उत्तर:
दृष्टिकोण:
- भूमिका: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को जोड़ने पर प्रकाश डालते हुए, आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन के संदर्भ का भूमिका दें।
- मुख्य भाग:
- 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर जोर देते हुए इसकी रूपरेखा तैयार करें।
- ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को जोड़ने के पीछे के इरादे पर चर्चा करें और संस्थापक दृष्टिकोण के साथ मेल या उससे भिन्नता पर चर्चा करें।
- भारत के संवैधानिक और सामाजिक लोकाचार पर इसके प्रभाव पर विचार करते हुए, संशोधन के पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रस्तुत करें।
- निष्कर्ष: संवैधानिक विकास और मूलभूत सिद्धांतों के बीच संतुलन को दर्शाते हुए, संवैधानिक ढांचे और सामाजिक एकीकरण पर संशोधन के दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन करके निष्कर्ष निकालें।
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भूमिका:
1976 में आपातकाल के दौरान भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करना व्यापक बहस का विषय रहा है। 42वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से लागू किया गया यह संशोधन एक महत्वपूर्ण कदम था जिसने भारत के संवैधानिक दृष्टिकोण में इन विचारधाराओं को स्पष्ट रूप से समाहित करने का प्रयास किया। जबकि भारतीय संविधान के संस्थापकों ने एक ऐसे ढांचे की कल्पना की थी जो स्वाभाविक रूप से समावेशी और विविध सामाजिक-आर्थिक एवं धार्मिक आदर्शों को समायोजित करने वाला था, इन शर्तों के औपचारिक समावेश ने इस बात पर चर्चा शुरू कर दी है कि क्या यह मूल संवैधानिक दृष्टि के साथ मेल खाता है या उससे अलग है।
मुख्य भाग:
ऐतिहासिक संदर्भ और संशोधन प्रक्रिया
- आपातकाल और संवैधानिक संशोधन: प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के शासन के तहत आपातकाल (1975-1977) की अवधि महत्वपूर्ण राजनीतिक उथल-पुथल और संवैधानिक परिवर्तनों से चिह्नित थी, जिसमें 42वां संशोधन भी शामिल था, जिसने प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को जोड़ा।
‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ का महत्व
- समाजवादी विचारधारा: ‘समाजवादी’ शब्द का उद्देश्य सामाजिक समानता और गरीबी उन्मूलन के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करना था। इसने समाजवाद के लिए एक विशिष्ट दृष्टिकोण को रेखांकित किया जो सभी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का समर्थन नहीं करता था बल्कि प्रमुख क्षेत्रों में राज्य के हस्तक्षेप पर जोर देता था।
- धर्मनिरपेक्ष लोकाचार: ‘धर्मनिरपेक्ष’ को जोड़ने का उद्देश्य सभी धर्मों के प्रति राज्य की तटस्थता की पुष्टि करना, समान व्यवहार सुनिश्चित करना और धार्मिक भेदभाव से परे एकता को बढ़ावा देना है। यह समावेशन अपने विभिन्न प्रावधानों और दार्शनिक आधारों के माध्यम से भारतीय संविधान की पहले से ही अंतर्निहित धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए था।
बहस और विवाद
- संस्थापक दृष्टिकोण या राजनीतिक उद्देश्य का परिचायक?: आलोचकों का तर्क है कि ये परिवर्धन संस्थापक दृष्टिकोण के प्रतिबिंब की तुलना में राजनीतिक रूप से अधिक प्रेरित थे, उन्होंने यह दावा किया कि मूल संविधान को स्वाभाविक रूप से धार्मिक और समाजवादी बनाया गया था, जिसे स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया था।
- संवैधानिक पहचान पर प्रभाव: संशोधन के समर्थकों का तर्क है कि ये शर्तें इन सिद्धांतों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को मजबूत करती हैं, जिससे संवैधानिक पहचान और शासन में सबसे आगे उनकी मान्यता सुनिश्चित होती है।
कानूनी और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
- सुप्रीम कोर्ट का रुख: विवादों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ को भारतीय संविधान की पहचान का अभिन्न अंग मानते हुए 42वें संशोधन की वैधता को बरकरार रखा है।
- राजनीतिक बहस: चल रही बहस भारतीय राजनीति के भीतर इन मूल्यों की अधिक स्पष्ट मान्यता की वकालत करने वालों और उनके समावेश की आवश्यकता और तरीके पर सवाल उठाने वाले अन्य लोगों के बीच व्यापक वैचारिक संघर्ष को दर्शाती है।
निष्कर्ष:
आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करना एक ध्रुवीकरण मुद्दा रहा है जो कानूनी, राजनीतिक और वैचारिक कथनों को आपस में जोड़ता है। जहां इसने कुछ आदर्शों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया, वहीं इसने संवैधानिक अखंडता और विवादास्पद राजनीतिक परिस्थितियों में प्रस्तावना में संशोधन के निहितार्थ पर बहस भी छेड़ दिया हैI अंततः, यह चर्चा भारत में संवैधानिक व्याख्या की गतिशील और विकासशील प्रकृति को दर्शाती है, जो मूलभूत सिद्धांतों और समकालीन मूल्यों के बीच संतुलन पर प्रकाश डालती है। जैसे-जैसे भारत अपने विविध सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में आगे बढ़ रहा है, प्रस्तावना में इन शब्दों का महत्व देश की संवैधानिक और वैचारिक दिशा पर स्थायी बहस का प्रमाण बना हुआ है।
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