उत्तर:
दृष्टिकोण
- भूमिका
- बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट के बारे में संक्षेप में लिखिए।
- मुख्य भाग
- भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट, विशेष रूप से इसकी पेंटिंग्स की भूमिका के बारे में लिखें।
- लिखिए कि कला राजनीतिक अभिव्यक्ति का माध्यम कैसे बनती है।
- निष्कर्ष
- इस संबंध में उचित निष्कर्ष दीजिए।
|
भूमिका
अवनींद्रनाथ टैगोर, गगनेंद्रनाथ टैगोर, नंदलाल बोस और जामिनी रॉय के नेतृत्व में बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट 19वीं सदी के अंत में कोलकाता में उभरा , जिसका उद्देश्य भारत की समृद्ध कलात्मक विरासत को पुनर्जीवित करना था। इसने औपनिवेशिक संस्थानों में सिखाई जाने वाली पश्चिमी कला शैलियों को खारिज कर दिया और देश की सांस्कृतिक पहचान को व्यक्त करने और भारतीय राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए एक विशिष्ट भारतीय कला रूप बनाने पर ध्यान केंद्रित किया।
मुख्य भाग
भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट, विशेष रूप से इसकी पेंटिंग्स की भूमिका
- स्वदेशी भावना: इसने स्वदेशी उत्पादन और आत्मनिर्भरता के लिए स्वदेशी आंदोलन का आह्वान किया। उदाहरण के लिए, नंदलाल बोस के “हरिपुरा पोस्टर्स” ने भारतीय जीवन और संस्कृति को प्रतिबिंबित करने के लिए स्वदेशी तकनीकों और विषयों का उपयोग करके स्वदेशी आदर्शों का उदाहरण दिया।
- आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना: अवनींद्रनाथ टैगोर की पेंटिंग “भारत माता” एक देवी के रूप में मातृभूमि का एक प्रतिष्ठित प्रतिनिधित्व है। यह एक आत्मनिर्भर इकाई के रूप में भारत के विचार का प्रतीक है।
- व्यापक अपील: बंगाल शैली के कार्यों को अक्सर “मॉडर्न रिव्यू” जैसी व्यापक रूप से पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में प्रस्तुत किया जाता था, जिससे उनकी पहुंच अभिजात वर्ग से परे बढ़ जाती थी। कला के इस लोकतंत्रीकरण ने इसके राष्ट्रवादी संदेश को प्रसारित करने में मदद की।
- दृश्य भाषा: जामिनी रॉय जैसे कलाकारों ने ग्रामीण बंगाल की लोक शैलियों को अपनाया, जिससे भारत के विविध समुदायों के बीच एकता जैसे अमूर्त राष्ट्रवादी सिद्धांतों को प्रभावी ढंग से प्रचारित किया गया।
- सांस्कृतिक पहचान : क्षितिन्द्रनाथ मजूमदार जैसे कलाकारों ने अपने कार्यों में पारंपरिक बंगाली संस्कृति और रीति-रिवाजों को चित्रित किया । इसने उस समय एक अद्वितीय भारतीय पहचान बनाने में योगदान दिया जब औपनिवेशिक शासन पारंपरिक प्रथाओं और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को व्यवस्थित रूप से नष्ट कर रहा था।
- पौराणिक प्रसंग: भगवान कृष्ण और राधा के चित्रण से युक्त असित कुमार हलदार की कला ने भारतीय पौराणिक विषयों के पुनरुद्धार में योगदान दिया, जिसने बदले में एक साझा अतीत में निहित सामूहिक चेतना को प्रज्वलित करने में मदद की।
- उपनिवेशवाद-विरोधी भावनाएँ: “शिवाजी के छापे” को दर्शाने वाली नंदलाल बोस की पेंटिंग ने मराठा नायक की महानता का वर्णन किया, जिसने विदेशी प्रभुत्व के खिलाफ एक कलात्मक बिंदु के रूप में कार्य किया और जनता को प्रतिरोध के लिए अपनी क्षमता पर विचार करने हेतु प्रेरित किया।
वे तरीके जिनसे कला राजनीतिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है:
- दृश्य साक्षरता (Visual Literacy) : उच्च निरक्षरता दर वाले देश में, रंगोली और वरली कला जैसे दृश्य रूपों ने उन लोगों को संलग्न करने का काम किया जो पढ़ या लिख नहीं सकते थे । इन पारंपरिक कला रूपों का उपयोग अक्सर रैलियों और सार्वजनिक समारोहों में किया जाता था, जिससे राष्ट्रवाद की भावना जागृत की जाती थी।
- प्रतिमा विज्ञान (Iconography) : अवनींद्रनाथ टैगोर की पेंटिंग “भारत माता” राष्ट्रवादी आंदोलन का पर्याय बन गई, जो औपनिवेशिक शासन के खिलाफ स्वतंत्रता और एकता के संघर्ष को दर्शाती है। इस प्रतिष्ठित छवि ने जनता को संगठित किया और सामूहिक आकांक्षाओं के लिए एक केंद्र बिंदु प्रदान किया।
- समावेशिता: विभिन्न क्षेत्रों के अपने अद्वितीय कला रूप थे, जैसे दक्षिण में तंजौर पेंटिंग और पूर्व में बंगाली पटुआ । इन रूपों को एक एकीकृत राष्ट्रवादी कथा को व्यक्त करने के लिए अपनाया गया था, जो देश की एकता पर जोर देते हुए देश की सांस्कृतिक विविधता को प्रदर्शित करता है।
- ध्वंसकारी कला: चित्तप्रसाद जैसे कलाकारों ने औपनिवेशिक नीतियों की सूक्ष्मता से आलोचना करने के लिए ,गहन कल्पना का इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए, बंगाल अकाल पर उनके कार्य ने ब्रिटिश शासन की कठोर वास्तविकताओं को उजागर किया, जिससे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तर पर निंदा हुई।
- प्रचार: “यंग इंडिया” जैसे राष्ट्रवादी प्रकाशनों के माध्यम से कलाकृति का प्रसार किया गया , जिससे उनके प्रभाव का दायरा बढ़ गया। रेखाचित्र और कार्टून सहित अन्य दृश्य तत्व, ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध जनमत तैयार करने में शक्तिशाली सिद्ध हुये।
- सार्वजनिक स्थान: सड़कों पर भित्ति चित्र और सार्वजनिक चौराहों पर कला प्रतिष्ठान ,लोगों को संघर्ष की निरंतर याद दिलाते थे। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, स्वतंत्रता सेनानियों और प्रतिरोध के प्रतीकों को चित्रित करने वाले भित्ति चित्र सार्वजनिक स्थानों पर फिक्स्चर बन गए, जिससे राष्ट्रवाद का उत्साह जीवित रहा।
- पहुंच: कुछ कलाकृतियों की सादगी, जैसे कि चरखे का प्रतीक, ने उन्हें आम जनमानस से जोड़ दिया। इन प्रतीकों वाले पोस्टर सबसे दूरदराज के इलाकों तक भी पहुंचे, जिससे आम नागरिकों को स्वतंत्रता के उद्देश्य से जोड़ा गया।
- अशाब्दिक प्रतिरोध: इसने औपनिवेशिक शासन का विरोध करने के लिए एक अहिंसक लेकिन शक्तिशाली रास्ता पेश किया। उदाहरण के लिए , नमक मार्च का जश्न मनाने वाली पेंटिंग और रेखाचित्रों ने शांतिपूर्ण विरोध के महत्व को रेखांकित किया और सामूहिक मानस पर गहरा प्रभाव डाला।
निष्कर्ष
बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के कलाकारों द्वारा चुने गए सौंदर्य और विषयगत विकल्पों ने एक दृश्य भाषा के रूप में कार्य किया जिसने उस समय की राजनीतिक और वैचारिक बयानबाजी को सशक्त रूप से पूरक बनाया। इस प्रकार, कला राजनीतिक अभिव्यक्ति का एक प्रभावी माध्यम बन गई, जिसमें संस्कृति और राजनीति का विलय इस तरह हुआ कि इसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर स्थायी प्रभाव पड़ा।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Latest Comments