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हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय

Lokesh Pal September 27, 2025 02:30 39 0

संदर्भ

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956) के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वह हिंदू सामाजिक संरचना के साथ महिलाओं के अधिकारों को संतुलित करते हुए इस पर सावधानीपूर्वक विचार करेगा।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956) के बारे में

  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, बिना वसीयत के उत्तराधिकार (जब किसी व्यक्ति की मृत्यु बिना वसीयत के हो जाती है) को नियंत्रित करता है।
  • मूल रूप से संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए केवल पुरुष उत्तराधिकारियों को मान्यता दी गई थी।
  • पारंपरिक हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) में, सदस्यों में एक ही पूर्वज के पुरुष वंशज, उनकी माताएँ, पत्नियाँ और अविवाहित पुत्रियाँ शामिल होती थीं।
  • वर्ष 2005 का संशोधन
    • महिलाओं को सहदायिक के रूप में मान्यता दी गई और उन्हें पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्रदान किए गए।
    • धारा 6 में संशोधन करके सहदायिक की पुत्री को जन्म से ही सहदायिक बना दिया गया।
    • पुत्रियों को सहदायिक संपत्ति में पुत्रों के समान अधिकार और दायित्व दिए गए, जिनमें विभाजन और उत्तराधिकार के अधिकार भी शामिल हैं।

अधिनियम का क्षेत्राधिकार

  • यह अधिनियम हिंदू, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिए बिना वसीयत के उत्तराधिकार को नियंत्रित करता है।
  • इसमें मुस्लिम, ईसाई, पारसी और यहूदी शामिल नहीं हैं, जो अपने-अपने व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित होते हैं।
  • यह किसी भी अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होता है, जब तक कि केंद्र सरकार अधिसूचना द्वारा अन्यथा निर्देश न दे।

अधिनियम के प्रमुख प्रावधान

सहदायिक अधिकार (धारा 6)

  • बेटियों के समान अधिकार: बेटियाँ जन्म से ही सहदायिक होती हैं और उनके अधिकार एवं दायित्व बेटों के समान होते हैं।
  • सहदायिक संपत्ति का हस्तांतरण: मृतक सहदायिक का हित उत्तराधिकार द्वारा हस्तांतरित होता है, उत्तरजीविता द्वारा नहीं।
  • दायित्व का उन्मूलन: पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र 20 दिसंबर, 2004 के बाद लिए गए पैतृक ऋणों के लिए उत्तरदायी नहीं हैं।

पुरुषों का उत्तराधिकार

  • पुरुषों के मामले में उत्तराधिकार के सामान्य नियम (धारा 8): यह धारा एक हिंदू पुरुष की संपत्ति के उत्तराधिकार के क्रम को रेखांकित करती है, जिसमें सबसे पहले वर्ग I के उत्तराधिकारी, उसके बाद वर्ग II के उत्तराधिकारी, तत्पश्चात सगोत्र और अंततः सजातीय उत्तराधिकारी शामिल होते हैं।
  • अनुसूची में उत्तराधिकारियों के बीच उत्तराधिकार का क्रम (धारा 9): यह स्पष्ट करता है कि वर्ग I के उत्तराधिकारी एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं और अन्य सभी को छोड़ देते हैं, जबकि वर्ग II में, पहले की प्रविष्टियों वाले उत्तराधिकारियों को प्राथमिकता दी जाती है।
  • अनुसूची के वर्ग I के उत्तराधिकारियों के बीच संपत्ति का वितरण (धारा 10): यह धारा एक निर्वसीयत व्यक्ति की संपत्ति को वर्ग I में सूचीबद्ध उत्तराधिकारियों के बीच विभाजित करने के नियमों को निर्दिष्ट करती है।

महिलाओं का उत्तराधिकार

  • पूर्ण स्वामित्व (धारा 14): किसी हिंदू महिला के पास मौजूद कोई भी संपत्ति उसकी पूर्ण संपत्ति है।
  • अनुसूची के वर्ग I के उत्तराधिकारियों के बीच संपत्ति का वितरण (धारा 10): यह धारा एक निर्वसीयत व्यक्ति की संपत्ति को वर्ग I में सूचीबद्ध उत्तराधिकारियों के बीच विभाजित करने के नियमों को निर्दिष्ट करती है।
  • “हिंदू महिलाओं के लिए उत्तराधिकार के सामान्य नियम (धारा 15): संपत्ति (1) पुत्रों, पुत्रियों और पति को; (2) पति के उत्तराधिकारियों को; (3) माता-पिता को; (4) पिता के उत्तराधिकारियों को; (5) माता के उत्तराधिकारियों को प्राप्त होती है।”
  • महिला उत्तराधिकार के लिए विशेष नियम (धारा 15 [2]): माता-पिता से विरासत में प्राप्त संपत्ति पिता के उत्तराधिकारियों को प्राप्त होती है, जबकि पति या ससुर से प्राप्त संपत्ति, यदि कोई संतान नहीं है, तो पति के उत्तराधिकारियों को प्राप्त होती है।”
  • धारा 16 एक महिला हिंदू के उत्तराधिकारियों के बीच संपत्ति के वितरण के क्रम और विधि को निर्दिष्ट करती है।”

  • प्रथम श्रेणी के उत्तराधिकारी: निकटतम पारिवारिक सदस्य—पुत्र, पुत्रियाँ, विधवाएँ और माताएँ—जो समान अंशों में उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं।
  • द्वितीय श्रेणी के उत्तराधिकारी: अधिक दूर के रिश्तेदार, जैसे- भाई-बहन और उनके वंशज, जो केवल प्रथम श्रेणी के उत्तराधिकारियों की अनुपस्थिति में ही उत्तराधिकार के हकदार होते हैं।
  • सगोत्र (पुरुष वंश): पूरी तरह से पुरुष वंश से जुड़े रिश्तेदार (जैसे- पिता के भाई का पुत्र)।
  • सगोत्र (महिला वंश): पुरुष और महिला दोनों वंशों से जुड़े रिश्तेदार (जैसे- माता के भाई की पुत्री)।

सामान्य प्रावधान

  • संपत्ति का स्वामित्व (धारा 29): यदि कोई उत्तराधिकारी न हो, तो संपत्ति सरकार को हस्तांतरित हो जाती है।
  • अयोग्यता – हत्या (धारा 25): हत्यारा/दुष्प्रेरक पीड़ित की संपत्ति का उत्तराधिकारी नहीं हो सकता।
  • अयोग्यता – धर्मांतरण (धारा 26): धर्मांतरित लोगों के वंशज तब तक अयोग्य होते हैं जब तक कि वे उत्तराधिकार आरंभ होने के समय हिंदू न हों।
  • दोष के लिए कोई अयोग्यता नहीं (धारा 28): रोग, दोष या विकृति उत्तराधिकार पर रोक नहीं लगाती।
  • वसीयती उत्तराधिकार (धारा 30): कोई भी हिंदू वसीयत द्वारा संपत्ति का निपटान कर सकता है।

विवादित प्रावधान (धारा 15 और 16)

  • धारा 15(1): एक हिंदू महिला की निर्वसीयत संपत्ति निम्नलिखित क्रम में हस्तांतरित होती है:
    1. पुत्र, पुत्रियाँ और पति, 
    2. पति के उत्तराधिकारी, 
    3. माता-पिता, 
    4. पिता के उत्तराधिकारी, 
    5. माता के उत्तराधिकारी।
  • धारा 16: उत्तराधिकार का क्रम निर्धारित करती है, जिससे महिला के पैतृक परिवार पर पति के वंश की प्राथमिकता को बल मिलता है।
  • इन प्रावधानों को भेदभावपूर्ण बताते हुए चुनौती दी गई है क्योंकि ये महिला के पैतृक परिवार पर पति के वंश को प्राथमिकता देते हैं, जिससे महिलाओं के समान उत्तराधिकार के अधिकार कम हो सकते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • सर्वोच्च न्यायालय ने इन याचिकाओं पर निर्णय देते समय सावधानी बरतने पर जोर दिया है और पारंपरिक हिंदू सामाजिक संरचना को ध्यान में रखते हुए महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया है।
  • न्यायालय ने सामाजिक संरचना और लैंगिक न्याय के मध्य संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया है और ऐसे किसी भी न्यायिक निर्णय से बचने की बात कही है, जो लंबे समय से संचालित सामाजिक प्रथाओं को अचानक बाधित कर दे।

पूर्व निर्णय

  • प्रकाश बनाम फुलवती (2016): शुरुआत में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना था कि बेटियाँ सहदायिक अधिकारों का दावा तभी कर सकती हैं, जब पिता (सहदायिक) संशोधन की तिथि 9 सितंबर, 2005 को जीवित हों।
    • हालाँकि, बाद में विनीता शर्मा मामले में इस निर्णय को रद्द कर दिया गया।
  • दानम्मा बनाम अमर (2018): इस मामले में बेटियों के सहदायिक अधिकारों को मान्यता दी गई, भले ही पिता की मृत्यु वर्ष 2005 के संशोधन से पूर्व हो गई हो।
    • इसने पूर्वव्यापी प्रभाव से बेटियों को जन्म से सहदायिक के रूप में स्थापित किया, जिससे पहले के भेदभाव को समाप्त कर दिया गया।
  • विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2020): इस सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने बेटियों को जन्म से सहदायिक के रूप में समान सहदायिक अधिकारों के साथ निश्चित रूप से पुष्टि की, भले ही पिता वर्ष 2005 के संशोधन की तिथि पर जीवित थे या नहीं।

मामले का महत्त्व 

  • महिला अधिकार: यह मामला हिंदू उत्तराधिकार कानूनों में लैंगिक समानता को पुनर्परिभाषित कर सकता है।
  • सामाजिक संतुलन: सर्वोच्च न्यायालय ने पारंपरिक पारिवारिक संरचनाओं में व्यवधान डाले बिना निरंतरता बनाए रखने हेतु हिंदू सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं को संरक्षित करते हुए महिलाओं के प्रगतिशील उत्तराधिकार अधिकारों के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन बनाए रखने पर जोर दिया है।
  • विधायी अंतराल: ये न्यायिक स्पष्टीकरण हिंदू उत्तराधिकार कानूनों में व्यापक विधायी सुधारों के निरंतर अभाव को प्रदर्शित करते हैं, जिससे संपत्ति कानून में अस्पष्टताओं को दूर करने और लैंगिक न्याय को आगे बढ़ाने के लिए न्यायिक व्याख्या आवश्यक हो जाती है।

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