प्रश्न की मुख्य माँग
- भारत में सामाजिक पूँजी पर तीव्र शहरीकरण का सकारात्मक प्रभाव।
- भारत में सामाजिक पूँजी पर तीव्र शहरीकरण का नकारात्मक प्रभाव।
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उत्तर
भारत में शहरीकरण आर्थिक गतिशीलता और बेहतर सेवाओं का एक प्रमुख प्रेरक बनकर उभरा है। फिर भी, इसने पारंपरिक सामाजिक बंधनों को खंडित किया है, अकेलेपन की प्रवृत्ति को जन्म दिया है और सामूहिक विश्वास को कमजोर किया है। इसके सामाजिक पूँजी पर प्रभाव का विश्लेषण यह दर्शाता है कि जहाँ एक ओर भौतिक लाभ प्राप्त हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सामुदायिक एकता और सामाजिक सामंजस्य को बनाए रखने की गंभीर चुनौतियाँ सामने आ रही हैं।
भारत में सामाजिक पूँजी पर तीव्र शहरीकरण का सकारात्मक प्रभाव
- शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक बेहतर पहुँच: शहरीकरण से विद्यालयों, महाविद्यालयों और अस्पतालों तक पहुँच सुलभ होती है, जिससे मानव पूँजी मजबूत होती है और साझा सार्वजनिक स्थलों के माध्यम से आपसी विश्वास बढ़ता है।
- उदाहरण के लिए: दिल्ली और बेंगलुरु के शहरी केंद्रों में AIIMS और IISc जैसी शीर्ष संस्थाएँ मौजूद हैं, जो बौद्धिक तथा पेशेवर संवाद के प्रमुख केंद्र के रूप में कार्य करती हैं।
- जीवंत सांस्कृतिक और बौद्धिक स्थल: शहर सांस्कृतिक केंद्रों, नाट्यशालाओं, पुस्तकालयों और कला–गृहों (art hubs) को पोषित करते हैं, जिससे सामाजिक जीवन समृद्ध होता है और साझा अनुभवों के माध्यम से लोगों में गहरे संबंध बनते हैं।
- उदाहरण के लिए: कोलकाता का ललित कला अकादमी और दिल्ली का इंडिया हैबिटेट सेंटर विविध समुदायों के मिलन स्थल के रूप में कार्य करते हैं और रचनात्मक सामाजिक पूँजी को बढ़ावा देते हैं।
- व्यापक व्यावसायिक नेटवर्किंग के अवसर: शहरी क्षेत्रों में उद्योगों और स्टार्ट–अप्स का आकर्षण होता है, जहाँ कार्यस्थल पर होने वाले संवाद और सहयोग पारिवारिक बंधनों से आगे निकलकर सामाजिक पूँजी का विस्तार करते हैं।
- उदाहरण के लिए: बेंगलुरु के IT हब और स्टार्ट-अप परिवेश ने वैश्विक और स्थानीय प्रतिभाओं को जोड़ने वाले सहयोगी समुदायों का निर्माण किया है।
- नागरिक सक्रियता और सामूहिक लामबंदी: शहरी परिवेश में नागरिकों द्वारा संचालित आंदोलनों का उदय होता है, जैसे अधिकारों की रक्षा, पर्यावरण संरक्षण और सामुदायिक कल्याण, जिससे संगठित जीवन मजबूत होता है।
- उदाहरण के लिए: गुरुग्राम में रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (RWA) ने जलभराव और कचरा प्रबंधन के विरुद्ध अभियान चलाकर यह दिखाया कि शहर सामूहिक समस्या–समाधान की क्षमता रखते हैं।
- विविधता के प्रति व्यापक अनावरण: शहरीकरण भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक समूहों के बीच अंतःक्रियाओं को बढ़ावा देता है, जिससे सहिष्णुता विकसित होती है और बहुलतावादी परिवेश में सामाजिक विश्वास मज़बूत होता है।
भारत में शहरीकरण मानव और सांस्कृतिक नेटवर्क को मजबूत करता है लेकिन साथ ही अलगाव को भी बढ़ावा देता है जिससे सामाजिक पूँजी पर इसका प्रभाव समृद्ध और विखंडित दोनों होता है।
भारत में सामाजिक पूँजी पर तीव्र शहरीकरण का नकारात्मक प्रभाव
- गेटेड समुदायों के माध्यम से विखंडन: शहरी जीवन ने अलग–थलग और सुरक्षित परिसरों को बढ़ावा दिया है, जहाँ अनौपचारिक रिश्ते (Informal Ties) कमजोर होते हैं और “दूसरे” के प्रति शंका–संदेह उत्पन्न करता है, जिससे व्यापक समाज में आपसी विश्वास घटता है।
- बढ़ता अकेलापन और आत्मीयता का ह्वास: भौतिक निकटता के बावजूद, शहरी निवासी अक्सर सामाजिक अलगाव और कमजोर सामुदायिक बंधनों का अनुभव करते हैं, जिससे अकेलापन सामान्यीकृत हो गया है।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2021 के एक अध्ययन में पाया गया कि 40% से अधिक शहरी भारतीय अकेलापन महसूस करते हैं, जो विश्वास की कमी और पारस्परिक मित्रता के टूटने को दर्शाता है।
- प्रौद्योगिकी जनित अलगाव: स्मार्टफोन और सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग प्रत्यक्ष मानवीय संवाद को घटा देता है, जिससे उनके बीच का विश्वास और आत्मीयता कमजोर होती है।
- उदाहरण के लिए: दिल्ली जैसे महानगरों में, यात्री कम ही बातचीत करते हैं, बल्कि डिजिटल स्क्रीन में खोए रहते हैं, जो जॉर्ज सिमेल के “लोनली क्राउड” (Lonely Crowd) के सिद्धांत को दर्शाता है ।
- रोजमर्रा के संघर्ष और तनाव: शहरी भीड़भाड़ और संसाधनों की कमी क्रोध, विवाद और मानसिक तनाव को जन्म देती है, जिससे सहयोगात्मक भावना और सामाजिक सौहार्द्र कमजोर हो जाता है।
- उदाहरण के लिये: दिल्ली की 20.7 लाख कारों के कारण पार्किंग विवाद अक्सर हिंसक झगड़ों और गोलीबारी तक पहुँच जाते हैं।
- सार्वजनिक स्थलों और पैदल यात्री संस्कृति का ह्रास: फुटपाथों पर वाहनों और रेहड़ी–पटरी वालों के कब्जे ने खुले संवाद और मिलन स्थलों को सीमित कर दिया है, जबकि यही साझा नागरिक स्थल (Shared Civic Spaces) सामुदायिक विश्वास निर्माण के लिए आवश्यक हैं।
- उदाहरण के लिए: भारत में सड़क हादसों में लगभग 20% मौतें पैदल यात्रियों की होती हैं, जो यह दर्शाती हैं कि शहरी अवसंरचना की उपेक्षा ने सार्वजनिक स्थलों से जुड़ी सामाजिक पूँजी को कमजोर कर दिया है।
भारतीय शहरों में सामाजिक पूँजी को सुदृढ़ बनाने के लिए समावेशी सार्वजनिक स्थल का विकास, सामुदायिक पर्व–त्योहारों का उत्सव, सशक्त रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन्स (RWAs) तथा किफायती आवास योजनाओं को बढ़ावा देना आवश्यक है। यदि इन पहलों को शहरी नियोजन की मुख्यधारा में समाहित किया जाए, तो यह आर्थिक विकास और सामाजिक एकजुटता के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है। इससे शहर केवल समृद्धि के केन्द्र ही नहीं, बल्कि विश्वास, सहयोग और सामूहिक कल्याण को पोषित करने वाले जीवंत समुदायों के रूप में विकसित होंगे।
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