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Lokesh Pal January 02, 2025 05:15 20 0
हाल के वर्षों में संसदीय सत्रों में सार्थक चर्चाओं की अपेक्षा व्यवधान अधिक देखने को मिले हैं तथा हालिया शीतकालीन सत्र भी इसका अपवाद नहीं था। चूँकि सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों ही विघटनकारी व्यवहार में लिप्त थे, इसलिए राष्ट्र ने विधायी प्रक्रिया की गरिमा और कार्यक्षमता में गंभीर गिरावट देखी।
विधायिका के प्रति बढ़ती उपेक्षा प्रतिनिधि लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है। जब संसद को शासन के लिए एक महत्त्वपूर्ण निकाय के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की वैधता को कमजोर करता है; साथ ही राजनीतिक व्यवस्था से जनता का मोहभंग करता है। लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में विधि निर्माताओं को संसदीय प्रणाली की अखंडता को बहाल करने और राष्ट्र के भविष्य को आकार देने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका सुनिश्चित करने हेतु त्वरित और निर्णायक कार्रवाई करनी चाहिए।
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