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भारत में सहकारी संघवाद तथा नीति आयोग 2.0

Lokesh Pal January 15, 2025 05:15 16 0

संदर्भ:

पिछले 10 वर्षों में नीति आयोग का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है, जो प्रासंगिक और संरचनात्मक कारकों के संयोजन से बाधित रहा है।

वैश्विक संदर्भ – एक बदलती दुनिया

प्रमुख परिवर्तन

  • नवउदारवाद का पतन : 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट जैसी घटनाओं ने विनियमन-मुक्त वित्तीय प्रणालियों की कमज़ोरियों को उजागर किया। इन संकटों ने नवउदारवादी नीतियों में विश्वास को कम किया, जिससे मज़बूत राज्य हस्तक्षेप की आवश्यकता को बल मिला।

नवउदारीकरण

  • नवउदारीकरण से तात्पर्य नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को अपनाने की प्रक्रिया से है, जो मुक्त बाजार, विनियमन, निजीकरण और आर्थिक गतिविधियों में राज्य की भूमिका को कम करने को प्राथमिकता देता है। 
  • नवउदारीकरण का अर्थ है, वैश्वीकरण पर ध्यान केंद्रित करना। भारत ने 1991 में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के माध्यम से इस मॉडल को अपनाया। 

  • वि-वैश्वीकरण और लोकलुभावनवाद का उदय: वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार से मोहभंग के कारण लोकलुभावन आंदोलनों का उदय हुआ है, जो संरक्षणवादी और राष्ट्रवादी नीतियों को समर्थन प्रदान करते हैं।
  • तीव्र तकनीकी प्रगति और जलवायु संकट

भारत की वर्तमान आर्थिक स्थिति

  • चुनौतियाँ
    • बाधित संरचनात्मक परिवर्तन : अर्थव्यवस्था अभी भी कृषि पर असमान रूप से निर्भर है, सकल घरेलू उत्पाद में इसके योगदान में कमी के बावजूद कार्यबल के एक बड़े हिस्से को इससे रोज़गार मिलता है।
      • विनिर्माण क्षेत्र कृषि से अधिशेष श्रम को अवशोषित करने के लिए पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हुआ है, जिससे औद्योगीकरण सीमित हो गया है।
      • सेवा क्षेत्र, जो विकास का वाहक है, पर्याप्त मात्रा में निम्न कौशलयुक्त रोज़गार उत्पन्न करने में असमर्थ रहा है।
    • निरंतर बेरोज़गारी
    • क्षेत्रीय असमानताएँ : आर्थिक विकास असमान है, राज्यों और क्षेत्रों के बीच महत्त्वपूर्ण अंतर है। राज्यों की आय के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है 
    • अनौपचारिक क्षेत्र पर निर्भरता : कार्यबल का एक महत्त्वपूर्ण भाग अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करता है, जिससे स्थायी रोज़गार तथा सामाजिक सुरक्षा का अभाव होता है।

प्रभाव

  • इस अशांत परिदृश्य में नीति-निर्माण अत्यंत जटिल हो जाता है।

नीति आयोग का गठन और उद्देश्य

  • स्थापना : जनवरी 2015 में योजना आयोग के स्थान पर स्थापित किया गया। कैबिनेट के प्रस्ताव में कहा गया था, कि नीति आयोग एक दिशात्मक और नीति-संचालक शक्ति के रूप में कार्य करेगा, जो समावेशी विकास के लिए परिवर्तनकारी पहलों को आगे बढ़ाकर राष्ट्र के विकास लक्ष्य का मार्गदर्शन करेगा।
  • अधिदेश : राष्ट्रीय विकास के लिए रणनीतिक नीति दिशा और साझा दृष्टिकोण तथा मजबूत सहकारी संघवाद। 
    • भारत जैसे विविधतापूर्ण राष्ट्र में साझा दृष्टिकोण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जहाँ राज्यों की विकास संबंधी प्राथमिकताएं और औद्योगीकरण का स्तर अलग-अलग है। 
    • उदाहरण के लिए, बिहार जैसे राज्यों में अधिक औद्योगिक क्षेत्रों की तुलना में औद्योगिक आधार अपेक्षाकृत कम है, जिससे असमानताओं को दूर करने तथा  संतुलित विकास को बढ़ावा देने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
  • मुख्य क्षेत्र: नीतिगत सलाह, नवाचार और राज्य स्तरीय प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करना ।

नीति आयोग के क्रियान्वयन में प्रमुख चुनौतियाँ

  • राजनीतिक संदर्भ
    • स्वतंत्र कार्य में कमी : परंपरागत रूप से शिक्षाविदों, नागरिक समाज समूहों और शोधकर्ताओं ने भारत में आर्थिक नियोजन को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
      • मनरेगा और आरटीआई जैसी ऐतिहासिक पहलें इन समूहों के सक्रिय समर्थन और योगदान से ही सामने आईं। 
      • हाल के वर्षों में नीति आयोग ने नीति निर्माण प्रक्रियाओं में तकनीकी विशेषज्ञों और नागरिक समाज संगठनों को तेजी से दरकिनार कर दिया है, जिससे दृष्टिकोणों की विविधता सीमित हो गई है।
    • निजी परामर्शदाताओं पर अत्यधिक निर्भरता : नीति आयोग परामर्श के लिए निजी प्रबंधन फर्मों पर अधिकाधिक निर्भर हो रहा है, जो प्रायः स्वतंत्र अनुसंधान की कीमत पर होता है। 
      • इस प्रवृत्ति के कारण सही आँकड़ों और निष्कर्षों को उजागर न करने की  चिंता पैदा हो गई है, जिससे केंद्र सरकार की छवि खराब हो सकती है तथा नीति निर्माण में पारदर्शिता और जवाबदेही कम हो सकती है।
  • संरचनात्मक सीमाएँ
    • बजटीय शक्तियों का अभाव : पूर्ववर्ती योजना आयोग के विपरीत, जिसके पास बजटीय प्राधिकार था और जो राज्य योजनाओं को मंजूरी देता था, नीति आयोग के पास ऐसी शक्तियों का अभाव है।
      • यह सीमा राज्यों के साथ सार्थक चर्चा करने की इसकी क्षमता में बाधा डालती है, क्योंकि यह संसाधन आवंटन या वित्तपोषण निर्णयों को सीधे प्रभावित नहीं कर सकता है।
    • गैर-बाध्यकारी सिफारिशें : नीति आयोग द्वारा की गई सिफारिशें सलाहकारी प्रकृति की हैं और उनमें बाध्यकारी प्राधिकार का अभाव है, जिससे उनकी प्रवर्तनीयता और नीति कार्यान्वयन पर प्रभाव सीमित हो जाता है।
  • केंद्र-राज्य समन्वय
    • संवाद और सहयोग के लिए स्पष्ट तंत्र का अभाव : पूर्व में कृषि मंत्रालय या खाद्य मंत्रालय जैसे संबंधित मंत्रालयों के पास राज्यों के साथ समन्वय स्थापित करने का  अधिदेश था, जिससे केंद्र-राज्य के बीच मजबूत सहयोग संभव हो पाता था। 
      • जबकि, हाल के वर्षों में उनकी भूमिकाएँ सीमित हो गई हैं, जिसके परिणामस्वरूप राज्यों के साथ उनकी सहभागिता कम हो गई है तथा प्रभावी संवाद और सहयोग के अवसर सीमित हो गए हैं।
  • अंतर-राज्यीय असमानताएँ
    • राजकोषीय हस्तांतरण फॉर्मूला : अमीर राज्यों ने गरीब राज्यों के पक्ष में नीतियों  पर प्रश्न उठाए हैं। राजकोषीय हस्तांतरण फॉर्मूला, जो केंद्रीय संसाधनों को राज्यों को आवंटित करता है, अमीर तथा सम्पन्न राज्यों की आलोचना का सामना कर रहा है। 
      • विशेष रूप से दक्षिणी राज्यों ने चिंता व्यक्त की है, कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में उनके उच्च योगदान से बिहार और झारखंड जैसे गरीब राज्यों को असमान रूप से धन प्राप्त होता है, जिससे संसाधन वितरण में असमानता की धारणा उत्पन्न होती है।
      • इसके कारण केंद्र और राज्य के बीच विश्वास की कमी बढ़ रही है। 
    • प्रभाव: बढ़ती क्षेत्रीय असमानताएँ और संघीय संबंधों पर तनाव।
    • उदाहरण: राजकोषीय असंतुलन पर विजय केलकर की 2019 की आलोचना।
  • औद्योगिक नीति शून्यता : जब 1991 में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (एलपीजी) की शुरुआत की गई थी, तो यह तर्क दिया गया था कि भारत को औपचारिक औद्योगिक नीति को छोड़ देना चाहिए, जिससे बाजारों को स्वतंत्र रूप से संचालित करने की अनुमति मिल सके। 
    • हालाँकि, यह दृष्टिकोण पुराना है क्योंकि चीन जैसे देशों ने आर्थिक विकास और नवाचार को बढ़ावा देने के लिए सुपरिभाषित औद्योगिक नीतियों का सफलतापूर्वक लाभ उठाया है। 
    • भारत को अब प्रतिस्पर्धी बने रहने और सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए एक सुसंगत औद्योगिक रणनीति की आवश्यकता है।
  • प्रमुख पहलें :  भारत की उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं में सुसंगतता का अभाव है।
  • विज़न दस्तावेज़ की सीमाएँ : इंडिया@75 और तीन वर्षीय कार्य एजेंडा में महत्त्वपूर्ण नीतिगत प्रभाव का अभाव था। इन दस्तावेज़ों की तैयारी में सार्वजनिक परामर्श की कमी थी, जिससे नागरिकों, नागरिक समाज और विषय विशेषज्ञों जैसे हितधारकों के परामर्श को बाहर रखा गया, जो समावेशी और पारदर्शी नीति निर्माण के लिए आवश्यक हैं।

भविष्य की आवश्यकताएँ

  • वित्तीय स्वायत्तता : नीति आयोग को अधिक वित्तीय स्वायत्तता की आवश्यकता है। यदि नीति आयोग को राज्यों को धन आवंटित करने के लिए वित्तीय शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं, तो इससे इसकी विश्वसनीयता बढ़ेगी और सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने तथा प्रभावी नीति निर्माण के लिए एक केंद्रीय संस्थान के रूप में इसकी भूमिका मजबूत होगी।
  • अनुसंधान क्षमता :  अनुसंधान क्षमता और कार्यान्वयन शक्तियों को मजबूत किया गया।
  • समन्वय तंत्र : राज्यों के साथ बेहतर समन्वय तंत्र।
  • स्वतंत्र अनुसंधान : स्वतंत्र अनुसंधान और डेटा गुणवत्ता वृद्धि के लिए समर्थन।

निष्कर्ष

अतः स्पष्ट है कि भारत के उभरते आर्थिक परिदृश्य में अपनी भूमिका को मजबूत करने के लिए, नीति आयोग को वित्तीय स्वायत्तता, उन्नत अनुसंधान क्षमताओं और राज्यों के साथ मजबूत समन्वय तंत्र के साथ सशक्त बनाया जाना आवश्यक है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

 2015 से सहकारी संघवाद को मजबूत करने और नीति निर्माण में नवाचार को बढ़ावा देने में नीति आयोग की भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए । भारत की नीतिगत चुनौतियों का समाधान करने में इसकी निरंतर प्रासंगिकता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए किन सुधारों की आवश्यकता है?

(15 अंक, 250 शब्द)

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