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मतदान का अधिकार

Lokesh Pal July 12, 2025 02:34 27 0

संदर्भ 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत निर्वाचन आयोग (EC) से बिहार में मतदाता सूची को अद्यतन करने के लिए आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को स्वीकार करने का निर्देश दिया। यह विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) प्रक्रिया के दौरान कुछ लोगों के नाम छूट जाने की चिंताओं के जवाब में आया है।

  • न्यायालय ने यह याद दिलाया कि मतदान का अधिकार भारत की लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली का मूल है।

सहायक कानून

  • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950: मतदाता सूची तैयार करने का प्रबंधन करता है।
  • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951: चुनावों के संचालन को विनियमित करता है और चुनाव संबंधी अपराधों से निपटता है।

भारत का सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार

  • इसका अर्थ है कि देश के प्रत्येक वयस्क को मतदान का अधिकार है, चाहे उसका लैंगिक रूप, जाति, धर्म, शिक्षा या धन कुछ भी हो।
  • मतदान के अधिकार का अर्थ है कि प्रत्येक पात्र भारतीय नागरिक को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है।
  • ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों के विपरीत, जहाँ मतदान का अधिकार धीरे-धीरे शुरू किया गया था, भारत ने शुरू से ही संविधान के अनुच्छेद 326 के माध्यम से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार प्रदान किया, जो इसे एक संवैधानिक अधिकार बनाता है।
  • जाति, लिंग, धर्म या शिक्षा की परवाह किए बिना सभी वयस्कों को मतदान का अधिकार दिया गया।
  • वर्ष 1989 में 61वें संविधान संशोधन के माध्यम से मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
  • पहले चुनाव में 17.3 करोड़ से अधिक मतदाता थे, जिनमें से कई निरक्षर थे—तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने चुनाव चिह्नों की शुरुआत की, जिससे सभी नागरिकों के लिए मतदान अधिक सुलभ हो गया।

भारत में मतदान की कानूनी स्थिति

  • कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ (2006) मामले में, पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि ‘चुनाव का अधिकार’ जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62 के तहत एक वैधानिक अधिकार है, न कि मौलिक या संवैधानिक अधिकार।
  • राजबाला बनाम हरियाणा राज्य (2016) में, दो न्यायाधीशों की पीठ ने इसे “संवैधानिक अधिकार” कहा था, लेकिन कुलदीप नैयर (पाँच न्यायाधीशों की पीठ) मामले का निर्णय अभी भी लागू है।
  • अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ (2023) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने से इनकार कर दिया, यह देखते हुए कि कुलदीप नैयर मामले के फैसले में पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा इसे पहले ही तय कर दिया गया था।
  • एक वैधानिक अधिकार के रूप में भी, न्यायालय ने कहा है कि मतदान लोकतंत्र और शासन के लिए आवश्यक है। यह लोगों की इच्छा को दर्शाता है और जवाबदेह नेतृत्व को आकार देने में मदद करता है।

मतदाता सूची की सटीकता का महत्त्व

  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए स्वच्छ मतदाता सूचियों की आवश्यकता होती है। सटीक मतदाता सूचियाँ “एक व्यक्ति, एक मत” सिद्धांत को सुनिश्चित करती हैं।
  • दोहरी प्रविष्टियाँ, बड़ी संख्या में नाम छूट जाना, अयोग्य नामों का समावेश जैसी त्रुटियाँ चुनाव परिणामों और जनता के विश्वास को प्रभावित कर सकती हैं।
  • चुनाव आयोग की भूमिका: जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1950 की धारा 21 के तहत, चुनाव आयोग को मतदाता सूचियों को अद्यतन और संशोधित करने का अधिकार है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने आधार और अन्य पहचान-पत्रों को अनुमति देने का समर्थन किया ताकि विशेषतः गरीबों और हाशिए पर स्थित लोगों के लिए समावेशन को आसान बनाया जा सके।
  • लक्ष्मी चरण सेन बनाम ए.के.एम. हसन उज्जमां (1985) मामले में, न्यायालय ने कहा कि पात्र मतदाताओं के नाम जोड़ने और अपात्रों के नाम हटाने में राजनीतिक दलों की भी भूमिका है।

  • सेवारत मतदाताओं (सैन्य, चुनाव कर्मचारी आदि) के लिए डाक मत-पत्र उपलब्ध हैं।
  • प्रवासी भारतीय, जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1950 की धारा 20A के अंतर्गत मतदाता के रूप में पंजीकरण करा सकते हैं, लेकिन उन्हें व्यक्तिगत रूप से मतदान करना होगा; डाक द्वारा मतदान की अनुमति नहीं है।

पात्रता और साधारण निवासी

  • मतदाता सूची में शामिल होने के लिए, व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए, 18 वर्ष या उससे अधिक आयु का होना चाहिए और निर्वाचन क्षेत्र का “सामान्य निवासी” होना चाहिए।
  • सामान्य निवास: कोई व्यक्ति किसी स्थान पर वास्तविक और नियमित रूप से निवास करता हो। अस्थायी उपस्थिति या औपचारिक पते का उपयोग मतदाता सूची में शामिल होने के लिए योग्य नहीं है।
    • उदाहरण: यदि किसी छात्रावास में रहने वाले छात्र का वास्तविक निवास कहीं और है, तो वह मतदाता सूची में शामिल नहीं हो सकता।
  • मनमोहन सिंह मामले (1991) में, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मतदाताओं का वास्तविक, अभ्यस्त निवास होना चाहिए, न कि किसी स्थान से नाममात्र का संबंध।

बिहार में नागरिकता सत्यापन पर बहस

  • बिहार की विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) प्रक्रिया में एक प्रमुख चिंता नागरिकता सत्यापन है।
  • लाल बाबू हुसैन बनाम ERO (1995) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग के उन दिशा-निर्देशों को रद्द कर दिया, जो विदेशी मूल के संदेह के आधार पर नामों को हटाने की अनुमति देते थे।
  • न्यायालय का निर्णय
    • उचित प्रक्रिया के बिना नागरिकता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
    • पिछली मतदाता सूचियों का सम्मान किया जाना चाहिए।
    • साक्ष्य सिद्ध करने का भार केवल मतदाता पर अनुचित रूप से नहीं डाला जा सकता।
  • इन सुरक्षा उपायों की पुष्टि मोहम्मद रहीम अली बनाम भारत संघ (2024) मामले में की गई, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि आरोप या संदेह मतदान के अधिकार से इनकार करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हैं, बहिष्कार विश्वसनीय साक्ष्य और उचित प्रक्रिया पर आधारित होना चाहिए।

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