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बिलकिस बानो को न्याय: सजा माफी पर सवाल (Justice for Bilkis Bano: Question on remission of sentence)

Samsul Ansari January 11, 2024 06:10 163 0

सन्दर्भ:

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे 11 दोषियों को गुजरात सरकार द्वारा दी गई छूट को रद्द कर दिया गया है

प्रारंभिक परीक्षा की प्रासंगिकता: बिलकिस बानो केस और सजा के संबंध में।

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: छूटप्रावधान, चुनौतियाँ और आगे की राह

उपयुक्त प्राधिकारी द्वारा निर्णय किया जाना:

  • भारत संघ बनाम वी. श्रीहरन (2015) मामले में संविधान पीठ के फैसले में, दोषियों को माफी आवेदन पर निर्णय लेने के लिए उपयुक्त प्राधिकार वह स्थिति मानी जाती है जहाँ दोषियों को सजा सुनाई गई हो
  • इसके परिणामस्वरूप, कोर्ट द्वारा  इस मामले में छूट देने के उद्देश्य से गुजरात सरकार को उपयुक्त प्राधिकार  मानने वाले सुप्रीम कोर्ट के पहले दो जजों की बेंच के फैसले को अवैध घोषित कर दिया
    • दरअसल, 11 दोषियों की रिहाई के आदेश को रद्द कर दिया गया हैं और दोषियों को दो सप्ताह के भीतर जेल वापस जाने का निर्देश दिया गया है।

माफ़ी की अवधारणा:

  • क्षमा की नीति का आधार : यदि किसी अपराधी का सुधार संभव है, तो उसे शिक्षा और अन्य उपयुक्त कलाओं द्वारा सुधारा जाना चाहिए और फिर एक बेहतर नागरिक बनने हेतु उसे मुक्त कर दिया जाना चाहिए जिससे राज्य पर कम बोझ पड़े
    • जेलों का उद्देश्य केवल प्रतिशोधात्मक सज़ा देने का साधन होने के बजाय पुनर्वासात्मक न्याय भी होना चाहिए I
  • संवैधानिक प्रावधान: राष्ट्रपति (अनुच्छेद 72) और राज्यपाल (अनुच्छेद 161) दोनों के पास क्षमा की शक्ति का प्रावधान  है।
    • हालाँकि, अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति की शक्ति अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल की तुलना में व्यापक है जो निम्नलिखित दो मायनों में भिन्न है:
      • कोर्ट मार्शल: राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान का अधिकार उन मामलों में दिया जाता है जहाँ कोर्ट मार्शल द्वारा सजा दी जाती है, लेकिन अनुच्छेद 161 राज्यपाल को ऐसी कोई शक्ति प्रदान नहीं करता है।
      • मौत की सजा: राष्ट्रपति मौत की सजा को माफ कर सकता है लेकिन राज्यपाल की शक्ति मौत की सजा के मामलों तक विस्तारित नहीं है।
  • सांविधिक प्रावधान:
    • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) जेल की सजा में छूट का प्रावधान करती है। 
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSSS) एक कानून है जिसने  CrPC की जगह ली है।
      • जेल राज्य का विषय है इसलिए, प्रत्येक राज्य के जेल नियम कुछ सुधारात्मक और पुनर्वास गतिविधियों की पहचान करते हैं, जिनका  उपयोग  कैदी अपने सजा के दिनों के छूट के रूप में अर्जित करने के लिए कर सकते हैं।
    • धारा 432: ‘उपयुक्त सरकारकिसी सजा को पूरी तरह या आंशिक रूप से, शर्तों के साथ या बिना शर्तों के निलंबित या माफ कर सकती है।
    • धारा 433: उपयुक्त सरकार द्वारा किसी भी सज़ा को कम सज़ा में बदला जा सकता है।
    • राज्य सरकारों के पास शक्ति : राज्य सरकारों के पास संबंधित शक्ति होती है ताकि वे कैदियों को उनकी जेल की सजा पूरी करने से पहले रिहा करने का आदेश दे सकें।
    • कुछ राज्यों में छूट संबंधित नीतियाँ हैं जो कुछ श्रेणियों के अपराधियों को छूट के अवसरों से पूरी तरह से वंचित कर देती हैं या छूट पर विचार करने से पहले कुछ अपराधों के लिए काफी लंबी अवधि की कैद की सजा दे दी जाती  है।
    • उदाहरण:
      • महाराष्ट्र: 12 साल से कम उम्र की पीड़िता के लिए रेप के मामले में माफी तभी मानी जाती है जब दोषी 20 साल की सजा पूरी कर चुका हो।
      • पंजाब: सिख विरोधी दंगों में शामिल दोषियों के लिए उनके मामले में छूट विचारणीय नहीं है।
  • नशीली दवाओं के दोषियों से संबंधित मामले की माफी तभी मानी जाती है जब दोषी ने 25 साल की सजा पूरी कर ली हो।
  • हालाँकि, अपराध श्रेणियों के लिए छूट से पूरी तरह इनकार करना एक दंडात्मक ढाँचे को प्रदर्शित करता है जो प्रतिशोधात्मक माना जा सकता है, जिस पर न्यायालय को जल्द से जल्द कार्रवाई करने की आवश्यकता है।
  • छूट देते समय पालन किये जाने वाले दिशानिर्देश :
    • लक्ष्मण नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2000) :  इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने पाँच आधार दिये:
      • क्या अपराध, बड़े पैमाने पर समाज को प्रभावित किए बिना व्यक्तिगत रूप से किया गया अपराध कार्य है I
      • अपराध की पुनरावृत्ति की संभावना I
      • क्या दोषी द्वारा अपराध करने की अपनी क्षमता खो दी गयी है I
      • क्या दोषी को और अधिक कारावास में रखने का कोई सार्थक उद्देश्य है I
      • दोषी के परिवार की सामाजिकआर्थिक स्थिति I
    • साथ ही, उम्रकैद की सजा काट रहे दोषी कम से कम 14 साल जेल में बिताने के बाद छूट पाने के हकदार होने चाहिये।
  • सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिशानिर्देश: ईपुरु सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2006) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि छूट से संबंधित आदेश की न्यायिक समीक्षा केवल तभी की जा सकती है जब उसमें निम्नलिखित को शामिल किया गया हो –
    • बुद्धि का प्रयोग नहीं  किया गया हो। 
    • प्रासंगिक पहलुओं  पर विचार नहीं किया गया हो।
    • आदेश दुर्भावनापूर्ण रहा हो  या अप्रासंगिक विचारों पर आधारित हो या मनमानी से ग्रस्त हो  
  • संबद्ध चुनौतियाँ:
  • व्यक्तिपरकता: जाँच की व्यक्तिगत प्रकृति व्यक्तिनिष्ठ होती है।
  • स्वेच्छाचारिता : व्यक्तिगत आवेदनों पर निर्णय लेने के लिए संबंधित समितियों के गठन की प्रक्रिया और निर्णयों के मार्गदर्शन करने वाले कारणों के सम्बन्ध में  पारदर्शिता की कमी पाई जाती है।
  • अनियंत्रित विवेक: बिलकिस बानो मामला अनियंत्रित विवेक का एक उदाहरण है। 
  • बिलकिस बानो के मामले में 11 दोषियों को सजा देने के संबंध में विवेक का प्रयोग किये जाने पर चिंता व्यक्त की गयी है  
  • क्योंकि उनमें से प्रत्येक आरोपी के लिये गुजरात सरकार द्वारा दिए गए आदेश एकदूसरे की हूबहू नकल के रूप में पाए गए हैं।

 निष्कर्ष:

माफ़ी के मामले में  बिलकिस बानो केस में, सुप्रीम कोर्ट नेधोखाधड़ीऔरसत्ता हड़पनेकी अवैधता और अन्याय में सरकार की  संलिप्तता पाई और इसलिए कोर्ट ने कठिन मानदंड निर्धारण सम्बन्धी प्रश्नों की ओर जाने की आवश्यकता नहीं समझी

मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न: भारतीय संविधान में किसी भी दोषी को दी गई सजा से छुट प्रदान करने अथवा उसे मुक्त कर देने के अधिकार के विषय में क्या प्रावधान किया गया है ? सजा से मुक्ति के विषय में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं ? इसके समाधान के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए ? टिप्पणी कीजिए।

News Source: The Hindu

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