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भारत में जल संरक्षण और उसमें सामाजिक समुदायों की भूमिका

Lokesh Pal March 27, 2025 05:30 33 0

संदर्भ:

22 मार्च को विश्व जल दिवस पर, प्रधानमंत्री मोदी ने वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए जल संरक्षण की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया।

मुख्य बिंदु 

  • जल शक्ति अभियान: हाल ही में 22 मार्च को जल शक्ति मंत्रालय ने “जल शक्ति अभियान: कैच द रेन-2025” का शुभारंभ किया।
    • यह पहल भारत के बढ़ते जल संकट से निपटने की रणनीति के केंद्रीय घटक के रूप में जल संरक्षण में सामुदायिक भागीदारी पर प्रकाश डालती है।

जल नीतियों में सामुदायिक भागीदारी

  • सामुदायिक भागीदारी: मौजूदा जल नीतियाँ मुख्य रूप से जल संसाधनों के प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी की अनुमति देती हैं, लेकिन निर्णय प्रक्रियाओं में नहीं।
    • उदाहरण के लिए: जल उपयोगकर्ता संघ (WUA) वैधानिक निकाय है, जहाँ किसान सिंचाई प्रणालियों का प्रबंधन करते हैं, जबकि वे सिंचाई का प्रबंधन करते हैं, निर्णय लेने की शक्ति राज्य अधिकारियों के पास निहित रहती है।
  • निर्णय क्षमता: नीतियों को समुदायों को जल प्रबंधन के बारे में निर्णय लेने में भूमिका प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके पास उन प्रक्रियाओं पर अधिकार हो जो उन्हें सीधे प्रभावित करती हैं।
  • पारंपरिक प्रथाओं की स्वीकृति: पारंपरिक जल संरक्षण तकनीकें, जिन्हें प्रायः पीढ़ियों से बेहतर किया जाता रहा है, को मान्यता दी जानी चाहिए और आधुनिक जल प्रबंधन रणनीतियों में एकीकृत किया जाना चाहिए।

जल प्रबंधन में कमज़ोर समुदायों के लिए चुनौतियाँ

  • दलित और आदिवासी समुदाय: इन समुदायों को प्रायः जल की अधिक कमी का सामना करना पड़ता है, खासकर ग्रामीण और दूर-दराज के इलाकों में जहाँ स्वच्छ पानी की पहुँच सीमित है।
  • छोटे किसान: छोटे पैमाने के किसान भूजल की कमी और अनियमित वर्षा से अत्यधिक प्रभावित होते हैं, जिससे उनकी कृषि आजीविका को खतरा होता है।
  • महिलाएँ: महिलाओं को आमतौर पर दूर और अविश्वसनीय स्रोतों से पानी लाने का बोझ उठाना पड़ता है, जिससे शारीरिक तनाव और समय की कमी बढ़ जाती है।
    • जल नीतियों को इन कमज़ोर समुदायों की अनूठी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए निर्मित  किया जाना चाहिए, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि उन्हें जल संकट से निपटने के लिए जल और अन्य संसाधनों तक समान पहुँच प्राप्त हो।
  • विखंडित जल प्रबंधन: भारत में जल, वन, भूमि और जैव विविधता को अलग-अलग सरकारी निकायों द्वारा भिन्न-भिन्न ढंग से विनियमित किया जाता है, जिससे जल प्रबंधन में अक्षमता और विखंडित दृष्टिकोण उत्पन्न  होते हैं। उदाहरण:
    • वन विभाग वनों का प्रबंधन करता है तथा सिंचाई विभाग जल वितरण को नियंत्रित करता है। 
    • कृषि विभाग खेती की गतिविधियों की देखरेख करता है। 
    • इस विभाजन के कारण प्रयासों में बिखराव होता है, जहाँ जल संरक्षण प्रभावी रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र के घटकों पर समग्र रूप से विचार नहीं किया जाता है।
  • एकीकृत दृष्टिकोण: नीतियों को एकीकृत जल प्रबंधन दृष्टिकोण की ओर बढ़ना चाहिए, जो सभी पारिस्थितिक घटकों (जैसे- जल, भूमि, वन और जैव विविधता) को एक साथ ध्यान में रखता हो।
  • राजस्थान से उदाहरण: ओरण पवित्र वन हैं, जिन्हें राजस्थान में स्थानीय समुदायों द्वारा धार्मिक और संरक्षण दोनों उद्देश्यों के लिए बनाए रखा जाता है।
    • जल संरक्षण में ओरण की भूमिका: ओरण प्राकृतिक जलग्रहण क्षेत्र के रूप में कार्य करते हैं। इन वनों में पेड़ों और घास की मौजूदगी वर्षा जल को बनाए रखने में मदद करती है।
    • ओरण का पारिस्थितिकी तंत्र सतही अपवाह को रोकता है, जो न केवल जल संरक्षण में सहायक है, बल्कि स्थानीय जैव विविधता को भी लाभ पहुँचाता है।

जलवायु परिवर्तन और जल संकट

  • अप्रत्याशित वर्षा प्रतिरूप: जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में महत्त्वपूर्ण परिवर्तनशीलता आ रही है, जिससे भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जल की उपलब्धता अप्रत्याशित हो रही है।
  • पिघलते ग्लेशियर: हिमालय में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे नदियों के प्रवाह प्रतिरूप में परिवर्तन आ रहा है, जो परंपरागत रूप से स्थिर जल आपूर्ति के लिए बर्फ के पिघलने पर निर्भर थे।
  • सूखे और बाढ़ की आवृत्ति: जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे और बाढ़ दोनों की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिससे भारत की जल प्रबंधन प्रणालियों और कृषि चक्रों पर भारी दबाव पड़ रहा है।

आगे की राह 

  • पर्यावरणीय आवश्यकताओं पर ध्यान दें: जल नीतियाँ प्रायः केवल मानवीय आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करती हैं तथा पारिस्थितिकी तंत्र की पर्यावरणीय आवश्यकताओं की उपेक्षा करती हैं।
    • उदाहरण: पश्चिमी भारत में, कुछ समुदाय जल प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण का पालन करते हैं, सिंचाई उद्देश्यों के लिए जल आवंटित करने से पहले पशुओं के लिए पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करते हैं।
  • कानूनी मान्यता: न्यायपालिका ने ‘प्रकृति के अधिकारों’ को तेजी से बढ़ावा दिया है, यह स्वीकार करते हुए कि पारिस्थितिकी तंत्र और गैर-मानव संस्थाओं के पास संरक्षित होने के अंतर्निहित अधिकार हैं।
  • पर्यावरणीय आवश्यकताओं को शामिल करें: मानवीय मांगों के साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र की आवश्यकताओं पर विचार करने के लिए जल नीतियों को संशोधित किया जाना चाहिए।
  • जलवायु-लचीली जल प्रणालियाँ विकसित करें: वर्षा और अप्रत्याशित जल प्रवाह में बढ़ती परिवर्तनशीलता को संभालने के लिए जल प्रणालियों को अनुकूलित किया जाना चाहिए।
    • इसमें जलवायु-लचीले बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना शामिल है, जो सूखे और बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाओं का सामना कर सके।

निष्कर्ष

नीतियों को मात्र कागजों से हटकर समुदायों को सक्रिय रूप से शामिल करके वास्तविक कार्रवाई की ओर ले जाना चाहिए। पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय भागीदारी सतत जल प्रबंधन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। जल संरक्षण एक सामूहिक उत्तरदायित्व है, जिसमें सरकार, समाज और व्यक्ति शामिल हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के लिए जल के मूल्य को पहचानने वाला एक समग्र दृष्टिकोण भी आवश्यक है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न 

भारत में जल सुरक्षा के लिए समुदाय द्वारा संचालित जल संरक्षण महत्त्वपूर्ण है। जल प्रबंधन में जलवायु भेद्यता और सामाजिक असमानताओं को संबोधित करते हुए स्वदेशी पारिस्थितिक ज्ञान को औपचारिक शासन संरचनाओं के साथ एकीकृत करने में चुनौतियों की जाँच कीजिए तथा प्रभावी एकीकरण के लिए एक व्यापक रूपरेखा भी सुझाइए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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