प्रश्न की मुख्य माँग
- विधायी अधिनियम और नीति किस प्रकार वन समुदाय और संरक्षण प्रयासों के बीच संबंधों को पुनः परिभाषित करती है।
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उत्तर
भारत का नया सामुदायिक-केंद्रित संरक्षण एवं पुनर्वास के लिए राष्ट्रीय ढाँचा (2025) पारंपरिक ‘फोर्ट्रेस कंजर्वेशन’ (Fortress Conservation) मॉडल से एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को दर्शाता है, जो स्थानीय समुदायों को बाहर रखता था। यह नया दृष्टिकोण वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के अनुरूप एक भागीदारी आधारित मॉडल प्रस्तुत करता है, जहाँ संरक्षण को एक सामाजिक अनुबंध के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें वनवासी समुदाय जैव विविधता की रक्षा के सहभागी हैं — यह पारिस्थितिकी और मानव गरिमा के बीच संतुलन स्थापित करता है।
कैसे विधायी अधिनियम और नीति वन समुदायों तथा संरक्षण प्रयासों के संबंध को पुनर्परिभाषित करते हैं
- वनवासियों को हितधारक के रूप में मान्यता: दोनों ढाँचे वन-निर्भर लोगों को भूमि और संसाधनों के वैध संरक्षक के रूप में मान्यता देते हैं, जिससे संरक्षण की दिशा बहिष्कार से भागीदारी की ओर मुड़ती है।
- उदाहरण: वन अधिकार अधिनियम (FRA) आदिवासी और अन्य पारंपरिक वनवासियों के व्यक्तिगत एवं सामुदायिक वन अधिकार (CFRs) को कानूनी मान्यता प्रदान करता है।
- अधिकार-आधारित पुनर्वास: यह नीति सुनिश्चित करती है कि पुनर्वास केवल FRA की प्रक्रियाओं जैसे भूमि और सामुदायिक दावों के निपटारे के पूर्ण होने के बाद ही किया जाए।
- उदाहरण: इसने वर्ष 2024 के NTCA निर्देश को पलट दिया, जिसमें बाघ अभयारण्यों से सामूहिक ग्राम पुनर्वास का प्रस्ताव था।
- संरक्षण को आजीविका से जोड़ना: यह ढाँचा जैव विविधता संरक्षण को सतत् आजीविका और सामुदायिक आधारित वन प्रबंधन से जोड़ता है।
- उदाहरण: ओडिशा और मध्य प्रदेश में समुदाय संचालित इको-टूरिज्म परियोजनाओं ने स्थानीय आय और वन स्वास्थ्य दोनों में सुधार किया है।
- निष्कासन के विरुद्ध कानूनी सुरक्षा: नीति अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के प्रावधानों को लागू करके जबरन विस्थापन और अवैध निष्कासन के विरुद्ध कानूनी सुरक्षा प्रदान करती है।
- विकेंद्रीकृत निर्णय-निर्माण: दोनों ढांचे ग्राम सभाओं और स्थानीय संस्थाओं को वन उपयोग, प्रबंधन, एवं संरक्षण योजनाओं पर निर्णय लेने का अधिकार देते हैं।
- उदाहरण: महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में ग्राम सभाएँ FRA के तहत बाँस की कटाई का प्रबंधन कर रही हैं, जिससे राजस्व बढ़ा है और वनों का संरक्षण भी हुआ है।
- पारंपरिक ज्ञान का समावेशन: पारंपरिक पारिस्थितिकीय ज्ञान को वैज्ञानिक पद्धतियों के पूरक के रूप में मान्यता दी गई है, जिससे समावेशी संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।
- उदाहरण: आदिवासी समुदायों की अग्नि नियंत्रण और औषधीय पौधों के उपयोग की पारंपरिक विधियाँ अब वन प्रबंधन योजनाओं का हिस्सा हैं।
- सशक्त जवाबदेही तंत्र: त्रि-स्तरीय शिकायत निवारण प्रणाली पुनर्वास और मुआवजे में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करती है।
- संदर्भ-विशिष्ट संरक्षण: यह ढाँचा स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार, सह-अस्तित्व आधारित संरक्षण मॉडल के अनुसंधान और पायलट परियोजनाओं को बढ़ावा देता है।
- उदाहरण: बाघ अभयारण्यों के बफर जोन में पायलट अध्ययन समुदायों और बाघों के बीच सतत् सह-अस्तित्व के मॉडल तलाश रहे हैं।
निष्कर्ष
वन अधिकार अधिनियम (2006) और सामुदायिक-केंद्रित संरक्षण ढाँचा (2025) एक समावेशी एवं सतत् विकास की दिशा में परिवर्तन का प्रतीक हैं। ये नीतियाँ पारिस्थितिकीय संरक्षण को सामाजिक न्याय से जोड़ती हैं। भारत अब बहिष्कारी संरक्षण से अधिकार एवं भागीदारी आधारित संरक्षण की ओर अग्रसर है, जिससे मनुष्य और वन्यजीव दोनों का सह-अस्तित्व और समृद्धि सुनिश्चित हो सकेगी।
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