प्रश्न की मुख्य माँग
- एसिड अटैक पीड़ितों के सामने आने वाली कानूनी चुनौतियाँ।
- एसिड अटैक पीड़ितों के सामने आने वाली सामाजिक चुनौतियाँ।
- एसिड अटैक से निपटने में न्यायपालिका की भूमिका।
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उत्तर
भारत में एसिड हमले सबसे अपमानजनक हिंसा के रूपों में से एक हैं, जो पीड़ितों को आजीवन शारीरिक और सामाजिक पीड़ा देते हैं। कानूनी सुधारों के बावजूद, प्रक्रिया में विलंब और सामाजिक उपेक्षा गंभीर बाधाएँ बनी हुई हैं। संरचनात्मक अंतराल को दूर करने में न्यायिक हस्तक्षेप अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गया है।
एसिड हमले पीड़ितों द्वारा सामना की जाने वाली कानूनी चुनौतियाँ
- धीमी जाँच और लंबित न्यायिक प्रक्रिया: पुलिस प्रायः चार्जशीट समय पर दाखिल नहीं करती, और मुकदमे वर्षों तक लंबित रहते हैं।
- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम वसीम (वर्ष 2023) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एसिड हमले के मुकदमे आमतौर पर 5-7 वर्ष से अधिक समय तक चलते हैं, जिससे पीड़ितों का शोषण और वित्तीय बोझ बढ़ जाता है।
- एसिड बिक्री का अपर्याप्त नियंत्रण: सर्वोच्च न्यायलय के आदेश (वर्ष 2013) के बावजूद, लाइसेंसिंग, ट्रैकिंग और एसिड की बिक्री का प्रवर्तन कमजोर है।
- उदाहरण: NGO रिपोर्ट के अनुसार, एसिड अभी भी खुले बाजार में ₹50 तक में बेचा जाता है, जिससे आवेगजन्य अपराध संभव होते हैं।
- मुआवजा और पुनर्वास की कमी: राज्यों द्वारा पीड़ित मुआवजा योजना के तहत अनिवार्य ₹3 लाख का भुगतान प्रायः देर से किया जाता है।
- उदाहरण: दिल्ली उच्च न्यायालय (वर्ष 2018) ने घटना के छह महीने बाद भी मुआवजा वितरित करने में विफल रहने के लिए अधिकारियों को फटकार लगाई।
- चिकित्सा और पुनर्निर्माण उपचार की सीमित पहुँच: कई जिलों में बर्न यूनिट नहीं हैं, और पीड़ितों को शल्यचिकित्सा के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।
- उदाहरण: लक्ष्मी बनाम भारत संघ (वर्ष 2013) मामले में सरकारी अस्पतालों में मुफ्त उपचार और समान पहुँच को अनिवार्य करने वाले निर्देशों का अनियमित अनुपालन सामने आया।
एसिड हमले पीड़ितों द्वारा सामना की जाने वाली सामाजिक चुनौतियाँ
- उपेक्षा, अलगाव और पीड़ित-दोषारोपण: विकृति के कारण पीड़ितों को प्रायः समाज से बहिष्कृत किया जाता है, और महिलाएँ इससे असमान रूप से प्रभावित होती हैं।
- उदाहरण: ‘द हिंदू’ की रिपोर्ट में बताया गया कि पीड़ितों को सार्वजनिक उपेक्षा से बचने के लिए “घर के अंदर रहने” के लिए कहा गया था।
- शिक्षा और रोजगार में बाधाएँ: शारीरिक रूप और बार-बार की सर्जरी से पुनः समायोजन कठिन होता है।
- उदाहरण: कई पीड़ित कैफे में कार्य करने (शीरोज हैंगआउट कैफे) जैसे रोजगार के अवसर प्राप्त करने के लिए गैर सरकारी संगठनों (जैसे, छांव फाउंडेशन) पर निर्भर रहते हैं।
- दीर्घकालीन मानसिक आघात: बार-बार अस्पताल जाना, विकृति और सामाजिक अस्वीकृति से डिप्रेशन, PTSD या चिंता का कारण बनते है।
- उदाहरण: राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान (वर्ष 2021) के एक अध्ययन में पाया गया कि 70% से अधिक जीवित बचे लोग दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक संकट का अनुभव करते हैं।
- आर्थिक कठिनाइयाँ: कई सर्जरी की औसत लागत ₹5–15 लाख होती है, जिससे ऋण या रोजगारहीनता की स्थिति बनती है।
एसिड हमले के मामलों में न्यायपालिका की भूमिका
- न्यायिक हस्तक्षेप के माध्यम से मजबूत कानूनी ढाँचा: लक्ष्मी बनाम भारत संघ (वर्ष 2013) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बिना डॉक्टरी पर्चे के मिलने वाले एसिड की बिक्री का विनियमन, ₹3 लाख का अनिवार्य न्यूनतम मुआवजा, सरकारी अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा उपचार के संबंध में निर्देश दिया।
- उदाहरण: इस ऐतिहासिक निर्णय ने IPC की धारा 326A और 326B बनाने के लिए विधायी संशोधन को गति दी।
- धीमी सुनवाई की गति पर सर्वोच्च न्यायालय की चिंता: सर्वोच्च न्यायालय (वर्ष 2024-25 अवलोकन) ने “अनुचित देरी” पर ध्यान दिया, और इस बात पर जोर दिया कि एसिड हमले के पीड़ितों को आजीवन पीड़ा के कारण त्वरित न्याय की आवश्यकता है।
- विशेष फास्ट-ट्रैक अदालतों की मांग: सर्वोच्च न्यायालय ने एसिड अटैक मामलों में एकरूपता और गति सुनिश्चित करने के लिए समर्पित विशेष अदालतों की आवश्यकता पर बल दिया।
- उदाहरण: न्यायालय ने दक्षता के लिए इन अदालतों को मौजूदा POCSO/फास्ट-ट्रैक प्रणालियों के साथ एकीकृत करने का सुझाव दिया।
- व्यापक पुनर्वास के लिए न्यायिक प्रयास: न्यायालयों ने निजी अस्पतालों में निःशुल्क सर्जरी (असाधारण मामलों में), सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता, शैक्षिक सहायता, और सम्मानजनक पुनर्एकीकरण तंत्र पर जोर दिया है।
- उदाहरण: मद्रास उच्च न्यायालय (वर्ष 2022) ने जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) के आधार पर पीड़ितों को उत्तरजीविता हेतु आजीवन पेंशन प्रदान करने का आदेश दिया।
निष्कर्ष
न्यायिक हस्तक्षेपों ने एसिड हमले के मामलों में कानूनी ढाँचे को मजबूत किया है, लेकिन प्रवर्तन प्रक्रिया में अंतराल, लंबी न्यायिक प्रक्रिया और अपर्याप्त पुनर्वास जैसे कारक अब भी न्याय में बाधक हैं। विशेष फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना, एसिड बिक्री का सख्त नियंत्रण और व्यापक समर्थन प्रणालियों की स्थापना आवश्यक है ताकि पीड़ितों की गरिमा, सुरक्षा और दीर्घकालीन सशक्तीकरण सुनिश्चित हो सके।
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