्वारा परिकल्पित संवैधानिक नैतिकता, गणतंत्र का नैतिक दिशा-निर्देश है, जो यह सुनिश्चित करती है कि सत्ता का प्रयोग संयम, समानता और करुणा के साथ किया जाए। इसके विकास के लिए नैतिक राजनीतिक नेतृत्व, नागरिक शिक्षा, स्वतंत्र संस्थाओं और सक्रिय नागरिकता की आवश्यकता है।

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