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उत्तर:
दृष्टिकोण:
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प्रस्तावना:
शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत, लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला है। यह सरकार की तीन प्राथमिक शाखाओं: कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के कुशल कामकाज और स्वायत्तता के लिए महत्वपूर्ण है। यह पृथक्करण जांच और संतुलन(checks and balances) की एक प्रणाली सुनिश्चित करता है, जिससे प्रत्येक शाखा की अलग और स्वतंत्र भूमिका होती है, जो सत्ता की एकाग्रता को रोकती है और लोकतंत्र की रक्षा करती है।
मुख्य विषयवस्तु:
भारत में संवैधानिक ढाँचा
भारत में, शक्तियों का पृथक्करण पूर्ण नहीं बल्कि कार्यात्मक है और इसे जाँच और संतुलन की प्रणाली के भीतर संचालित करने के लिए सृजित किया गया है। भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से शक्तियों के पृथक्करण का उल्लेख नहीं है बल्कि इसे अंतर्निहित रूप से शामिल किया गया है।
संविधान इन शाखाओं के बीच एक नाजुक संतुलन प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, न्यायपालिका के पास कार्यकारी और विधायी कार्यों पर न्यायिक समीक्षा की शक्ति है, और कार्यपालिका न्यायाधीशों की नियुक्ति में शामिल है। इसके अतिरिक्त, विधायिका कानून बना सकती है, लेकिन यदि वे संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं तो ये न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
भारत में इस सिद्धांत की हालिया चुनौतियाँ
हाल के घटनाक्रमों ने भारत में शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के कमजोर होने पर सवाल उठाए हैं।
निष्कर्ष:
गौरतलब है कि भारत का संवैधानिक ढांचा शक्तियों के पृथक्करण की नींव रखता है, हाल के उदाहरण इन सीमाओं के संभावित धुंधले होने का संकेत देते हैं। जन विश्वास अधिनियम, 2022 और न्यायिक अतिरेक के विभिन्न मामले शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के समक्ष चुनौतियाँ प्रदर्शित करते हैं। सरकार की शाखाओं के बीच शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए निरंतर सतर्कता और पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता हैं। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच उभरती गतिशीलता भारत जैसे जीवंत और विविध लोकतंत्र में इस सिद्धांत को लागू करने की जटिलता को रेखांकित करती है।
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