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भारत में विश्वविद्यालयों की अवधारणा : रोजगार-प्रशिक्षण केंद्र या सूचना भंडार से कहीं अधिक

Lokesh Pal July 04, 2025 05:30 43 0

संदर्भ:

विश्वविद्यालय, जो कभी स्वतंत्र विचार और आलोचनात्मक अन्वेषण के गढ़ माने  जाते थे, अब भारत और विश्व  में अस्तित्व के संकट का सामना कर रहे हैं।

विश्वविद्यालयों का वास्तविक उद्देश्य

विश्वविद्यालय रोजगार-प्रशिक्षण केंद्र या सूचना के भंडार से कहीं अधिक हैं। उनका मूल उद्देश्य ज्ञान को आगे बढ़ाना, आलोचनात्मक विचारकों का पोषण और समाज की सेवा करना है। एक वास्तविक विश्वविद्यालय एक ऐसा स्थान है, जहाँ:

  • विचारों की खोज: एक ऐसा स्थान जहाँ विचारों को न केवल पढ़ाया जाता है, बल्कि उन पर आलोचनात्मक परीक्षण, चर्चा और परिशोधन किया जाता है।
  • आलोचनात्मक कल्पना: शिक्षा संबंधी विवेक को जगाना चाहिए, न कि केवल जानकारी हस्तांतरित करना चाहिए। विद्यार्थियों को मानदंडों को चुनौती देनी चाहिए और प्रमुख विचारधाराओं पर प्रश्न उठाना चाहिए – निष्क्रिय शिक्षा के “बैंकिंग मॉडल” का विरोध करना चाहिए।
  • प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण: एक स्वस्थ विश्वविद्यालय प्रतिस्पर्धी विचारों के लिए एक मंच है, जहाँ केवल वही विचार टिक पाते हैं जो तर्क और जाँच का सामना करते हैं।
  • सार्वजनिक बुद्धिजीवियों का घर: विश्वविद्यालयों को ऐसे व्यक्तियों को तैयार करना चाहिए, जो अकादमिक क्षेत्र से परे सोचते हों। जो सामाजिक वास्तविकताओं को संबोधित करते हों, हाशिए पर व्याप्त लोगों की रक्षा करते हों और न्याय, स्वतंत्रता तथा समानता जैसे मूल्यों को बनाए रखते हों।

  • 19वीं सदी के ब्रिटिश शिक्षाविद जॉन हेनरी न्यूमैन ने तर्क दिया था, कि विश्वविद्यालय वह स्थान है जहाँ एक निश्चित प्रकार की मूल्यवान गतिविधि घटित होती है।
  • यह वह स्थान है, जहाँ विचारों का सार्थक और उत्पादक अन्वेषण होने की उम्मीद की जाती है, जहाँ सत्य की खोज की जाती है और समाज के समक्ष आने वाले मुद्दों से निपटने के लिए आलोचनात्मक कल्पना का उपयोग किया जाता है (जिसे एक मूल्यवान गतिविधि के रूप में लिया जा सकता है)।

विश्वविद्यालयों को कमजोर करने वाले दोहरे खतरे

  • बढ़ती असहिष्णुता: असहमतिपूर्ण आवाजों को सहन करने में बढ़ती अक्षमता, सत्य और चर्चा के स्थान के रूप में विश्वविद्यालय की भूमिका को कमजोर करती है:
    • असहमति को दबाना: प्रमुख आख्यानों पर प्रश्न उठाने के लिए शिक्षाविदों को दंडित किया जाता है।
    • भय को एक उपकरण के रूप में प्रयोग करना: असहमति व्यक्त करने के परिणामस्वरूप भय और चुप्पी का माहौल उत्पन्न होता है।
    • आलोचना की अपेक्षा अनुरूपता: संस्थाएँ प्रतिध्वनि कक्ष बन जाती हैं, जो साहसी, आलोचनात्मक विचार के स्थान पर अनुपालन को जन्म देती हैं।
    • मूलभूत मूल्यों की हानि: विश्वविद्यालयों द्वारा कभी प्रदत्त स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूल्यों से समझौता हो जाता है, जब सार्वजनिक बुद्धिजीवियों को चुप करा दिया जाता है।
  • शिक्षा का वस्तुकरण: शिक्षा बौद्धिक जिज्ञासा या सामाजिक प्रासंगिकता की बजाय बाजार तर्क से आकार ले रही है:
    • बाजार-संचालित पाठ्यक्रम: विकल्प आय की संभावना से आकार लेते हैं, न कि रुचि या उद्देश्य से। उपयोग मूल्य की जगह विनिमय मूल्य ले लेता है।
    • चिंतन की हानि: सीखना अविवेचनात्मक हो जाता है, इसका उद्देश्य अंतर्दृष्टि या सामाजिक योगदान की बजाय लाभ और स्थान निर्धारण होता है।
    • वैश्विक रैंकिंग: वैश्विक विश्वविद्यालय रैंकिंग के प्रति जुनून, प्रायः  स्थानीय प्रासंगिकता की कीमत पर एकरूपता और पश्चिमी शैक्षणिक मानदंडों को प्रोत्साहित करता है।
    • राज्य नियंत्रण: विश्वविद्यालयों पर आर्थिक सुधार के उपकरण बनने का खतरा है, क्योंकि इससे शिक्षा राज्य की विचारधारा का विरोध करने की बजाय उसके अनुरूप हो जाएगी।

समाज के लिए परिणाम

  • जब विश्वविद्यालय सत्ता को चुनौती देना और सत्य की खोज करना बंद कर देते हैं, तो समाज को नुकसान होता है।
  • जो संस्थाएँ जाँच से डरती हैं या प्रचलित आख्यानों का आँख मूँदकर अनुसरण करती हैं, वे विश्वसनीयता खो देती हैं।
  • जीवंत विश्वविद्यालयों के बिना, समाज की लोकतांत्रिक और आलोचनात्मक नींव नष्ट हो जाती है

आगे की राह

  • आलोचनात्मक संलग्नता: विश्वविद्यालयों को विद्यार्थियों और शिक्षकों को स्वतंत्र रूप से बोलने, स्वतंत्र रूप से चिंतन और आलोचनात्मक विचार तथा बौद्धिक विकास को बढ़ावा देने के लिए स्थापित परंपराओं को चुनौती देने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
  • खुली चर्चाएँ: संस्थाओं को ऐसा परिदृश्य विकसित करना चाहिए, जहाँ विरोधी दृष्टिकोणों का स्वागत किया जाए तथा उन्हें सेंसर या खारिज करने की बजाय उनका कठोरता से परीक्षण किया जाए।
  • बाजार के दबावों का विरोध: शिक्षा का ध्यान डिग्री को बाजार की वस्तु मानने से हटकरमूल्यवान सार्वजनिक वस्तु के रूप में ज्ञान की खोज पर होना चाहिए।
  • समाज के साथ सहभागिता: विश्वविद्यालयों को संकीर्ण अनुशासनात्मक सीमाओं से आगे बढ़कर वास्तविक समाज के मुद्दों, विशेष रूप से हाशिए पर व्याप्त और अतिसंवेदनशील समुदायों को प्रभावित करने वाले मुद्दों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ने की आवश्यकता है।
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना: शैक्षिक संस्थानों की स्वायत्तता की रक्षा करना तथा ऐसा परिदृश्य करना आवश्यक है, जहाँ बौद्धिक अन्वेषण और स्वतंत्र अभिव्यक्ति प्रतिशोध के भय के बिना पनप सके।

निष्कर्ष

यदि भारत को एक न्यायपूर्ण, सूचित और लोकतांत्रिक समाज को बढ़ावा देना है, तो उसे विश्वविद्यालय के वास्तविक उद्देश्य को पुनः प्राप्त करना होगा। केवल अकादमिक स्वतंत्रता की रक्षा, आलोचनात्मक विचारकों को पोषित तथा वस्तुकरण का विरोध करके ही विश्वविद्यालय सामाजिक प्रगति के इंजन और सत्य के संरक्षक के रूप में कार्य करना जारी रख सकते हैं।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

विश्वविद्यालय का वास्तविक उद्देश्य आलोचनात्मक कल्पना और सत्य की खोज को बढ़ावा देना है। इस कथन के प्रकाश में, आधुनिक विश्वविद्यालयों द्वारा अपने मूल आदर्शों को बनाए रखने में आने वाली चुनौतियों का मूल्यांकन कीजिए। विश्वविद्यालयों को सत्य की खोज और आलोचनात्मक जाँच के जीवंत स्थानों के रूप में पुनर्जीवित करने के उपाय सुझाइए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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