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भारत में संसदीय कार्यवाही तथा इसकी दयनीय स्थिति

Lokesh Pal January 02, 2025 05:15 20 0

संदर्भ : 

हाल के वर्षों में संसदीय सत्रों में सार्थक चर्चाओं की अपेक्षा व्यवधान अधिक देखने को मिले हैं तथा हालिया शीतकालीन सत्र भी इसका अपवाद नहीं था। चूँकि सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों ही विघटनकारी व्यवहार में लिप्त थे, इसलिए राष्ट्र ने विधायी प्रक्रिया की गरिमा और कार्यक्षमता में गंभीर गिरावट देखी।

संसदीय कार्यवाही में गिरावट के कारण

1. व्यवधान और प्रतिस्पर्धी राजनीति :

  • सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही बार-बार व्यवधान उत्पन्न करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कार्यवाही स्थगित हो जाती है तथा विधायी कार्य अवरुद्ध हो जाता है।
  • शारीरिक झड़पें, जैसे कि हाल ही में संसद की सीढ़ियों पर हुई झड़प, शिष्टाचार तथा अनुशासन के ह्रास का प्रतीक हैं।
  • व्यवधान संसदीय प्रथा का एक हिस्सा बन गया है, जिसे कुछ लोग लोकतांत्रिक अधिकार के रूप में उचित ठहराते हैं, परिणामस्वरूप इसे रोकना और चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

2. नियमों का कमज़ोर प्रवर्तन :

  • पक्षपात या पक्षपातपूर्ण प्रतिक्रिया के आरोपों के भय से वक्ता प्रायः नियमों के कठोर  क्रियान्वयन से बचते हैं ।
  • पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने व्यवधानकारी सांसदों को निष्कासित करने की कठिनाई पर प्रकाश डाला, क्योंकि इसे गैर-लोकतांत्रिक माना जाता है।
  • एक के बाद एक अध्यक्षों ने अनुशासनात्मक कार्रवाई की अपेक्षा स्थगन को प्राथमिकता दी है, जिससे व्यवधान की संस्कृति बनी रही है।

3. सरकार और विपक्ष के मध्य तनाव :

  • आपसी तनाव ने पहले के दौर में देखी जाने वाली पारंपरिक शिष्टता की जगह ले ली है । जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने वैचारिक मतभेदों के बावजूद एक-दूसरे का सम्मान बनाए रखा था।
  • वर्तमान में दोनों पक्ष एक-दूसरे को सहयोगी नहीं, बल्कि विरोधी मानते हैं, जिससे रचनात्मक वार्ता दुर्लभ हो गई है।
  • सत्तारूढ़ दल विपक्ष को “राष्ट्र-विरोधी” बताकर खारिज करता है, जबकि विपक्ष स्वयं  को एक अन्यायपूर्ण प्रशासन से जूझता हुआ देखता है, जिससे अविश्वास गहराता जा रहा है।

4. संसदीय प्रतिनिधित्व और मानकों में गिरावट :

  • सांसदों से जनता की अपेक्षाएँ प्रभावी संसदीय प्रदर्शन से हटकर स्थानीय राजनीतिक प्रभाव और अन्य सेवाओं की ओर स्थानांतरित हो गई हैं।
  • राम मनोहर लोहिया और पीलू मोदी जैसे अतीत के कुशल वक्ताओं को अब चुनावी सफलता हेतु प्राथमिकता नहीं दी जाती ।
  • सांसद सार्थक चर्चाओं के बजाय व्यवधान और नारेबाजी पर अधिक ध्यान देते हैं, जिससे संसदीय सत्रों की गुणवत्ता कम हो जाती है।

5. सरकार द्वारा विचार-विमर्श प्रक्रियाओं की उपेक्षा :

  • सत्ता पक्ष अधिकांशतः विपक्ष को नजरअंदाज कर देता है तथा बिना पर्याप्त चर्चाओं के विधेयकों को पारित कर देता है।
  • संसद को परामर्श के मंच के बजाय निर्णय लेने के लिए “रबर स्टाम्प” के रूप में देखा जाने लगा है ।
  • प्रधानमंत्री की संसद में सीमित उपस्थिति, जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं की संसद में नियमित उपस्थिति से पूर्णतः विपरीत है।

6. विधायी कार्य में जनता की अरुचि :

  • मतदाता शायद ही कभी सांसदों का मूल्यांकन उनके विधायी योगदान के आधार पर करते हैं, जिससे गुणवत्तापूर्ण चर्चाओं हेतु प्रोत्साहन में कमी आती है।
  • राजनीतिक दलों का ध्यान स्थानीय मुद्दों और राजनीतिक निष्ठा पर केन्द्रित हो गया है, जिससे राष्ट्रीय शासन में संसद की भूमिका और अधिक दरकिनार हो गई है।

लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि दोनों पक्ष (सत्ता तथा विपक्ष) एक-दूसरे की सद्भावना और समर्पण पर विश्वास करें तथा कार्यप्रणाली पर मतभेद के बजाय राष्ट्र की प्रगति पर ध्यान केंद्रित करें।

निष्कर्ष

विधायिका के प्रति बढ़ती उपेक्षा प्रतिनिधि लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है। जब  संसद को शासन के लिए एक महत्त्वपूर्ण निकाय के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की वैधता को कमजोर करता है; साथ ही राजनीतिक व्यवस्था से जनता का मोहभंग करता है। लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में विधि निर्माताओं को संसदीय प्रणाली की अखंडता को बहाल करने और राष्ट्र के भविष्य को आकार देने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका सुनिश्चित करने हेतु  त्वरित और निर्णायक कार्रवाई करनी चाहिए।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

संसद में प्रतिस्पर्धात्मक व्यवधानों के विधायी प्रक्रिया और लोकतंत्र की आधारशिला के रूप में इसकी भूमिका पर पड़ने वाले प्रभावों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। इसकी प्रभावशीलता को बहाल करने संबंधी उपाय भी सुझाइए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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