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निबंध लिखने का प्रारूपप्रस्तावना
मुख्य भाग
निष्कर्ष:
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मुंबई की एक व्यस्त शहरी झुग्गी बस्ती में, 10 वर्षीय आशा रोज़ाना कई किलोमीटर पैदल चलकर एक अस्थायी तंबू/ टेंट में बने स्कूल जाती है। वही दूसरी ओर, एक्सप्रेसवे के उस पार उसके ही उम्र के बच्चे वातानुकूलित कक्षाओं में रोबोटिक्स जैसी तकनीकें सीख रहे हैं। दोनों एक ही देश में रहते हैं, एक ही हवा में सांस लेते हैं और एक ही राष्ट्रगान गाते हैं, फिर भी समृद्धि तक उनकी पहुँच एक दूसरे से बिलकुल अलग है। यह तीव्र विषमता एक मूलभूत प्रश्न उठाती है: वास्तव में समाज के समृद्ध होने का मतलब/अर्थ क्या है?
“साझा समृद्धि ही वास्तविक समृद्धि है” यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक ऐसा विकास दृष्टिकोण है जो GDP (GDP) के आँकड़ों और केवल अभिजात वर्ग की प्रगति से कहीं बढ़कर है। यह दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि किसी राष्ट्र की वृद्धि तभी वास्तविक होती है जब उसके सभी नागरिक, विशेष रूप से गरीब, हाशिए पर पड़े और कमज़ोर वर्ग – सम्मान, अवसर और सुख-समृद्धि का समान रूप से अनुभव करते हैं। केवल कुछ लोगों का उत्थान करने वाली समृद्धि संवेदनशील, अन्यायपूर्ण और अक्सर अस्थिरता की जड़ बन जाती है। इसके विपरीत, साझा समृद्धि टिकाऊ शांति, सामाजिक एकता और राष्ट्रीय एकता की भावना का निर्माण करती है।
वास्तविक समृद्धि केवल धन-संपत्ति संचय, शेयर बाज़ारों में उछाल या अरबपतियों की बढ़ती संख्या के बारे में नहीं है। यह एक ऐसा समाज बनाने के बारे में है जहाँ हर व्यक्ति, चाहे उसकी जाति, लिंग, वर्ग या भौगोलिक स्थिति कुछ भी हो, सम्मान के साथ रह सके, बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सके और अपने सपनों को साकार करने का अवसर पा सके। यह समृद्धि इस विचार में निहित है कि स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, रोजगार, न्याय और स्वच्छ पर्यावरण तक समान पहुँच मिल सके।
एक समृद्ध समाज वही कहलाता है जहाँ झारखंड में एक आदिवासी बच्चा, केरल के एक मछुआरे की बेटी या हरियाणा का एक दिव्यांग युवा को भी समान अवसर मिले, जितने किसी विशेषाधिकार प्राप्त परिवार में जन्मे व्यक्ति को मिलता है। वास्तविक समृद्धि यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी पीछे न रह जाए।
हाल के दशकों में, दुनिया ने देखा है कि आर्थिक वृद्धि के बावजूद असमानता तेजी से बढ़ी है। भारत ने यूनिकॉर्न स्टार्टअप बनाए है और देश में करोड़पतियों की संख्या दोगुनी हो गई है, लेकिन आज भी लाखों लोग भूखे सोते हैं या डिग्री होने के बावजूद बेरोजगार हैं। अगर व्यापक बहिष्करण मौजूद है, तो व्यक्तिगत सफलता को राष्ट्रीय सफलता का मापदंड नहीं माना जा सकता। कुछ लोगों की संपत्ति, अनेक लोगों के अभाव की भरपाई नहीं कर सकती।
समृद्धि तभी सार्थक होती है जब वह समाज के हर वर्ग तक पहुँचे, जब कोई ठेले पर सामान बेचने वाली महिला अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए UPI का उपयोग करती है, जब कोई ग्रामीण महिला स्वयं सहायता समूह का नेतृत्व करती है, या जब झुग्गी-झोपड़ी का कोई बच्चा सिविल सेवा परीक्षा में सफल होता है। ये केवल सामाजिक उन्नति की कहानियाँ नहीं हैं, बल्कि साझा प्रगति के प्रतीक हैं।
कुछ ही हाथों में धन का केंद्रित होना केवल असंतोष ही नहीं उत्पन्न नहीं करता अपितु यह लोकतंत्र को कमजोर करता है और अशांति को जन्म देता है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि कैसे आर्थिक बहिष्कार ने हिंसक संघर्ष, सामाजिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा दिया। भारत में, “रेड कॉरिडोर” जैसे क्षेत्रों में नक्सलवाद का उदय मुख्यतः व्यापक पैमाने पर विकासात्मक उपेक्षा के कारण हुआ। जब समुदाय को विकास की गाथा से बाहर छोड़ दिया जाता है , तो वे अलग-थलग, अनसुना और क्रोधित महसूस करते हैं।
यहां तक कि वैश्विक स्तर पर, अरब स्प्रिंग से लेकर लैटिन अमेरिका के राजनीतिक संकटों तक, हम बार-बार यह पैटर्न देख सकते हैं कि बहिष्करण अंततः विस्फोट को जन्म देता है। जब असमानता बढ़ती है, तो संस्थाओं पर से विश्वास कमजोर पड़ता है। ऐसी दरारों पर बना कोई भी समाज न तो शांतिपूर्ण रह सकता है या न ही टिकाऊ।
इसके विपरीत, जब समृद्धि साझा होती है, तो यह साझा आत्मीयता और राष्ट्रीय गर्व की भावना को जन्म देती है। जब नागरिक अपनी ज़िंदगी में सुधार होते देखते हैं, तो वे अपने देश के भविष्य में स्वयं को सहभागी महसूस करते हैं। समावेशी विकास एक ऐसा सामाजिक अनुबंध तैयार करता है, जिसमें लोग न केवल विकास के लाभ का आनंद लेते हैं, बल्कि उसे सुरक्षित रखने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी महसूस करते हैं। भारत में आकांक्षी जिला कार्यक्रम का उद्देश्य पिछड़े क्षेत्रों में स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करके बदलाव लाने का प्रयास करता है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा और हरियाणा के मेवात जैसे क्षेत्रों में शासन व्यवस्था में आई सकारात्मक बदलव की सफलता यह दर्शाती है कि लक्षित विकास कैसे ऐतिहासिक घावों को भर सकता है और व्यवस्था में विश्वास बहाल कर सकता है।
जब समृद्धि व्यापक रूप से साझा की जाती है तो यह सामाजिक संघर्ष को कम करती है, और ग्रामीण-शहरी, जातिगत और सांप्रदायिक विभाजन को पाटने का काम करती है। यह सभी को व्यवस्था में भागीदारी का अवसर प्रदान करके शांति और दीर्घकालिक स्थिरता को प्रोत्साहित करती है।
नैतिकता और न्याय से परे, साझा समृद्धि एक आर्थिक अनिवार्यता भी है। उच्च असमानता माँग को कमजोर करती है और विकास की गति को धीमा कर देती है। यह शीर्ष पर माँग की संतृप्ति और निचले स्तर पर दमित खपत की स्थिति पैदा करती है। महामंदी (1930 के दशक )और 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट इस बात के स्पष्ट उदाहरण है कि सट्टेबाज़ी से बनी संपत्ति और गहरी असमानता पर आधारित प्रणालियों कितनी अस्थिर होती हैं। जब संपत्ति का वितरण अधिक समान रूप से किया जाता है, तो प्रत्येक स्तर पर क्रय शक्ति बढ़ जाती है, जिससे उत्पादन और उपभोग का एक सकारात्मक चक्र बनता है। मनरेगा (MNREGA) जैसी पहलों ने लाखों ग्रामीण परिवारों को नकदी प्रवाह के माध्यम से सशक्त किया है, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को अप्रत्यक्ष रूप से बल मिला है। जन धन योजना के माध्यम से वित्तीय समावेशन और यूपीआई (UPI) के माध्यम से डिजिटल भुगतान ने अनौपचारिक क्षेत्र को भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में भाग लेने का अवसर दिया है।
इसके विपरीत, ऐसा विकास मॉडल जो केवल कुछ गिने-चुने लोगों को लाभ पहुँचाता है, वहाँ मुनाफा तो अधिक हो सकता है, लेकिन रोज़गार कम होता है; जीडीपी (GDP) ऊँची हो सकती है, लेकिन जनकल्याण कमजोर रहता है; उत्पादन ज़्यादा हो सकता है, लेकिन समावेशिता बेहद कम होती है।
लोकतंत्र तभी विकसित होता है जब प्रत्येक आवाज़ की अहमियत हो। आर्थिक बहिष्करण कई आवाज़ों को खामोश कर देता है, जिससे प्रतिनिधित्व खोखला बन जाता है। साझा समृद्धि राजनीतिक भागीदारी को संभव बनाती है। जब लोग अस्तित्व के लिए संघर्ष नहीं कर रहे होते हैं, तो वे निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग ले सकते हैं और सरकारों को जवाबदेह ठहरा सकते हैं। भारत में पंचायती राज संस्थाओं को जब वित्तीय और कार्यात्मक स्वायत्तता दी गई, तो उन्होंने महिलाओं, अनुसूचित जाति/जनजाति समुदायों और ग्रामीण नागरिकों को विकास की प्राथमिकताएँ तय करने की शक्ति दी। इस प्रकार समृद्धि लोकतंत्र को गहराई देने का एक साधन बन जाती है।
स्वीडन और फ़िनलैंड जैसे नॉर्डिक देश सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और बाल कल्याण में भारी निवेश करते हैं। ये देश केवल अमीर होने के कारण नहीं बल्कि समावेशी होने के कारण लगातार मानव विकास सूचकांक में शीर्ष पर रहते हैं। दूसरी ओर, लैटिन अमेरिका एक चेतावनी स्वरूप उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहाँ व्यापक असमानता ने बार-बार अशांति और कमज़ोर शासन व्यवस्था को जन्म दिया है।
उपरोक्त उदाहरण यह दर्शाते हैं कि साझा समृद्धि कोई आदर्शवादी सपना नहीं है, बल्कि यह स्थिरता और विकास की एक व्यावहारिक रणनीति है।
स्पष्ट अनिवार्यताओं के बावजूद, साझा समृद्धि के कार्यान्वयन में कई गंभीर बाधाएँ मौजूद हैं। इनमें सबसे बड़ी बाधा हैं वे संरचनात्मक असमानताएँ जो समाज में गहराई से जड़ें जमा चुकी हैं। भारत में, क्षेत्रीय असंतुलन अभी भी बना हुआ है, जहाँ पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्य दक्षिण और पश्चिम की तुलना में बुनियादी अवसंरचना, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के मामले में पिछड़े हुए हैं। जाति और लिंग असमानताएँ दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और दिव्यांगों व्यक्तियों को समान उन्नति के अवसर नहीं मिल पाते। शहरी-ग्रामीण विभाजन एक टेक-संचालित अर्थव्यवस्था के कारण और भी गहरा हो गया है जो उन लोगों को हाशिए पर रखता है जिनके पास डिजिटल पहुँच या गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा नहीं है। इसके अलावा, बेरोज़गारी भरे विकास की स्थिति, जहाँ सकल घरेलू उत्पाद (GDP) बढ़ता है लेकिन रोज़गार के अवसर कम रहते हैं, ने विशेषकर युवाओं को निराश किया है। इस तरह की असमान प्रगति न केवल राष्ट्रीय विकास को रोकती है बल्कि सामाजिक अशांति को जन्म देने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता के बंधनों को कमज़ोर करती है।
इसी तरह, दुनिया भर में, आर्थिक विकास ने लाखों लोगों को गरीबी से तो बाहर निकाला है, लेकिन वैश्विक समृद्धि अब भी बेहद असमान बनी हुई है। जहाँ एक ओर विकसित अर्थव्यवस्थाओं और वैश्विक अभिजात वर्ग के बीच संपत्ति तेजी से बढ़ रही है, वहीं उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्सों में अब भी गरीबी, अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवाओं और नाजुक बुनियादी अवसंरचना से जूझ रहे हैं। देशों के भीतर भी आय की असमानता और बढ़ी है, हाशिए पर खड़े समुदायों, जातीय अल्पसंख्यकों, स्वदेशी लोगों, महिलाओं और शरणार्थियों को अक्सर शिक्षा, पूंजी और निर्णय निर्माण की प्रक्रियाओं से वंचित रखा जाता है। डिजिटल विभाजन ने इस बहिष्करण को और गहरा कर दिया है, जिससे अरबों लोग ज्ञान अर्थव्यवस्था के अवसरों से अलग हो गए हैं। महामारी के बाद के युग में रोजगारविहीन पुनरुद्धार और स्वचालन के बढ़ते प्रभाव ने मध्यम आय वाले देशों में भी आजीविका पर संकट खड़ा कर दिया है। समृद्धि में यह वैश्विक असंतुलन प्रवासन संकट, सामाजिक अशांति को बढ़ाता है और लोकतांत्रिक संस्थानों में विश्वास को कम करता है, जो यह दर्शाता है कि समावेश के बिना, वैश्विक विकास अधूरा और अस्थिर बना रहता है।
समृद्धि को वास्तव में समावेशी बनाने के लिए, समाज को उन सभी आयामों पर कार्य करना होगा जो संरचनात्मक असमानताओं और उभरती हुई आवश्यकताओं दोनों को संबोधित करते हो। मानव पूंजी में निवेश सबसे आधारभूत कदम है क्योंकि गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और कौशल विकास तक सार्वभौमिक पहुँच पूरे समुदायों का उत्थान करने में सक्षम होती है। उदाहरण के लिए, विकास से वंचित क्षेत्रों में शुरू की गई कौशल प्रशिक्षण योजनाएं (प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना) ने युवाओं को औपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रवेश का अवसर प्रदान कर रही हैं, जबकि स्कूल भोजन कार्यक्रम (मध्याह्न भोजन योजना) ने हाशिए पर पड़े बच्चों में पोषण और स्कूल में उपस्थिति दोनों में सुधार किया है।
सामाजिक सुरक्षा का विस्तार करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। नकद हस्तांतरण, स्वास्थ्य सेवा सब्सिडी और पेंशन जैसी योजनाएँ गरीबों को संकटों से बचाने में सहायक होती हैं, जैसा कि वैश्विक संकटों के दौरान देखा गया, जहाँ प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) ने कमज़ोर लोगों के बीच खपत को बनाए रखने में मदद की। स्थानीय शासन को सशक्त बनाना यह सुनिश्चित करता है कि विकास स्थानीय आकांक्षाओं के अनुरूप हो। जब सामुदायिक परिषदों या ग्राम सभाओं को बजटीय अधिकार दिए जाते हैं, तो वे अक्सर उन प्राथमिकताओं पर ध्यान देते हैं जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी होती हैं, जैसे स्वच्छ जल, सुरक्षित सड़कें और प्राथमिक विद्यालय। प्रगतिशील कर व्यवस्था के माध्यम से राजकोषीय न्याय ऐसे निवेशों के लिए आवश्यक धन जुटा सकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि धन सृजन सार्वजनिक कल्याण में योगदान दे।
इसके अतिरिक्त, यदि तकनीकी समाधान समावेशी हो, तो वे पहुँच की अंतर को कम कर सकते हैं। कृषि सलाह देने वाले मोबाइल ऐप या टेलीमेडिसिन सेवाएँ जैसे नवाचारों ने दूरदराज के क्षेत्रों में सेवा वितरण की तस्वीर बदल दी है। अंत में, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज के साथ सहयोग पहुँच और नवाचार दोनों को व्यापक बना सकता है। शिक्षा और स्वच्छता में सार्वजनिक-निजी भागीदारी ने बड़े पैमाने पर कम लागत में उच्च प्रभाव वाले समाधान प्रदान किए हैं। अंततः, सार्वभौमिक शिक्षा सुधार या सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम जैसी समावेशी नीतियाँ केवल कल्याणकारी उपाय नहीं हैं, बल्कि एक स्थिर और न्यायसंगत भविष्य में निवेश हैं जहाँ समृद्धि एक सामूहिक यात्रा बनती है, न कि एक व्यक्तिगत विशेषाधिकार। उदाहरण के लिए, भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 समावेशी और लचीली शिक्षा की भूमिका को मान्यता देती है, जो एक वास्तविक रूप से समृद्ध समाज के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
भारत की अपनी दार्शनिक परंपराएँ व्यक्तिगत हित की तुलना में सामूहिक हित को अधिक प्राथमिकता देती हैं। महात्मा गांधी द्वारा प्रचारित “सर्वोदय” (सभी का कल्याण) और पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा समर्थित “अंत्योदय” (आख़िरी व्यक्ति का उत्थान) की अवधारणा साझा विकास की नैतिक दृष्टि प्रस्तुत करते हैं। हमारा राष्ट्रीय आदर्श वाक्य, “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास”, इसी विचार का एक राजनीतिक रूप है, जो यह दर्शाता है कि समृद्धि तभी वास्तविक होती है जब वह सबके बीच साझा हो।
सच्ची समृद्धि केवल राज्य द्वारा ही प्रदान नहीं की जा सकती। नागरिक समाज, गैर सरकारी संगठन, स्वयं सहायता समूह और व्यक्तिगत स्तर पर सभी की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। अमूल की डेयरी सहकारी आंदोलन से लेकर बेयरफुट कॉलेज के ग्रामीण सौर अभियंताओं तक, सामुदायिक-नेतृत्व वाले साझा विकास के कई उदाहरण मिलते हैं।
भारत के युवा, अपने नवाचार और सहानुभूति के साथ, इस यात्रा के केंद्र में हैं। चाहे वह सामाजिक उद्यमिता हो, जमीनी स्तर पर सक्रियता हो या डिजिटल साक्षरता अभियान की बात हो, हर वह कार्य जो दूसरों को शामिल करता है और उनका उत्थान करता है, साझा समृद्धि की ओर एक कदम है।
साझा समृद्धि के किसी भी तर्क को तब तक पूर्ण नहीं माना जा सकता जब तक उसमें व्यक्तिगत उद्यमिता और संपत्ति सृजन की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार न किया जाए। एक ऐसा समाज जो महत्वाकांक्षा को दबाता है और सफलता को दंडित करता है, वह आर्थिक ठहराव का जोखिम उठाता है। नवाचार, निर्माण और नेतृत्व करने की प्रेरणा अक्सर महत्वपूर्ण व्यक्तिगत पुरस्कार की संभावना से उत्पन्न होती है। भारत की आईटी (IT) क्रांति के अग्रदूत, जैसे कि एन.आर. नारायण मूर्ति और अजीम प्रेमजी, असाधारण महत्वाकांक्षा से प्रेरित थे, और उनकी सफलता ने केवल व्यक्तिगत संपत्ति ही नहीं बनाई, बल्कि लाखों नौकरियां सृजित कीं और भारत को वैश्विक तकनीकी मानचित्र पर स्थापित किया। यह महत्वाकांक्षा प्रगति का एक महत्वपूर्ण इंजन है जो किसी राष्ट्र को आगे बढ़ाने की शक्ति रखता है।
इसके अलावा, संपत्ति का केंद्रीकरण हमेशा सामाजिक रूप से नकारात्मक नहीं होता। दुनिया के कई सबसे धनी व्यक्ति इसके सबसे बड़े दानी भी बने हैं। बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का वैश्विक स्वास्थ्य क्षेत्र में कार्य और अजीम प्रेमजी फाउंडेशन का भारत में शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा योगदान इस बात का उदाहरण हैं कि निजी संपत्ति को कैसे व्यापक सार्वजनिक भलाई के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। व्यक्तिगत दृष्टिकोण से प्रेरित इस प्रकार का सामाजिक निवेश कभी-कभी राज्य के नेतृत्व वाले प्रयासों की तुलना में अधिक लचीला और नवोन्मेषी हो सकता है। इसलिए, तर्क यह नहीं है कि धन सृजन को गलत ठहराया जाए, बल्कि एक ऐसी प्रणाली बनाया जाए जो इसे प्रोत्साहित करे और यह सुनिश्चित करे कि यह प्रणालीगत वंचना की ओर न ले जाए। लक्ष्य यह है कि एक मजबूत सामाजिक आधार स्थापित करना है, न कि सफलता पर कोई प्रतिबंधात्मक सीमा लगाई जाए ।
जैसे-जैसे भारत विकसित भारत 2047 के लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहा है, हमारा लक्ष्य केवल 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना नहीं होना चाहिए, बल्कि ऐसा राष्ट्र बनना चाहिए जहाँ समृद्धि प्रत्येक गाँव, प्रत्येक कक्षा और प्रत्येक घर तक महसूस की जाए। सतत विकास लक्ष्य (विशेष रूप से एसडीजी (SDG) 1-गरीबी उन्मूलन, एसडीजी (SDG) 4-गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और एसडीजी (SDG) 10-असमानता में कमी) हमें याद दिलाते हैं कि विकास बिना समावेशन के अधूरा है।
वास्तविक समृद्धि तब होती है जब कुछ लोग ही नही , बल्कि सभी लोग मिलकर प्रगति के प्रकाश से आलोकित हो । जब हम एक बेहतर भारत के लिए प्रयासरत हैं, तो यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि समृद्ध राष्ट्र वह नहीं है जो केवल बढ़ता है, बल्कि वह है जो सबको साथ लेकर आगे बढ़ता है।
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