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निबंध का प्रारूपप्रस्तावना:
मुख्य भाग:
निष्कर्ष:
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यह द्वितीय विश्व युद्ध का समय था, जब कई देश एक-दूसरे से युद्ध कर रहे थे। उस समय, दो प्रमुख गुटों के बीच संघर्ष हो रहा था , मित्र राष्ट्र (Allied Powers) और धुरी राष्ट्र (Axis Powers)। प्रत्येक गुट दूसरे पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। इसी दौरान एक गुप्त परियोजना की शुरूआत हुई। जिसका नाम था “प्रोजेक्ट मैनहट्टन” (Project Manhattan)। इस परियोजना के तहत , एनरिको फर्मी, लियो स्ज़ीलार्ड, रिचर्ड फेनमैन, नील्स बोर जैसे प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों की एक टीम कार्यरत थी। इस टीम के प्रमुख वैज्ञानिक जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर थे।
करीब तीन वर्षों की मेहनत के बाद, प्रोजेक्ट मैनहैटन के अंतर्गत दुनिया का पहला परमाणु बम बनाया गया। और वह 6 अगस्त , 1945 की तारीख थी, जब जापान के शहर हिरोशिमा पर “लिटिल बॉय” नामका परमाणु बम गिराया गया। लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ वह किसी भी मानवता की कल्पना से परे था। जब ओपेनहाइमर ने हिरोशिमा और नागासाकी के पूर्ण विनाश देखा, जले हुए बच्चे, वाष्पीकृत इमारतों और दशकों तक फैलना वाला विकिरण, तो उन्होंने निराशा में भगवद गीता की एक श्लोक का उद्धरण दिया :
उपरोक्त कहानी से प्रेरित होकर, इस निबंध में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि विज्ञान और मानवता का वास्तव में अर्थ क्या है? क्या होगा यदि विज्ञान का उपयोग मानवता के बिना किया जाए? और क्या इसके कुछ अन्य पहलू भी सकते हैं? क्या होगा यदि मानवता हो, लेकिन विज्ञान का उपयोग न हो? क्या इसके भी कोई दुष्परिणाम होंगे? हम इन सभी पहलुओं की निबंध में विवेचना करेंगे और अंत में, दोनों पहलुओं को एक साथ लाने की आवश्यकता पर चर्चा करेंगे।
सबसे पहले, हम इन दोनों शब्दों को समझने का प्रयास करेंगे। विज्ञान को प्राकृतिक दुनिया को समझने की एक व्यवस्थित और संगठित प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है, जो अवलोकन, प्रयोग और विश्लेषण पर आधारित होती है। वहीं, मानवता को मानव जाति के रूप में समझा जा सकता है, जिसमें पृथ्वी पर रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति शामिल हैं। यह एक ऐसा शब्द है जो हमें मानव बनाते हैं, जैसे प्रेम और करुणा की क्षमता, रचनात्मक होना, और रोबोट या एलियन न होना। विज्ञान का उद्देश्य मानवता को ऊपर उठाना है, और मानव समाज की समस्याओं का समाधान करना है। लेकिन अगर इसका उपयोग इसके विपरीत किया जाए तो क्या होगा?
वैज्ञानिक खोजों ने इतिहास की दिशा बदल दी है, लेकिन जब ये करुणा, नैतिकता और ज़िम्मेदारी से विमुख हो जाती हैं, तो ये अपूरणीय क्षति भी पहुँचा सकती हैं। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण परमाणु हथियारों का आविष्कार है। परमाणु तकनीक, जिससे संधारणीय ऊर्जा उत्पन्न करने की अपेक्षा की गई थी, का दुरुपयोग करके परमाणु हथियार बनाया गया। यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है जहाँ मानवता से विहीन विज्ञान ने विपत्ति को जन्म दिया।
इसके अलावा, आधुनिक युग में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और मशीन लर्निंग भी इसी प्रकार की चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं। हालाँकि ये तकनीकें स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और उद्योग में क्रांति ला सकती हैं, वहीं इनके दुरुपयोग, जैसे कि स्वायत्त हथियारों या फेशियल रिकॉग्निशन आधारित निगरानी प्रणाली में, निजता का उल्लंघन, सत्तावादी शासनों का नियंत्रण बढ़ाना, और यहाँ तक कि मानव जीवन के लिए खतरा भी बन सकते हैं। उदाहरण के लिए, चीन में उइगर जनसंख्या की कृत्रिम बुद्धिमत्ता और बायोमेट्रिक ट्रैकिंग के माध्यम से निगरानी और नियंत्रण किया जा रहा है। नैतिक दिशानिर्देशों और निगरानी के बिना, एआई (AI) सशक्तिकरण का नहीं, बल्कि दमन का उपकरण बन सकता है।
एक और चिंताजनक उदाहरण आनुवंशिक (genetic) इंजीनियरिंग का क्षेत्र है। हालाँकि CRISPR और जीन-एडिटिंग तकनीकें आनुवंशिक रोगों के इलाज की आशा प्रदान करती हैं, लेकिन इनका दुरुपयोग कर “डिज़ाइनर शिशु” बनाए जा सकते हैं, जिससे सामाजिक असमानता और भी बढ़ सकती है। ऐतिहासिक रूप से, छद्म-वैज्ञानिक नस्लीय सिद्धांत ने नाज़ी विचारधारा को आधार प्रदान किया था, जिसने प्रलय के दौरान नरसंहार और सुजनन विज्ञान को उचित ठहराया था। जब विज्ञान का उपयोग अमानवीय विचारधाराओं की सेवा के लिए किया जाता है, तब वह अपना मूल उद्देश्य खो देता है और एक हथियार बन जाता है।
जलवायु परिवर्तन एक और ऐसा क्षेत्र है जहाँ विज्ञान का उपयोग दूरदर्शिता और नैतिक
ज़िम्मेदारी के बिना किया गया है। औद्योगिक क्रांति, आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, लेकिन इसी के साथ प्राकृतिक संसाधनों के असंवहनीय दोहन की प्रवृत्ति की शुरुआत हुई । वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर आर्थिक लाभ के लिए जीवाश्म ईंधनों का अत्यधिक दहन, वनों की कटाई और औद्योगिक प्रदूषण ने हमारे
ग्रह को पारिस्थितिक पतन के कगार पर पहुँचा दिया है। यहाँ भी, पर्यावरणीय और मानवीय सरोकारों से अप्रभावित विज्ञान खतरनाक साबित हुआ है।
“डीप फेक्स” और मशीन लर्निंग द्वारा संचालित भ्रामक सूचनाओं के प्रसार में तेजी आने से यह खतरा और भी स्पष्ट हो जाता है। चुनावों या संकट के दौरान, इस तरह की हेराफेरी बड़े पैमाने पर अशांति उत्पन्न कर सकती है, लोकतांत्रिक संस्थाओं पर विश्वास को कमजोर कर सकती है और हिंसा भड़का सकती है। यदि वैज्ञानिक प्रगति को मानवीय दृष्टिकोण से न जोड़ा जाए, तो यह समाज की बुनियाद को ही कमजोर कर सकती है।
जहाँ मानवता रहित विज्ञान ख़तरनाक है, वहीं इसका विपरीत भी उतना ही समस्याजनक है। मानवता, करुणा, नैतिकता और सद्भावना, यदि वैज्ञानिक समझ के बिना हो, तो वह क्रिया में दिशाहीन होती है। केवल सद्भावनाएँ वास्तविक समस्याओं के समाधान के लिए तब तक अपर्याप्त होती हैं, जब तक उनके साथ वैज्ञानिक उपकरणों और तर्कशीलता का सहारा न लिया जाए।
एंटीबायोटिक-पूर्व युग का उदाहरण लें। उस समय तपेदिक और निमोनिया जैसे जीवाणु संक्रमणों से लाखों लोग मारे गए, चिकित्सकों और देखभाल करने वालों के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद। लेकिन जब पेनिसिलिन की वैज्ञानिक खोज हुई, तो उसने स्वास्थ्य सेवाओं में क्रांति ला दी। ऐसे मामलों में, मानवीय मूल्यों को प्रभावी बनाने के लिए विज्ञान का सहयोग आवश्यक था।
कोविड-19 महामारी ने इसे स्पष्ट रूप से उजागर किया। हालाँकि एक ओर सहानुभूति और एकजुटता इस संकट से निपटने में महत्वपूर्ण थीं, वहीं महामारी पर नियंत्रण केवल कठोर वैज्ञानिक अनुसंधान, टीका विकास, जीनोम अनुक्रमण और सार्वजनिक स्वास्थ्य मॉडल्स के माध्यम से ही संभव हो पाया। इसके विपरीत, जहाँ अंधविश्वास या भ्रामक सूचना विज्ञान पर हावी थी, वहाँ संक्रमण और मृत्यु दर कहीं अधिक रही।
इसका एक और उदाहरण खाद्य असुरक्षा है। भूखों को भोजन देने की नैतिक प्रेरणा हमेशा से रही है। हालाँकि, यह हरित क्रांति, उन्नत किस्म के बीजों (HYV seeds), उर्वरकों और सिंचाई तकनीकों जैसे वैज्ञानिक नवाचारों के उपयोग ने ही भारत को खाद्यान्न की कमी वाले देश से खाद्यान्न-अधिशेष देश में बदल दिया। केवल मानवता से भूख को समाप्त नहीं किया जा सका; इसके लिए विज्ञान की आवश्यकता थी।
इसी तरह, आपदा प्रबंधन में भी वैज्ञानिक उपकरणों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। सैटेलाइट इमेजिंग, पूर्व चेतावनी प्रणाली, और स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग जैसी तकनीकें प्राकृतिक आपदाओं को कम करने में सहायक होती हैं। केवल करुणा से न तो सुनामी रोकी जा सकती है, और न ही बाढ़ पीड़ितों को बचाया जा सकता है, इसमें विज्ञान की एक निर्णायक भूमिका होती है।
जब करुणा और नैतिक इरादे वैज्ञानिक तर्क के साथ नहीं होते, तो यह अज्ञानता, अंधविश्वास और वास्तविक दुनिया की समस्याओं का समाधान करने में अक्षमता को जन्म देता है। भारत के कई ग्रामीण हिस्सों में आज भी बीमारियों का कारण बुरी आत्माओं या श्राप को माना जाता है। जागरूकता और वैज्ञानिक साक्षरता की कमी के कारण लोग चिकित्सा सहायता के बजाय कर्मकांडों पर निर्भर हो जाते हैं, जिसका परिणाम कई बार मृत्यु तक हो जाता है।
इसके अलावा, शिक्षा के क्षेत्र में भी यदि पठन-पाठन की प्रक्रिया केवल भावनात्मक अपील पर आधारित हो और उसमें संज्ञानात्मक विज्ञान का समावेश न हो, तो वह आलोचनात्मक सोच रखने वाले छात्र नहीं बना सकती। तंत्रिका विज्ञान, बाल मनोविज्ञान, या डिजिटल शिक्षण पद्धति को समझे बिना स्कूली शिक्षा प्रणाली में सुधार के प्रयास संसाधनों की बर्बादी और छात्रों की अरुचि का कारण बनते हैं।
जलवायु सक्रियता भी यदि आंकड़ों और वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित न हो, तो प्रदर्शनकारी या प्रतिउत्पादक भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, परमाणु ऊर्जा के विरोध में चलने वाले कई अभियान, जो केवल भय और भावना के आधार पर संचालित होते हैं, इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि यह कोयले की तुलना में एक स्वच्छ ऊर्जा विकल्प हो सकता है। इस प्रकार, जहाँ भावनाएँ कार्रवाई को प्रेरित कर सकती हैं, लेकिन उसे प्रभावी दिशा केवल विज्ञान ही दे सकता है।
इसी तरह, वैश्विक मानवीय प्रयास, जैसे कि गरीबी उन्मूलन या कुपोषण का उन्मूलन को भी तकनीकी और वैज्ञानिक समर्थन की आवश्यकता है। अफ्रीका या भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को भोजन देने की मानवीय इच्छा, तभी प्रभावशाली बन सकती है जब उसके साथ पोषण विज्ञान, कृषि जैव प्रौद्योगिकी, और सुनियोजित लॉजिस्टिक्स प्रणाली हो। अन्यथा, केवल सद्भावनाएँ वास्तविक प्रभाव लाने में अपर्याप्त होती ।
विज्ञान और मानवता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि परस्पर पूरक हैं। विज्ञान साधन प्रदान करता है, जबकि मानवता उद्देश्य निर्धारित करती है। इन दोनों का संतुलित एकीकरण समाजों को रूपांतरित कर सकता है। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने आँकड़ों और सांख्यिकीय उपकरणों का उपयोग करके अस्पतालों की स्वच्छता में सुधार किया, जिससे क्रीमियन युद्ध के दौरान हजारों सैनिकों की जान बचाई। उनके काम ने आधुनिक नर्सिंग की नींव रखी, जो आंकड़ों और करुणा का एक सुंदर संयोजन है।
आज की वैश्विक चुनौतियाँ जैसे कि जलवायु परिवर्तन, महामारी और सामाजिक असमानता, इनसे निपटने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (SDGs) इसी एकीकरण को दर्शाते हैं, जहाँ तकनीकी प्रगति को मानवीय एजेंडे के अंतर्गत रखा गया है। इसी तरह, “टेक्नोलॉजी फॉर गुड” की अवधारणा यह रेखांकित करती है कि विज्ञान के माध्यम से न्याय, समानता और गरिमा को आगे बढ़ाया जा सकता है।
कोविड-19 महामारी के दौरान भारत का CoWIN प्लेटफ़ॉर्म ने इस तालमेल को दर्शाया। मजबूत सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग पर आधारित इस प्लेटफ़ॉर्म ने एक अरब से अधिक लोगों को वैक्सीन तक पहुँच सुनिश्चित की, जहाँ वैज्ञानिक प्रभावशीलता के साथ-साथ जनता के प्रति जवाबदेही का भी पूरा ध्यान रखा गया। इसी तरह, eNAM (इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाज़ार) जैसे नवाचार पहलें डिजिटल उपकरणों को समावेशी बाज़ार पहुँच के साथ जोड़कर किसानों को सशक्त बनाते हैं।
भारत के सभ्यतागत लोकाचार ने लंबे समय से ज्ञान और करुणा के बीच संतुलन की आवश्यकता पर बल देती रही है। महात्मा गांधी, भले ही वैज्ञानिक नहीं थे, लेकिन उन्होंने ऐसे विज्ञान का समर्थन किया जो मानवता की सेवा करे। खादी के प्रचार के माध्यम से उन्होंने सरल तकनीक का उपयोग करके ग्रामीण आबादी को सशक्त बनाया — यह नैतिक विज्ञान के व्यवहारिक रूप का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
स्वतंत्रता के बाद, भारत ने यह सिद्ध किया है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानव कल्याण साथ-साथ चल सकते हैं। इसरो जैसे संस्थानों ने न केवल अंतरिक्ष अन्वेषण में तकनीकी उपलब्धियाँ हासिल की हैं, बल्कि आपदा प्रबंधन, कृषि पूर्वानुमान और टेलीमेडिसिन जैसे क्षेत्रों में भी अहम योगदान दिया है। भारत का चंद्रयान-3 मिशन केवल राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक नहीं था, बल्कि इसने शांतिपूर्ण उद्देश्य के साथ चंद्रमा संबंधी अनुसंधान को भी आगे बढ़ाया।
इसी प्रकार, देश की सफलता की कहानियाँ जैसे कि JAM ट्रिनिटी (जन धन, आधार, मोबाइल), या डिजिटल
सार्वजनिक अवसंरचना, इस दृष्टिकोण से उत्पन्न हुई हैं कि विज्ञान समाज की सेवा में लगे।
भारत के संवैधानिक और सभ्यतागत मूल्यों का उद्देश्य हमेशा से तर्क और सहानुभूति के बीच संतुलन की बात करते रहे हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51A(h) नागरिकों से वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और खोज की भावना विकसित करने की अपेक्षा करता है।
जब तकनीक सामाजिक सरोकार से प्रेरित होती है, तो वह जीवन को रूपांतरित कर देती है। मनसुखभाई प्रजापति (मिट्टीकूल फ्रिज के निर्माता) या अरुणाचलम मुरुगनंथम (कम लागत वाले सैनिटरी पैड के निर्माता) जैसे जमीनी स्तर के नवप्रवर्तक इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ये केवल आविष्कार की कहानियाँ नहीं हैं, बल्कि सहानुभूतिपूर्ण आविष्कार की कहानियाँ हैं।
प्रगति के बावजूद, कई चुनौतियाँ अब भी बनी हुई हैं। तकनीकी एकाधिकार अक्सर लाभ को लोगों से ऊपर रख देते हैं, जिससे शोषणकारी प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं। वैज्ञानिकों और इंजीनियरों में नैतिक प्रशिक्षण की कमी के कारण नवाचार की दिशाहीन रूप देखने को मिलता है। इसके अलावा, जब विज्ञान का राजनीतिकरण होता है, जैसे कि जलवायु परिवर्तन से इनकार या चिकित्सा संबंधी तथ्यों को दबाना, तो यह जनता के विश्वास और नीति-निर्माण को कमजोर करता है। उदाहरण के लिए, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जलवायु परिवर्तन को एक “धोखा” कहा है और जीवाश्म ईंधनों के विस्तार का समर्थन करते हुए नवीनतम नारा “ड्रिल, बेबी, ड्रिल” दिया है।
भारत में, डिजिटल असमानता एक और गंभीर चुनौती पेश करता है। जहाँ शहरी आबादी वैज्ञानिक प्रगति से लाभान्वित हो रही है, वहीं ग्रामीण और हाशिए पर पड़े समुदायों को अक्सर इससे वंचित रहना पड़ता है, जिससे बहिष्करण और अन्याय की स्थिति उत्पन्न होती है। इसलिए, यह आवश्यक है कि विज्ञान का लोकतंत्रीकरण हो, ताकि विज्ञान और मानवता साथ-साथ विकसित हो सकें।
इसके अलावा, शिक्षा के क्षेत्र में भी, आज भी रटने की प्रवृत्ति वैज्ञानिक खोज और नैतिकता मूल्यों पर आधारित प्रशिक्षण पर भारी पड़ती है। इस बीच, नीति-निर्माण अक्सर या तो तकनीकी अहंकार या लोकलुभावन भावुकता से ग्रस्त होता है, और इनमें से कोई भी संतुलित, समावेशी प्रगति को बढ़ावा नहीं देता।
विज्ञान और मानवता के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण आवश्यक है। पहला, यह ज़रूरी है कि नैतिक साक्षरता को STEM शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बनाया जाए। वैज्ञानिकों को केवल यह नहीं सिखाया जाना चाहिए कि क्या किया जा सकता है, बल्कि यह भी सिखाया जाना चाहिए कि क्यों किया जाना चाहिए। संस्थानों को वैज्ञानिक अनुसंधान में जिम्मेदारी, सहानुभूति, और सामाजिक प्रभाव पर विशेष बल देना चाहिए।
दूसरा, नई तकनीकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय शासन की आवश्यकता है। जिस प्रकार पेरिस
समझौता ने जलवायु पर कार्रवाई के लिए देशों को बाध्य किया है, उसी तरह के वैश्विक ढांचे AI, जैव प्रौद्योगिकी, और साइबर नैतिकता को नियंत्रित करने के लिए भी होने चाहिए।
तीसरा, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51A(h) में निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पूरे समाज में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सरकारों, मीडिया और शिक्षा प्रणालियों को अंधविश्वास का मुकाबला करना चाहिए और तर्कसंगतता एवं जिज्ञासा को बढ़ावा देना चाहिए।
अंततः, यदि हम सिटिज़न साइंस, समावेशी नवाचार केंद्रों और ग्रामीण तकनीकी इनक्यूबेटरों को प्रोत्साहित करें, तो यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वैज्ञानिक प्रगति समाज के सभी वर्गों को लाभ पहुंचाए – न कि केवल कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का। भारत यदि अपने वैज्ञानिक लक्ष्यों के साथ सेवा, सत्य और सर्वोदय जैसे मूल्यों का समावेश करे, तो वह एक अनूठा विकास मॉडल दिया जा सकता है।
जैसा कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने एक बार चेताया था, “यह अत्यंत स्पष्ट हो चला है कि तकनीक हमारी मानवता से आगे निकल गई है।” आज हमारी चुनौती इस असंतुलन को साधने की है—वैज्ञानिक विकास को रोकना नहीं, बल्कि उसे मानवता के और अधिक गहन अनुभव से संतुलित करना।
ओपेनहाइमर भी इस सच्चाई से परिचित थे कि विज्ञान, जब विवेक से विछिन्न होता है, तो मुक्ति नहीं, विनाश लाता है। अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने परमाणु नैतिकता और निरस्त्रीकरण को अपना उद्देश्य बना लिया, जो हम सभी के लिए एक गहन संदेश है। जब हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता, जीनोमिक्स और क्वांटम तकनीक जैसे नए युग में प्रवेश कर रहे हैं, तो हमें समझना होगा कि केवल तर्क ही नहीं, बल्कि संवेदनशीलता और विवेक का समन्वय ही हमारी सभ्यता का मार्गदर्शक बन सकता है। हमारा भविष्य महज़ ज्ञान से नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण ज्ञान से आकारित हो, जिसमें सहानुभूति समाहित हो, नैतिकता का मार्गदर्शन हो, और जो सामूहिक कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हो । एक ऐसे भविष्य की कल्पना कीजिए जहाँ विज्ञान और मानवता प्रतिस्पर्धा नहीं करेंगे, बल्कि संयुक्त रूप से उस दुनिया का निर्माण करेंगे जिसके हम सभी वास्तविक रूप से हकदार हैं।
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