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भारत में अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान तथा उनकी अधिकारिता

Lokesh Pal November 16, 2024 05:30 35 0

संदर्भ :

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की 7 जजों की बेंच ने 4:3 के बहुमत से वर्ष 1967 के “एस. अज़ीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ वाद” के निर्णय को खारिज कर दिया तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत “अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय” के अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे को नियमित बेंच द्वारा तय करने के लिए छोड़ दिया।

AMU विवाद : महत्त्वपूर्ण बिंदु

  •  AMU की स्थापना और महत्व :
    • 1877 ई. में सर सैयद अहमद खां द्वारा “मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज” की स्थापना की गई, जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना ।
    • इसका उद्देश्य भारत में मुसलमानों के मध्य शिक्षा और सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ावा देना था।
  • एस. अज़ीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ वाद, 1967 : 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि AMU के विधि द्वारा निगमित होने के कारण, अल्पसंख्यक संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता।
    • चूँकि अल्पसंख्यक दर्जे के लिए अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापना और प्रशासन दोनों की आवश्यकता होती है।
  •  AMU अधिनियम संशोधन, 1981 :
    • केंद्र सरकार ने AMU अधिनियम में संशोधन कर इसे अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान किया।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय, 2006 :
    • 1981 के संशोधन को रद्द कर दिया गया, जिसमें कहा गया कि AMU एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
    • संशोधन को अवैध घोषित कर दिया गया, जिससे अल्पसंख्यक दर्जे की पुरानी व्याख्या को बल मिला।
  •  2024 का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय :
    • वर्ष 1967 के एस. अजीज बाशा निर्णय को खारिज कर दिया गया।
    • यह माना गया कि विधि द्वारा निगमित कोई भी संस्थान अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करने का दावा कर सकता है।
    • अल्पसंख्यक संस्थाओं को, भले ही वे पूरी तरह से अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा शासित न हों, “राष्ट्रीय महत्त्व की संस्थाओं” के रूप में मान्यता दी जा सकती है।
    • निर्णय में अल्पसंख्यक अधिकारों पर उदार रुख अपनाया गया है तथा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन में अल्पसंख्यक समुदायों के उद्देश्य को प्राथमिकता दी गई है।
    • इसने विधिक व्याख्या में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को चिह्नित किया, जिसने AMU की अल्पसंख्यक स्थिति की पुष्टि की।

नोट : संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार देता है।

हालिया निर्णय पर न्यायिक सहमति और असहमति 

  • सूक्ष्म असहमति :
    • सूक्ष्म असहमतियों के बावजूद संविधान के अनुच्छेद 30 की प्रमुख व्याख्याओं पर न्यायाधीश एकमत थे । 
    • असहमति जताने वाले न्यायाधीशों ने AMU अधिनियम के महत्त्व पर जोर दिया, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि केवल विधि ही किसी संस्थान की अल्पसंख्यक स्थिति तय नहीं कर सकती ।
  • संवैधानिक न्यायशास्त्र का विकास :
    • इस निर्णय में पूर्व के निर्णयों को संशोधित करने में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका पर प्रकाश डाला गया तथा यह सुनिश्चित किया गया, कि संविधान समकालीन वास्तविकताओं के साथ विकसित हो।
    • उदाहरणस्वरूप मेनका गांधी मामले (1978) में ए.के. गोपालन वाद (1950) तथा के. एस. पुट्टास्वामी मामले (2017) में एम.पी. शर्मा वाद (1954) के निर्णय को खारिज करना शामिल है।
  • प्रशासन का अधिकार :
    • न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ ने इस बात पर जोर दिया कि “प्रशासन का अधिकार” किसी संस्था की स्थापना का परिणाम है, न कि किसी पूर्व शर्त का।
    • यह एस.अजीज बाशा (1967) मामले के निर्णय से संबंधित है, जिसमें कहा गया था कि एक बार स्थापित होने के बाद अल्पसंख्यक संस्था को उसे प्रशासित करने का अधिकार मिल जाता है।
  • न्यायिक अनुशासन और प्रशासनिक अधिकार : 
    • असहमत न्यायाधीशों ने न्यायिक अनुशासन और पूर्व निर्णयों, विशेष रूप से टी. एम. ए. पाई फाउन्डेशन वाद (2002) का जिक्र करते हुए, संवैधानिक ढाँचे के अनुपालन पर जोर दिया।
      • विद्यार्थी चयन, शुल्क संरचना और स्टाफ प्रबंधन के अधिकारों को बरकरार रखा गया, लेकिन उनका विस्तार नहीं किया गया।
    • सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य और अन्य (1974) मामले में स्पष्ट किया गया, कि यद्यपि अल्पसंख्यक संस्थाओं को अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन उन्हें विधिक मानदंडों का पालन करना होगा और वे पूर्ण स्वायत्तता का दावा नहीं कर सकते।
  • असहमति में समावेशन 
    • असहमत न्यायाधीशों ने शासन को आकार देने में अधिनियम की प्रासंगिकता पर तर्क दिया, लेकिन यह भी माना कि कानून संवैधानिक संरक्षण को भूल नहीं सकती है ।
    • सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य और अन्य वाद (1974) जैसे उदाहरणों ने इस बात की पुष्टि की है, कि कोई अधिनियम अल्पसंख्यक संस्थाओं से उनके मौलिक अधिकारों को नहीं छीन सकता।
  • गैर-अल्पसंख्यकों के हित में विनियमन
    • सरकारी नियंत्रण का मुख्य उद्देश्य गैर-अल्पसंख्यक विद्यार्थियों की सुरक्षा करना और निष्पक्ष प्रशासन सुनिश्चित करना है।
    • ऐसे नियम अल्पसंख्यक दर्जे को कम नहीं करते, बल्कि संस्थान को सभी विद्यार्थियों के लिए निष्पक्ष और कुशलतापूर्वक संचालित करने में मदद करते हैं।

निष्कर्ष 

वर्ष 1967 के अज़ीज़ बाशा निर्णय को पलटकर न्यायालय ने “अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय” के लिए संभावित रूप से अपना अल्पसंख्यक दर्जा वापस पाने का मार्ग सुरक्षित कर दिया है। अंतिम निर्णय का अल्पसंख्यक शैक्षणिक अधिकारों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और यह सम्पूर्ण भारत में अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करेगा।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न 

उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणी कि “विश्वविद्यालय धार्मिक संस्थानों से अलग हैं”, का उच्चतर शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता पर पड़ने वाले प्रभाव का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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