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विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के प्रति न्यायिक संवेदनशीलता: प्रतिगमन का संकेत

Lokesh Pal June 09, 2025 05:30 17 0

संदर्भ:

हाल ही में प्रकाशित एक लेख में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा तथा उसे बनाए रखने के न्यायपालिका के वर्तमान दृष्टिकोण की आलोचना की गई है एवं इसे न्यायिक पतन का संकेत तथा लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के मूल को कमजोर करने वाला बताया गया है।

वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भारत का संवैधानिक ढाँचा

  • अनुच्छेद 19(1)(A): वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार
  • प्रत्येक नागरिक को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है।
  • इसमें अभिव्यक्ति के विभिन्न निम्नलिखित रूप शामिल हैं:
    • सरकारी नीतियों और सार्वजनिक अधिकारियों की आलोचना करना।
    • सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपने विचारों को व्यक्त करना।
    • शांतिपूर्ण विरोध और प्रदर्शनों में भाग लेना।
    • कलात्मक, सिनेमा और साहित्यिक सामग्री का निर्माण।
    • शैक्षणिक और बौद्धिक चर्चा में भाग लेना।

अनुच्छेद 19(2): उचित प्रतिबंध

  • संविधान केवल छह विशिष्ट आधारों की अनुमति देता है, जिनके आधार पर स्वतंत्र अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित किया जा सकता है, जिन्हें उचित प्रतिबंध के रूप में जाना जाता है:
    • भारत की संप्रभुता और अखंडता – राष्ट्रीय एकता को खतरा पहुँचाने वाले भाषण।
    • राज्य की सुरक्षा – वर्गीकृत जानकारी या राज्य संबंधी गोपनीय सूचनाओं का प्रकटीकरण।
    • सार्वजनिक व्यवस्था – ऐसी अभिव्यक्ति, जो हिंसा भड़काती हो या शांति भंग करती हो।
    • नैतिकता – सामाजिक मानदंडों की रक्षा करना।
    • न्यायालय की अवमानना ​​- न्यायपालिका के प्राधिकार की रक्षा करना।
    • मानहानि – व्यक्तियों की मान और प्रतिष्ठा की रक्षा करना।
    • एक लोकतांत्रिक समाज के निर्धारण हेतु उपर्युक्त प्रतिबंध उचित और आवश्यक होने चाहिए।

वाक् एवं अभियव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने हेतु संवैधानिक परीक्षण

  • आसन्न हिंसा: क्या अभिव्यक्ति से तत्काल या आसन्न हिंसा होगी ?
  • सार्वजनिक व्यवस्था में व्यवधान: क्या अभिव्यक्ति वास्तव में सार्वजनिक व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न करेगी ?
  • राज्य की सुरक्षा को खतरा: क्या खतरनाक मिथ्या सूचना या ऐसी जानकारी फैलाई जा रही है जिससे राज्य की सुरक्षा को खतरा है ?

संबंधित प्रमुख न्यायिक मामले

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय (2025): ऑपरेशन सिंदूर के बाद पीएम मोदी की आलोचना करने वाले एक व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर को रद्द करने से इनकार कर दिया, जिसमें कहा गया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संवैधानिक अधिकारियों को बदनाम करने के लिए नहीं प्रयोग की जा सकती।
  • कमल हासन मामला: न्यायालय ने कन्नड़ भाषा के बारे में उनकी टिप्पणी के लिए माफी माँगने की सलाह दी
  • रणवीर गौतम अल्लाहाबादिया मामला: अपने पॉडकास्ट में अश्लीलभाषा के प्रयोग पर न्यायिक मामला।
  • अली खान महमूदाबाद मामला: कथित तौर पर भावनाओं को ठेस पहुँचाने और जानबूझकर गलत सूचना देने के उद्देश्य से विद्वानों की आलोचना को विधिक जाँच का सामना करना पड़ा।

वर्तमान समस्याएँ

  • भावनात्मक रूप से उकसाना: न्यायालय भावनात्मक उकसावे को कानूनी रूप से कार्रवाई योग्य हानि के बराबर मानता है।
  • प्रतिबंध: विधिक प्रतिबंध हिंसा, घृणा या सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने वाले भाषण के लिए हैं, न कि अपमान करने के लिए।
  • अधिक न्यायिक मामले: उचित विचारों के लिए माफ़ी मांगने को प्रोत्साहित करना एक विकृत प्रोत्साहन पैदा करता है: अधिक आक्रोश अधिक न्यायिक मामलों की ओर ले जाता है। यह न्यायिक मामलों के बोझ को को बढ़ाता है, जिससे अपराधी घटनाओं में वृद्धि होती है

अभिव्यक्ति और सशस्त्र बल

  • न्यायालय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण से इनकार करता है, जब यह सैन्य या राज्य संस्थानों को “बदनाम” करता है।
  • कानून: व्यंग्यात्मक भाषण के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 और 353(2) जैसे कठोर कानूनों का उपयोग विधिक अतिक्रमण को दर्शाता है
  • एफआईआर रद्द करना: एफआईआर रद्द करने से प्रायः मना कर दिया जाता है, यह प्रक्रिया ही सजा बन जाती है, दोषसिद्धि के बिना अभिव्यक्ति को बाधित करती है।

लोकतंत्र पर भयावह प्रभाव

  • स्व-सेंसरशिप का उदय: कानूनी उत्पीड़न के भय से रचनाकार और विचारक विवादास्पद विषयों से बचते हैं:
    • यूट्यूबर्स व्यंग्य से हटकर “सुरक्षित” गैर-विवादास्पद सामग्री की ओर रुख कर रहे हैं।
    • लेखक और फिल्म निर्माता मुकदमों से बचने के लिए साहसिक पटकथाएँ लिखने से बचते हैं।
    • प्रोफेसर और बुद्धिजीवी वर्ग अपने विचारों को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से हटा देते हैं और संवेदनशील शैक्षणिक मुद्दों पर चर्चा करने से हिचकिचाते करते हैं।
  • परिणाम: सार्वजनिक चर्चा संवेदनशील सामाजिक मुद्दों से हटकर अर्थहीन हो जाती है। लोकतंत्र की धारणा बाधित होती है क्योंकि नागरिक ईमानदार विचारों को व्यक्त करने से डरते हैं। वास्तविक वाद-विवाद और असहमति, जो लोकतंत्र के लिए आवश्यक हैं, दबा दी जाती है।

निष्कर्ष

संवैधानिक शक्ति से ज़्यादा सुविधा को महत्त्व देने वाली न्यायपालिका लोकतंत्र को बनाए रखने वाली असहमति को दबाने का जोखिम उठाती है। वास्तविक न्याय केवल सहमति के अधिकार का ही नहीं, बल्कि विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता की भी रक्षा करता है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

न्यायिक हस्तक्षेप संबंधी हालिया दृष्टिकोण के मद्देनज़र वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण में भारतीय न्यायपालिका की भूमिका की आलोचनात्मक जाँच कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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