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एडीएम जबलपुर: शीर्ष अदालत का पतन और पुनः उत्थान

Lokesh Pal June 18, 2025 05:30 4 0

संदर्भ:

एडीएम जबलपुर का फैसला 1975 में आपातकाल की घोषणा के 50 साल बाद भी एक महत्वपूर्ण चेतावनी भरी कहानी बना हुआ है। इसे आधिकारिक तौर पर एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला के नाम से जाना जाता है। यह मामला वर्ष1976 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक ऐतिहासिक फैसला था। जो वर्ष 1975 से 1977 तक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल की अवधि के दौरान प्रकाश में आया था।

अन्य संबंधित तथ्य:

  • इसका महत्व 2017 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा के.एस. पुट्टस्वामी मामले में औपचारिक रूप से खारिज किए जाने से उजागर होता है, जो उस अवधि से मिलने वाले स्थायी सबकों पर जोर देता है।

पृष्ठभूमि:

  • न्यायपालिका की शक्तियाँ: भारत में न्यायपालिका को विशेष अधिकार प्रदान किए गए हैं ताकि वह कार्यपालिका और विधायिका की सीमा लांघने की प्रवृत्तियों पर रोक लगा सके
  • नियंत्रण और संतुलन: यह संवैधानिक व्यवस्था नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है और लोकतांत्रिक अवसंरचना में नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत को बनाए रखती है।
  • अनुच्छेद 32: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 व्यक्तियों को अपने मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय का रुख करने का अधिकार देता है। इसके व्यापक महत्त्व को देखते हुए डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इसे संविधान का हृदय और आत्मा कहा है।

एडीएम जबलपुर मामला:

  • मामले की शुरुआत: यह मामला 1975 में संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत “आंतरिक अशांति” का हवाला देकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किए जाने के कारण सामने आया। इस अभूतपूर्व कदम ने नागरिक स्वतंत्रताओं पर गंभीर रूप से अंकुश लगाया।
  • अधिकारों का निलंबन: आपातकाल के दौरान, संविधान के अनुच्छेद 359(1) का उपयोग करते हुए अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) और अनुच्छेद 22 (कुछ मामलों में गिरफ्तारी और हिरासत से सुरक्षा) के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था।
  • सामूहिक हिरासत और सेंसरशिप: आपात अवधि के दौरान आंतरिक सुरक्षा संधारण अधिनियम (MISA) के तहत हजारों व्यक्तियों को बिना किसी मुकदमे के हिरासत में लिया गया, और प्रेस की स्वतंत्रता पर कठोर प्रतिबंध आरोपित कर दिए गए।
  • उच्च न्यायालय से राहत: मौलिक अधिकारों के निलंबन के बावजूद, कुछ राज्यों के उच्च न्यायालयों ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने रिट क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए बंदियों को राहत प्रदान की।
  • सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में अपील: केंद्र सरकार ने उच्च न्यायालयों के फैसलों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसके परिणामस्वरूप कुख्यात एडीएम जबलपुर बनाम शिव कांत शुक्ला मामला प्रकाश में आया, जिसे हैबियस कॉर्पस केस के नाम से भी जाना जाता है।
  • कानूनी प्रश्न: क्या आपातकाल के दौरान हिरासत में लिया गया व्यक्ति अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत राहत प्राप्त कर सकता है, जब इसे निलंबित कर दिया गया हो? क्या आपातकाल के दौरान हैबियस कॉर्पस याचिका दायर की जा सकती है?

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (1976):

  • बहुमत की राय (4:1): मुख्य न्यायाधीश ए.एन.राय और न्यायमूर्ति एम.एच. बेग, वाई.वी. चंद्रचूड़ और पी.एन. भगवती की पीठ द्वारा इसमें यह निर्णय दिया कि आपातकाल के दौरान जीवन या स्वतंत्रता के अधिकारों के उल्लंघन के लिए कोई कानूनी उपाय उपलब्ध नहीं है। यहां तक ​​कि यदि किसी को दुर्भावना से या अवैध रूप से हिरासत में लिया गया हो, तो भी उसे चुनौती नहीं दी जा सकती
  • संवैधानिक पीठ के तर्क: बहुमत का मानना ​​था कि अनुच्छेद 21 के निलंबन के साथ ही राज्य की शक्ति सर्वोच्च हो जाती है और व्यक्तियों के पास मौलिक अधिकारों के लिए न्यायालय में अपील करने का कोई वैधानिक आधार नहीं बचता
  • असहमतिपूर्ण राय: न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ने इस पर कड़े रूप में असहमति व्यक्त की। उन्होंने तर्क दिया कि जीवन और स्वतंत्रता केवल संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार नहीं, बल्कि प्राकृतिक अधिकार हैं।
    •  उन्होंने सक्रिय रुख अपनाते हुए कहा था, “यहां तक कि अनुच्छेद 21 के अभाव में भी, राज्य किसी को कानून के बिना वंचित नहीं कर सकता,” और लोकतंत्र में कानून के शासन को सर्वोपरि बताया। कहा जाता है कि उनके इस सिद्धांतवादी रुख के कारण उन्हें भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर पदोन्नति नहीं मिल सकी।
  • परिणाम और प्रतिक्रियाएँ: हालांकि आपातकाल 1977 में समाप्त हो गया परंतु एडीएम जबलपुर का फैसला न्यायिक आत्मसमर्पण का एक गंभीर प्रतीक बन गया।
    •  इसके विपरीत, न्यायमूर्ति खन्ना की एकमात्र असहमति नैतिक दृष्टिकोण से अत्यंत सम्मानित हुई और आज इसे मौलिक अधिकारों के लिए एक प्रकाशस्तंभ के रूप में देखा जाता है।
    •  देश भर में, इस निर्णय की व्यापक आलोचना की गई और इसे भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का एक काला अध्याय माना गया, जिसने राष्ट्रीय संकट के समय नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करने में न्यायपालिका की विफलता को उजागर किया।
    •  वर्ष 2017 में.एस. पुट्टस्वामी मामले में इस फैसले को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया गया, जिससे न्यायमूर्ति खन्ना की दूरदर्शिता को विधिक मान्यता प्राप्त हुई।

आपातकाल के बाद संवैधानिक और न्यायिक पुनरुत्थान

  • मेनका गांधी मामला (1978): ऐतिहासिक मेनका गांधी मामले (1978) ने अनुच्छेद 21 के दायरे को अत्यधिक विस्तारित किया, और इसे अनुच्छेद 14 और 19 से आंतरिक रूप से जोड़ दिया।
    •  इस निर्णय में यह अनिवार्य किया गया कि जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने वाले किसी भी कानून को न्यायसंगत, निष्पक्ष और तर्कसंगत होना चाहिए, जिससे ठोस व विधि की उचित प्रक्रिया का एक नया युग शुरू हुआ।
  • 44वाँ संविधान संशोधन (1978): 44वें संविधान संशोधन (1978) द्वारा महत्वपूर्ण कानूनी मजबूती प्रदान की गई, जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 20 (अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) को आपातकाल के दौरान भी निलंबित न किए जाने योग्य बना दिया गया। यह संशोधन सीधे तौर पर न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना के रुख को संविधान में स्थापित करता है।
  • के.एस. पुट्टस्वामी निर्णय (2017): नौ न्यायाधीशों की पीठ ने के.एस. पुट्टस्वामी निर्णय (2017) में एडीएम जबलपुर निर्णय को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया
    •  न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने मूल निर्णय कोगंभीर रूप से त्रुटिपूर्णबताते हुए गोपनीयता और स्वतंत्रता को मानव अस्तित्व में निहित प्राकृतिक और अविभाज्य अधिकार के रूप में मान्यता दी

निष्कर्ष:

अतः इस प्रकार देखा जा सकता है कि एडीएम जबलपुर मामला न्यायिक उत्तरदायित्व का एक महत्वपूर्ण अध्ययन है, जो यह दर्शाता है कि जब न्यायपालिका अधिकारों की रक्षा करने वाली अपनी भूमिका में विफल होती है, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। यह मामला विशेष रूप से संकट की घड़ी में मौलिक स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए न्यायपालिका में असहमति और साहस की स्थायी महत्ता को रेखांकित करता है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

प्रश्न. एडीएम जबलपुर के फैसले ने आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में न्यायपालिका की विफलता को उजागर किया। विश्लेषण करें कि किस प्रकार न्यायिक आत्ममंथन और उसके पश्चात किए गए सुधारात्मक उपायों ने भारत में संवैधानिक नैतिकता को सुदृढ़ करने में योगदान दिया है।

 (10 अंक, 150 शब्द)

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